भोपाल शहर के प्रतिष्ठित सर्राफा मार्केट में अनीता ने फीता काटकर ज्वैलरी शोरूम का उद्घाटन किया तो वातावरण तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इस शहर में आने के बाद अनीता अपने भाग्य को सराहने लगी थी। पाँव जमीन पर न पड़ते थे। जीवन में इतने आदर एवं सम्मान की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
अनीता आज तड़के यहाँ अपने बचपन की सहेली शिल्पा के साथ आई थी। उद्घाटन मुहूर्त सुबह सात बजे का निकला था। अधिकतर ऐसे समारोहों में वह शिल्पा के साथ जाती। उद्घाटन के पूर्व ज्वैलरी शाॅप के मालिक ने स्वयं कार का दरवाजा खोलकर अनीता को वेलकम किया। बाद में मालिक की पत्नी एवं बच्चों ने उसके साथ फोटो खिंचवाए। शोरूम की सेल्सगर्ल्स में से एक ने उसके ललाट पर कुुुंकुम एवं अक्षत लगाए, आरती उतारी एवं भारी भीड़ के मध्य उसका अभिनन्दन किया। एक अन्य सेल्सगर्ल ने उसके हाथों में खूबसूरत ताजे फूलों से महकता पुष्पगुच्छ दिया तो कैमरों के फ्लेश एवं विडियोलाइट्स से सारा वातावरण जगमगा गया। जाने के पहले मालिक ने अनीता को उपहार स्वरूप डायमण्ड टाॅप्स का एक सेट भी दिया। जिसका पति शहर का जिलाधीश हो एवं व्यापारी उससे काम में फँसा हो तो ऐसी आवभगत क्यूँ न हो ? स्तुति से तो देवता भी प्रसन्न होते हैं, मनुष्य की तो बिसात ही क्या है ?
उषा की गोदी से निकला बाल-सूर्य अब आसमान में चढ़कर चमकने लगा था। अभी भी छतों पर सूर्य-नमस्कार कर लोग सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे। चढ़ते सूर्य को भला कौन नमस्कार नहीं करता ?
अनीता एवं शिल्पा दोनों इन्दौर से थे। दोनों ने साथ-साथ एमए दर्शनशास्त्र में किया था। अनीता रूप रंग, नैन-नक्श में शिल्पा से एक कदम आगे थी तो शिल्पा शिक्षा में अनीता को दाँव नहीं देती थी। पढ़ाई एवं अन्य गतिविधियों में वह अनीता से कहीं आगे थी। दोनों काॅलेज में हमेशा साथ दिखती। दोनों घर से काॅलेज साथ आती-जाती, यहाँ तक कि लाइब्रेरी एवं केन्टीन में भी अक्सर साथ होती। अनीता स्वभाव से संकोची एवं कुछ डरपोक-सी थी जबकि शिल्पा उसके ठीक विपरीत हरदम आत्मविश्वास से स्फूर्त नजर आती। संकोच एवं भय जैसे गुण युवतियों में नैसर्गिक रूप में दृष्टिगोचर होते हैं पर शिल्पा में इन गुणों का नामोनिशान तक नहीं था। दोनों के स्वभाव एवं परिवेश में स्पष्ट अन्तर होते हुए भी दोनों की मित्रता में कोई अंतर परिलक्षित नहीं होता था।
