जेठ में सुबह कुछ जल्दी ही उग आती है।
उमाशंकरजी ने आंखें खोली तब भोर का उजास खिड़कियों, रोशनदानों से कमरे में दस्तक दे चुका था। हवाओं की ठंडक एवं चिड़ियों की आवाजों से उन्हें लगा छः बजे होंगे। उन्होंने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा, अभी दस मिनट बाकी थे। सुमित्रा नित्य छः बजे उठती थी, उन्हें लगा दस मिनट में क्या फर्क पड़ता है ? धीरे से बोले, “सुमित्रा! उठो भी! चाय का समय है।” उन्हें लगा वह प्रतिकार नहीं करेगी पर आज मानो उसका मीठा स्वप्न टूटा हो। तमक कर बोली , ‘कभी खुद भी बना लिया करो। रिटायर हुए दस वर्ष बीत गए, अब स्टाफ नहीं रहा तो अफसरी मुझ पर क्यों झाड़ते हो ?’ इतना कहकर उसने करवट बदल ली। बूढ़े आदमी से हर कोई बदला लेता है , बीवी तो गिन-गिन कर जवानी के पापों का हिसाब लेती है। उन्हें लगा बात बढ़ाने से और बिगड़ जाएगी। वे सीधे रसोई में आए, चाय बनाई एवं दोनों कप रसोई के बाहर रखी डाइनिंग टेबल पर रख दिए।
इस बार बेडरूम में आकर वे धीरे से बोले, “भाग्यवान ! चाय तैयार है।” अब उन्हें अनुकूल उत्तर मिला , “जरा रुक जाते, मैं उठ ही रही थी।” उमाशंकरजी को राहत मिली । वर्षों से वे नित्य सुबह की चाय साथ पीते थे। चाय पीने के थोड़ी देर पश्चात् मॉर्निंग वॉक हेतु वे बाहर आ गए। उनके घर से फर्लांग भर की दूरी पर ही एक सुंदर पार्क था जहां वे नित्य सवेरे भ्रमण हेतु जाते थे।
बाहर आते ही एक दृश्य देखकर वे सहम गए। दो युवा सांड सर नीचे कर एक-दूसरे से भिड़े हुए थे। उनमें से कोई एक-दूसरे को किधर भी ठेल सकता था। वे क्षणभर रुके तभी एक सांड दूसरे पर जोर आजमाते हुए दूर तक ले गया। अवसर मिलते ही वे गार्डन की ओर लपके। वे भीतर आए वहां भी दो कुत्ते आपस मे लड़ रहे थे। वे आगे बढ़े तो श्यामजी एवं गोवर्धनजी में तेज आवाज में बहस चल रही थी। चुनाव नजदीक थे । श्यामजी एक पार्टी की तरफदारी कर रहे थे , गोवर्धनजी दूसरी की। दोनों उनके हमवय थे, घर में चलती नहीं थी, यहां तेवर दिखा रहे थे। गार्डन में कुछ नीम, अमलतास, कनेर, गुलमोहर के पेड़ थे तो हरसिंगार, चमेली, चंपा जैसे फूलों के पेड़ भी थे। एक पीपल भी था जिसके चारों ओर चबूतरा बना था। वे इसके नीचे से निकले तो उन्हें लगा ऊपर दो कौव्वे लड़ रहे हैं। उनकी कांव-कांव नीचे तक आ रही थी। एक तेज सांस लेकर वे आगे बढ़े तभी उनकी नजर ऊपर आसमान पर गई। वहां एक सफेद एवं भूरी बदली में गुत्थमगुत्था हो रही थी। क्षणभर के लिए वे सहम गए। क्या समूची कायनात में युद्ध मचा है ? क्या सबके भीतर कुछ ऐसा घुट रहा है जिसे वे उगलना चाहते हैं ?
