निष्कर्ष

यह पेड़ों पर नई कोपलें आने का मौसम था।

इन दिनों पूरे शहर की रंगत बदल गई थी। यही वह समय था जब दिन साफ-शफ्फाक एवं रातें चांदनी में नहाई हुई लगती हैं। सूरज जो अब तक ठिठुरन में दुबका हुआ था यकायक तेवर दिखाने लगा था। इसी के चलते समूची प्रकृति का मिजाज ऐसा बन गया था जैसे पुराना लबादा छोड़ नया चोगा पहने किसी फकीर को नवबोध हुआ हो।

मेरे घर के बाहर भी सुबह की उजली धूप उतर आई थी।

इस धूप में लेकिन वह गरमी कहाँ थी जो हमारे घर के भीतर डाइनिंग टेबल पर छिड़ी चर्चा से उठ रही थी।

हर दिन ब्रेकफास्ट पर हमारे यहां किसी न किसी विषय पर चर्चा छिड़ जाती है। यह विषय कभी पारिवारिक समस्या से सम्बद्ध होता है , कभी मित्र-रिश्तेदारों को लेकर तो अनेक बार सामाजिक-राजनीतिक एवं आध्यात्मिक मुद्दों तक पर लम्बी गुफ़्तगू हो जाती है। हमें एक-दूसरे की खोपड़ी खुजाने में अद्भुत आनन्द मिलता है। जैसे पानी गर्म होने पर भाप उठती है , हमारे यहाँ ब्रेकफास्ट भीतर उतरते ही बतियाने का खमीर उठता है। इस बातचीत में अनेक बार खेमे तक बन जाते हैं , कुछेक बार तो वाकयुद्धों तक की नौबत आ जाती है। एक बार ऐसी ही बहस में मैं हावी हुआ तो प्रज्ञा दो दिन तक नहीं बोली। मैंने मन ही मन कहा, “मत बोल ! मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊं।”  वह कौन-सी कम थी , दो दिन वे डिशेज बनाई जो मुझे जरा पसंद नहीं थी। तीसरे दिन मुझे लुगाई की ताकत का अहसास हुआ। मैंने यह कहकर हथियार डाल दिए  “यार! उस दिन तू ही ठीक थी” तब जाकर स्थितियां सामान्य हईं। बड़े-बड़े विद्वान तक जब स्त्री के आगे बौने बन जाते हैं तो मैं किस खेत की मूली हूँ ? अनुभवी विज्ञ यूँ ही थोड़े कह गए हैं , जो सुख चावै जीव का तो मूरख बणकर जी।

बहुधा हर चर्चा कहीं न कहीं कोई सार ढूंढ लेती है। आज के मंथन में लेकिन अमृत अब भी नदारद था। इतनी बहस के बाद भी कोई उत्तर नहीं मिल रहा था। विषय फिर इतना दिलचस्प था कि जिज्ञासा थमने की बजाय परवान चढ़ रही थी।

मेरे कुनबे में या यूं कहूँ आज की बहस में कुल आठ लोग थे। मैं, प्रज्ञा , बेटा- बहू , पोता-पोती बने छः एवं चूंकि आज बेटी-दामाद भी बनारस से आए हुए थे , आठ कुर्सियों वाली डाइनिंग टेबल फुल थी। हमारे यहां बैठने की कुर्सी भी तय है। मैं, प्रज्ञा बीच वाली कुर्सियों पर बैठते हैं तो बाकी साइड की कुर्सियों पर। बेटी दाएं कोने वाली कुर्सी पर बैठती है जो उसके विवाह के पश्चात बहुधा खाली रहती है। ब्रेकफास्ट में देरी होने पर बहुधा मैं उस कुर्सी को तकता। उसकी माँ नाश्ता लगाकर जब कहती तुम सभी पहले कर लो तो वह अड़ जाती, “ना मम्मी ! ब्रेकफास्ट करेंगे तो साथ अन्यथा नाश्ते का क्या मजा ?” बेटी-बहू मिलकर तब प्रज्ञा को रसोई समेटने में मदद करते तत्पश्चात हमारा सामूहिक भोज प्रारंभ होता। ओह ! सहयोग एवं साहचर्य किस तरह हमारे आनंद को दूना कर देते हैं। सहभोज पेट भरने के साथ मन को भी प्रफुल्लित करता है। आज तो लेकिन बिटिया थी। उसने आज भी वही किया जो पहले करती थी यानी टेबल पर नाश्ता लगा था एवं हम सभी साथ बैठे थे।

