मंझली भाभी सीमा हमारे परिवार की सबसे शक्तिशाली सदस्या थी , उसे कुछ भी कहने का साहस किसी में नहीं था। परिवार में उसका एक विःशेष स्थान एवं हैसियत थी, उसका आदेश हर कोई शिरोधार्य करता। मजाल कोई उसे नाराज कर दे। घर में उसके बैठने की एक विशेष चौकी थी। उसके खाने में मिठाई हर रोज परोसी जाती, बच्चे ललक कर देखते पर मंझली भाभी की थाली को कोई हाथ तक नहीं लगा सकता था। घर में सर्वप्रथम खाना तैयार होते ही उसे परोसा जाता, उसके खाने के बाद ही सभी अन्न ग्रहण करते। बड़े तो बड़े बच्चों तक को इस कठोर नियम का पालन करना पड़ता। जिसके बदन में ‘पितरजी’ का निवास हो, उसे नाराज करने की जुर्रत कौन कर सकता था? परिवार में जिसके दिन अच्छे चलते उन पर ‘पितरजी’ का आशीर्वाद माना जाता एवं जिसके दिन बुरे होते, वह पितरजी के कोप का शिकार होता।
कोई बारह वर्ष हुए, पतंग उड़ाते हुए सबसे बड़े भाईसाहब का पुत्र उमेश छत से गिर पड़ा था। हर संभव इलाज करवाया गया पर कोई फायदा नहीं हुआ। दिमाग में गहरे भीतर की चोट लगी थी, कुछ रोज में ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए। सारे घर पर यह एक कठोर वज्रपात था। माँ तो इस समाचार को सुनकर कई घंटे बेसुध रही, बाबूजी सकते में आ गए। महीनों सभी बुत की तरह नजर आते थे। नियति के क्रूर लेख के आगे सभी ने मस्तक झुका दिए।
उसके एक वर्ष बाद यही उमेश एक अमावस्या के रोज मंझली भाभी के शरीर में आया। मंझली भाभी की आँखें अंगारे उगल रही थी-मैं तुम्हारे घर का पितर हूँ, मुझे पूजा में स्थान दो, नहीं तो सम्पूर्ण शाह वंश को नष्ट कर दूंगा। तुरंत उसकी पूजा की गई, अम्मा बाबूजी ने दण्डवत् कर क्षमायाचना की। प्रसाद चढ़ाया गया फिर उसका पूजा में एक विशेष स्थान बनाया गया। तब से अमावस्या अथवा किसी उत्सव पर मंझली भाभी के बदन में पितरजी आते, सभी अपनी-अपनी समस्याओं का समाधान उन्हीं से लेते एवं उन्हीं के निर्देश पर कार्य करते। मंझली भाभी अब घर में देवीतुल्य थी। हर अमावस्या एवं उत्सव पर माँ एवं बाबूजी भी उसके पैरों में सर झुकाते। चमत्कार को नमस्कार है।
आज अम्मा एवं बाबूजी के शादी की पचासवीं वर्षगाँठ थी। इसी विशाल वटवृक्ष की छांव में हमारा परिवार पल्लवित हुआ था। सारे समाज में हमारे परिवार की धूम थी। लोग विस्मय से कहते थे, ऐसा परिवार तो आज के युग में दुर्लभ है। चार बेटे-बहू फिर उनके भी बच्चे, आज भी कैसे पुरानी हवेली में एक मुट्ठी में रहते हैं। बाबूजी के अनुशासन एवं अम्मा के स्नेह की शीतल छाँव में हमारा परिवार एक माला की तरह मनके-मनके गुँथा हुआ था।
मैं तीसरे नम्बर पर था। विमल मुझसे तीन वर्ष छोटा था। मैं, बड़े भाईसाहब वेणुगोपाल एवं मंझले हरिगोपाल सभी पिताजी के साथ ही पुश्तैनी अनाज के कारोबार में लगे थे। सभी ग्रेजुएट होकर धन्धे लग गए थे, शादियाँ भी फिर जल्दी हो गई। सिर्फ विमल ने ही पढ़ाई में बाजी मारी। वह प्रारम्भ से पढ़ाई में अव्वल था। पच्चीस का होते-होते उसने सीए किया, उसके छः माह बाद बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर पद पर उसका चयन हुआ । उसी के बैंक में कार्यरत एक महिला अधिकारी सुषमा से उसका प्रेम हो गया। पिछले महीने ही बाबूजी ने धूमधाम से उनका विवाह किया था। अब बाबूजी जिम्मेदारी मुक्त महसूस कर रहे थे एवं इन दिनों अम्मा-बाबूजी प्रफुिल्लत नजर आते थे।
