वह दिन भी आम दिनों जैसा ही था जब सूरज पूर्व से अंगड़ाई लेते हुए ऊपर उठा था , दूधवाले ने ‘ बीवीजी दूध ’ कहकर आवाज़ लगाई थी एवं अखबारवाला नीयत समय पर अखबार डाल गया था। रोज की तरह साक्षी ने ‘ चाय ’ का उद्घोष कर चाय एवं अखबार पलंग के समीप पड़े स्टूल पर रख दी थी एवं अन्य दिनों की ही तरह मुझे इस बात पर चिड़चिड़ मची थी कि ये साक्षी रजाई में आनंद लेने का स्कोप ही नहीं देती। खैर! मैं उठा , पलंग पर बैठे चाय का सिप लिया, सरसरी निगाह से अखबार देखा एवं इसे पुनः स्टूल पर रख दिया। कोई नई बात हो तो आंख गड़ाकर पढ़ें। वही रोजमर्रा की खबरें , दुर्घटना, बलात्कार , सड़क के गड्ढे एवं राजनेताओं के धर्म के नाम पर भड़काऊ बयान। एक मंदिरों की राजनीति कर रहा है तो दूसरा मुसलमानों की दाढ़ी सहला रहा है। जो सत्ता में आएगा सिस्टम को जमकर लूटेगा , विकास की ऐसी-तैसी।
नहा धोकर मैंने नाश्ता किया तब तक दोनों बच्चे स्कूल एवं साक्षी स्नानघर में चली गई थी। मैं तो सदैव नित्य कर्म से निवृत्त हो, स्नान-पूजा कर ही नाश्ता करता हूँ। साक्षी रसोई की खटपट पूरी कर स्नान करने जाती है। मुझे समझ नहीं आता वह नित्य ठंडा नाश्ता क्यों करती है ? एक बार मैंने झिड़का भी तो तुनक पड़ी, ‘रसोई तुम्हारी माँ बनाएगी क्या ?’ उसके तेवर इतने तीखे थे कि मैं अपना-सा मुंह लेकर रह गया। मैं प्रत्युत्तर देता तो वह जुबान ढाई गज और बढ़ा देती। मैंने मन ही मन उसे ‘दुष्ट’ कहा, नाश्ता पूरा किया एवं कमरे में चला आया।
अब मुझे बैंक पहुंचने की जल्दी थी। मैंने कपड़े बदले तब तक साक्षी बाथरूम से आ गई थी। ओह , वह आज भी कितनी कमसिन है। चम्पे के फूल जैसा गोरा रंग, सुंदर नक्श एवं अब तो भीगे बालों में उसका रूप दमक रहा था। लटें गालों पर यूँ चिपकी थीं मानो नाग मलय वृक्ष से लिपटे हों। काली पलकें, रसीले होठ, गीले गदराये स्तन एवं ताजा प्रसाधनहीन चेहरा उसके रूप में चार चांद लगा रहा था। भीगी हुई औरतें कितनी सुंदर लगती हैं। मैं फिसला एवं उसकी ओर चुम्बन की नीयत से बढ़ा तो बोली, ‘ शादी किए दस वर्ष हुए पर तेवर अब भी मजनुओं जैसे हैं। आज आपके पास बैंक तिजोरी की दूसरी चाबी है, जल्दी पहुंचो नहीं तो जनता चिल्लाएगी, दो दिन मैनेजर अवकाश पर क्या गया अंधेर मच गई।’
अब मैं स्कूटी पर उड़ रहा था। हवा में खुनकी थी लेकिन तनाव की गरमी में मौसम का अहसास लुप्त हो चुका था। पूरे रास्ते धुंध थी पर मैं समय पर पहुंच गया। हेड कैशियर तिवारीजी स्ट्रोंगरूम के बाहर मेरा इंतजार कर रहे थे। बैंक में स्ट्रोंगरूम के भीतर समस्त कैश रखा होता है। रूम के बाहर पहले मुख्यद्वार जो आधा फुट मोटे स्टील का बना होता है फिर ग्रीलगेट एवं इसके अंदर आने पर मुख्य तिजोरी रखी होती है। ये सभी दो चाबियों से खुलते हैं जिन में एक मेरे पास थी।
