विद्यार्थी जीवन, विशेषतः काॅलेज के जमाने की स्मृतियाँ आज भी मेरे जीवन की अमूल्य थाती है। काॅलेज सेे पहले मैं उदयपुर की मिशनरी स्कूल ‘सेंट पाॅल’ में पढ़ता था जहां विद्यार्थियों को फादर के कड़े अनुशासन में रहना होता था। विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास स्वायत्तता एवं स्वाधीनता के उन्मुक्त वातावरण में ही संभव है पर स्कूल में तो पाँवों में अनुशासन की बेड़ियाँ लगी होती थी। अनुशासनहीनता का वहां कड़ा दण्ड दिया जाता था। मुझे याद है एक बार मैं आधे घण्टे देरी से पहुँचा तो फादर ने मुझे बेरहमी से डण्डे से पीटा था एवं बाद में एक घण्टे धूप में खड़ा होने की कठोर सजा दी थी। सजा पूरी होने के बाद मैं पसीने से तरबतर आँखें जमीन में गड़ाए एक सजायाफ्ता अपराधी की तरह क्लास में गया । सभी लड़के मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे जेल से छूटकर कोई कैदी आ रहा हो। उस समय मेरे मन में विद्रोह की ज्वाला फूट रही थी। उस दिन मेरे हाथ में बन्दूक होती तो मैं फादर को वहीं ढेर कर देता। उसके बाद भी मेरे बाल मन मेें विरोध के सुप्त स्वर उठे थे, एकाध बार मैंने फादर के कमरे में जाकर उनसे कहने का सोचा भी, ‘‘आखिर आप अपने आपको समझते क्या हैं? क्या छोटे बच्चों के साथ व्यवहार करने का मात्र यही अमानुषिक तरीका बचा है?’’ परन्तु फादर की रुआबदार आँखें एवं सागवान के चमकते डण्डे के आगे मेरा साहस कल्पनालोक से आगे नहीं बढ पाया।
जिस दिन मैंने स्कूल में आखिरी जमात की परीक्षा दी, मुझे लगा बला छूटी। स्कूल के दमघोंटू एवं निषेध भरे वातावरण से मुक्त होने का समय अब आ चुका था। स्वतंत्रता हमारी नैसर्गिक आवश्यकता है, मेरी छटपटाहट स्वाभाविक थी। बालक तो हवाओं की तरह चपल होता है। हवाओं को कौन कैद कर सका है ? मैं पंख फैलाये उन्मुक्त पक्षी की तरह काॅलेज की खुली हवा में उड़ान भरने के स्वप्न देखने लगा।
काॅलेज आनेे के बाद तो बस पौ बारह हो गए। अब कोई बन्धन नहीं, कोई अंकुश नहीं। दिन भर मटरगश्ती करो, खुले बछड़ों की तरह कुलाचें भरो, आपकी करतूतों एवं हरजाइयों को देखने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं। स्कूल में तो कभी-कभी पिताजी भी देखने आ जाते थे, पर काॅलेज तो पूरा छः किलोमीटर दूर था। बस आगे नाथ न पीछे पगहा वाली हालत थी। उफ! वो कैसा कमसिन, अल्हड़ कैशोर्य था, कितना सरल, कितना स्वाभाविक, कितना नैसर्गिंक! चाहे तो क्लास में जाओ, चाहो तो नहीं। घर पर काॅलेज जाने का बोलकर जाओ, काॅलेज से नदारद रहकर सिनेमा का आनंद लो। उस स्वातंत्र्य में मुझे जो अपरिमित आनंद मिला, जीवन का जो अनुभव हुआ वो आगे धन संपदा एवं अधिकारों