सुषमा पढ़ाई में विमल से दो कदम आगे थी। वह भी सीए थी साथ ही लाॅ ग्रेजुएट भी। इस वर्ष आईपीएस में चयन हेतु प्रतिस्पर्धा परीक्षा की तैयारी कर रही थी, बैंक की नौकरी में उसका मन कम ही रमता था। वह असीम संभावनाओं से भरी नजर आती थी।
आज सुबह से ही घर में आनन्द एवं उत्साह का माहौल था। सभी अपने-अपने तरीके से अम्मा, बाबूजी के प्रति कृतज्ञता प्रगट करने के लिए तरह-तरह के उपहार लाए थे। रात भोजन के पूर्व एक छोटे-से कार्यक्रम का आयोजन किया गया, सभी ने माँ-बाबूजी को फूलों से लाद दिया। दोनों की आँखें सजल हो उठीं। कार्यक्रम की बागडोर इस बार विमल एवं सुषमा के हाथों में थी, दोनों ने वो समां बांधा कि माँ-बाबूजी तो क्या, सभी परिवार वाले दंग रह गए। अपने संक्षिप्त उद्बोधन में छोटी बहू सुषमा ने प्रशस्ति-पत्र पढ़कर माँ-बाबूजी के हाथों में दिया तो भावावेश में सबकी आँखें छलक आई।
रात्रिभोज के बाद अब पितरजी का आह्वान होना था। आज के उत्सव पर तो पितरजी को आना ही था। विमल एवं सुषमा की शादी के बाद उन्हें आशीर्वाद भी तो दिया जाना था। विमल ने सुषमा को पितरजी के प्रभाव के बारे में शादी के बाद ही बता दिया था पर सुषमा स्वतंत्र विचारों की निर्भीक , दबंग महिला थी। प्रेत-पितर एवं इन रूढ़ियों से उसे सख्त नफरत थी। उसकी नजरों में यह ‘हिस्टीरिया’ के अतिरिक्त कुछ न था। उसने मनोविज्ञान विषय का गहरा अध्ययन किया था, मानव मन के अबूझ पहलुओं का विश्लेषण इतना सटीक करती कि विमल भी कई बार आश्चर्यचकित रह जाता।
अब तक रात के ग्यारह बज चुके थे, संयोग से आज अमावस्या भी थी। हवेली एवं आस-पास के घरों में जलती लाईट्स को छोड़कर सर्वत्र अंधियारा नजर आता था।
सभी मंझली भाभी के चारों और एकत्र होकर बैठ गए। माँ-बाबूजी हाथ जोड़े पितरजी का आह्वान कर रहे थे। उनके आगे प्रसाद रखा था, दो चार नारियल भी रखे थे, चांदी के पात्र में पानी भरा था एवं अगरबत्ती स्टैण्ड में आठ-दस चंदन की अगरबत्तियाँ लग रही थी। बड़े-बच्चे मिलाकर घर में कोई बीस सदस्य मंझली भाभी को घेर कर बैठे थे।
यकायक मंझली भाभी का बदन कांपने लगा, होठ फड़फड़ाने लगे, चेहरा रक्तवर्ण हो गया एवं देखते – देखते नैत्र अंगारे उगलने लगे। साड़ी का पल्लू गिर गया, दाँत कंपकंपाने लगे। सभी भय मिश्रित श्रद्धा से भर गए। बच्चे बड़ों की गोदी में दुबकने लगे।
तभी मंझली भाभी की कमर में एक बिजली-सा झटका लगा। यह संकेत था कि पितरजी उसके शरीर में प्रविष्ट कर गए हैं। सभी ने एक-एक कर उनके पाँव में सर झुकाया। बाबूजी तेज आवाज में बोले-पितरजी महाराज की जय! अम्मा एवं बाबूजी ने पुनः पितरजी को लेटकर प्रणाम किया, फिर बैठकर मंझली भाभी के चरण पखारे।
सुषमा वहीं कोने में बैठी यह सारा माजरा देख रही थी। उसने विमल एवं सबके इशारा करने पर भी पितरजी को प्रणाम नहीं किया। विमल को काटो तो खून नहीं, स्थिति देखकर सभी चुप रहे। पितरजी ने आँखें तरेर कर सुषमा की ओर देखा लेकिन सुषमा निडर वहीं बैठी रही, टस से मस नहीं हुई। उसका दिमाग एवं निगाह का फैलाव तो मंझली भाभी के मन का कच्चा चिट्ठा बना रहा था।