कैश खुलवाकर मैं बाहर आया एवं मैनेजर की कुर्सी पर बैठ गया। अब मुझे ठंड का अहसास हुआ, मैंने दोनों हथेलियों को एक-दूसरे से रगड़ा तो राहत मिली। ओह, मैनेजर की कुर्सी पर बैठने का कैसा स्वर्गिक सुख है। यकायक लगा बाहर खड़े ग्राहक एवं स्टाफ मुझे आज अन्य नजरों से देख रहे हैं। इस नज़र में आदरभाव के साथ ईर्ष्याभाव भी घुला था , दो दिन मैनेजर क्या गया सिक्के चला दिए , अब इसकी हेकड़ी भी झेलनी पड़ेगी, ज्यादा बताई तो दो दिन बाद लोई उतार देंगे। पता नहीं वे सब ऐसा सोच रहे थे या नहीं पर मेरे जेहन में ऐसे ही विचारों की खिचड़ी खदबद कर रही थी। ईमानदारी से सोचें तो अधिकांश दुःख हमारे स्वयं की असुरक्षा ,भय एवं अपराध-बोध के दुश्चिंतन हैं।
नित्य डाक मैनेजर खोलता था। आज मेरे पास आई तो मैंने सबसे पहले हेडऑफिस का बड़ा लिफाफा खोला। इसमें कुछ परिपत्र एवं एक और छोटा बंद लिफाफा था। ओह! इसमें क्या है ? अवश्य मैनेजर के स्थानांतरण-आदेश होंगें। उसे इस शाखा में रहते चार वर्ष होने को आए। इसका मतलब नया मैनेजर आने तक कुछ समय अपनी मैनेजरी पक्की। ऐसा सोचते ही मेरे भीतर हर्ष की लहर दौड़ गई। अब तिवारी, शर्मा, चौधरी मुझे अवकाश हेतु आवेदन देंगे। मेरी मर्जी , अवकाश स्वीकृत करूं न करूं। कम से कम बिना जवाब दिए पूरे दिन टेबल पर रखूंगा। स्वीकृति- अस्वीकृति के असमंजस में वे कैसे कुलबुलाएँगे ? वेतन अग्रिम देने के पहले तो घर तक के कार्य करवा लूंगा। तब उन्हें पता चलेगा वरिष्ठों की क्या वखत है एवं उन्हें नित्य आदर देना चाहिए। उन्हें क्या पता सौ टांकी खाकर एक महादेव बनते हैं।
आनन-फानन मैंने लिफाफा खोला। पढ़ते ही तोते उड़ गए। यह स्थानांतरण- आदेश ही था, मैनेजर का नहीं खुद मेरा। लगा जैसे किसी दानव ने मेरे मंसूबे के गुब्बारे पर पिन मार दी हो। चेहरा लटक गया। मेरा ट्रांसफर जोधपुर से तीन सौ किमी दूर कुराबड़ बतौर मैनेजर कर दिया गया था।
मैं मेरे मूल वतन से दूर जाने को बिल्कुल इच्छुक नहीं था पर सरकार है , धणी रो कुण धणी, नौकर को चाहे जहां भेजें। सरकार को दर्द थोड़े होता है , दर्द तो आदमी को होता है। मुझे तो यह तक पता नहीं था यह कस्बा है या गांव। बाद में पूछताछ से पता चला कि यह उदयपुर से पचास किमी दूर एक ग्राम पंचायत है एवं चूंकि यहां मक्की, तिलहन का बड़ा बाजार है अतः कस्बे जैसा लगता है।
दो दिन बाद शुक्रवार शाम मैं जोधपुर से कार्यभारमुक्त हुआ एवं अगले सोमवार सुबह कुराबड़ जाने के लिए उदयपुर के एक प्राइवेट बस स्टैंड पर खड़ा था। यहीं से मेरे गंतव्य की बस जाती थी। इस रास्ते मात्र एक सरकारी बस दोपहर को चलती थी जो मेरे काम की नहीं थी।