ब्रेकफास्ट के दरम्यान आज एक अजीब-सा प्रश्न उभर आया “आखिर भगवान खाता क्या है ?” यह प्रश्न भी कोई पूर्वचिन्तित प्रश्न नहीं था , बस अनायास प्रकट हो गया। दामादजी खाने के शौकीन हैं। वे जब नाश्ते पर डटे थे बिटिया उन्हें छेड़ते हुए बोली, “मम्मी ! देखो तो ! इनका वजन पिछले वर्ष से पांच किलो बढ़ गया है पर ये भोजन का मोह नहीं छोड़ते।” दामादजी कौनसे कम थे, हंसकर प्रज्ञा की ओर देखते हुए बोले “मम्मीजी ! बनाया आपने , खिलाया आपने। यह तो वही बात हुई दाता दे और भंडारी का पेट दुखे। आप ही बताओ आदमी अपने छोटे-से मुंह से कितना भर खा सकता है ?” यह नहले पर दहला था।

“मम्मी ! आपने वह कहावत भी सुनी होगी , मुंह सुपारी पेट पिटारी। वह इन पर खूब लागू होती है।” बिटिया कौन-सी पीछे रहने वाली थी।

“मैडम ! कुछ खाऊंगा तो काम करूंगा। आज दिनभर जोधपुर में कार्य है। तुम्हारी परचेजिंग करनी है। यहां के मसाले-मिठाइयां लेनी हैं। कुछ हैंडीक्राफ्ट आइटम्स बुक करने हैं। तुम ही तो कह रही थी इस बार बन्धेज की चार बढ़िया साड़ियां खरीदनी है।” वे बिटिया की कोहनी पर गुड़ लगाते हुए बोले।

प्रज्ञा को बिटिया का टोकना अखरा तो वह आँखें तरेरती हुई बोली, “खाने दो उन्हें! तुम्हें कुछ तमीज है कि नहीं ?” उत्तर देते हुए प्रज्ञा की आंखों में दुलार सिमट आया था। उसका स्नेह देख मुझे ख्यात आंचलिक गीत के बोल याद हो आए….एक बार आओजी जंवाईजी पाँवणा, थानै सासूजी बुलावै घर आव जंवाई लाडकड़ा।

सास की शह मिलते ही जंवाई ने मोर्चा संभाल लिया।

“जरा इसे समझाओ मम्मी ! इससे पूछो दुनिया में ऐसा कौन है जो बिना खाए चलता है ? ऊर्जा तो भोजन से ही मिलती है।”  दामादजी दबे होठों मुस्कराते हुए बोले।

स्थिति देख मैंने बीचबचाव किया।

“सच कहा आपने ! संसार में जड़-चेतन सभी को ईंधन तो चाहिए। बिना खाए कोई कैसे चलेगा ?” मैंने दामादजी को दुलारते हुए उनका तर्क परवान किया। मेरे बोलते ही उनका हौसला बढ़ गया , चहक कर बोले-

“यस पापा ! मनुष्य ही क्यों , पशु-पक्षी , वनचर, जलचर, नभचर यहां तक कि पेड़-पौधों तक को भोजन मिले तो चले। चेतस ही क्यों जड़ चीजों को ही लीजिए , क्या स्कूटर, कार, ट्रेन, प्लेन बिना ऊर्जा चल सकते हैं ?” यह कहते हुए उन्होंने बिटिया से नजर चुरा कर सामने प्लेट में रखे दो गुलाबजामुन और उदरस्थ किए।

बिटिया की गोटियां पिट गईं।  कुछ पल सोचकर बोली, ‘‘भगवान तो कुछ नहीं खाते, पर वे भी तो सारे संसार को चलाते हैं। पृथ्वी ही क्यों चांद, तारे, नक्षत्र यहां तक कि समूचा ब्रह्मांड उनके इशारे पर ही तो चल रहा है।’’ मैंने दामादजी की ओर देखा। उनकी दशा ऊंट पहाड़ के नीचे आने जैसी थी।

बस यहीं से आज की चर्चा गरमा गई। आखिर भगवान खाता क्या है? उसकी ऊर्जा का स्रोत क्या है ?