कायनात की छोड़ो उनका कुनबा कौन-सा कुरुक्षेत्र से कम है ? इन-मीन सात जने हैं पर सभी अपनी ढपली अपना राग अलापते हैं। वे नित्य एक-दूसरे को आपस में बहस करते हुए देखते हैं , जाने कैसे परिवार अब तक एक मुट्ठी में बंधा है ? जैसे सुमित्रा उनसे चिक-चिक करती है , बहू मनीषा पति अनिमेष पर रौब झाड़ती है। पोतियां अनीता एवं सुनीता कभी-कभी दो बिल्लियों की तरह आपस में लड़ पड़ती हैं। यूँ बाहर ऐसे बताएंगी जैसे ऐसी प्रेमिल बहनें और कोई न हों, घर में अवसर मिलते ही आंखें तरेरने लगती हैं। कुछ बातें आपस में बांटती हैं तो कुछ बातों को लेकर दूरी बना लेती हैं। जब बांट लेती हैं तो प्रसन्न रहती हैं, जब नहीं कह पाती तब पेट में मरोड़े उठते हैं। पोता राजू उमाशंकरजी एवं दादी की आंख का तारा है पर वह भी अनेक बार बहनों से उलझ पड़ता है। उसकी मित्र-मंडली भी बहुत बड़ी है, उमाशंकरजी ने जब-तब उसके अनेक मित्रों को घर आते हुए देखा है।
कुल-मिलाकर परिवार के सभी सदस्य पढ़े-लिखे बुद्धिमान हैं पर जैसे हजार वाट के सात बल्ब एक घर में रोशन हो तो चुंधियाना लाजमी है। यही हाल उमाशंकरजी के घर का है। बहुत प्रकाश अनेक बार अंधेरे का सबब बन जाता है।
उमाशंकरजी का पूरा नाम उमाशंकर व्यास है , दस वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त होने के पहले सरकारी कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे। कॉलेज छोड़ने के बाद से लगातार पेंशन मिल रही है इसलिए आज भी घर में रुतबा है। सुमित्रा भी उन्हीं के दम-खम पर ऐंठी रहती है एवं मौका मिलते ही बहू को अहसास करवा देती है कि हम किसी के टुक्कड़ पर नहीं पल रहे, अपने बूते जीते हैं।
व्यासजी शहर परकोटे के भीतर स्थित पुरखों की हवेली में रहते हैं जहां उनके साथ यह कुनबा रहता है। इस उम्र यानी सत्तर में भी स्वस्थ हैं एवं सुबह भ्रमण में मिलने वाले अन्य बूढ़ों की तरह उन्हें न शुगर है न बीपी। दिनचर्या नियमित है। नित्य सुबह-शाम दो मील पैदल चलते हैं , योगा भी करते हैं एवं इसी के चलते शरीर सौष्ठव दर्शनीय है। अच्छे लंबे, गोरे हैं तिस पर तीखी नाक उन पर खूब फबती है। सुमित्रा भी उन्हीं की तरह हमवय महिलाओं से अधिक स्वस्थ है। इंग्लिश गोरा रंग , सुंदर नक्श एवं आज भी आंखों में चमक है। दिन भर काम में लगी रहती है । कभी थक जाती है तब व्यासजी पर पिल पड़ती है। बहू तो सुनती नहीं। पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा बहू सुने क्या ? अभी कुछ दिन पहले ही बहू से झड़प हुई थी, उस दिन बहू भारी पड़ी, बेटे ने मध्यस्थता का प्रयास किया तो उसे भी मुंह की खानी पड़ी। व्यासजी चुप रहे तो रात सुमित्रा ने उन्हें लपेट लिया, “काठ की तरह खड़े थे। दो शब्द मेरे पक्ष में ही बोल देते।” ऐसी रूठी कि दो दिन नहीं बोली। जवानी में तो वे फिर मना लेते थे, अब इस जंग लगी बुद्धि से प्रेम की धार कैसे चमकाएं ?