मैंने बस देखी तो एकबारगी लगा जैसे किसी अजायबघर का एंटीक पीस हो। यह एक तीस साल पुराना मॉडल था जिसे किसी कुराबड़वासी ने कुछ हेरफेर कर गांव आने-जाने के लिए लगा दी थी। बस के आगे एक मुची हुई लोहे की प्लेट लगी थी जिसके ऊपर अस्पष्ट बस नम्बर एवं नीचे ’ छप्पनछुरी ’ लिखा था। इस नाम को पढ़ते ही मुझे साक्षी की याद आई जिसे प्रेम के मादक क्षणों में एक बार मैंने इसी संबोधन से खुश करने का प्रयास किया था। मुझे सुनकर हिंदी में पीएचडी साक्षी ने पहले तो मुंह बिगाड़ा फिर बोली, ‘वाणिज्य के विद्यार्थियों में बिलकुल अक्ल नहीं होती, कम से कम उपमा तो ढंग की देते। सुंदर, जानलेवा, हसीन कुछ भी कह देते।’ मैं सकपका गया। तब मैंने यह कहकर बात समेटी कि चांद को कोई भी उपमा कम पड़ती है। इस बार तीर निशाने पर लगा। अनियंत्रित वह मेरी बाहों से लिपट गई।
ओह , मैं भी कहां खड़े क्या सोचने लग गया। मैंने बस को चारों ओर घूमकर गौर से देखा तो लगा उसका एंटीक शबाब हर साइड में समान था। जैसे एक बूढ़ी का अंग-अंग बूढ़ा होता है, यही दशा बस की थी। चारों टायर पुराने थे एवं इन्हें मजबूत बनाने के लिए इन पर मोटे रबड़ का पट्टा चढ़ा था। इसी से झूलते हुए एक छोटा टुकड़ा बाहर लटका था। गाड़ी की लोह-त्वचा के कई पतरे ऐसे उभरे थे कि अगर आप ध्यान न दें तो वे आपके कपड़े खींचकर पूछ सकते थे, आप कौन? कहाँ से आए? बॉडी पर पैंट था या नहीं अथवा कब हुआ का आकलन बैंक चयन के लिए हुए आईक्यू टेस्ट से भी कठिन था। बॉडी की पूरी छत पर एक काला लोहे का स्टैंड था जिस पर पीछे लगी एक सीढ़ी से खलासी बोरियां चढ़ा रहा था। इनमें कुछ में मौसमी फल, कुछ में ताजा गुड़ था जिनमें चिपकी मक्खियां बेटिकट साथ चढ़ रही थीं। बस के बांई तरफ एक गुब्बारेनुमा भौंपू लगा था, इसी से एक काली चोटी लटकी थी। इसी के नीचे आयरन बॉडी पर लिखा था ‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला।’ मैंने पढ़ा एवं पढ़ते ही किसी फिल्मी गीत की यह पंक्तियां बरबस याद हो आईं…..सुभानअल्लाह! हँसी चेहरा, ये मस्तानी अदाएं खुदा महफूज रखे हर बला से..हाय।
मैं बस के अंदर आया एवं ड्राइवर की सीट के पीछे पहली सीट पर बैठ गया। मेरे दाएं दो और यात्री पहले से बैठे थे। कोने में बैठा आदमी मुझसे डबल एवं तोंदिल भी था। ड्राइवर का नाम भंवरसिंह था जैसा कि कुछ व्यापारी उसे पूरे नाम से तो कुछ भँवरजी तो कुछ बन्ना कहकर रास्ते की डाक दे रहे थे। यह व्यापार उसके लिए चांदी था। यह शुल्क सीधे उसके खींसे में जाता था।
यकायक भंवरसिंह मुड़ा, मेरी ओर ऐसे देखा मानो पूछ रहा हो, ‘नये हो ?’ उसका मुंह चेचक के दागों से भरा था। मूंछें ऐसी जैसे कोई डाकू हो। मटिया पोलिसनुमा कपड़े गंदे , चीकट से भरे थे। उसके मेरी ओर मुड़ते ही दारू की एक गन्दी दुर्गंध मेरी नाक में चढ़ गई। अवश्य रात को जमकर पी होगी। उसे हिलते देख मैं कांप गया। मैं मन ही मन बुदबुदाया , ठिकाने तो पहुंचा देगा ?