बिटिया अनन्या की बात को सुन सभी आश्चर्यचकित रह गए पर मैं गौरव भाव से भर उठा। मुझे पहली बार लगा मैंने उसके लिए दर्शनशास्त्र का चयन कर कोई गलती नहीं की। वह प्रारंभ से ही प्रतिभावान थी। पूत के पग पालने में दिखते हैं। घर की बातों में ऐसे-ऐसे प्रश्न उठाती कि सुनने वाला दंग रह जाता। एमए दर्शनशास्त्र में करने के बाद उसने इसी विषय में पीएचडी की , दो वर्ष पूर्व अभिजीत से विवाह हुआ एवं सौभाग्य से बनारस विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक पद पर चयनित हो गई। दामाद अभिजीत यूँ तो इंजीनियर एमबीए हैं पर वे पिता के पुश्तैनी अनाज व्यवसाय से ही जुड़ गए। दोनों की जोड़ी खूबसूरत है। अनन्या अब तीस की होने को आई। अभिजीत उससे दो वर्ष बड़ा है। उसका साला यानी हमारे सुपुत्र  अनन्त अनन्या से पांच वर्ष बड़ा है। बहू भावना उससे एक वर्ष छोटी है। दोनों एमए इंग्लिश साथ कर रहे थे एवं इस दरम्यान ही अनन्त ने भावना से विवाह का निर्णय ले लिया। दोनों इसी शहर में प्रशासनिक परीक्षाओं में चयन हेतु कोचिंग सेंटर चलाते हैं एवं यह सेंटर अब शहर का अग्रणी संस्थान है। मुझे बैंक से सेवानिवृत्त हुए पांच वर्ष बीत गए हैं। सेवानिवृत्ति के दिन विदा करते हुए महाप्रबंधक ने ठीक ही कहा था, “आनंदप्रकाशजी ! सारी उम्र आपने खूब मेहनत की पर अब नाम के अनुरूप आपके आनंद से रहने के दिन आए हैं।”

सूरज कुछ और ऊपर चढ़ आया था। भगवान क्या खाता है विषय पर चर्चा भी उतनी ही गरम हो चली थी। सभी अपनी-अपनी बात रख रहे थे यहां तक कि इस चर्चा में सहभागी हम सभी को पोता अभिमन्यु एवं उससे दो वर्ष छोटी अवनि ऐसे देख रही थी मानो टेबल पर कौतुक उभर आया हो एवं वे भी इस चर्चा में भाग लेने के उत्सुक हों।

चर्चा में सभी अपने-अपने तर्क रख रहे थे। मैंने कहा, “भगवान भक्तों का चढ़ाया प्रसाद खाते हैं, हो सकता है सब का नहीं खाते पर कुछेक का ग्रहण कर लेते हैं। सम्भवतः यही उनका भोजन हो।” कहते हुए मैंने बिटिया की ओर देखा। उसका चेहरा बता रहा था उसे यह बात हजम नहीं हुई। मैंने ठीक ही सोचा था। अब वही बोल रही थी।

“पापा! ऐसा न कभी सुना गया है न देखा गया है। यह उत्तर न तर्कसिद्ध है न अनुभूत, न ही किसी पुस्तक में लिखा है।”  उसने बात आगे बढ़ाई।

“लिखा है अनन्या!  सुना भी है! क्या भगवान ने करमा का खीच, विदुर का साग, शबरी के बैर नहीं खाये थे ?” मेरे उत्तर में दम था पर अनन्या अब भी संतुष्ट नहीं थी।

“पापा ! कथा-कहानियों की बात अलग है। आप प्रश्न के मूल तत्व को पकड़िए। जैसे अभी आपके दामादजी ने दो गुलाबजामुन गले से नीचे उतारे वैसे भगवान खाता क्या है ?” यह कहते हुए उसने पति की ओर ऐसे देखा मानो कह रही हो मुझे अंधा नहीं समझना। स्त्री जिस ओर नहीं देखती उस ओर भी उतनी ही मुस्तैद नजर रखती है।

बुआ की बात सुन अब पोता दादा की तरफदारी में आया।

“दादा ! आप ठीक कहते हैं ! कृष्ण माखन खाते थे न , खाते क्या चुराते भी थे।” उत्तर देते ही वह ऐसे मुस्कुराया कि सभी उसकी भोली बात पर फिदा हो गए। अभिजीत ने बच्चे का हौसला बुलन्द किया।

“ठीक कहा पुतर ! वे चुराके खाए तो भगवान और हम परोसा हुआ खाएं तो भी पेटू।”

अभिजीत के उत्तर से टेबल पर हंसी के अनार बिखर गए। अनन्या लेकिन बात छोड़ने वाली नहीं थी।