व्यासजी का परिवार मोहल्ले का जाना- माना परिवार है एवं समाज में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा है। इनके कुलदीपक का नाम अनिमेष एवं बहूरानी का मनीषा है। अनिमेष विवाह के दो वर्ष बाद हुआ था, अब पचास का है। इन दिनों शहर की एक कम्पनी में एग्जीक्यूटिव है। उसने आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए किया है एवं अच्छी डिग्री होने से कैंपस सेलेक्शन में नौकरी भी जल्दी चढ़ गया। सौभाग्य से कम्पनी इसी शहर की थी। आज उसी कम्पनी में अच्छे पद पर है , अच्छी पगार भी पाता है एवं इसी के चलते घर में कोई आर्थिक समस्या नहीं है। उसमें कुछ अच्छी आदतें हैं जैसे उच्च पदासीन होते हुए भी किसी तरह का नशा-पता नहीं करता, पैसे का दुरुपयोग नहीं करता, सास-बहू के आए दिन होने वाले झगड़ों को बैलेंस भी करने का प्रयास करता है, पर बीवी के आंख तरेरने पर उसी की ओर लुढ़क जाता है। उस दिन सावित्री घर उठा लेती है। मनीषा भी एमबीए है। अनिमेष के साथ पढ़ती थी, वहीं से इश्क परवान चढ़ा एवं बात इतनी आगे बढ़ी कि विवाह का निर्णय लेना पड़ा। मनीषा की तनख़्वाह अनिमेष से कुछ ज्यादा है , व्यासजी की नजरों में बहू बेटे से अधिक व्यावहारिक एवं बुद्धिमान है। दोनों शाम हारे-थके घर आते हैं। देर रात तक लैपटॉप पर लगे रहते हैं। दोनों अपनी व्यावसायिक समस्याओं को लेकर परेशान भी रहते हैं , समाधान न मिलने पर आपस में भिड़ जाते हैं।
दोनों बेटियों में बड़ी अनीता सीए कर चुकी है , वह भी किसी कम्पनी में नौकरी करती है , छोटी सुनीता सीए इंटर में है। घर में सभी जानते हैं कि दोनों के किन्हीं लड़कों से चक्कर हैं। राजू को भी एक बार व्यासजी ने किसी लड़की के साथ मोटरसाइकिल पर घूमते हुए देखा था। आशिकों की इस जमात को देखकर व्यासजी एवं सुमित्रा अनेक बार आशंकित हो उठते हैं। पोतियां यूँ तो समायोजन कर लेती हैं पर प्रेम के रहस्य हृदय में ही रखती हैं। अनेक बार वे विचित्र उदासियों में भी घिर जाती हैं।
व्यासजी को कई बार लगता है उनका परिवार खुशहाल परिवार है पर अनेक बार यह भी लगता है अनिमेष, बहू, पोतियां, पोता उदास भी हो जाते हैं। उन्हें लगता है जब वे मन की भड़ास नहीं निकाल पाते तब दुखी हो जाते हैं। इन दिनों उन्होंने यह बात शिद्दत से महसूस की है।
शहर में पतझड़ को विदा कर बसंत आ चुका है। अब शीघ्र ही गणगौर का मेला भरेगा जो उनका प्रिय त्योहार है। हर वर्ष घाटी पर लगने वाले इस मेले में वे अवश्य जाते हैं। सुमित्रा कहती है अब तो मेले देखने के दिन बच्चों के आए आप तो बन्द करो पर वे नहीं मानते। बच्चों, सुमित्रा को मेले आदि में कोई रस नहीं है।
आज गणगौर के मेले में वे शहर की ऊंची घाटी पर अवश्य जाएंगे। अब ऊंची भी कहाँ रही, कार-टैक्सियां तक तो जाती हैं। वहां सजी-धजी पार्वती, जिसे यहां के लोग गवर कहते हैं, को देखना व्यासजी को खूब भाता है। उसकी पालकी के पीछे गीत गाती स्त्रियां भी खूब गहने पहने हुए होती हैं। स्त्रियां गहनों में फबती भी है , आदमी पहने तो गधा लगे। उन्होंने सुमित्रा को एक बार पूछा भी था , ‘सुमि ! गहनों पर औरतों का एकाधिकार है क्या ? आदमी भी तो गहने पहन सकता है ।’ तब उसने व्यासजी को ऐसे देखा मानो कह रही हो , ‘आदमी गोबर होता है। गोबर पर सोने का वर्क लगता है क्या ?’ ओह ! न उसने कहा , न व्यासजी ने सुना। वे भी जाने क्या-क्या बुन लेते हैं।
मेला देखकर व्यासजी झूम उठे। उन्हें अनायास अपने पिता की याद हो आई जब वे उनके कंधे पर बैठकर यही मेला देखने आते थे। बाबूजी कितनी चीजें दिलाते थे….चश्मा, घड़ी, खिलौने एवं बर्फ का मीठा गोला भी तो खिलाते थे। मेला उनकी पुरानी मीठी यादों को पुकारता है। मेले में उनके साथ अतीत का एक छोटा बच्चा भी आता है। यहां की भीड़ उन्हें खूब आकर्षित करती है। मेला सामूहिक ध्यान की तरह सबको प्रसन्नता से सराबोर करता है। जैसे गंगा में मिलने वाले नाले भी गंगा बन जाते हैं, असंख्य प्रसन्न लोगों के बीच कुछ उदास भी यहां सहज प्रसन्न हो उठते हैं। मस्ती का सैलाब द्वेष, दम्भ एवं उदासी के कीचड़ को यूँ बहा ले जाता है।