बोनेट के आगे की दशा और भयानक थी। वहां अनेक देवताओं के चित्र के साथ क्रॉस लगी जीजस की तस्वीर भी थी। एक अन्य तस्वीर पर 786 अंक के नीचे उर्दू में कुछ लिखा था। गुरु गोविंदसिंह की भी एक तस्वीर अन्य तस्वीरों की तरह धूल में अटी अलग से रखी थी। मुझे समझ नहीं आया यह कुराबड़ यात्रा है अथवा कोई साम्प्रदायिक सद्भाव यात्रा। बोनेट एवं सभी सीटें धूल से सटी थीं। लोग बैठेंगे तो स्वतः साफ हो जाएगी। थोड़ी देर में बस पूरी भर गई। खलासी अब कंडक्टर बनकर पैसे वसूल रहा था। बस डीजल की थी, अतः चलने से पूर्व इसका गर्म होना आवश्यक था। भंवरसिंह ने बस की चाबी लगाई तो टेप चल पड़ा…जीजा जोबणियो जलेबी भरी रस की , थारे साथ चालूँगी म्हारे जचगी। इसी गाने के क्रम में दूसरा गाना ‘इंजण की सीटी में म्हारो मन डोले’ बजा तो जाने क्यों मेरे सामने बैठी एक ग्रामीण युवती लजा गई। मेरी ओर देखकर उसने ऊपर के दांतों से नीचे का होंठ काटा तो मैं झेंप गया। मैंने मुंह ड्राइवर की ओर कर लिया।
इस स्टेशन पर चढ़ने वालों में कुछ संभ्रांत लोग भी नजर आ रहे थे। ये तीन-चार अध्यापिकाएं थीं जो उदयपुर से नित्य अप-डाउन करती होंगी। एक डॉक्टर भी था जैसा कि एक अध्यापिका उसे डॉक्टर साहब कहकर समीप बैठने का अनुरोध कर रही थी। यह भी शाम तक गांव से भाग जाता होगा। सरकार तो चाहती है उसके नुमाइंदे गांव में बैठे , उनकी सेवा करें , उनकी समस्याएं समझें इनके सम्पर्क में आकर गांव संस्कारित हों पर वहां रहना कौन चाहता है ? सभी जगह अँधेर है , कोई अंकुश नहीं। गांव इसीलिए तो वैसे ही रह गए हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद इसीलिए तो गांवों का विकास नहीं होता।
इस संभ्रांत वर्ग को छोडकर बाकी सभी ग्रामीण लोग थे जिनमें अधिकांश बीड़ी पी रहे थे। पूरी बस में एक अजीब-असहनीय गन्ध फैल चुकी थी। मैं मन ही मन बुदबुदाया, “प्रभु ! जल्दी पहुंचा देना। कुराबड़ आते दम न निकल जाए।” इसी बीच पीछे से आवाज आई , “भंवरु ! बस गरम हो गई है , अब उठा दे।” उसके कहते ही कोई और बोल उठा , “पुराणी लुगाई एवं पुराणी बस देरी से गरम होवे।” मैं फिर झेंपा। मैंने चोर आंखों से उसी ग्रामीण युवती की ओर देखा। इस बार वह आह भरकर नीचे के दांतों से ऊपर का होंठ काट रही थी। इस वीभत्स दृश्य को देखना सम्भव नहीं था , मैंने आंखें नीची कर लीं।
अब सभी देवताओं को मनाकर भंवरसिंह ने पहला गियर डाला तो पीछे खड़े कुछ यात्रियों में आगे वाला अभी-अभी चढ़ी एक नर्स से टकरा गया। वह जोर से चीखी “व्हाट नोंसेन्स” तो धकियाने वाला यात्री अंग्रेजी प्रत्युत्तर न आने से ऐसे चुप हुआ मानो उसने कोई अपराध कर डाला हो। इसी बीच भंवर बन्ना ने दूसरा गियर बदला तो तीसरा गाना बजा…छत पे सोया था बहनोई मैं थन्नै समझ कर सो गई। सामने वाली युवती इस बार पहले तो मुस्कुराई फिर जाने क्या सोचकर हंस पड़ी। उसे हंसते हुए सबने देखा , मेरा बस चलता तो एक झापड़ मारता।
