ऑर्केस्ट्रा

हाथ की सभी अंगुलियाँ हाथ को समान शक्ति देती है फिर भी दुनिया शायद ठीक कहती है कि हाथ की सभी अंगुलियाँ बराबर नहीं होती। भानुप्रकाश व्यास वैसे तो अपनी तीनों सन्तानों से बहुत प्यार करते थे परन्तु अपने पुत्र प्रवीण से उन्हें विशेष स्नेह था। प्रवीण तीनों सन्तानों में सबसे छोटा था, उससे बड़ी बहन प्रेरणा दो वर्ष एवं सबसे बड़ी प्रियंका प्रवीण से चार वर्ष बड़ी थी। अपनी सबसे छोटी सन्तान को माँ-बाप अधिक ही प्यार करते हैं, यह प्रकृति का एक अबूझ रहस्य है फिर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पुत्र पिता का प्रतिबिंब होता है, वंश वाहक होता है। दुनिया के ज्ञानी-मानी चाहे कितनी बातें गढ़ ले कि लड़के-लड़की बराबर होते हैं, फिर भी सभी जानते हैं सच्चाई क्या है।

प्रवीण शक्ल-सूरत से भी अपने पिता की प्रतिकृति लगता था। एक बार स्कूल भेजने के लिए तैयार करके उसकी माँ रमा जब उसे कमरे से बाहर लाई तो भानुप्रकाश को लगा जैसे उनका बचपन लौट आया हो। आज वह हूबहू उनके बचपन की तस्वीर से मिल रहा था। वही रूप रंग, नैन-नक्श, वही नैसर्गिक भोलापन। वही बाल-सहज अबोधता, चपलता, जैसे कोई मृग-शावक सारे जंगल को नाप लेना चाहता हो। शैशव कितनी असीम संभावनाओं से भरा होता है। कितना स्वप्निल, कितना मधुर जैसे कोई मुट्ठी में आसमान कैद कर लेना चाहता हो।

भानुप्रकाश पितृस्नेह से आप्लावित हो उठे । प्रफुल्लित मुख एवं स्नेह भरी आँखों से पत्नी की ओर देखकर बोले, “देखो रमा! इसकी शक्ल मेरे बचपन की तस्वीर से कितनी मिलती है!’’ कहते-कहते उनका मुख मण्डल गौरव भाव से प्रदीप्त हो उठा।

“अक्ल भी सारी आप पर गई है। जिद्दी भी आप जैसा है। कितना ही समझा लो, पर जिद मनवा कर रहता है। घोड़े की तरह अड़ जाता है। दूध नहीं पीना तो नहीं पीना, यह ड्रेस पहनूंगा तो यही पहनूंगा, खेलूंगा तो खेलूंगा ही। आप ही ने इसे सर चढ़ा रखा है। पढ़ाई में जरा भी ध्यान नहीं देता,’’ रमा तुनककर बोली। भानुप्रकाश का नशा और चढ़ गया। पुत्र के पास आकर उसके कन्धे पर हाथ रखा एवं रमा की ओर देखकर बोले, “अरे भाग्यवान! शेरों के बच्चे शेर ही होते हैं। जिद्दी ही सही, एक दिन तेरे बुढ़ापे की लाठी यही बनेगा।’’ कहते-कहते भानुप्रकाश की छाती फूल गई।