मेले से लौटते हुए उनकी नजर एक पक्षी बेचने वाले पर पड़ गई। उसके पास कबूतर, रंग-बिरंगी चिड़ियां, बतख एवं बहुत सारे तोते भी थे। वस्तुतः उसके पास अधिसंख्य तोते ही थे। ये तोते अनेक रंगों एवं अनेक प्रकार के भी थे। छोटे-बड़े , हरे-बैंगनी हर तरह के। ये तोते इतने सुंदर , सुरीले थे कि इन पर नजर नहीं ठहरती थी। कुछ तोते तो उनके शहर में दिखने वाले तोतों से दूनी साइज के थे। व्यासजी बचपन से प्रकृति प्रेमी तो थे ही, पक्षी प्रेमी भी थे। पक्षी प्रेम उनकी साँसों में बसा था। तोतों के बारे में वे बहुत कुछ जानते भी थे। उन्हें पता था तोता पचास से सौ साल तक जीता है। पक्षी प्रेम उनका शौक ही नहीं, अभिरुचि भी थी। तभी एक आवाज सुनकर वे चौंके, “गुड इवनिंग सर ! हाऊ आर यू ?” वे हैरान थे क्या पक्षीवाला अंग्रेजी भी जानता है ? उन्होंने कौतुक मन से उसकी ओर देखा तो पक्षीवाले ने अंगुली से बड़े तोते की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘हुजूर ! मैं नहीं यह बोल रहा है।’ विस्मयविमुग्ध व्यासजी झेंप गए।
“गुड इवनिंग डिअर ! आई एम फाइन ।” उन्होंने हंसते हुए तोते को उत्तर दिया। इस बार उन्होंने उत्तर देते हुए तोते को गौर से देखा। यह गहरे हरे रंग का तोता था। आगे की ओर मुड़ी लाल तीखी चोंच उसके ऊपर एक छोटा काले बालों का वलय था। पंजे झक सफेद एवं नाखून गहरे काले रंग के थे। आंखे हल्की नीली थी, जिन्हें वह तेजी से इधर-उधर घुमा रहा था। सवा फुट लंबा एवं पांच इंच चौड़ा तो होगा। अब वे पक्षीवाले से मुखातिब थे।
“अरे! इतना बड़ा एवं इतना प्यारा तोता तुम कहां से ले आए ? ये नस्ल इधर की तो नहीं दिखती।” उनकी उत्सुकता आँखों में सिमट आई।
“आपने ठीक पहचाना। यह तोता दक्षिणी अमेरिका की अमेजन नदी के घने जंगलों में मिलता है। यह ‘कॉर्बेल’ प्रजाति का दुर्लभ तोता है। वहां इससे भी बड़े तोते मिलते हैं। इसे ‘मिमिक्री मास्टर’ भी कहते हैं। यह हुबहू आपके कहे शब्दों की नकल कर लेता है। यह मुर्गे , कुत्ते, बकरी, बिल्ली की आवाज ही नहीं गीत-संगीत यहां तक कि बच्चे के रोने-चिल्लाने तक की आवाजें भी दोहरा देता है ।” पक्षीवाले के परिचय ने तोते को कीमती बना दिया। उसने तोते के इस गुण का प्रदर्शन किया तो व्यासजी हैरान रह गए।
“यह खाता क्या है ?” व्यासजी के जिज्ञासु मन को पंख लग गए।
“वैसे तो यह रोटी, हरी मिर्च, केला, फल एवं फलियां आदि खाता है पर इसे ज्वार, मूंगफली, पके चावल, मेवे एवं शकरकंद खूब पसंद है। यह नहाने का शौकीन है , सुबह-शाम नहाने के बाद खूब बातें करता है। इसे लेना लेकिन हरेक के बूते की बात नहीं है। यह रईसों का तोता है एवं इसकी कीमत तीस हजार है। एक पैसा कम नहीं करूंगा। जवान तोता है। ऐसे सात तोते मुंबई से लाया था, छः बिक गए, यह अंतिम है।” पक्षीवाला एक सांस में सब कुछ बोल गया।