अनीता के पिता शहर के जाने-माने उद्योगपति एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। अनीता उनकी एकमात्र पुत्री थी। बेशुमार दौलत एवं अपने प्रभाव का प्रयोग कर उन्होंने अनीता की शादी राजेन्द्र खुराना के साथ की। राजेन्द्र तब तक आईएएस बन चुके थे। शिल्पा के पिता एक मध्यमवर्गीय परिवार से थे, उसका ब्याह अर्थशास्त्र के प्राध्यापक भूपेन्द्र बोहरा से हुआ। वह स्वयं भी गोल्डमेडलिस्ट थी अतः शीघ्र ही प्राध्यापक बन गई। शादी के बाद दोनों भूपेन्द्र के शहर भोपाल में ही बस गए। दोनों एक ही युनिवर्सिटी में कार्यरत थे, इसी बीच राजेन्द्र की पोस्टिंग भोपाल जिलाधीश के पद पर हुई एवं वह अनीता के साथ भोपाल आ गए। अनीता ने शिल्पा को उसके भोपाल आगमन की सूचना दी तो शिल्पा की खुशी का पारावार न रहा। दोनों परिवार जी भर कर मिले।
भूपेन्द्र एक सहृदय, सज्जन एवं विचारशील व्यक्ति थे। लम्बी कद-काठी एवं गोरा रंग उसके व्यक्तित्व को और निखारते। शादी के बाद तो मानो उसे कामधेनु मिल गई। भूपेन्द्र को उसका वर्तमान जीवन स्वप्नवत् लगता था। एक मध्यमवर्गीय परिवार का व्यक्ति जिसके आगे पीछे कोई जिम्मेदारी न हो एवं जिसकी पत्नी उसके बराबर कमाती हो उसे और क्या चाहिए ? भूपेन्द्र स्वभाव से संतोषी थे, उसकी इच्छाओं का आकाश इससे परे नहीं जाता था। इसके ठीक विपरीत शिल्पा अति महत्वाकांक्षी, दबंग, बिंदास एवं स्वाधीन विचारों की महिला थी। महत्त्वाकांक्षाओं के पर लगाये उन्मुक्त पक्षी की तरह अनन्त आकाश में उड़ती रहती। उसके लिए जीवन ठहरने का नाम नहीं था। बहुत सारे मित्र हों, बहुत सारी पार्टीज हों, पिकनिक हो, वह जिस रास्ते से जाए लोग उसे पहचाने एवं कहे यह वह महान स्त्री शिल्पा है…..कितनी प्रगतिशील, कितनी विदुषी, कितनी सामाजिक। भूपेन्द्र का संतोषी एवं अन्तर्मुखी व्यवहार उसे कत्तई पसन्द न था। कई बार उसके व्यवहार से वह चिढ़ जाती। दोनों का वैवाहिक जीवन चलती का नाम गाड़ी जैसा था। यौवन में शारीरिक क्षुधा प्रबल होती है, मन के मत-मतांतर इसी प्रवाह में विसर्जित हो जाते हैं। उफनती हुई नदी के दो तट पानी की प्रबल जलधारा में अलग होते हुए भी अनेक बार मिले-मिले से लगते हैं।
शिल्पा को इस बात का तो गर्व था कि उसकी सहेली जिलाधीश की पत्नी है पर जब भी वह अनीता के यहाँ जाती अथवा जब भी बाजार अथवा पार्टीज में पब्लिक को उसे एक विशेष अहमियत देते हुए देखती तो एक विचित्र डाह से भर जाती। वह मन ही मन सोचती, क्या स्त्री का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, अपनी कोई इमेज नहीं? एक स्त्री चाहे वह कम योग्य ही क्यों न हो अगर उसका पति जिलाधीश है तो वह वह कितनी ऊँची बन जाती है। मैं किन अर्थों में अनीता से कम हूँ? शिक्षा एवं अन्य गतिविधियों में उससे कहीं आगे थी पर मैं कहाँ एवं अनीता कहाँ ? बड़े-बड़े लोग अनीता की चौखट पर आकर नाक रगड़ते हैं। शहर के उद्योगपतियों, धनाढ्यों एवं गणमान्य व्यक्तियों की पत्नियाँ अनीता से मिलकर गौरवान्वित महसूस करती हैं। एक हम है जिन्हें