की दौड़ में कभी न मिला। वह आनंद तूरीय तत्त्व से भी ऊपर था। वो अनछुई भावनाएँ अनमोल थी। जीवन कितना ऊर्जावान था, मन में कितनी उमंग थी, स्वप्नों का एक पूरा संसार था, आसमान हमारी मुट्ठी में था, हमारे ख्वाब कहकशाँ को छूते थे। यौवन के ज्वार ने किसे आपे से बाहर नहीं किया ? उन नव किसलय कोमल किशोरियों के पीछे भँवरो की तरह मंडराने में कितना आनंद आता था लगता रंगरूप परिधानों में सजी तितलियों के पीछे उड़ रहे हो। लाज, रूप और यौवन में डूबती-उतरती उन सद्यःस्नाताओं की तिरछी चितवन, भौहों के इशारे एवं प्रेम-शर भाव विमोहित कर देते थे। रात दिन विनोद और क्रीड़ा में व्यस्त वो कैसा ज्वार था ? पाने की चाहत में कितना आनंद है, बाद में सब कुछ पाकर भी वह अबूझ आनंद कभी नहीं मिला।
स्कूल तक पिताजी पचास रुपये महीने हाथ खर्च देते थे पर काॅलेज आते ही हाथ खर्च दो सौ रुपया हो गया। काॅलेज छोड़ने के बाद से अब तक लाखों कमाए पर उतना धनी कभी महसूस नहीं किया जितना पाॅकेट मनी के दो सौ रुपये जेब में रखते वक्त होता था। तब आसमान से कंचन बरसता था। उस निश्चिंत, निर्भय एवं स्वच्छंद जीवन के असीम आनन्द को कैसे भूला जा सकता है!
काॅलेज में वैसे तो मेरा परिचय क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था, पर मेरे अंतरंग मित्रों में जमील अहमद एवं धनराज अग्रवाल ही थे। हम तीनों ने बीकाॅम साथ-साथ की। वैसे तो हम तीनों के विचारों में बहुत अंतर था, पर कई मसलों पर हमारा मतैक्य भी था। तीनों एक ही सेक्शन में थे, धीरे- धीरे अज़ीज हो गए। कई बार लगता है जोड़ों की तरह मित्र भी ऊपर से उतरते हैं। मित्रता की पराकाष्ठा में एक समय ऐसा भी आता है तब मित्र सगे भाई से अधिक प्रिय लगने लगता है। कारण वही है, मित्रता स्वातंत्र्य की पृष्ठभूमि में पनपती है एवं रिश्ते बंधन की।
तीनों में सबसे अधिक नम्बर से धनराज पास हुआ था, साठ लड़कों की क्लास में सबसे अव्वल था। मैं एवं जमील दोनों द्वितीय श्रेणी से पास हुए थे। धनराज सदैव हम दोनों का लक्ष्य होता। पढ़ाई के अलावा भी वाद-विवाद प्रतियोगिता, ग्रुप-डिस्कशन, खेलकूद सभी में वह अव्वल होता। उसका उत्साह, कौशल एवं वाक्चातुर्य देखते बनता था। उसकी मृदुवाणी मोहिनी-सा असर करती, वह अपने भीतर असीम संभावनाओं को समेटे था। उसकी दृष्टि फलक के चाँद-तारों की ऊँचाइयों तक जाती। वह अपनी बुद्धि एवं विवेक से सबको चमत्कृत कर देता। हम अक्सर उसके आगे बौना महसूस करते। हमारा सौभाग्य था कि ऐसा होनहार छात्र हमारा मित्र था। तीनों हमेशा काॅलेज में साथ-साथ घूमते नजर आते। तीनों को संगीत का भी बेहद शौक था। रात रेडियो पर उन दिनों ‘छायागीत’ सुनना हमारी दिनचर्या का एक हिस्सा था। हम तीनों की मित्रता काॅलेज में मशहूर थी।