“ओफ्फहो ! प्लीज बी सीरियस! ” उसकी आवाज इस बार पहले से तेज थी।

अब सभी गम्भीर थे। अनन्त कम बोलता है पर बहन के तेवर देख उसने मोर्चा संभाला-

“मुझे लगता है भगवान कुछ ऐसी गैसेज का भक्षण करते हैं जो यहाँ से दिखाई नहीं देती।” अनन्त ने अपना मत प्रगट किया।

“आप ठीक कह रहे हैं। यही सम्भवः है।” बहू ने पति का तर्क पुरजोर किया। उसे अनन्त की हाँ में हाँ मिलाने की आदत है।

अब पोती अवनि के पेट में कुछ कुलबुला रहा था।

“मैं बताऊं ! भगवान नूडल्स खाते हैं।” अवनि को नूडल्स बहुत पसंद है। उत्तर देते हुए उसके छोटे-छोटे दांत मोतियों से बिखर गए। सभी ने इस सहभागिता के लिए मुस्कुराकर उसका हौसला बढ़ाया। इसी बीच अनन्या ने अभिजीत की ओर इस तरह देखा कि कुछ आप भी उगलिए।

“मुझे लगता है भगवान रात अदृश्य रूप से आते हैं एवं राशन की दुकानों, सरकारी गोदामों से अनाज भक्षण करते हैं। ऐसा नहीं होता तो इन दुकानों में माल रातों रात गायब कैसे हो जाता है ?” अभिजीत का उत्तर व्यवस्थाओं पर गहरी चोट थी पर उस प्रश्न का उत्तर तो अभी भी नेपथ्य में था जो बिटिया चाहती थी। सभी के कान चौकन्ने थे कदाचित उचित उत्तर निकल आए पर प्रज्ञा समझ गई इसका असल उत्तर मिलना मुश्किल है। बातों का रुख मोड़ते हुए बोली, “चलो इस प्रश्न को छोड़ो ! आज सभी यह बताओ वह कौनसी घटना है जिसने तुम्हें जीवन में सर्वाधिक उद्वेलित किया।”

“उद्वेलित याने?” मैंने बात आगे बढ़ाई।

“याने जिसने तुम्हारे चिंतन, विचारों को नई दिशा दी।” उसने स्पष्ट किया।

प्रज्ञा की बात को सभी गम्भीरता से लेते थे। सर्वप्रथम उसने अभिजीत की ओर देखा जिसका अर्थ था आग़ाज आप करेंगे।

धूप अब खिड़कियों , दरवाजों पर उतर आई थी। अभिजीत अब गम्भीर होकर सास के प्रश्न का उत्तर दे रहे थे।

“यह बात पांच वर्ष पुरानी है। मम्मी आप जानती हैं, मैं स्कूल के दिनों से ही लगातार कक्षा में अव्वल रहता था। आगे कॉलेज में  मेरे सहपाठी ही नहीं प्राध्यापक भी मेरी प्रतिभा का लोहा मानते थे। मेरी तूती बोलती थी। एमबीए फाइनल की परीक्षा के पूर्व एक सहपाठी हेमन्त जो कक्षा के मिडियोकर, साधारण विद्यार्थियों में था, मेरे पास आया और बोला, आप तो अव्वल विद्यार्थियों में हैं। सांख्यिकी के कुछ विषयों में मैं अटका हुआ हूँ। लाख प्रयास करने पर भी समझ नहीं आ रहा। अगर आप किंचित सहयोग करें तो मेरा कल्याण हो जाए।” वह एक साधारण परिवार से था। होना तो यह चाहिए था कि मैं उसकी आगे बढ़कर मदद करता पर प्रतिभा का भूत मेरे सर पर सवार था। मैं बिफर पड़ा।

“मैं किसी ऐरे-गेरे को समय नहीं देता। तुमने मुझे खाली समझ रखा है क्या ? यूँ ज्ञान बांटता फिरूं तो अव्वल कैसे आऊंगा।” मैंने क्रूरता से उत्तर दिया। वह चुपचाप चला गया। परीक्षा परिणाम के दिन मैं यह देखकर सकते में आ गया कि हेमन्त अव्वल था एवं मैं दूसरे-तीसरे नहीं , दसवें स्थान पर था। मेरे औसान जाते रहे। गरूर बालू की भीत की तरह गिर गया। उस दिन से मैंने तय कर लिया कि मैं कभी किसी को कमतर नहीं आंकूंगा। न जाने किसमें कितनी छुपी प्रतिभा हो। इस छोटे से वाकिये का मुझ पर इतना प्रभाव पड़ा कि आज मैं दुकान के मातहतों तक से विनम्र होकर बात करता हूँ। उनका कभी शोषण नहीं करता , हर जायज मांग पूरी करता हूँ। कौन जाने कल मेरा धंधा पिट जाए एवं वे इसी अनुभव से मुझसे आगे निकल जाएं। ईश्वर जिसे चाहे राई से पर्वत एवं पर्वत से राई कर सकता है। घटना सुनाते हुए अभिजीत एक अदृश्य लोक में खो गया था। मैंने बात संभाली ।