तब भानुप्रकाश की उम्र तकरीबन पैंतालीस वर्ष थी । सर पर यहाँ-वहाँ झाँकते सफेद बाल, लम्बा-पतला शरीर, गहरी दार्शनिक आँखों के ऊपर गोल्डन फ्रेम का चश्मा, गोरा रंग, तीखा नाक एवं यौवन को विदाकर बुढ़ापे का स्वागत करती हल्की झुर्रिया उन्हें उम्र से कुछ अधिक होने का आभास देती थी। प्रारम्भ से ही रेलवे में नौकर थे। पहले लम्बे समय बाबू थे, बाद में परचेज सेक्शन में हेडक्लर्क बने। महकमे में सभी की अच्छी आमद थी। कर्मचारियों की चांदी थी। सारा महकमा ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट था। ठेकेदार नोट लिए कर्मचारियों के आगे-पीछे चक्कर लगाते लेकिन मजाल व्यासजी को कोई कुछ भी देने की हिम्मत करे। उनकी चारित्रिक दृढ़ता एवं ईमानदारी से ऊपर से नीचे तक सभी डरते थे। सभी व्यासजी से आँख बचाकर ही रकम डकारते। व्यासजी पुराने चावल थे, सभी को रग-रग से जानते थे, पर विभाग में अशांति न हो अतः चुप ही रहते थे। इनके पाप ये भरेंगे। अपने गहरे अनुभव से उन्होंने समझ लिया था कि रिश्वतखोर कभी सुखी नहीं होेते । कालान्तर में कोई रोग पकड़ लेता है, किसी का बच्चा बीमार हो जाता है, किसी की बीवी बिगड़ जाती है । हराम का पैसा हराम में ही जाता है। जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी उन्होंने बेईमानी से समझौता नहीं किया। ईमान का ये बीज जो उन्होंने जवानी में बोया, आगे रंगत लाया। कर्म की कसौटी पर खरा उतरने वाला व्यक्ति उसकी कृपा से कैसे महरूम हो सकता है ? कर्मठ किसान गेहूँ के कुछ दाने बोता है और लहलहाती फसल पाता है।

अब उनके रिटायर होने में दो वर्ष शेष थे। प्रेरणा ने पिछले वर्ष ही एमबीबीएस किया एवं उसकी शादी वर्षांत पूर्व उसी के सहपाठी डाॅ. विमल से हो गई। व्यासजी को घर बैठे गंगा मिल गई। यही नहीं लड़के के पिता कट्टर आर्यसमाजी थे, उन्होंने दहेज लेने से साफ इनकार कर दिया। प्रियंका के पड़ोस में ही रहने वाले कैप्टन धीरेन्द्र के लड़के से कई वर्षों से गुप्त इश्क़ चल रहा था। इसी वर्ष दोनों के माँ-बाप को उनकी कारगुजारियों का पता चला। आनन-फानन में दोनों की शादी हुई। शादी के एक माह बाद दामाद बैंक ऑफिसर की परीक्षा में सलेक्ट हो गया। प्रियंका स्वयं भी एमए गोल्डमेडलिस्ट थी। उसका भी प्राईवेट स्कूूल में चयन हो गया। अंधा क्या चाहे दो आँखें। व्यास दंपत्ति ने वर्षों से बोल रखी बद्रीनाथ यात्रा की। दोनों ने नारायण के चरणों में सिर टिका दिया। भानुप्रकाश एवं रमा दोनों की आँखों से अविरल अश्रु बह रहे थे जैसे ईश्वर से कह रहे हो, प्रभु! अब हम आपसे और क्या मांगे! ये यात्रा तो सिर्फ आभार प्रगट करने की है। अब प्रवीण को भी आप ही मार्ग बताएं।

यात्रा से वापस लौटकर व्यासजी ने एक भव्य रात्रि भोज का आयेाजन किया । रेलवे स्टेडियम के खुले मैदान में सर्वत्र चांदनी छिटकी हुई थी। इंस्ट्रूमेंटल म्युजिक की मधुर स्वरलहरियां इसे और सुखकर बना रही थी। व्यास दम्पत्ति के मुख मण्डल का उल्लास एवं हृदय की प्रसन्नता देखते बनती थी। आँखों में सुख हो तो कलेजे में ठण्डक आ ही जाती है। ऐसे समय में भी पार्टी न हो, उत्सव न हो तो फिर कब हो? हमारी उपलब्धियाँ कोई ड्राईफ्रुट्स नहीं है जिसका आनन्द बन्द कमरे में लिया जाय, जिसे देखकर जमाना जले उसे ही नहीं दिखायें तो फिर मजा कैसा? जंगल में मोर नाचा किसने देखा?