कोई जानता तक नहीं। थोड़ी बहुत पहचान बनी है तो इसीलिए कि मैं अनीता की सहेली हूँ। यह कैसी संस्कृति और सभ्यता है जो स्त्री को उड़ान ही नहीं भरने देती। शादी के पूर्व वह पिता के अधीन होती है एवं शादी के बाद पति के। पति अच्छा मिल जाए तो पौ बारह है एवं पति मिट्टी का माधो मिल जाए तो जीवन भर करम ठोकते रहो। हर कदम पर हर उम्र में वह बेड़ियों में बंधी होती है।
इसी उधेड़बुन में आज वह युनिवर्सिटी से घर पहुँची तो भूपेन्द्र वहाँ पहले से मौजूद था। वह उससे एक घण्टे पहले आया था। शिल्पा ने आकर पर्स रखा ही था कि भूपेन्द्र ने उसे चाय बनाने का कहा। भरे घड़े को कोई थोड़ा भी हिला दे तो पानी बाहर छलक जाता है।
‘‘क्या मेरा ही इंतजार कर रहे थे? चाय खुद बनाकर नहीं पी सकते थे?’’ शिल्पा तमक कर बोली।
‘‘मैडम! हम तो सोच रहे थे आपके साथ चाय का आनन्द लेंगे।’’ भूपेन्द्र पलंग पर लेटा था, पड़े-पड़े ही बोला।
‘‘भारत में स्त्री की कैसी दुर्गति है काम मर्दों के बराबर करो, तनख्वाह इन्हें लाकर दो और जी-हजूरी भी पति परमेश्वर की करो। मैं थकी-हारी आई हूँ, क्या तुम चाय बनाकर नहीं पिला सकते थे? रोज चाय मैं ही बनाती हूँ पर कभी-कभी आप बना दें तो क्या आसमान गिर जाएगा ? पति-पत्नी का रिश्ता मित्रवत् होता है, स्वामी और सेविका जैसा नहीं।’’
शिल्पा के अप्रत्याशित व्यवहार ने भूपेन्द्र का क्रोध भड़का दिया। छेड़ने से बिच्छू भी भड़क उठता है। भूपेन्द्र की आँखें रक्तवर्ण हो गई। वह पलंग से उठा एवं शिल्पा की बाजुओं को अपने कठोर हाथों से पकड़कर बोला, ‘‘कोई पत्थर तोड़कर नहीं आई हो? मुझे मालूम है युनिवर्सिटी में कितना काम होता है ?आधे समय तो केन्टीन में बैठी रहती हो। तुम्हें तो अभी यह तक होश नहीं कि मेल लेक्चरर्स के साथ कितना बैठना चाहिए? तुम्हारे विभाग में और भी महिला प्राध्यापक हैं, वो तो वहाँ नजर नहीं आती।’’
‘‘तो जलते क्यों हो! तुम भी अपने विभाग की महिला प्राध्यापकों के साथ जाया करो ना। मुँह से लार तो बहुत टपकती है पर उतना साहस भी तो हो।’’
इसके आगे कुछ भी सहना भूपेन्द्र की सहनशक्ति के परे था। स्त्री जब मानसिक रूप से व्यथित करती है तो पुरुष की शारीरिक शक्ति को भी चुनौती दे देती है। भूपेन्द्र के कलेजे पर मानो किसी ने गरम लोहा रख दिया, आँखों में खून उतर आया। आवेश में उसने शिल्पा के गाल पर जोर से एक तमाचा रसीद किया। उसके पास अपनी पत्नी को नियंत्रित करने का यही अंतिम हथियार था। एक घायल सिंहनी की तरह शिल्पा पाँव पटकती हुई कमरे में चली गई। बाद में ठण्डे होने पर भूपेन्द्र ने उसे मनाने का भरसक प्रयास किया, बार-बार ‘साॅरी’ कहा, पर शिल्पा तो लोहे की छड़ थी। स्त्री के हृदय में प्रज्वलित अग्नि भी कभी इतनी जल्दी बुझी है?
