क्षितिज के उस पार अंधकार हटने लगा था।
प्रभात का पट खोल प्रभाकर पूर्वी छोर से प्रगट हुए तो समस्त जगत ऊर्जा एवं उत्साह से भर गया। जड़-चेतन सभी क्रियाशील हो गये। सूर्य-भक्तों ने दोनों हाथ ऊपर कर हथेलियों को मिलाते हुए उन्हें नमस्कार किया, फिर झुककर हथेलियों से पाँवों के अंगुष्ठ छूते हुए सम्पूर्ण समर्पण का भाव दर्शाया । सूर्यकणों का तेेज हृदय में धारण करते हुए वे पुनः खड़े हुए, ऊँ हिरण्यगर्भाय नमः का उद्घोष किया तत्पश्चात जलपात्र दोनों हाथों से ऊपर कर जल गिराते हुए उन्हें भावांजलि दी। ‘हे दिवाकर! आप सभी आत्माओं के जनक हैं, संचालक शक्ति हैं, आप सबका कल्याण करें।’
डबलबेड के समीप रखे स्टूल पर चाय रखते हुए नीलू ने मधुसूदन को झंझोड़ा, ‘अब उठ भी जाओ, सात बजने को है।’
सर्दी में रजाई का सुख ब्रह्मानन्द से कम नहीं है।
कछुए की तरह रजाई से गर्दन निकालकर मधुसूदन बोले, ‘थोड़ा सोने भी दो यार।‘ अलसाते हुए उन्होंने आँखें खोली तो नीलू सामने खड़ी थी। कुछ देर पहले ही उसने स्नान किया था। बालों में अभी भी जलकण तैर रहे थे, कुछ जलकण गिरकर उसके रक्तिम कपोलों पर भी बिखर गये थे। मधुसूदन ने एक हाथ निकाल कर नीलू को पकड़ा और खींचते हुए बोले, ‘थोड़ी देर रजाई में आ जाओ ना।’ उनका हाथ उष्ण एवं पकड़ दृढ़ थी। नीलू ने झटकते हुए उत्तर दिया, ‘सूरज ऊपर चढ़ आया है और आपको शरारत सूझ रही है। बच्चों को तैयार कर स्कूल भी भेजना है। काम में हाथ नहीं बटा सकते व्यवधान तो मत डाला करो।’ कहते-कहते वह कमरे से बाहर चली आयी। मधुसूदन के पास उठने के अलावा कोई चारा नहीं था। मन-मनोज भी कैसा अतिथि है? न दिन देखता है, न रात। जब चाहे बिना दस्तक दिये, कहीं भी, कभी भी, चला आता है। मनोज-रिपु शिव ही उसके त्रास से बचाये।
बेड से उठकर मधुसूदन सीधे बाथरूम में घुसे। आठ बजे तक तैयार होकर वे डाइनिंग टेबल पर थे। आज उनका पसंदीदा ब्रेकफास्ट बना था। खमन ढोकले, लहसन की चटनी, स्वीट नूडल्स एवं कड़क काॅफी। पसंदीदा भोजन भी कई बार आत्मानंद का आभास देता है। उन्होंने जमकर नाश्ता किया, उठते-उठते बोले ‘ग्रेट नीलू! क्या लज़ीज़ नाश्ता बनाया है।‘
नीलू को लगा उसकी मेहनत सफल हुई। आनन्द बांटने से दोगुना होता है।
वे आनन-फानन गाड़ी में आकर बैठे, गाड़ी स्टार्ट की एवं ऑफिस पहुँच गये। ऑफिस उन्हें साढे आठ तक पहुँचना होता था पर आज बीस मिनट लेट हो गये। उपस्थिति पंजिका अब तक अंदर एमडी कमलेश के पास पहुँच चुकी थी। दस्तखत अब अंदर करने होंगे। अपराध-बोध से उन्होंने केबिन का दरवाजा खोला। शीट पर दस्तखत कर मुड़े ही थे कि कमलेश बिफर गया। वह तो मौकों की तलाश में होता। एक बात के बहाने दस बलाएँ सर मढ़ता। आँखें ऊँची कर बोला, ‘मधुसूदन! इन दिनों अक्सर लेट आते हो। तिमाही सेल्स टारगेट भी पूरे नहीं हुए। इन दिनों तुम्हारा काम बेतरतीब हो गया है।’ मधुसूदन ने चुपचाप डाँट को शिरोधार्य किया एवं बाहर आ गये।
उनके चेहरे पर पसीने के कण चमकने लगे थे।
बाहर कुढ़ते हुए वे सीधे मिश्राजी के पास आये। मिश्राजी एक नंबर के कांइयाँ आदमी थे। चेहरा देखकर आदमी सूंघ लेते। अपने पतले चेहरे एवं चौड़ी ललाट के बीच पुतलियों को नीचे-ऊपर करते हुए बोले, ‘सुबह-सुबह ब्रेकफास्ट मिल गया क्या ? तुम तो कहते हो यह मेरा सहपाठी था। ‘