पार्टी में उम्मीद से अधिक लोग आए, बधाइयों का तांता लग गया।

रात्रिभोज के समय व्यासजी जब रमा, प्रवीण, अपनी बेटियों एवं दोनों दामादों के साथ खड़े थे तो उनके वर्षों पुराने मित्र छिब्बर साहब ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “भई भानुप्रकाश! तुम्हारा परिवार तो एक आर्केस्ट्रा है। नजर न लगे सभी में कितना अच्छा तालमेल एवं गहरी समझ है। जिस ’आर्केस्ट्रा का कंडक्टर आप जैसा समझदार आदमी हो वहाँ मधुर स्वरलहरियाँ ही गूंजेगी, वहाँ डिसहारमोनी आ ही नही सकती। हमेशा इसी तरह आबाद रहो। ईश्वर हर बला से महफूज रखे।’’ छिब्बर साहब ने सभी के बीच मुक्त कंठ से प्रशंसा की तो वे फूल की तरह खिल उठे। मुख पर घड़ों नशा छा गया। गर्वोन्मत व्यासजी ने मित्र को खींचकर बाहों में भर लिया। छाती में खुशी न समाती थी। एक गहरी सांस लेकर बोले, “छिब्बर ! यह तुम जैसे यारों की दुआओं का ही असर है।’’

लेकिन आगे कुछ और ही लिखा था। सारे सुख विधाता को भी रास नहीं आते। नशे में झूमता शराबी नशा उतरने की कल्पना भी नहीं कर सकता। शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी का चन्द्र तो पूर्णिमा की पूर्णता को छूना चाहता है, कृष्ण पक्ष की कल्पना भी उसके जेह्न में नहीं आती।

प्रवीण ने जैसे-तैसे बीए किया। मेरिट के हिसाब से क्लास के अंतिम चार-पाँच लड़कों में रहा होगा। उसका मन पढ़ाई में जरा भी नहीं लगता। दिन भर क्रिकेट खेलना, नये-नये कपड़े पहनना, परफ्यूम लगाना, सिनेमा देखना एवं मोटरसाईकिल पर इधर-उधर घूमना ही उसका शौक था। लड़कियों के पीछे तो वो तितलियों की तरह भागता। पढ़ाई में भले कमजोर था पर युवतियों पर मानो टोना कर देता। उसके शरीर सौष्ठव, पुरूषोचित रूप पर लड़कियाँ मरती थीं। मोहिनी आँखों से ऐसे देखता कि युवतियाँ उसके नाम की माला जपती। फूलों पर मंडराने वाला भँवरा फूलों के रस से कब तक बचेगा। उसका दिल उसी की एक सहपाठिन तस्नीम पर आ गया।

तस्नीम रूप-रंग , शील-विनय का खजाना थी। यही नहीं उसका व्यक्तित्व भी आत्म गौरव से परिपूर्ण था। अन्य युवतियों की तरह उसने प्रवीण को कभी अपने पर हावी नहीं होने दिया। वह हमेशा उससे एक दूरी रखती। एक ऐसा खिंचाव जिसमें पुरूष यंत्रचालित-सा चला आता है। वस्तुओं की तरह मनुष्य का मूल्य भी मांग और पूर्ति के आधारभूत सिद्धान्तों से बनता है। अगर अपना मूल्य घटाना है तो पूर्ति बढ़ा दीजिए, अगर बढ़ाना है तो पूर्ति कम कर दीजिए। उसका अहंकार प्रवीण के पौरूष को चुनौती देता। इंसान का व्यक्तित्व विरोधाभासी होता है, जो चीज उसके हाथ नहीं आती वह उसकी ओर ज्यादा लपकता है। प्रवीण ज्यूं-ज्यूं उसके नजदीक आता, वह दूरी बढ़ा देती। प्रवीण मृगमरीचिका की तरह उसके पीछे पड़ता। अंत में जब तस्नीम ने समझ लिया कि पंछी दीवाना है तो उसने प्रणय-जाल डाल ही दिया। तस्नीम विवेकशील, बुद्धिमान पर अत्यन्त निर्धन घर से थी। पिता बचपन में ही गुजर गये थे। यहीं शहर के सरकारी अस्पताल में चपरासी थे। माता एवं उसका गुजर सारी उम्र पेंशन पर जैसे-तैसे हुआ।