इस तरह के छोटे-मोटे युद्ध दोनों में रोज होते। मत-मतांतर होते हुए भी ऐसा नहीं था कि शिल्पा भूपेन्द्र को चाहती नहीं थी। अनीता के पति की तरह वह भी उसे ऊँचाई पर देखना चाहती थी। वह अक्सर भूपेन्द्र को आईएएस परीक्षा देने को कहती, पर उसके सर पर जूं तक नहीं रेंगती। एक बार तो उसने स्पष्ट कह दिया, ‘‘मैं जहाँ हूँ खुश हूँ। मुझे क्यों उस मुकाम पर पहुँचाना चाहती हो जहाँ मैं जाना नहीं चाहता ? प्राध्यापक होना जिलाधीश होने से अधिक सम्मान की बात है।’’ उस दिन भूपेन्द्र का तीखा उत्तर सुनकर शिल्पा कट कर रह गई। धीरे-धीरे उसके व्यक्तित्व में एक विचित्र कुण्ठा ने डेरा डाल दिया। कुण्ठाएं आदमी को दुस्साहसी बना देती हैं, तब वह आगा-पीछा कुछ नहीं सोचता।
सावन के दिन थे। भूपेन्द्र पारिवारिक कार्यों से कुछ दिनों के लिए इन्दौर गया हुआ था। एक बार दोपहर अकेले बैठे शिल्पा बोर हो रही थी। बाहर मौसम सुहावना था, सोचा अनीता से मिल आऊँ। उसने स्कूटर उठाया एवं अनीता के घर की राह ली। रास्ते में कुछ दूर ही चली थी कि हल्की बूंदा बांदी होने लगी। उसने स्कूटर तेज किया फिर भी अनीता के घर पहुँचते-पहुंचते पूरा भीग गई। घर के बाहर ही आर्म्डगार्ड खड़ा था। उसने बताया कि अनीता शाॅपिंग करने गई है। अब घर तक आकर राजेन्द्र से मिले बिना जाना संभव नहीं था। अंदर आकर बरामदे में कुछ देर कपड़े सुखाने के लिए वह रुक गई। मुख पर नन्हीं-नन्हीं बूंदों के मोती चमक रहे थे। अंग-अंग यौवन की आभा से उतंग हो रहा था। इसी दरम्यान राजेन्द्र अंदर से आए एवं शिल्पा को यूँ खड़े देखकर स्तंभित रह गए। सकपकाये से बोले, ‘‘तुम तो भीग गई हो, थोड़ा भीतर आकर अपने को सुखा लो।’’ भीतर आकर जब शिल्पा बैठी तो राजेन्द्र उसे देखकर ठगा-सा रह गया। उसके सीने का उतार चढ़ाव, चमकती नशीली आँखें व होठों पर ठहरे जलबिन्दु उसकी रूप मदिरा को और नशीली बना रहे थे। शिल्पा की आँखों में एक विचित्र चंचलता फैलने लगी। राजेन्द्र उसे चातक-सा देखने लगा। राजेन्द्र एक मस्त , ऐशपरस्त आदमी था। दो उन्मुक्त प्राणियों के लिए इससे अच्छा सुअवसर क्या हो सकता था ? पक्षी पक्षी की भाषा को तुरन्त समझ लेते हैं।
इसी दरम्यान राजेन्द्र ने शिल्पा की जी भर कर तारीफ की। उसने जब शिल्पा को बताया कि वह उसकी विद्वत्ता एवं गुणों का कायल है तो वह फूली न समाई। प्रशंसा किन कानों को अच्छी नहीं लगती। स्त्री के कान तो प्रशंसा रूपी नदियों के लिए समुद्र बन जाते हैं। राजेन्द्र जैसे बड़े आदमी की प्रशंसा ने उसे उत्तेजित कर दिया। एक भूपेन्द्र है जो टके बराबर तौलता है और एक राजेन्द्र है जो इतनी इज्जत देता है। सच है हीरा पारखी के पास हो तो हीरा है अन्यथा काँच का टुकड़ा है। आखिर क्यों वह भूपेन्द्र की गुलामी करे? अगर राजेन्द्र उसे चाहता है तो क्यूं न वह उसे अपना मित्र एवं गाॅडफादर बना ले ? जीवन बहुत बड़ा है, इतने बड़े आदमी से सम्पर्क जीवनभर काम आएगा। वह एक अजीब-सी शक्ति से स्फूर्त होकर उठी एवं राजेन्द्र के गले से लिपट गई।