मिश्रा की बात सुनकर मधुसूदन और भड़क गया।
‘ यह सच है किसी जमाने में कमलेश मेरा सहपाठी था। क्लास का सबसे बकवास विद्यार्थी। जैसे-तैसे बारह जमात पास हुआ। लेकिन भाग्य देखो , जिस व्यापार में हाथ डाले वहीं सोना बरसे। मुझे क्या मालूम था एमए करके इसके यहां नौकरी करनी पड़ेगी। जब देखो अंगारे उगलता रहता है। चार पैसे क्या आ गये , सारी अक्ल इसी में आ गई। दिमाग चौथे फलक पर रहता है। ‘ मधुसूदन के मन का मवाद अनायास बाहर आ गया।
‘ कहाँ ये बारहवी पास एवं कहाँ तुम एमए , बस डांटना आता है। तुम तो हमारे नेता हो जवाब दिया करो। तुम्हारे कमजोर होने से हम सभी कमजोर हो जाएंगे। ” मिश्रा डिवाइड एंड रूल का मास्टर था।
मधुसूदन चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गये। उनके भीतर विद्रोह के अंगारे सुलगने लगे थे।
मधुसूदन गत दस वर्षों से यहीं कार्यरत थे। एमए करने के बाद तीन साल नौकरी के लिए खाक छानी। कहीं नहीं मिली तो कमलेश की शरण में आये। सहपाठी देखकर उन्होंने नौकरी दी तो अब उन्हीं की रात-दिन बुराई करते थे।
क्या समकक्षों में डाह अधिक होता है ?
व्यक्ति जितनी विनम्रता एवं कर्तव्यपरायणता नौकरी प्राप्त करते समय बताता है उसकी आधी भी नौकरी मिलने के पश्चात् रखे तो देश का कल्याण हो जाये।
मधुसूदन अक्सर कमलेश को नीचा दिखाने की सोचते। जब भी कमलेश ऑफिस से बाहर होते, स्टाफ वालों को इकट्टा कर विरोध के शंख फूंकते रहते। अब तक सभी उन्हें नेताजी कहने लगे थे।
इस बार बोनस नहीं मिला तो स्टाफ में आग लग गई। मौका देखकर मधुसूदन ने सबको स्फूर्त किया, ‘हक दिया नहीं जाता, लिया जाता है। बिना माँगें माँ भी बच्चों को दूध नहीं देती। तुम्हें अगर बोनस लेना है तो तीन दिन पेन-डाउन कर दो। सेठ की फूंक निकल जायेगी। उसे आता क्या है? तुम्हारी ही योग्यता से कम्पनी चल रही है। खुद तो बारहवीं पास है।’
तीन दिन ऑफिस में तनाव रहा।कर्मचारियों को देखकर फैक्ट्री के मजदूर भी विरोध पर उतर आये। कमलेश ने मधुसूदन को बुलाकर समझाया, ‘तुम तो मेरे विश्वासपात्र हो। बाहर जाकर समझाओ कि इस बार मुनाफा बहुत कम हुआ है। बोनस देना असंभव है। तेल तिलों से निकलेगा, बैल-घाणी से नहीं।’
‘सर! इस बार बोनस रिजर्व फंड से दे दीजिये। स्टाफ को समझाना मुश्किल है। सभी आग बबूला हो रहे हैं।’ कमलेश की हालत जानकर मधुसूदन मन ही मन खुश थे। अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे।
‘रिजर्व फंड तोड़ने से कम्पनी की माली हालत खराब हो जायेगी। यह फंड ही तो हमारी ताकत है।’
कमलेश को लगा मधुसूदन उनके मर्म को समझेगा, पर यहाँ तो बात उल्टी हो गयी।
’हालत आपकी खराब होगी, हमारी नहीं। हमारी योग्यता से आप घर भरते हैं। हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं।’
मधुसूदन ने वर्षों से संचित कुण्ठाओं का कुंभ क्षणभर में उड़ेल दिया।
‘मधुसूदन! तमीज से बात करो। मुझे धन छाती पर बांधकर नहीं ले जाना है। मैं भी दो ही रोटी खाता हूँ। कुएँ की मिट्टी अंततः कुएँ में ही लगती है। तुम कैसी उल्टी बातें करने लगे हो?’ वह दिन भूल गये जब गिड़गिड़ाते हुए नौकरी मांगने आये थे। मेरी सहृदयता का यह सिला दे रहे हो?‘ कमलेश बिफर पड़ा।
‘नौकरी दी थी, भीख नहीं दी थी। आपने मुझे खरीद नहीं लिया है। आज भी मेरे पास कई ऑफर ह़ै, मैं आपकी वजह से ही यहीं पड़ा हूँ।’मधुसूदन का साहस आसमान छूने लगा था।