काॅलेज छोड़ते समय सबके हृदय भारी थे। तीनों अब अलग-अलग यात्रा पर जाने वाले थे। आर्थिक दृष्टि से जमील हम सबसे कमजोर था, उसने कहा, ‘‘भई, हम तो मामू के गैरेज पर भोपाल काम सीखने जाएंगे एवं खुदा ने चाहा तो वहीं बस जाएंगे।’’ मुझे पिताजी के पुस्तकों की पुश्तैनी दुकान आगे बढ़ानी थी। धनराज के इरादे कुछ और थे। उसका स्वप्नलोक कुछ और था, आँखों में जैसे अंगूर के दाने बसे थे। हम दोनों ने आतुर भाव से पूछा, ‘‘धनराज! तुम क्या करोगे?’’ धनराज ने कहा, ‘‘भई मुझे तो सबसे अच्छा कारोबार ब्याज-बट्टे का लगता है। पिताजी के पास बहुत धन है, मैं तो हमारे पैतृक गाँव जाकर सूद का काम करूंगा। सारा गांव साहूकार के आगे पीछे फिरता है, गांवों में साहूकार राजा की तरह रहते हैं।’’ कहते हुए धनराज की आँखें एक अबूझ स्वप्निल आनन्द से चमक उठी थी।
‘‘धनराज! कभी जरूरत पड़े तो हमें भी रकम दे देना।’’ मैंने मसखरी की।
‘‘लेकिन ब्याज पूरा देना होगा, रोहन शर्मा! लेखा जौ-जौ, बख्शीस सौ-सौ । इसमें पण्डिताई नहीं चलेगी। साहूकार आठ घण्टे जागता है पर ब्याज का मीटर चौबीस घण्टे चलता है।’’ यह कहकर वह अट्टहास मारकर हँस पड़ा।
काॅलेज के दिनों में भी हमारी कई आर्थिक जरूरतों को धनराज ही पूरा करता। यारों का यार था। सैकड़ों खर्च कर देता पर रकम उधार देता तो ब्याज पूरा लेता। चक्रवृद्धि ब्याज की गणना में पारंगत था , ज्यामितीय अनुपात में मूलधन की बढ़ोतरी करता। अंगुलियों पर ही ब्याज गिन लेता। मूलधन एवं ब्याज अलग करके बताता तो मेरी साँस फूल जाती। जमील तो उसका ब्याज कभी चुका ही नहीं पाया। काॅलेज छोड़ते वक्त उसने मेरे कहने से जमील का ब्याज आधा छोड़ दिया। आधा ब्याज देते-देते जमील ने उसे कहा था, ‘‘धनराज! तू मेरी माने तो सूदखोरी का कारोबार कभी मत करना। कर्म जगाने से ही भाग्य जगता है। ब्याज की कमाई उसूलन ठीक नहीं। जिस पेशे की बुनियाद ही शोषण पर अवलंबित हो उस पेशे से धन तो आ सकता है, सुख नहीं। जैसी नीयत वैसी बरकत। परिश्रम की कमाई ही चिरआनंद देने वाला कल्पवृक्ष है। सच्चे सुख का यही फलसफा है। तुम्हारी गीता में भी कर्म के गीत ही लिखे हैं। हमारे धर्म में तो सूद लेना महापाप है। खुदा सूद को नाबूद करता है, सूद की आमदनी से बरकत नहीं होती। हमारे यहां तो इतना तक कहते हैं कि सूद लेने वाले कयामत के दिन कब्रों से इस तरह उठेंगे जैसे जिन्न ने लिपटकर उन्हें दीवाना बना दिया हो।’’जमील की बात वह हंसी में टाल गया, शायद उसे यह बात समझ नहीं आई अथवा उसका दिमाग उसे सुनने को तैयार ही न था। जो सारी दुनिया को चराये उसे कौन समझाए ?