स्त्री सम्बन्धी भोग विलास का लालच आने पर असाधारण मनोबल वाला आदमी भी उसे नहीं छोड़ता। राजेन्द्र को तो जैसे बिन माँगे मुराद मिल गई। बादल बाहर उमड़ रहे थे, मेह अंदर बरस रहा था। दोनों उस दिन वह कर बैठे जिसकी कल्पना भी शिल्पा ने नहीं की थी। मर्यादाओं के सारे बांध पल भर में ढह गए।
एक बार मिठाई चख लेने के बाद किसने छोड़ी है। दोनों अब अक्सर मिलने लगे। बड़े लोगों के लिए जगह की कहाँ कमी है। बड़ी -बड़ी होटलों के मालिकों को इशारा करने की देर है। वे तो ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं। शिल्पा के सम्पर्क में आने पर राजेन्द्र को लगा अब तक अनीता के साथ उसने जीवन व्यर्थ ही जिया। जो उन्माद, जो उत्तेजना शिल्पा में है, अनीता उसके आगे कहीं नहीं। राजेन्द्र शिल्पा के रूप-गुण मदिरा में आकंठ डूब गया। शिल्पा को लगा जैसे साँप-सीढ़ी के खेल में भाग्य ने उसे 8 की सीढ़ी से सीधे 91 पर पहुँचा दिया।
विधाता की टेढ़ी चालों को कौन समझ पाया है? 8 की सीढ़ी से 91 पर पहुंचा खिलाड़ी 99 के साँप की कल्पना ही नहीं कर पाता। बिगड़ी हुई आँखों को कुछ नहीं दिखता, बिगड़े हुए ईमान में भी ज्योति प्रवेश नहीं कर पाती।
प्रेम और वैर छिपाये नहीं छिपते। राजेन्द्र के करीबी लोगों को यह बात धीरे-धीरे पता लगने लगी पर उसके भय से सभी चुप्पी साधे रहते। चतुर परिपक्व व्यक्ति बड़े आदमियों की कमजोरियों की चर्चा नहीं करते, उनके गुप्त भेदों की आड़ में अपने काम निकालते हैं। उनकी पैनी नजर स्थिति को भाँपने में देर नहीं लगाती। अब अनीता की जगह शिल्पा ने ले ली। लोग अब उद्घाटन आदि के लिए शिल्पा को बुलाने लगे। अपने कार्य निकालने के लिए वे शिल्पा का सहारा लेने लगे। उसके घर भी अब बड़े लोगों का आना-जाना प्रारंभ हो गया। बहाना वह भूपेन्द्र से मिलने का करके आते, कृपाकांक्षी शिल्पा के होते। अब शिल्पा के घर भी बड़े-बड़े उपहार आने लगे। कोई कीमती साड़ियाँ ला रहा है तो कोई डायमण्ड के सेट्स तो कोई क्या। शिल्पा को लगता जैसे वह आकाश छू रही है। भूपेन्द्र को यह सारा व्यवहार अप्रत्याशित लगता पर शिल्पा उसे समझा देती कि लोग अब राजेन्द्रजी से हमारी घनिष्ठता को जानने लगे हैं। अनीता को भी इन दिनों शिल्पा का व्यवहार संदिग्ध-सा लगने लगा।
कुदरत की करतूतें विचित्र है। चतुर से चतुर व्यक्ति भी कुदरत की एक चाल से असिद्ध हो जाते हैं।
एक बार एक पार्टी में उसी होटल मालिक की पत्नी अनीता से टकरा गई, जहाँ राजेन्द्र एवं शिल्पा अक्सर मिलते थे। अनीता के उस पर बहुत अहसान थे। उसका उपकृत हृदय अनीता की दुर्दशा नहीं देख सका। न चाहते हुए भी उसने अनीता को विश्वास में लेकर राजेन्द्र एवं शिल्पा के सारे भेद खोल दिए। होटल मालिक ने अपनी पत्नी को राजदार समझकर जो राज बताए, उसकी पत्नी ने वो सारे राज अनीता को बता दिए।