“सच कहा बेटा ! कभी किसी को छोटा बोल नहीं बोलना चाहिए। अल्लाह की लाठी में आवाज नहीं होती पर उसकी मार कमर तोड़ देती है।”

अब बारी बेटे अनन्त की थी एवं वह अपनी बात रख रहा था।

“ये बात मेरे कोचिंग सेन्टर लगाने के दो वर्ष बाद की है जब मेरा व्यवसाय अच्छा चलने लगा था। इसी दौरान एक अत्यंत निर्धन लड़का मेरे पास आया, उसके पिता मजदूरी करते थे एवं परिवार की माली हालत अत्यंत दयनीय थी। उसका विद्यालय एवं आगे कॉलेज में भी ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा था। अत्यंत संकोच के साथ उसने मुझसे प्रशासनिक सेवाओं की कोचिंग निःशुल्क करने को कहा। उसने यह भी कहा कि इस कृपा हेतु वह मेरा अहसान जीवनभर नहीं भूलेगा एवं भाग्य ने साथ दिया तो आगे चुका भी देगा। उसकी बात ही नहीं मांग भी जायज थी। साठ बच्चों की दस कक्षाओं में उसे कहीं भी पचाया जा सकता था। यह मेरा सामाजिक दायित्व भी था पर मैंने उसे दो टूक उत्तर दिया, तुम बेवकूफ हो क्या ? घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? तुम्हें शर्म नहीं आती ऐसी बकवास करते हुए।” वह नीची आंख कर चला गया। निरन्तर सफलता ने मुझे मदांध बना दिया था, मैं उसका दर्द नहीं समझ सका। फकत तीन वर्ष बाद वह इसी शहर में जिलाधीश बनकर आया तो मेरे पांवों तले जमीन सरक गई। मुझे लगा वह अवश्य प्रतिशोध लेगा। धंधे में हजार विसंगतियां होती हैं। अपराध बोध से ग्रसित मैं उससे क्षमा मांगने गया तो उसने यही कहा, “समय सबका बदलता है सर ! लेकिन आप मेरी वजह से भयभीत न होइये।” मैंने उन्हें गुलदस्ता एवं उपहार देने का प्रयास किया तो उसने विनम्रतापूर्वक लौटाते हुए कहा , “कुछ देना ही है तो उन्हें दीजिए जिन्हें ईश्वर ने कुछ नहीं दिया है। इससे शायद आपकी आत्मा को सुकून मिले।” मुझे लगा जैसे मैं कुएं में धंस गया हूँ। वे अत्यंत विनम्रता से कह रहे थे पर उनका एक-एक शब्द मेरी आत्मा को बेध रहा था। इस एक घटना से मैं समझ गया कि समय एक जैसा नहीं रहता। जगत में मात्र समय बादशाह है बाकी सभी उसके गुलाम हैं।