कीमत कुछ ज्यादा थी, पर अभिरुचि आपसे औकात के बाहर भी बहुत कुछ करवा लेती है। व्यासजी के सर पर भूत चढ़ गया। उन्होंने एक बार फिर तोते को देखा तो वह उन्हें देखकर पंख, गर्दन, आंखें हिलाने लगा। वह व्यासजी को यूँ करुण नेत्रों से देखने लगा मानो कह रहा हो , “प्लीज ! मुझे ले लीजिए ! आप एवं आपके परिवार को खूब खुश रखूंगा।¦” इसी दरमियान तोता उनकी ओर देखकर बोला ‘हल्लो’ तो व्यासजी की आंतरिक इच्छा परवान चढ़ गई ।
स्थिति देखकर उन्होंने स्वयं को संयत किया। उन्हें लगा पक्षीवाला मुंह फाड़ रहा है। वे उसे दाम कम करने का कह ही रहे थे तभी एक महंगी कार वहां आकर रुकी। उसमें से एक मैडम उतरी एवं उसी तोते की ओर देखकर बोली , “क्या यह कॉर्बेल है ? मैं इसे ही ढूंढ रही थी।” व्यासजी ने टेढ़ी आंखों से पहले मैडम फिर उसकी कार की ओर देखा एवं बिना समय गंवाए बोले , “मैडम ! यह तोता मैंने ले लिया है।” ऐसे कहते हुए उन्होंने जेब से क्रेडिट कार्ड निकाला जिसे पलक झपकते पक्षीवाले ने स्वाइप कर लिया। भुगतान मिलते ही उसने ऊपर आसमान की ओर देखा एवं ईश्वर को इस अहैतुकी कृपा के लिए धन्यवाद दिया। उसे आज पहली बार प्रतिस्पर्धा का मूल्य समझ आया।
व्यासजी कॉर्बेल के साथ पिंजरा, कटोरियाँ आदि लेकर जाने लगे तो प्रमुदित तोता मैडम की ओर देखकर बोला, ‘बाई मैडम !’ मैडम मन मसोस कर रह गई। उसे अपने धन की निरर्थकता एवं व्यासजी को उनकी अभिरुचि की जीत का अहसास हुआ। घर के रास्ते में ही उन्होंने उसका नाम उसकी प्रजाति के ही नाम पर यानि ‘कॉर्बेल’ रख दिया।
रात नौ बजे वे घर पहुंचे तो पूरा परिवार डिनर पर उनका इंतजार कर रहा था। उनके हाथ में गोल्डन रंग का पिंजरा एवं उसके भीतर खूबसूरत गहरे हरे रंग के तोते को देख सभी आश्चर्यचकित रह गए। व्यासजी ने आगे बढ़कर पिंजरा टेबल पर रखा एवं कॉर्बेल से वे सभी मिमिक्री दोहरवाई जो उन्होंने पक्षीवाले के यहां देखी थी तो सभी मस्ता गए। कॉर्बेल ने भी अपना पहले इम्प्रेशन की महत्ता समझते हुए दिलकश अंदाज में कुत्ते, मुर्गे, बकरी, पिल्ले,बच्चों के हंसने-रोने की आवाजें दोहराईं तो टेबल पर हंसी के फव्वारे फूट पड़े। व्यासजी ने आज एक अरसे बाद सभी को यूँ हंसते देखा तो भीतर तक भीग गए। तभी सुमित्रा बोली , ‘यह कितने में लिया तो व्यासजी झेंपे, फिर तुरंत संयत होकर बोले , ‘तीन हजार ।’ एक जीरो उड़ाते हुए उन्होंने पेट का पानी तक नहीं हिलने दिया। सुमित्रा का स्वभाव वे जानते थे , जीरो नहीं उड़ाते तो खुद उड़ जाते।
कॉर्बेल के रहने का स्थान भी शीघ्र तय हो गया। रसोई के दाएं एक छोटा कमरा था जो वर्षों से बंद पड़ा था। आनन-फानन इसकी सफाई की गई एवं कॉर्बेलजी का पिंजरा वहीं लटका दिया गया। इस कमरे से पोर्च , उससे जुड़ा बगीचा एवं भीतर का चौक, कमरे आदि साफ दिखते थे।
चंद दिनों में ही कॉर्बेल सबका प्यारा हो गया। उसकी सुरीली आवाज , दिलकश अदाएं, मिमिक्री आदि से सभी उसके दीवाने हो गए। हर कोई उसे कुछ न कुछ खिलाने को लपकता। कोई उसकी कटोरियाँ साफ कर रहा है तो कोई पिंजरा। सभी उसे मारवाड़ी अभिवादन के नए-नए शब्द सिखाने लगे। उसकी पकड़ इतनी गहरी थी कि थोड़े ही दिनों में वह अभ्यागत मेहमानों का खम्माघणी, पधारो सा, विराजो हुकम आदि शब्दों से स्वागत करने लगा। मेहमानों को स्नैक्स आदि लेने का कहते तो वह बोलता ‘आरोगो सा।’ वे जाते तो….फेर आवजो हुकम, घणीखम्मा कहता। उसके ऐसा बोलते ही मेहमान झूम उठते। वह उदास स्थितियों तक में हास्य भर देता। कुल मिलाकर कॉर्बेल ने सबका जीवन बदल दिया। उसकी मधुर मिमिक्री अवसादिक क्षणों में माधुर्य घोल देती।