तस्नीम भी मन ही मन प्रवीण से बहुत प्रेम करती थी। प्रेम को पाने के सबके अपने-अपने तरीके है। तस्नीम के संयम एवं बुद्धि-कौशल ने उसके प्रेम को विजय द्वार पर ला खड़ा किया। तस्नीम मुस्लिम परिवार से एवं प्रवीण पुरोहित ब्राह्मणों के खानदान से था। पुरोहितों के घर में तो दूसरे सम्प्रदाय वालों का प्रवेश तक वर्जित है । लेकिन समस्त वर्जनाओं को नकराने की शक्ति भी तो प्रेम में ही है। दोनों ने विवाह करना तय कर लिया एवं दो प्रेम योद्धाओं की तरह मोर्चा लेने मैदान में आ खड़े हुए।

दोनों ने अपने अपने परिवार से इस बारे में सम्मति मांगी। तस्नीम की अम्मा एक बार तो सर से पैर तक काँप गई जैसे कोई कुफ्र गिर पड़ा हो। पल भर के लिए शरीर सुन्न हो गया। बाद में जब तस्नीम ने समझाया कि वे इस प्रणय यात्रा में बहुत दूर निकल चुके हैं तो वह मन मार कर बोली, “बेटी आगे-पीछे सब सोच लो ! हम गरीब लोग है, बिरादरी में ऐसा बवाल मचेगा कि जीना दुश्वार हो जायेगा।’’

“हम कोई पाप तो नहीं कर रहे अम्मी! अब जमाना बदल गया है। बड़े-बड़े कितने ही घरानों में ऐसी शादियाँ हो रही हैं। वहाँ कोई कुछ नहीं कहता। हमारा स्नेह संप्रदाय के सारे अवरोधों को हटाने की हिम्मत रखता है। खुदा के लिए इजाजत दे दो अम्मी! अन्यथा मरने के सिवा मेरे पास कोई विकल्प नहीं रह जाएगा।’’ कहते कहते तस्नीम फूट-फूट कर रो पड़ी। हार कर भारी मन से उसकी अम्मी ने हाँ कह दिया।

असली लड़ाई तो प्रवीण को लड़नी थी। एक परम्परागत पुरोहित ब्राह्मण का मुस्लिम युवती से विवाह ? जैसे कोई नींव के नीचे की मिट्टी उखाड़ फैंकना चाहता हो। वो नींव जो नफरत, वैमनस्य की मिट्टी से बनी थी। सदियों की धर्मांधता एवं कट्टरपन ने जिन्हें चट्टान-सा कठोर बना दिया था। प्रेम की कुदाली से आज कोई उन्हें ढहा देना चाहता था। यह एक अद्भुत नवीन प्रयोग था। एक सीधी बगावत।

प्रवीण ने पिता को अपना विचार बताया तो जैसे उन पर गाज गिरी। ऊपर की सांस ऊपर एवं नीचे की नीचे रह गई। क्षण भर के लिये भानुप्रकाश जड़ हो गए, रमा सहमकर मूर्ति-सी खड़ी हो गई। जैसे किसी निर्दयी लकड़हारे ने एक विशाल वृक्ष की जड़ों पर अपनी तेज कुल्हाड़ी से वार किया हो। प्रवीण उनकी आशाओं का केन्द्र बिन्दु था। अभिलाषाओं का विशाल महल शेखचिल्ली के मंसूबों की तरह ढह गया। कोई अंधे से उसकी लकड़ी छीन ले, यही हाल व्यासजी का था। काटो तो खून नहीं। रोमछिद्रों से प्राण उड़ने लगे। टुकडे़ दे दे बछड़ा पाला, सींग लगे तो मारन चाला। उनके रोम-रोम से ज्वाला निकलने लगी। गरजकर बोले, “क्या पागल हो गया है ? तुमने सोच भी कैसे लिया कि मैं सहमति दे दूँगा? क्या बादलों में भी घोंसला बना है ? असंभव संभव नहीं हो सकता। सदियों की मर्यादाओं में बट्टा नहीं लग सकता। हमारे पितर भ्रष्ट होकर गिर जाएंगे।’’ भानुप्रकाश नाग की तरह फुफकार रहे थे।