थोड़ी देर में पितरजी के आगे प्रश्नों की बौछार होने लगी। सभी अपनी-अपनी समस्याओं का उत्तर उनसे पूछने लगे। पितरजी आँखें तरेर-तरेर कर सबको उत्तर दे रहे थे। माँ-बाबूजी ने परिवार के कुशलक्षेम के बारे में पूछा तो कहा, ‘‘राधागोपाल! तेरे परिवार के सारे काम मैंने करवा दिए हैं, अब तो विमल के भी बहू आ गई है। तू उसके ब्याह के लिए बात करने गया तब मैं तेरे साथ ही था, मजाल काम बिगड़ जाए।’’ अम्मा-बाबूजी ने श्रद्धातिरेक पुनः पितरजी के पांव पकड़ लिए। थोड़ी देर में पितरजी ने वापस जाने की इच्छा प्रगट की, बस अब चलते हैं। विमल एवं छोटी बहू को आज आशीर्वाद देकर चले जाएंगे। विमल तुरन्त आगे बढ़ा एवं सुषमा को आगे आने के लिए इशारा किया पर सुषमा अपनी बात पर दृढ़ थी, ‘‘मैं इन बातों में विश्वास नहीं करती एवं किसी भी हालत में इन रूढ़ियों के आगे नत-मस्तक नहीं होऊंगी। मैं ऐसी शख्सियत को प्रणाम नहीं करूंगी जो बहू होकर भी अम्मा एवं बाबूजी से चरण धुलाती है। यह मेरा देव नहीं हो सकता।’’ सुषमा की जिह्वा से मानो वीररस फूट रहा था।
सारा घर स्तब्ध रह गया। एक अजीब-सा सन्नाटा छा गया। मंझले भैया क्रोध में फूट पड़े। नैत्र लाल व भौहें टेढ़ी हो गई, ‘‘छोटी बहू! संभल कर बात करो? बद्तमीजी की भी हद होती है।’’ उन्हें भी आज अपना वर्चस्व जाता नजर आ रहा था। पितरजी की आड़ में उन्होंने भी अपने कई निजी स्वार्थ मंझली भाभी से पूरे करवाए थे।
सुषमा अब भी अचल एवं अडिग थी। उसने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘यह कोई पितरजी नहीं है। पितर और देव इस तरह नाटक करके डराया नहीं करते। बेहतर होगा मंझली भाभी का किसी मनोचिकित्सक से इलाज करवाया जाए।’’ उसने तीखी आँखों से पितरजी की ओर देखा एवं तेज गति से अपने कमरे में चली गई।
‘‘अब इस वंश में मेरा ऐसा अपमान? मैं इसे नष्ट करके ही रहूँगा।’’ देखते-ही-देखते मंझली भाभी के कमर में झटका लगा एवं वह पुनः पहले जैसी हो गई।
अब घर में महाभारत का श्रीगणेश था। सत्य, धर्म एवं साहस के रथ पर अकेली छोटी बहू सवार थी तथा रूढ़ियों एवं कुरीतियों की लगाम थामे पूरा परिवार दूसरे रथ पर उसके सामने था। सुषमा की स्थिति ऐसी थी जैसे दाँतों के बीच जीभ की होती है।
विमल चुपचाप अपने कमरे में चला गया। मां-बाबूजी माथा पकड़कर बैठ गए। घर में कानाफूसी होने लगी, बाबूजी ने पढ़ी-लिखी बहू लाकर आफत मोल ले ली। सोने के घड़े में विष आ गया। अब जो बिजली गिरेगी उससे भगवान ही बचाए।
विमल ने सुषमा को खूब लताड़ा, ‘‘एक तुम ही समझदार हो घर में? तुम इन बातों को नहीं मानती तो चुप रह सकती थी। अब पितरजी के कोप की बिजली से घर तबाह हो जाएगा। क्या फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहती हो?’’ वह क्रोध से तमतमा रहा था।
‘‘मुझे आश्चर्य है कि तुम इतने पढ़े-लिखे बैंक अधिकारी होकर ऐसी बात करते हो। भारत में हर पचास में से एक घर में पितरजी आते हैं। गाँवों में स्थिति बदतर है, वहां दस में से एक घर में पितरजी आते हैं। मैं पूछती हूँ अमेरिका,यूरोप में इस तरह पितरजी क्यों नहीं आते? क्या पितरजी को विकसित राष्ट्र पसंद नहीं है? नहीं! सच्चाई यह है कि वहां के लोग अपनी मानसिक अथवा अन्य बीमारी को देवीप्रकोप न मानकर उसका इलाज करवाते हैं, इस तरह की नाटकबाजी को वहां का समाज तिरस्कार करता है। हम इन्हें सर आँखों पर बिठाते हैं अतः यह बीमारी यहां छूत की तरह फैली हुई है। मंझली भाभी के वर्षों से संतान नहीं है, यही उसके फ्रस्ट्रेशन एवं हिस्टीरिया का मूल कारण है। बेहतर होगा आप हरिगोपाल भाई साहब का डाॅक्टरी टेस्ट कराएँ। इस समस्या की यही जड़ है। अगर पितरजी इतने ही दयावान है तो मंझली भाभी को संतान क्यों नहीं दे देते?’’ सुषमा के सटीक तर्कसिद्ध उत्तरों के आगे विमल हतप्रभ था, उसे उसकी बातों में सच्चाई नजर आने लगी पर पूरे परिवार से विरोध करने का साहस उसमें नहीं था।