कमलेश स्तब्ध रह गए। यह तो आस्तीन का साँप निकला।
अच्छा उसी का करो जो आपकी अच्छाई पचा सकता हो। क्या दो लीटर के पात्र में चार समा सकते हैं? अनेक बार सूर्य के तेज से उत्पन्न बादल सूर्य को ढक लेता है। शिव से शक्ति प्राप्त कर भस्मासुर, शिव के ही विनाश पर उतर गया था।
कमलेश ने दूसरी सुबह आकर बोनस की घोषणा की। स्टाफ ने मधुसूदन को सर आँखों पर बिठा लिया। मधुसूदन की छाती अभिमान से दूनी हो गयी। चेहरा अहंकार के दर्प से चमक उठा। मुस्करा कर बोले, ‘मैंने अच्छे-अच्छों की हैकड़ी उतारी है। सेठ समझता क्या है खुद को? स्कूल के जमाने में नोट्स तक लेने मेरे घर आता था। हमारी बिल्ली हम ही से म्याऊँ।‘
शाम छः बजे तक सभी स्टाफ जा चुका था। मधुसूदन के पास आज नित्य से अधिक काम था। काम समाप्त कर जाने लगे तो कमलेश के पी.ए ने उन्हें बुलाकर एक लिफाफा थमाया। लिफाफे से पत्र निकालकर मधुसूदन ने पढ़ा तो पिण्डलियाँ हिल गयी। कमलेश ने उनकी सेवाएँ समाप्त कर दी थी। कमलेश इस तरह पत्ता काट देगा, यह जानकर मधुसूदन स्तंभित रह गये। उन्होंने कमलेश से मिलने की सोची पर वे कब के जा चुके थे। पीए भी लिफाफा पकड़ाकर चला गया था।
दूसरे दिन पुनः विरोध के स्वर तीखे हुए। कमलेश ने इस बार स्पष्ट कह दिया, ‘जो बोनस मिलने पर भी विरोध करता है, वह घर जा सकता है।’
सबको साँप सूँघ गया। विरोध के स्वर ठण्डे पड़ गये। एक कबूतर मारते ही सारे कबूतर उड़ गये।
उम्र के पैंतीसवें बसंत में मधुसूदन को कमलेश का निर्णय भारी पड़ गया। होशियारी में बोल तो आये पर अब नौकरी कहाँ थी? मिलती तो पगार वर्तमान से चौथाई होती। मधुसूदन की फूंक निकल गई। घर खर्च भारी पड़ने लगा। कुछ ही दिनों में सारी बचत समाप्त हो गयी।
इसी दरम्यान उनका बच्चा स्कूल से आते हुए एक मोटर साईकिल की चपेट में आ गया। बच्चे के पाँव की हड्डी टूट गई। बीमारी पर भारी खर्च हुआ। मधुसूदन के कोढ़ में खाज निकल गई।
इस बात को भी छः माह होने को आये। इन दिनों मधुसूदन कुढ़ते रहते। एक रात बिस्तर पर पड़े पत्नी नीलू से बोले, ‘होशियारी में फंस गया। नौकरी में होता तो कमलेश से उधार मिल जाता। पहले भी दसों बार एडवांस लिया था। काश! मैं उनकी समस्या समझ पाता तो आज मेरा रिश्ता पहले से मधुर होता। मुझे ये दुर्दिन नहीं देखने पड़ते। होम करते हुए हाथ जल गये।’
घर की स्थिति नीलू से छिपी नहीं थी। मधुसूदन के बालों में हाथ फेरते हुए बोली, ‘आप ऑफिस जाकर कमलेश जी को साॅरी कह दें। खेद प्रकट करने से कोई छोटा नहीं होता। हम छोटे हैं छोटे ही रहेंगे। वो इतने बुरे भी नहीं है। पहले आयी तकलीफों में भी उन्होंने ही पार लगाया था। आपको अपनी स्थिति समझनी चाहिये। नौकरी में नखरा क्या?‘
अगले दिन शाम सात बजे वह हिम्मत कर ऑफिस पहुँचे। उन्हें पता था इस समय चपरासी के अतिरिक्त कोई स्टाफ सदस्य नहीं रहता। उन्होंने एक चपरासी के हाथ चिट भिजवाई। एक घण्टे बिठाकर कमलेश ने उन्हें अंदर बुलवाया। अंदर आकर वे कुर्सी पर बैठने लगे तो कमलेश चीखे, ‘मैंने तुम्हें बैठने को कहा?’ मधुसूदन को काटो तो खून नहीं। पिण्डलियाँ काँपने लगी। कुछ कहते उसके पहले ही आँसू ढुलक पड़े। मुड़कर जाने ही वाले थे कि कमलेश ने पुकारा, ‘साॅरी मधुसूदन! बैठो!’