“पर प्रेम तो मैंने संप्रदाय देखकर नहीं किया पापा! ब्राह्मण वही है जो ब्रह्म के स्वरूप को पहचाने। अगर सभी इंसान ब्रह्मा की रचना है तो फिर संप्रदायों के आधार पर यह मानवी विभाजन कैसा ? प्रेम ब्रह्म रूप है, नदी के दो किनारों को जोड़ने वाला सेतु है। चाहे आसमान गिर जाए, मैं तस्नीम को धोखा देने की बात सोच भी नहीं सकता। आपसे इजाजत मांगने इसलिए आया हूँ कि कल आप यह न कह दे कि मैंने आपके आदर एवं अहसानों को लजाया है अन्यथा आप अनुमति न दे तो भी जो होना है होकर रहेगा। जिसे विधाता ने रच दिया है वह टल नहीं सकता।’’ प्रवीण ने दो टूक शब्दों में सारी बात साफ-साफ व्यासजी को कह दी।

व्यासजी के माथे पर सलवटें उभर आई। रमा लज्जा़ तथा दुःख से सर झुकाये खड़ी थी मानो मनो बोझ सर पर आन पड़ा हो। व्यासजी घुटे हुए अनुभवी व्यक्ति थे। सोचा तवा गरम है उन्होंने अपने आपको संयत किया। अब उन्होंने विवेक का सहारा लिया। ठण्डा लोहा गरम लोहे को काटता है। धैर्य एवं कूटनीति उनकी अनुभवी आँखों में उतर आई। बेटे के सिर पर स्नेह से हाथ रखकर बोले, “बेटे! मैंने दुनिया देखी है। प्रवाह के विरूद्ध नाव खेने में तुम चरमरा जाओगे। समाज एवं सामाजिक नियम जीवन के आधार है। आधारहीन जीवन अभिशाप हो जाता है।’’

कुछ रूककर उन्होंने एक बार फिर ठण्डे दिमाग से समझाने की कोशिश की, “तुम भावावेश में अपने सर्वनाश को न्यौता दे रहे हो। दिस इज नथिंग बट इनफेचुएशन। क्षण भर का यह नशा तुम्हारे सारे जीवन की शांति को लील लेगा।’’ यह कहकर व्यासजी ने उसे स्नेह एवं करूण नैत्रों से यूँ देखा जैसे अपने स्नेह एवं लालन-पालन का मूल्य मांग रहे हों।

“मैं बहुत आगे बढ़ चुका हूँ पापा! मैं उससे विवाह का कौल कर चुका हूँ। अब मेरे कदम पीछे नहीं हट सकते। मैं अपने कौल से नहीं मुकर सकता। अपने रूह और ईमान का खून नहीं कर सकता।’’ व्यासजी के यक्ष प्रश्नों का प्रवीण युधिष्ठिरी उत्तर दिये जा रहा था। अब उनसे भी न रहा गया। सारा धैर्य काफूर हो गया। एक गरजने लगा, एक बरसने लगा। हार कर उन्होंने रमा को इशारा किया। रमा ने भी हर तरह से समझाया। बहनों की, परिवार की, इज्जत की दुहाई दी पर यह प्रेम-भट टस से मस न हुआ। माँ-बाप का रूख देखकर चुपचाप वहां से चलता बना।

आँधी के वेग को कौन रोक सका है ? प्रवीण ने तस्नीम को अपने माँ-बाप की राय बताई । दोनों की कुशाग्र बुद्धि ने समझ लिया कि यहाँ दाल नहीं गलने वाली है। दूसरे ही दिन दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली एवं घर आशीर्वाद लेने आए। व्यास दम्पत्ति ने दोनों को देखकर मुँह फेर लिया। भानु प्रकाश दोनों को देखकर ऐसे घूर रहे थे जैसे कोई उनके मुख पर कालिमा लगाने आया हो। वह ऑर्केस्ट्रा जहाँ प्रेम की बांसुरी, स्नेह की सरगम एवं सहयोग के स्वर उठते थे, सभी एक दूसरे पर जान देने को तैयार थे, जो एक धुन में गाते थे, आज एक दूसरे को देखने तक को तैयार न थे। दोनों बिरादरियों में मुखरित होते विरोध के स्वर मानो जले पर नमक छिड़क रहे थे।