सभी कॉर्बेल से खुले भी बतियाते एवं दरवाजा बन्द कर अकेले भी बातें करते। कई बार होठों ही होठों में ऐसे बतियाते मानो कॉर्बेल एवं उनके मध्य कुछ सीक्रेट्स हों। एक बार सुमित्रा की मनीषा से बिगड़ी तो व्यासजी ने उसे तोते से बात करते पाया , ‘कॉर्बेल ! बहू बहुत टेढ़ी है। आता-जाता कुछ नहीं, हर बात में टांग अड़ाती है।’ उस दिन उसने उसे अपने हाथों से काजू के टुकड़े खिलाए तो कॉर्बेल ‘थैंक यू दादी’ कह कर नाचने लगा। वह पंख फैलाकर गोल-गोल घूमने लगा। सुमित्रा कमरे से बाहर आई तब बहुत प्रसन्न थी। कहां व्यासजी लाख प्रयास कर उसे नहीं मना पाते , कहां कॉर्बेल ने जादू कर दिया। एक अन्य दिन व्यासजी ने बहू को भी दरवाजा बन्द कर कॉर्बेल से बातें करते देखा। बहू इतनी चतुराई से बातें करती कि किसी को हवा तक नहीं लगती। उस दिन बहू बहुत खुश थी। थोड़े दिन बाद एक इतवार को सास-बहू में फिर खटराग हुई । उस दिन कॉर्बेल ने गज़ब कर दिया। वह जोर से बोला ‘टेढ़ी है।’ आश्चर्य ! यह सुनकर सास-बहू दोनों खुश थीं। सुमित्रा की बात तो व्यासजी ने सुनी थी, पर बहू क्यों खुश थी ? यकायक व्यासजी के ज़हन में बिजली कौंधी। वे इस राज को जान गए। इसका मतलब बहू ने भी बात कर कॉर्बेल को वही कहा, जो सुमित्रा ने कहा ‘सास टेढ़ी है।’ कॉर्बेल ने कुशल सम्पादन कर कॉमन शब्द बोल दिए।
कॉर्बेल से व्यासजी एवं सास-बहू ही नहीं दोनों पोतियां भी बतियाती थीं , कभी अलग तो कभी अकेले में। नई पीढ़ी की कम समस्याएं हैं क्या ? हमसे अधिक गोले इनकी खोपड़ी में घूमते हैं। कैरियर एवं निजी समस्याएं भूतों की तरह सपनों में नाचती हैं। एक दिन अनीता का मित्र दिलीप घर आया। जवान , लंबा-तगड़ा, स्मार्ट बंदा था। उस दिन घर पर व्यासजी ,सावित्री एवं अनीता ही थे। कॉर्बेल तुरत बोला, ‘पधारो सा, खम्माघणी।’ दिलीप दंग रह गया। व्यास दम्पति ने कुछ देर उसकी आवभगत की फिर बाजार जाने के बहाने बाहर निकल गए। वे लौटे तब अनीता बहुत खुश थी। उस दिन कई देर वह कॉर्बेल से गुटर-गूं करती रही। जब हम प्रसन्न होते हैं तो सर्वत्र प्रसन्नता बांटते हैं। जो भीतर है वही तो देंगे। मजा तब आया जब कुछ दिन बाद कॉर्बेल ने यह कहकर सबको चौंका दिया, ‘लव यू बेबी।’ उस दिन व्यासजी असहज हंस पड़े। उसके पास जाकर बोले , ‘कॉर्बेल ! अब तेरे जूते खाने के दिन आए।’
एक दिन अनिमेष का आफिस में यूनियन नेता से झगड़ा हो गया। इन दिनों वह बहुत व्यवधान पैदा कर रहा था। उस शाम अनिमेष कई देर बगीचे में टहलता रहा फिर भीतर आकर कॉर्बेल के कमरे में घुस गया। उस दिन कॉर्बेल ने मिमिक्री के कुछ नए शब्द प्रयोग किए। दोनों में गुफ़्तगू भी हुई। अनिमेष बाहर आया तो चेहरा प्रसन्नता से सराबोर था।
इसके एक पखवाड़े बाद व्यासजी की अनिमेष से बहस हो गई। गृहस्थी में नोक-झोंक तो होती ही है। बाप अपनी बापगिरी छोड़ते हैं क्या? यकायक कमरे से कॉर्बेल बोला, “सीआर खराब कर दूंगा।” इस बार चौक में व्यासजी एवं अनिमेष का संयुक्त अट्टहास गूंजा। वे हंसते हुए कॉर्बेल के पास आए एवं हाथ जोड़कर बोले , “प्रिय कॉर्बेल ! सब कुछ करना , सीआर मत बिगाड़ना।” वे यह भी समझ गए कुछ दिन पहले अनिमेष ने गुस्से में कॉर्बेल से क्या कहा होगा ? आश्चर्य तो तब होता जब कॉर्बेल सही समय पर सही मिमिक्री कर वातावरण को रसमय बना देता। लोग ठीक कहते हैं पक्षियों में अतीन्द्रिय शक्ति आदमी से अधिक होती है।