कमरे में कुछ देर स्तब्धता तैर गयी। थोड़ी देर बाद कमलेश ने चुप्पी तोड़ी, ‘मधुसूदन! बहुत पहले अपनी विकट परिस्थितियों में तुम मुझसे नौकरी मांगने आये थे। मैंने तुम्हें अपना सहपाठी जानकर नौकरी दी। प्रतिफल में मैं तुमसे मात्र एक बात चाहता था, तुम्हारी प्रतिबद्धता। लेकिन तुमने मेरी ही जड़ें काटनी प्रारंभ कर दी। तुम क्या समझते थे मैं बेखबर था? मुझे घड़ी-घड़ी की खबर मिलती थी पर मैं यह सोच कर चुप रहता था कि तुम मेरे बाल-सखा हो। तुम्हारी हरकतें दिन-ब-दिन बढ़ती गयी। यहाँ तक कि पानी सर से निकल गया।
कमलेश के चेहरे पर गांभीर्य तैरने लगा था।
कमलेश इतना कहकर चुप हो गये। उनकी दशा ऐसी थी मानो किसी अन्य लोक में चले गये हो। थोड़ी देर में सामान्य हुए तो बोले,’ ‘मैं मानता हूँ मैं कम पढ़ा लिखा हूँ। तुमसे पढ़ाई में कमजोर भी था पर पढ़ाई सब कुछ नहीं होती। व्यावहारिक जीवन की शिक्षा सर्वथा भिन्न होती है। मैं तुमसे एक बात में आगे था। मुझमें हिम्मत थी, साहस था, जोखिम लेने का ज़ज्बा था। माँ के पेट से अमीर बनकर मैं भी नहीं आया। इसके लिये मुझे कड़े संघर्ष से गुजरना पड़ा। हर बीज वृक्ष बनने की संभावनायें लिये होता है लेकिन वही बीज वृक्ष बनता है जो अपने अंतरघट को फोड़कर ऊपर उठता है। सूर्य के ताप एवं हवाओं को सहन करता है। धरती की गोद में असंख्य बीज पनपते हैं एवं मिट्टी में मिल जाते हैं। वही बीज वृक्ष बनता है जो कीचड़ में सनता है, आँधियों से लड़ता है। वह भीरू बीज क्या काम का जो अपना अस्तित्व मिटाना नहीं जानता? जिसमें जीवट नहीं है ? अपने जीवन को दांव पर लगाकर ही बीज फलता है, वृक्ष बनता है। वृक्ष जो राहगीरों को छाया देता है, फूलों से लदता है एवं फलों को बाँट देता है। जो धरती की गोद में छुपा बैठा है, वह वृक्ष कैसे बनेगा?’
कमरे में फिर स्तब्धता लौट आयी थी। पंखे की सर्र-सर्र के अतिरिक्त कोई आवाज सुनायी नहीं दे रही थी। सामने पड़े पानी के गिलास को हलक से उतारते हुए कमलेश ने फिर चुप्पी तोड़ी, ‘मधुसूदन! तुम्हें मेरे संघर्ष की काली रातों की जानकारी नहीं हैं। मैं अतीत के फटे वस्त्र को उधेड़ना भी नहीं चाहता। मेरे प्रारंभिक कारोबारी दिनों में मैंने सब कुछ दाँव पर लगा दिया था। वर्षों मैं और तुम्हारी भाभी ढंग से सो नहीं पाये। हमारी मेहनत रंग लायी। विधाता ने हमें हर सुख से नवाजा। मधुसूदन! हम सभी हाड माँस के पुतले हैं। निष्ठा की खाद एवं एकाग्रता का पानी देने से जीवन की फसल लहलहाती है। दूसरों के दुर्गुणों की डुगडुगी पीटना बहुत सरल है। टोपी उछालना कठिन नहीं है, सारी ताकत तो टोपी सम्हालने में चाहिये। धन कमाना सरल होता तो हर कोई कमा लेता। मधुसूदन! धन कमाकर तो देखो ? दस लोगों को रोजगार देकर तो देखो ? तब तुम जानोगे सिक्के का दूसरा पहलू क्या है? छींटाकशी तो कोई भी कर सकता है।‘ कमलेश एक सांस में सब कुछ बोल गये।
मधुसूदन की घिग्घी बँध गयी। आज उन्हें सही शिक्षा मिल गयी थी।
उठकर जाने लगे तो कमलेश बोले, ‘मधुसूदन! कल से वापिस काम पर आ जाना।’
केबिन से बाहर आते हुये मधुसूदन के कपोलों पर गरम आँसू छलक आये थे।
………………………………………….
30.12.2005