प्रवीण की बहनें पढ़ी-लिखी थी। उसने सोचा शायद इस विपति में उनसे मदद मिले, पर दोनों ने निगाहैं फेर ली। गेंद की तरह माँ-बाप की तरफ लुढ़क गई। ऐसी चुप्पी साधी जैसे मुंह में दही जमा हो। प्रवीण ने यहाँ से भी किनारा किया।

हताश दोनों नवविवाहितों ने शहर छोड़ दिया। वे जयपुर से भोपाल आ गए। कुछ रोज धर्मशाला में बिताए। प्रेम में जीवन है, स्फूर्ति है। यौवन मद में डूबे प्रेमियों को क्या मथुरा क्या काशी! क्या महल क्या झोंपडी! मस्ती महलों की मोहताज नहीं होती, उसके लिए तो सिर्फ प्रेम भरे हृदय चाहिए।

भोपाल में प्रवीण की मुलाकात उसके एक पुराने साथी विनय से हुई। विनय उसका स्कूल से काॅलेज तक सहपाठी था। यहीं बैंक में काम करता था। अब तक कुँवारा था। अकेला ही यहां एक फ्लैट में रहता था। प्रवीण ने उसे अपनी आपबीती सुनाई। विपत्ति में जो सौ गुना नेह करे वही सच्चा मित्र है। विनय दोनों को अपने घर लाया। एक कुँवारे के स्वप्नों की तरह घर हर तरफ बिखरा था। घर की ऐसी हालत थी जैसे कोई पक्षी घोंसलें में रहता हो। तस्नीम ने घर की व्यवस्था संभाली। कुछ ही दिनों में वे घर के सदस्य हो गये। घर अब घर लगने लगा।

विनय ने ’युवा रोजगार योजना’ के तहत प्रवीण को बैंक से दो लाख का ऋण दिलवाया। इन्हीं रूपयों से उसने एक अनुभवी मैकेनिक को साथ लेकर स्कूटर मरम्मत का वर्कशाॅप प्रारंभ किया। प्रवीण के अनवरत श्रम ने वर्कशाॅप को चंद वर्षों में ही उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया। शीघ्र ही उसने बैक ऋण चुका दिया। ऋण चुकाने से बैंक में उसकी साख बनी। कुछ समय उपरांत उसने अपनी गाढ़ी बचत से मार्जिन रकम देकर गृह निर्माण ऋण लिया एवं दोनों एक छोटे से फ्लैट के मालिक बने। इन्हीं दिनों विनय का जयपुर स्थानान्तरण हुआ। उसे विदा देते वक्त दोनों का रोम-रोम उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहा था। उनके जीवन में वह एक फरिश्ता बनकर आया था। अब तस्नीम ने अपनी माँ को भी भोपाल बुला लिया था।

समय के साथ घाव भी भरने लगते हैं। हर घटना एक समय के बाद अपना अच्छा-बुरा प्रभाव छोड़ने लगती है। समुद्र के ज्वार की तरह भावनाओं का ज्वार भी वक्त के साथ धीमा पड़ने लगता है। संस्कारित कृतज्ञ पुत्र अपने माँ-बाप को कैसे भुला सकता है ? सिद्धान्तों की लड़ाई अपनी जगह है, कर्तव्य की पुकार अपनी जगह। कई बार स्वप्न में उसे लगता जैसे वो निर्जन जंगल में खो गया है। दूर खड़ी रमा दोनों हाथ फैलाये उसे पुकारती। वह माँ को लपकने को दौड़ता पर नींद खुल जाती। पिता के स्नेह एवं त्याग की स्मृतियाँ भी उसे पुकारती पर उसकी स्थिति उस यात्री की तरह थी जो अपने वतन एवं अपनों से मोहब्बत होते हुए भी मजबूरी में उन्हें छोड़कर विदेश आ बसा हो।