दूसरे रोज वेणु दादा का पुत्र स्कूल से आ रहा था कि एक टैक्सी से टकरा गया। पाँव में बम्पर से एक बड़ा कट लग गया। पाँव में सात टाँके आए। बहुत खून बहने से बच्चा बेसुुध हो गया। सुषमा स्वयं उसे लेकर अस्पताल गई, स्वयं खून भी दिया फिर भी सभी ने यही कहा,यह पितरजी के कोप का प्रारंभ है।
उसके कुछ रोज बाद अम्मा स्नान करते हुए बाथरूम में फिसल गई एवं एडी में मोच आने से चार रोज खाट पकड़े रही। इन्हीं दिनों बाबूजी को दमा का एटेक हुआ एवं तीन रोज अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। अब तो पितरजी का श्राप फलित होते नजर आने लगा। अम्मा हताश होकर बोली, इससे अच्छा विमल कुँवारा रहता। सुषमा को यह ताने नश्तर से लगे, लेकिन यह हादसे भी उसके हौसले को नहीं डिगा सके।
अब सुषमा ने कमर कस ली। उसकी आँखें एक गर्वमय संकल्प से चमक उठी। साहसी व्यक्ति सौभाग्य को भी जगा लेते हैं। साहस सुकर्म का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। साहसी व्यक्ति के कर्मफल का पुरस्कार परमात्मा भी प्रफुल्लित होकर हजार हाथों से देता है।
आईपीएस परीक्षा की तैयारी में सुषमा ने दिन-रात एक कर डाले। उसकी कड़ी मेहनत रंग लाई एवं वह आईपीएस अधिकारी भी बन गई। पुलिस वर्दी में जब घर पर जीप से उतरी तो सभी चित्रलिखे से देखते रह गए। सबसे पहले अम्मा बाबूजी के चरण छूकर आशीर्वाद लेने गई। बाबूजी अभिभूत हो उठे, बहू की इस उपलब्धि की चर्चा सर्वत्र फैली। कई गणमान्य व्यक्ति घर पर अम्मा-बाबूजी को बधाई देने आए।
मंझली भाभी को शहर के मनोचिकित्सक को दिखाया गया एवं भाई साहब के सारे टेस्ट हुए। डाॅक्टरों की राय एवं बराबर दवाई लेने से एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई। उनका चिरमनोरथ पूरा हुआ। भाई साहब हर्ष से उन्मत्त हो गए, जैसे चातक स्वाति का जल पा गया हो। मंझली बहू ने सुषमा को गले लगा लिया। देवरानी की सूझ-बूझ एवं साहस ने उसके भाग्य की दिशा बदल दी। वात्सल्य व ममत्व की नई अनुभूति से वह आह्लादित हो उठी, जैसे सूखे धान पर पानी पड़ा हो।
पितरजी उसके बाद कभी नहीं आए। भला इतने बड़े पुलिस अधिकारी से टकराने की जुर्रत वो कैसे करते? राहू भी सीधे एवं सपाट पूर्ण चन्द्र को ग्रहण लगाता है, टेढे़ चन्द्रमा को नहीं। बाज के आने पर बटेर स्वतः छिप जाते हैं।
भय के आगे भूत भी भागते हैं। जो लोगों को भयभीत करते हैं, उन्हें भयभीत करने वाला जब आता है तो वो भी भाग खड़े होते हैं।
सुषमा के सम्मान में स्वयं बाबूजी ने घर में एक समारोह का आयोजन किया। सारा परिवार फिर इकट्ठा हुआ। विमल एवं छोटी बहू जब उनसे आशीर्वाद लेने आगे बढ़े तो मुस्कराकर बाबूजी बोले, ‘‘अब जय पितरजी की बजाय जय छोटी बहू कहना पड़ेगा।’’
पूरा घर एक उन्मुक्त अट्टहास से गूंज उठा।
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27.05.2002