इन दिनों व्यासजी एवं सुमित्रा को किसी निकट रिश्तेदार के विवाह समारोह में तीन दिन शहर से बाहर जाना पड़ा। वे लौटे तो कॉर्बेल के नए शब्द सुने , ‘नो किस प्लीज!’ व्यासजी पके चावल थे , तुरंत समझ गए। उनके हरिद्वार प्रवास के दरमियान राजू अपनी गर्लफ्रैंड घर लाया होगा। हद तो तब हुई जब सुनीता के बर्थडे पर केक काटने के बाद कॉर्बेल बोला , ‘लेट्स ड्रिंक एंड डांस।’ ओह ! तो क्या सुनीता का मित्र माधव भी व्यासजी की अनुपस्थिति में यहां आया था? एक बार सुमित्रा उदास थी तो कॉर्बेल बोला, ‘लेट्स टॉक दादी।’ उसके ऐसा कहते ही वह उठकर उसके पास चली गई। व्यासजी को भी कई दफा चुप देख वह पुकारने लगता , ‘कम दादू।’ वे उठकर उसके पास जाते , उसे कहते , ‘यस कॉर्बेल ! मेरे बच्चे ! राजदुलारे ! तू कित्ता प्यारा है।’ वह तब झूमकर नाचने लगता।
कॉर्बेल ने कुछ माह में ही घर की फ़ज़ा बदल दी। कॉर्बेल से मन की भाप निकाल सभी हलके हो जाते। ओह ! मन का रेचन यदि किसी निष्पाप, पवित्र मन के आगे हो जाए तो उदासियां खुशियों में बदल जाती हैं। कलुष, वैमनस्य एवं ईर्ष्या से भरे मनुष्य से क्या मन बांटा जा सकता है ? पक्षी कितने निर्मल होते हैं , उन्हें सिर्फ देना आता है वह भी निःशुल्क। समूची प्रकृति में मनुष्य ही ऐसा जीव है, जो पाने के भाव से देता है। कोयल मीठा बोलती है क्या कोई शुल्क लेती है? रॉयल्टी लेती है ? कोई कॉपीराइट करवाती है ? क्या उसे कोई यश की अभीप्सा है ? खिलते हुए फूल क्या आपसे मूल्य मांगते हैं? कुत्ता वफादारी के लिए जान दे देता है , क्या वह प्रतिफल चाहता है ? इसीलिए तो पशु- पक्षी प्रसन्न हैं एवं मनुष्य दुःखी। यह अस्तित्व उनकी कोई मदद नहीं करता जो लेने के भाव से देते हैं। अस्तित्व का आनंद स्वार्थी लोगों के लिए है ही नहीं।
इन दिनों कॉर्बेल कभी-कभी लंबे समय के लिए चुप रहने लगा था। यह उदासी तो नहीं थी पर अवश्य कुछ था। मैंने सुमित्रा से बात की तो वह हंसकर बोली , ‘इसे तोती चाहिए।’ उस दिन घर में अनार के दाने बिखर गए।
दिन , महीने यूँ ही बीतते गए। कॉर्बेल को आए अब ग्यारह माह बीत गए। आज सुबह ब्रेकफास्ट लेते हुए व्यासजी ने यह बात छेड़ी तो सबने मिलकर यह तय किया कि हम कॉर्बेल की वर्षगांठ मनाएंगे। सभी यह सोचने लगे उसे क्या उपहार दिया जाय? जिसने व्यास परिवार को इतना कुछ दिया , सबका जीवन बदल दिया उसे वे भी तो कुछ खास ही देंगे ना ? बीती रात व्यासजी एक घण्टे सोचते रहे उसे क्या दूं ? उत्तर नहीं मिला तो वे कॉर्बेल के पास चले आए , धीरे से उसे पूछा , ‘वर्षगाँठ पर क्या लेगा रे !’ वह कुछ नहीं बोला , पिंजरे के बीच से उनके करीब आकर यूँ खड़ा हो गया मानो कह रहा हो , “अब और क्या मांगू दादू ! आपने सब कुछ तो दे दिया।” उस दिन उसे देखकर व्यासजी की आँखें नम हो गई।
गणगौर फिर आया। अनंग फिर बौराया। फ़ज़ाओं में उत्सव के गीत गूंजने लगे। खेलण दो गणगौर भंवर माने पूजण दो गणगौर…सांझ पड़े पिव लागे जी प्यारा…कुरजां ए म्हारो भंवर मिला दीजो… लड़ली लूमा झूमा हो जैसे रसभीगे गीतों से शहर का समाँ बदल गया। व्यासजी घाटी पर गणगौर का मेला देखने पहुंचे। बणी-ठणी गवरी फिर गहने पहन कर निकली। ओह ! आज वह अपने प्रिय आशुतोष से मिलेगी , अपना सब कुछ लुटाने के लिए ! सच्चे प्रेमी तो लुटकर ही पाते हैं। वे कहां हिसाब रख पाते हैं ?