व्यासजी एवं रमा का भी कमोबेश यही हाल था। दोनों बूढ़े तोतों की तरह कुढ़ते रहते । टूटा मंदिर फिर बन जाता है पर फूटे करम कैसे जोड़े। व्यासजी अब दार्शनिक की तरह भावशून्य तकते रहते। घर भी अक्सर मौन रहते। एक बार उदास होकर रमा से बोले, “हमारे जीवन में अब क्या शेष रहा है! जीवन के सारे स्वप्न, हसरतें, यथार्थ की आँच में झुलस गए। इतना बडा दुःख भोगकर भी न जाने प्राण शरीर में क्यों फँसे हैं।’’ दोनो यूं ही सुलगते रहते। दोनों को रह-रहकर पुत्र की याद आती। कई बार विह्वल हो उठते, पर पिता पुत्र की जिद पाँव में बेड़ियाँ डाले हुए थी। दोनों की जिद लोहे के मोर्चे की भाँति दिन-दिन दृढ़ होती जाती थी। कई बार रमा ने व्यासजी से पुत्र एवं पुत्रवधू से मिलने का अनुरोध किया पर बूढ़ा टस से मस न हुआ बल्कि एक दो बार तो फटकार भी दिया, “ऐसे कपूत से तो औलाद न होती तो अच्छा था। सारे समाज में नाक कटवा दी। सारी जिन्दगी तन कर निकलता था, इस कपूत ने तो शर्म से सिर झुका दिया।’’

दोनों पुत्रियाँ एवं दामाद उन्हें सांत्वना देने आते। बस, ये ही अब उनके जीवन आधार थे। बीच में एक बार प्रवीण तीस रोज पीलिया से पीड़ित रहा, व्यासजी को खबर भी लगी पर वो उससे मिलने नहीं गए। उसके एक माह बाद उच्च रक्तचाप के कारण व्यासजी चक्कर खाकर गिर पड़े, सिर पर गहरी चोट लगी, दस रोज अस्पताल रहे। प्रवीण भी इस घटना से खबरदार था, पर पिता से मिलने नहीं गया।

रिश्तों में जैसे बर्फ जम गई। रमा दिन-ब-दिन सूखती गई। घर वीराना हो गया। प्रवीण चला गया, देह से आँखें चली गई। अनाज कटने के बाद खेतों की जो दशा होती है वही वीराना व्यासजी एवं रमा के जीवन में आ बसा था। जीवन प्लास्टिक के फूलों की तरह सुगंध-विहीन हो गया।

वक्त यूं ही बहता चला गया। व्यासजी को रिटायर हुए अब तीन वर्ष होने को आए। पुत्र स्नेह से उनका हृदय कई बार विकल हो उठता, पर वे कभी प्रवीण से मिलने नहीं गए।

प्रकृति में कौन-सी ऋतु स्थायी रहती है। ग्रीष्म की तपन को सावन की बरखा हर लेती है, फिर सर्दी की ठिठुरन, पतझड़ व बसन्त। सुख भी अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करता है। आज व्यासजी बाहर आराम कुर्सी पर बैठे थे। मार्च की फाल्गुनी हवाएँ उनके विकल मन को शीतलता दे रही थी। न चाहते हुए भी अतीत की यादें मन के आकाश पर पक्षी की भांति मंडराने लगी। प्रवीण को वह जितना भूलने का प्रयास करते वह और अधिक याद आता। अतीत की स्मृतियाँ सजग होती, लगता जैसे दूर क्रिकेट का बल्ला कंधे पर लिए धूल से सना प्रवीण भागा चला आ रहा है, पापा! इस बार हमारी टीम फिर जीत कर आई है। व्यासजी के रूके हुए आँसू उबल पडे। बुझी हुई आशाएँ फिर जाग उठी। बालहठ तो जगत प्रसिद्ध है, मैंने बूढ़ा होकर क्यों हठ पकड़ ली? आँखों में वात्सल्य के मोती भर आए। उनका विकल मन पुत्र मिलन की उत्कंठा से भर उठा।