अगले स्टॉप पर स्थिति और भयानक बन गई। लोग धान के कट्टे , आटे से भरे पीपे तक लेकर चढ़ने लगे। मैं मन मसोस कर रह गया। एक आदमी तो अपनी तीन बकरियां लेकर भीतर घुस आया। बकरियां में में करती हुई बस में ही मिंगणियां करने लगीं। मैंने पेंट संभाली। ओह , यह दृश्य भी देखने लिखे थे। जाने क्या सोचते हुए मैंने आंखें मूंद लीं। तभी एक व्यक्ति मेरी गोदी में गिरा। पतला था अन्यथा अंड ढीले हो जाते। मैंने उसे घूरा तो वह उठकर यूँ देखने लगा मानो कह रहा हो, ऐसा तो यहां रोज होता है। आपके घूरने से मेरे माथे में गूमड़े नहीं उग आएंगे। मेरा बस चलता तो उसका टेंटुआ दबा देता।
यहां इतने लोग चढ़े कि अफरा-तफरी मच गई। बस में जितने लोग-लुगाई बैठे थे, उससे अधिक मुसाफिर खड़े थे। ऐसी रेलमपेल, चिल्लपों मैंने अब तक नहीं देखी। खिड़कियों के शीशे आधे टूटे थे, बस चलते ही बस में मिट्टी भरने लगी। शायद कुछ रास्ता कच्चा था। यहां बूढ़े बीच में बैठकर चिलम पीने लगे। अगले स्टॉप पर तो मेरी आत्मा दहल गई। यहां लोग सीमेंट के कट्टे लेकर चढ़ने लगे। वे कट्टे इस तरह फेंक रहे थे कि मेरी हालत खराब हो गई। क्रीम कलर का शर्ट एवं सफेद पेंट का रंग सलेटी हो गया। एक साफाधारी अध्यापिका के पास आकर ऐसे धंसा कि वह लगभग गोदी में आ गई। खचाखच भरी बस यहां से भी उठी।
गत स्टॉप पर एक ग्रामीण एक लोहे का बक्सा लेकर चढ़ा था। धक्कमपेल में वह मेरे समीप आ गया। नशेड़ी ड्राइवर हर छोटी से छोटी जगह पर बस रोक रहा था। हर स्टॉप पर सवारियां अंदर आकर रास्ता बना लेती। एक उतरता चार चढ़ते। भँवरू निष्प्रभावित बस चला रहा था। यकायक एक भैंस दौड़ती हुई बस के आगे आई तो बन्ना ने झटके से ब्रेक लगाया। इस बार बक्से वाले शख्स मुझ पर गिरे। उठे तो चर्र की आवाज आई। मैंने नीचे देखा , बक्से के कोने ने पेंट की शहादत ले ली थी। घुटनों के पास एक लीरी लटक गई। मैं गुस्सा हुआ तो वह उल्टे मुझ पर चढ़ गया, “आपकी वजह से बक्सा मुच गया।” मैं चुप बैठ गया , उसका बस चलता तो मुआवजा लेता। तभी गाड़ी खड़खड़ करती यकायक रुक गई। खलासी चिल्लाया, “अगला टायर पंचर हो गया है।” यहां सवारियां नीचे उतरी। टायर बदलने में आधा घटा लगा, बदलते ही सभी पुनः सवार हो गए। इस बार मैं कोने वाली सीट में बैठ गया। टूटी खिड़कियों से सर्दी ही तो अधिक लगेगी, बक्सा वाला तो नहीं गिरेगा।