व्यासजी आज जल्दी घर लौट आए , कॉर्बेल की वर्षगाँठ जो थी। वे पहुंचे तब स्वच्छ , चमकता पिंजरा डाइनिंग टेबल पर रखा था। सभी ने उनके आने के पूर्व ही सारी तैयारियां कर ली थीं। सुमित्रा ने पिंजरे की खिड़की खोल कॉर्बेल को नए वस्त्र पहनाए। बहू ने उसके गले में सच्चे मोतियों की माला पहनाई। राजू ने एक चॉकलेट भीतर रखी। अनिमेष ने काजू-मेवे पिंजरे की कटोरी में डाले। सुनीता-अनीता ने “हैप्पी बर्थडे डिअर कॉर्बेल” लिखा केक काटा तो राजू ने इसमें लगी मोमबत्ती बुझाकर मोबाइल पर गाना लगाया….बार-बार दिन ये आए, बार-बार दिन ये आए। पूरे परिवार ने जोर से इस गाने को दोहराया तो कॉर्बेल मस्ता गया। बच्चों ने जमकर डांस भी किए। तत्पश्चात हारे-थके सभी डिनर लेकर सोने चले गए।
रात व्यासजी डबलबेड पर सुमित्रा के साथ लेटे थे। सुमित्रा थकी होने से जल्दी सो गई पर उनकी आँखों में नींद कहाँ थी ? ओह प्रिय कॉर्बेल ! सभी ने तुम्हें इतने सुंदर उपहार दिए पर दादू कैसा निष्ठुर है! उसने तुम्हें कुछ नहीं दिया ? इसीलिए तो तुम आतुर आंखों से बार-बार दादू को देख रहे थे।
रात गहराने लगी थी। अर्धरात्रि के कुछ पूर्व व्यासजी उठे एवं कॉर्बेल के कमरे में आए। कमरे में जीरो बल्ब का हल्का नीला प्रकाश बिखरा था। उन्हें देखते ही कॉर्बेल चौंका तो वे पिंजरे के समीप आकर बोले , “कॉर्बेल! मैं कई दिनों से सोच रहा था तुम्हें क्या दूं ? बच्चे ! तुमने हमें सब कुछ दिया , हंसाया-गुदगुदाया पर हम तुम्हारी जरूरत, तुम्हारा दर्द कभी नहीं समझ सके। मनुष्य बड़ा निष्ठुर हे रे ! उसे सिर्फ लेना आता है, देना उसने कब सीखा है ?” कहते-कहते जाने क्या सोचकर व्यासजी के हृदय में संवेदनाओं का सैलाब उमड़ आया, स्वर भर्रा गया एवं आंसुओं के मोटे-मोटे कतरे कपोलों से बह गए।
कांपते हाथों से व्यासजी ने पिंजरे का मुख्य द्वार खोला, कॉर्बेल को बाहर निकाला एवं उसे लेकर बाहर बगीचे में आ गए। उन्होंने एक गहरी सांस ली एवं कॉर्बेल को कुछ कहने का प्रयास किया तो गला भर गया, शब्द भीतर अटक गए। असहज उन्होंने ऊपर आसमान की ओर देखा। आज़ाद, मगरूर तारे हीरों के टुकड़ों की तरह चमक रहे थे। अभी-अभी बदलियों के झुंड से छूटकर आया चंद्रमा और तेजोमय होकर चमकने लगा था।
व्यासजी के पैर अब लड़खड़ाने लगे थे। उन्होंने अंतिम बार कॉर्बेल को चूमा एवं खुले आसमान में छोड़ दिया।
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28.04.2023