अनीता पर मानो बिजली गिरी। कलेजा भस्म हो गया। कुछ देर तो वह संभल ही नहीं पाई। लगा जैसे दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी हो। जिस शिल्पा को उसने बहन के बराबर इज्जत दी, जिसे उसने सर आँखों पर चढ़ाया, उसी ने उसका संसार लूट लिया। क्या कोई प्रेम एवं मित्रता के चिह्न यूँ मिटा देता है? जी में आया कि वह सीधी शिल्पा के घर जाए एवं उसका सीना गोलियों से छलनी कर दे। फिर जी में आया कि भरी पार्टी में क्यों न लोगों को चिल्ला-चिल्ला कर बताऊँ कि उनका जिलाधीश कितना घटिया आदमी है। उसे लगा उसकी नसों से कोई रक्त सोख रहा है। एक बार तो उसने सीधे वहां से घर जाने की सोची पर न जाने क्या सोचकर जब्त कर गई। घर आते वक्त राजेन्द्र को उसने अहसास भी नहीं होने दिया कि उस पर क्या गुजरी है। जिस राजेन्द्र पर वह जान देती थी वही आज उसे नफरत का पिटारा नजर आ रहा था। घर आकर वह सरदर्द का बहाना कर लेट गई। वह रात युग के समान बड़ी हो गई। पलंग पर सोते हुए राजेन्द्र को देखकर वह सोचने लगी जिसे मैंने प्रेमालय समझा, वह कितना कपटी निकला। प्रतिशोध की आँधी बवण्डर की तरह उसके दिमाग पर छा गई।
दूसरे दिन मौका देखकर वह भूपेन्द्र से मिली तथा शिल्पा एवं राजेन्द्र की सारी करतूतों से उसे अवगत करवा दिया। शिल्पा के लिए इससे कम दण्ड की वह कल्पना भी नहीं कर पाई कि वह पति की नजरों में सदा के लिए गिर जाए।
भूपेन्द्र के लिए तो मानो दुःसह दुःख देने वाली ग्रहदशा आ गई। शिल्पा का यह रूप उसकी कल्पना से भी परे था। शिल्पा के महत्वाकांक्षी एवं विद्रोही स्वभाव से तो वह परिचित था पर यह उसकी कल्पना से परे था कि वह इतना घृणित कृत्य भी कर सकती है? उसे लगा जैसे सारा संसार उसे धिक्कार रहा है। शिल्पा के इस कृत्य ने उसके आत्मगौरव का नाश कर दिया। उसे लगा वह स्वयं की नजरों में गिर गया है। हृदय मर्मांतक वेदना से भर गया। उसे हर आँख उसका उपहास बनाते नजर आने लगी। इतना अपमान भरा जीवन भी क्या जीने योग्य है?
हर रिश्ते की एक आत्मा होती है, हर संस्कृति का एक केन्द्र बिन्दु होता है। वफा दाम्पत्य रिश्तों की रूह है। शरीर से रूह निकल जाए तो फिर क्या शेष रह जाता है ? अभिमानी व्यक्ति अपनी कृतज्ञताओं का पुरस्कार नहीं चाहते पर कृतघ्नता उनकी जड़ों को हिला देती हैं। भूपेन्द्र को लगा जैसे कोई उसकी आत्मा को पीस रहा है।
शिल्पा आज जब युनिवर्सिटी से घर पहुँची तो पंखे पर लटकती हुई रस्सी से एक लाश झूल रही थी।
साँप-सीढ़ी के खेल में 99 के सबसे बड़े साँप ने आज शिल्पा को डस लिया था।
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25.12.2002