फागुनी हवाएँ बसंत को निमंत्रण दे रही थी। बसंत अपनी झोली में नवकुसुमों की सुगंध लेकर आ पहुँचा था। प्रकृति सुगंध बाॅटती फिरती थी। गर्वोन्मत्त ऋतुराज पतझड़ को परास्त कर विजय नशे में झूमता नजर आता था। एकाएक फोन की घण्टी बजी। व्यासजी ने भीतर आकर फोन उठाया। भोपाल से तस्नीम की माँ उन्हें बधाई दे रही थी, “भानुप्रकाशजी! बधाई! आपके पोता हुआ है। ऐसा सुंदर, चंचल है कि बस नजर न लगे। अब आप बच्चों को क्षमा कर दीजिए। जो हो गया सो हो गया। एक बार मेरे कहने से आप भोपाल अपने पौत्र को देखने जरूर आएँ। ’’

भानुप्रकाश का हठ क्षणभर में पिघल गया। उन्हें वो क्षण याद आये जब प्रवीण हुआ था। अतीत आँखों के आगे घूमने लगा। कैसे वो प्रवीण को स्कूल छोड़कर आते थे। कैसे एक बार उसे निमोनिया हो गया तो उन्होंने दो रोज उपवास किया था। आँखें सजल हो उठी। एक बार फिर उनके विवेक ने उन्हें पुकारा, ’वृद्धावस्था समझौते का समय है, उन्माद एवं हठ का नहीं। पुराने वृक्ष न जाने कब उखड़ जाए।’ उन्होंने रमा को बुलाकर खुशखबरी सुनाई। रमा कुछ कहती उसके पहले ही वे बोले, “ हम आज शाम भोपाल चलेंगे।’’ रमा क्या कहती, ममता मानो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। उसके हृदय में आनंद की लहरें उठने लगी, बुझी आँखें मुस्कुरा उठी।

दूसरे दिन सुबह ही वे भोपाल पहुँच गए, स्टेशन से सीधे प्रवीण के फ्लैट पर आए। हृदय धक-धक कर रहा था पर पोते से मिलने का नशा उनमें एक नया जोश भर रहा था। धड़कते हृदय से उन्होंने बेल बजाई। दरवाजा प्रवीण ने ही खोला। माँ-बाप को सामने खड़ा देख हृदय में श्रद्धा का सागर उमड पड़ा । जैसे वर्षों आराधना एवं तपस्या करने पर किसी भक्त का देव वरदान देने दरवाजे पर आ खड़ा हुआ हो। दण्ड की तरह गिरकर वह माँ-बाप के चरणों से लिपट गया, “पापा! मुझे क्षमा कर दो। मम्मी, मुझे माफ कर दो।’’ बेसुध सा वह न जाने क्या-क्या कहे जा रहा था। व्यासजी ने उसे ऊपर उठाया एवं उसका माथा सूंघकर बोेले, “तुम्हारे प्रेम पर हमें गर्व है बेटा! तुम सचमुच युगपुरूष हो। आज मैं हारकर भी जीत गया।’’ अपने पोते को गोद में लेकर व्यास दम्पत्ति निहाल हो गए। विधाता ने नवों निधियाँ ब्याज सहित उनकी झोली में डाल दी। क्षमा, स्नेह एवं वात्सल्य की यह अलौकिक त्रिवेणी थी।

दो रोज बाद प्रेरणा एवं प्रियंका भी अपने पतियों के साथ प्रवीण के यहाँ आई। गद्गगद् हृदय से एक बार फिर सभी जी भर कर मिले। सारे गिले-शिकवे मिलन के आनन्द में विसर्जित हो गए।

स्नेह की स्वरलहरियाँ आज फिर गूंज रही थी। ऑर्केस्ट्रा आज फिर अपने उत्कर्ष पर बज रहा था।

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10.06.2002

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