‘‘खैर! मैं तुमसे ब्याज नहीं लूंगा, जमील!’’ इतना कहते हुए उसने ब्याज के रुपये जमील की जेब में वापस रख दिए थे। विदा होते समय तीनों जी भरकर मिले, सबकी आँखों में आंसू तैरने लगे थे।
उसके बाद जमील भोपाल चला गया, मैं यहीं उदयपुर में पुस्तकों का कारोबार करने लगा। धनराज अजमेर के पास अपने गाँव मांगलियावास बस गया एवं वहीं ब्याज-बट्टा तथा साहूकारी के काम में लग गया। उसकी गणित दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की थी। हम दोनों ने भी हमारी कछुआ चाल की तैयारी की, हमें भी मीलों का सफर करना था।
बाद में कुछ ऐसा ही संयोग हुआ कि हम तीनों फिर न मिल सके। जैसे पर्वत से निकल कर तीन नदियाँ अपने-अपने गंतव्य पर निकल जाती हैं, हम सभी अपने कैरियर की चिर-यात्रा पर निकल गए।
काॅलेज के दिन कपूर की तरह उड़ गए। गृहस्थी के बंधन एवं कारोबार की जिम्मेदारियों में दिन, महीने, वर्ष नदी के पानी की तरह बह गए। समय-समय पर जीवन के एकाकी क्षणों में जब भी जमील एवं धनराज की याद आती तो मेरा जी उनसे मिलने को तड़प उठता, लेकिन कारोबार एवं जीवन की जिम्मेदारियाँ सब कुछ विस्मृत कर देती। धीरे-धीरे काॅलेज की यादें भी धूमिल हो गई। एक समय तो ऐसा आया जब काॅलेज के बारे में कुछ याद ही नहीं रहा। एक विलीन होती स्मृति रेखा की तरह सब कुछ विस्मृत हो गया। हम सभी अपने-अपने कार्यों में मशगूल हो गए और विधाता हमारे प्रारब्ध का लेख लिखने में।
आज उम्र के पचास पार मैं उदयपुर में पुस्तकों का एक बड़ा व्यापारी हूँ। ईश्वर की कृपा से घर-गाड़ी सब कुछ है। एक सुलक्षणा पत्नी, दो आज्ञाकारी पुत्र, और क्या चाहिए ? कारोबार जमाने में जितनी मेहनत की, ईश्वर ने उससे कहीं अधिक दिया। ईश्वर कृपा करे तो मिट्टी की मूर्ति में भी ताकत आ जाती है फिर इंसान पर कृपा बरसे तो कहना ही क्या। मेहनत मेरी, किस्मत तेरी। कृष्ण का मैं अनन्य भक्त था और यह उसी का कृपाप्रसाद मानता था। अजमेर शरीफ भी ख्वाजा पीर के दरबार में मत्था टेकने हर वर्ष जाता था, वहां भी मेरी गहरी आस्था थी।
उम्र अब ढलने लगी थी। दोनों बेटे अब काॅलेज में पढ़ने जाते थे, पत्नी चन्द्रलता के मुख चन्द्र की चांदनी भी फीकी पड़ने लगी थी। अतीत को वर्तमान के लिए राह देनी ही होती है। मध्याह्न की प्रखरता बिखेरकर अस्ताचल की ओर जाता सूर्य पीला पड़ रहा था।
इस वर्ष ‘अजमेर शरीफ’ ने जैसे मेरी झोली मोतियों से भर दी, मानो मन मांगी मुराद मिल गई। चादर चढ़ाकर बाहर आया ही था कि बाहर एक परिचित-सा चेहरा देखकर ठिठक गया। बड़ी-बड़ी आँखें, तीखा नाक, ऊँचा लम्बा कद एवं सन जैसी सफेद दाढ़ी के पीछे से कोई पुकारने लगा था। सामने वाले के सर पर बाल नदारद थे, वहां एक चमकदार टाँट ऊभर आई थी। दोनों की नजरें मिली, हृदयों में एक पुरानी हूक उठी एवं दोनों ने पलभर में एक-दूसरे को पहचान लिया। मैंने चौंककर कहा, ‘‘क्या जमील हो?’’ जमील की आँखें भर आई, ‘‘अरे पण्डित तुम!’’ भीड़ भरे बाजार में वह चीख उठा। दोनों ने एक दूसरे को बाहों में जकड़ लिया। कुछ पल को देहभान विस्मृत हो गया। दोनों मिलन के ब्रह्मानंद में गोते लगाने लगे। पुलकित गात व हमारी आँखों से बहते प्रेमाश्रुओं की बाढ़ को देख हम दोनों के परिवार भी स्नेह से आर्द्र हो गए। मेरी और जमील की हालत ऐसी थी जैसे नवों निधियाँ मिल गई हों। ऊपर आसमान से हल्की बूंदाबांदी हो रही थी, नीचे प्रेम की मदिरा रिमझिम बरस रही थी। बाद में हम दोनों के परिवार भी मिले। जमील के एक पुत्र व एक पुत्री थी। अब भोपाल में उसके स्वयं का मोटर गैरेज था। जमील का पुत्र तो काॅलेज के दिनों का जमील ही लग रहा था।
शाम हम दोनों भोजन के बाद बेतकल्लुफी से होटल के बाहर खड़े पान खा रहे थे। इसके पहले हमने घण्टों बातें की, पुरानी स्मृतियों को याद कर दिल का बुखार उतारा। दोनों के परिवार के सदस्य हमारे वाकये सुनकर, हंस-हंस कर, लोटपोट हो गए।
यकायक एक पागल हमारे पास आकर खड़ा हो गया। कृशकाय शरीर, चमकती दंत-पंक्ति, बिखरे सफेद बाल, सूखा चेहरा एवं पिचका पेट लेकिन चेहरा जाना पहचाना लगता था। वह निरीह आँखों से हमारी ओर देखकर जोर-जोर से हँसने लगा। आज एक ऐसी घटना घटित होने वाली थी जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। हम दोनों को एक साथ लगा जैसे उसे पहले देखा है। जमील ने क्षणभर में उसे पहचान लिया……..‘‘अरे धनराज तुम! इस हाल में!’’ लेकिन वो अट्टहास करके हाथ छुड़ाकर वहां से दौड़ गया। हम दोनों स्तब्ध थे। मेरा सर घूमने लगा, आँखों के आगे अंधेरा छा गया, वाणी जड़ हो गई। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि धनराज से यूं मुलाकात होगी। हृदय में कोलाहल मच गया। जैसे-तैसे मैंने अपने आपको सम्भाला।
मैंने पान वाले से उसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि किसी जमाने में यह मांगलियावास गाँव का सबसे बड़ा साहूकार था। इसके पास इतनी दौलत थी कि सात पीढ़ियाँ खप जाए, फिर भी यह जरूरतमंदों, निर्धन किसानों यहाँ तक कि अपाहिजों एवं विधवाओं तक से दम ठोककर ब्याज वसूलता। एक बार एक किसान ने इससे अपने पुत्र के इलाज के लिए रकम मांगी। पुरानी रकम खड़ी थी, इसने उसे दुत्कार दिया। दूसरे दिन उसका पुत्र चल बसा। पुत्र विरह में माँ-बाप दोनों ने जहर खा लिया। उसके एक माह बाद गाँव में एक बिजली गिरी। इसका घर, पत्नी व बच्चे आग की लपेट में जलकर खाक हो गए। सदमे में यह पागल हो गया। इसका चाचा यहीं रहता है, वही उसे लेकर आया। अब सारे दिन भूतों की तरह डोलता फिरता है। बाबूजी ! गरीब की हाय बहुत बुरी होती है।
आकाश में काली बदलियाँ छाई थी। बदलियों के पीछे त्रयोदशी का चांद किसी पागल की तरह यहां-वहां भाग रहा था। समीप ही अमावस्या का दानव उसे निगलने को तैयार खड़ा था । मैंने जमील की ओर देखा। वर्षों पहले धनराज को दी हिदायत आज सत्य बनकर हमारे सामने खड़ी थी। दूर कहीं से आती आवाज की तरह जमील के शब्द मेरे कानों में गूंजने लगे-सूद लेने वाले अपनी कब्रों से इस तरह उठेंगे जैसे जिन्न ने लिपट कर उन्हें दीवाना बना दिया हो……… ।
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16.05.2002