अब कुराबड़ मात्र दस किमी पर था। चालीस किमी पार करने में दो घण्टे लग गए। मैं अपने दुर्भाग्य को कोसने लगा। कैसे ऐसे गांव में रहूंगा ? कहाँ शहर में शिक्षित, संभ्रांत ग्राहक आते थे , कहां ऐसे लोगों से पाला पड़ेगा।
अचानक भंवरसिंह ने बस रोकी एवं जोर से चिल्लाया , ‘बस आधा घण्टा यहीं रुकेगी, काली आंधी चढ़ी है। ’ कुछ मिनटों में ही आंधी ने बस को घेर लिया। टूटे शीशों से आंधी ने बस में प्रवेश किया तो आफत मच गई। मैं ऊपर से नीचे तक धूल से सन गया। आंधी ऐसी भयानक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था।
अंततः बस फिर उठी एवं कुराबड़ आया तो मुझे राहत मिली। पहला स्टॉप बैंक के आगे था। मैं नीचे उतरा, सूटकेस लेकर मुख्य दरवाजे तक आया। दो कदम चलकर मैंने बांयी दीवार के पास सूटकेस रखा। आगे चौक से होकर दांए बैंक थी जहां कोने में कैश काउंटर एवं आगे दो अन्य काउंटर थे। अंदर मुख्य टेबल के पीछे एक व्यक्ति बैठा था, जो अभी तदर्थ प्रभारी होने से ऑफिसिएट कर रहा था। टेबल पर एक लकड़ी की प्लेट रखी थी, जिस पर लिखा था ‘मे आई हेल्प यू’।
मुझे देखते ही काउंटर पर बैठा बाबू चिल्लाया, “अरे भूत ! वहीं खड़ा रह ! बैंक गन्दी करेगा।” मुझे काटो तो खून नहीं , एक बार चार्ज ले लूं । हरामजादे की चमड़ी उधेड़ दूंगा।
“अबे ! उल्लू के पट्ठे ! बैंक ऐसे भेष में आते हैं क्या ?” इस बार प्रभारी ने सुर में सुर मिलाया।
“गांव वाले क्या हाथ-मुंह नहीं धोते। जब देखो मुंह उठाए चले आते हैं। ठेके के मजदूर हो क्या?” इस बार दूसरा बाबू बोला। कहते हुए मुंह में आए जर्दे को उसने वहीं पड़ी डस्टबिन में थूका फिर उसी में पिचकारी मार दी।
मेरा क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया। इस बार मैंने किसी की परवाह नहीं की। सीधे अंदर आया एवं प्रभारी को स्थानांतरण-आदेश थमाया।
वह पढ़ता तब तक मैंने जेब से रूमाल निकालकर मुंह साफ किया। पूरा रूमाल काली मिट्टी से भर गया। मैंने मिट्टी डस्टबिन में झटककर पुनः मुंह साफ किया।
प्रभारी ने पहले शायद मुझे किसी बिजनिस मीटिंग में देखा था। उसने चश्मा आगे कर घूरकर देखा एवं इस बार पहचान लिया ।
“अरे ! ये तो हमारे नए मैनेजर साहेब हैं।” कहते हुए वह अपनी सीट से खड़ा हो गया।
उसकी आवाज सुनते ही बाबू , कैशियर सभी चौंकें।
तभी वहीं खड़े गांव वालों में एक बोला , “या कसि आंधी आई। मैनेजर साहब ने जमूरो बणा दियो।”
उसे सुनकर मेरे औसान जाते रहे। आंखें अंगारे बन गई। मैंने हलक से थूक यूँ निगला जैसे समुद्र-मंथन के समय शिव ने गरल उतारा था। ‘जमूरा’ शब्द कांटे की तरह मेरे हृदय में धंस गया था।
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19.01.2023