अनन्त के बाद अब प्रज्ञा अपना अनुभव रख रही थी। उसकी आंखें मानो अतीत में झांकने लगी थीं। यकायक उसकी आंखें पनीली हो गईं। पल्लू के कोर से आंखें पोंछते हुए उसने बताया , “कॉलेज के दिनों में मेरे रूप के चर्चे थे। मैं लगातार दो वर्ष मिस कॉलेज रही। अगले वर्ष प्रतियोगिता में अन्य रूपसियों के साथ एक पके रंग की सांवली लड़की भी थी। उसका नाम चाँदकुंवर था। उसे देखकर जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गया, अब हब्शनें भी ऐसी प्रतियोगिताओं में आएंगी क्या? रंग कौव्वे का नाम चाँदकुंवर।” यह कहकर मैं हंस पड़ी। उसने न सिर्फ मुझे देखा सुन भी लिया। आश्चर्य ! उस वर्ष उसी का चयन हुआ। मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। चयन बोर्ड के अध्यक्ष ने उसे ताज पहनाने के बाद उद्बोधन दिया तो मेरा सर घूमने लगा। उनकी बात का सार यही था कि रूपवती होने से भी कहीं अधिक मनुष्य के मैनर्स, सिद्धांत  महत्वपूर्ण हैं । विजेता प्रतिभागी का रंग भले सांवला हो, उसकी वाणी, व्यवहार एवं विद्वता बेमिसाल है। उसने ज्यूरी के हर प्रश्न का सटीक उत्तर दिया। उस दिन मुझे समझ आया कि रूप गुणों के अभाव में व्यर्थ हैं। उनके उद्बोधन के एक-एक अक्षर आज भी मेरे हृदय पर अंकित है। हम किसी से दिल्लगी न करें। हँसी की खसी हो जाती है, इसीलिए मैं आज भी किसी भी व्यक्ति की ऊंचाई उसके रूप से नहीं आंकती। रूप ढल जाते हैं पर गुण अनुदिन निखरते हैं। ’ अपनी बात पूरी करते प्रज्ञा के शब्द अटकने लगे , आंखें आंसुओं से भर गईं।

अब सबकी नजरें मेरी ओर थीं। अपने इस खास अनुभव को बताने के पूर्व क्षणभर को मेरी आँखें मुंद गईं। मैंने धीरे-धीरे अपनी आंखें खोलीं एवं अपनी बात कहने लगा, “यह मेरे यौवन की बात है। तब मेरे  पिता ने मेरे ही कहने पर एक नई कार खरीदी थी। ड्राइविंग मेरा पैशन, फितूर था। मुझे मेरी ड्राइविंग पर इतना आत्मविश्वास हो गया कि मैं लापरवाह बन गया। उन दिनों शहर में कम गाड़ियां होती थी, मैं भीड़ भरी जगहों पर भी तेज रफ्तार से चलाता। लोग मुझे कार चलाते देख सिरफिरा कहते पर मैं किंचित् ध्यान नहीं देता। एक बार देर रात एक पार्टी से बीयर पीकर घर लौट रहा था। मैं स्टीयरिंग पर पूरे आत्मविश्वास से बैठा था। उस दिन बारिश होने से सड़कें पानी से भर गई थीं। इसके बावजूद मैं नित्य की तरह तेज गाड़ी चला रहा था। यकायक एक मजदूर सड़क किनारे खड़े पेड़ के पीछे से निकला एव मेरी गाड़ी के नीचे आ गया। अब तो अफरा-तफरी मच गई। मैंने भागने की कोशिश की। यह मेरा दूसरा गुनाह था पर वहां खड़े कुछ लोगों ने मुझे दबोच लिया।  भीड़ ने पहले तो मेरी धुनाई की फिर पुलिस को सुपुर्द किया। मुंह लाल हो गया, आंखें शर्म से झुक गईं। पिताजी थाने आए तो थानेदार ने कहा,  “अगर मजदूर को कुछ हो गया तो इसका जेल जाना तय है।” मैं एवं पिताजी दोनों कांप उठे। हमारा पूरा परिवार मजदूर की तीमारदारी में लग गया। सौभाग्य से वह कुछ दिनों में ठीक हो गया , पिताजी ने उसे क्षतिपूर्ति रकम भी दी तो उसने केस आगे नहीं बढ़ाया अन्यथा कैरियर चौपट हो जाता। इसके बाद पिताजी ने गाड़ी बेच दी। मैं फिर साईकल पर आ गया। तब मुझे बोध हुआ कि कुछ भी पाकर हमें हमारी सीमाओं में रहना चाहिए। वक्त का मिज़ाज बदलते देर नहीं लगती।“ कहते-कहते मैं हांफने लगा था।

टेबल पर अब चुप्पी पसर गई थी।

यकायक बिटिया अनन्या तेज आवाज में बोली, “मिल गया! मुझे उत्तर मिल गया पापा।” उसके चेहरे की चमक देखने लायक थी।

“क्या ?” इस बार मैं ही नहीं सभी एक साथ बोले।

“भगवान अहंकार खाता है। उसका यही भोजन है। मनुष्य के प्रज्ञाचक्षु इसी से खुलते हैं।” कहते हुए उसने हल्की मुट्ठी से टेबल को ठोका।

इस अद्भुत उत्तर के आगे हम सभी निरुत्तर थे। अब सभी एक-एक कर टेबल से उठ रहे थे।

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07.08.2023

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