क्षितिज के उस पार संध्या की लालिमा फैलने लगी थी। उसके लज्जा आरक्त मुख को देखकर थके सूर्यदेव में एक नये उत्साह का संचार हुआ। रथ पर बैठे-बैठे वे अपनी प्रेयसी की नीयत जान गये। ललचायी आँखों से उन्होंने सभी घोड़ों को लगाम से खींचा, ऐड़ दी एवं देखते -देखते समूचे संसार को धत्ता बताकर उसके आगोश में चले गये। सारे संसार ने इस कुकृत्य को नंगी आँखों से देखा पर क्रोधी सूर्य के आगे विवश् सभी चुप्पी मार गये। समर्थ एवं शक्तिमानों में भी भला कोई दोष देखे जाते हैं?
शाम गहरी होती जा रही थी। अब तक सात बजे होंगे।
त्रिवेन्द्रम एक्सप्रेस अभी-अभी उज्जैन प्लेटफार्म पर आकर रुकी थी। ट्रेन अलसुबह कोटा से रवाना हुई थी एवं उज्जैन-इन्दौर-मुम्बई होते हुए त्रिवेन्द्रम जा रही थी। उतरने वाले पैसेंजर्स अभी उतरे भी नहीं थे कि चढ़ने वालों में धक्कामुक्की प्रारम्भ हो गयी।
ट्रेन यहाँ मात्र पाँच मिनट रुकती थी। वैसे पाँच मिनट यथेष्ट समय था कि उतरने वाले आराम से उतर लेते एवं चढ़ने वाले शांति से चढ़ जाते पर जनता के मन की आतुरता एवं असुरक्षा के भाव को कौन रोक सकता है? अंततः सभी ट्रेन में चढ़ जाते हैं पर मैं कहीं चढ़ने से न रह जाऊँ की भावना प्लेटफार्म पर महाभारत का दृश्य उपस्थित कर देती है। सरकार भी चाहे तो चढ़ने का आगे एवं उतरने का पीछे दरवाजा तय कर सकती है, शायद सरकार ने सोचा भी हो, पर हमारी जनता तो सारे जहाँ से अच्छी है, आदत से मजबूर है।
संत ज्ञानदेव जैसे-तैसे कोच में घुसे ही थे कि उनके पीछे वाला व्यक्ति बदहवास प्लेटफार्म पर तेजी से गिरा। शायद उसका पाँव फिसल गया था। ट्रेन अब तक रवाना हो चुकी थी। ट्रेन में चढ़ने वाले सभी यात्री यहाँ तक कि जवान-मुस्टण्डे भी तटस्थ भाव से खड़े रहे। बिजली की गति से रास्ता बनाकर ज्ञानदेव ट्रेन से उतरे एवं गिरने वाले व्यक्ति को सम्भाला। उसे पहले ट्रेन में चढ़ाया, फिर हाँफते हुए खुद चढ़े।
ट्रेन के अन्य सहयात्री अपलक नेत्रों से इस दृश्य को देखते रह गये। जवान-मुस्टण्डों ने मन ही मन अपने यौवन एवं अन्यों ने अपनी संवेदनहीनता को धिक्कारा। परोपकार का सुअवसर क्या बार-बार मिलता है?
ट्रेन अब गति पकड़ चुकी थी।
ज्ञानदेव उसे साथ लेकर कोच में आगे बढ़े। साथ चढ़ने वाला व्यक्ति भी लंगड़ाते हुए आगे बढ़ रहा था। जिस तरह दायाँ हाथ बार-बार आगे करके वह चल रहा था, उससे लगता था कि उसे दिखाई भी कम देता है। गिरने के कारण वह लंगड़ाने और लगा था। प्लेटफार्म पर वह सिर के बल गिरा था, उसकी खोपड़ी से खून के रेले बहकर गर्दन तक आ रहे थे। खून उसके सफेद बालों को लाल करते हुए टपटप गिरने लगा था।
पसीने से तरबतर ज्ञानदेव ने उस व्यक्ति का हाथ थामे याचक आँखों से खचाखच भरे डिब्बे के एक सेक्शन की ओर देखा। सेक्शन से दो युवक उठे एवं उन्होंने ज्ञानदेव एवं घायल व्यक्ति को स्थान दिया। हमारे मन की दिव्यता कई बार दूसरे के मन में भी अच्छाई जगा देती है।
सीट पर बैठने से दोनों को राहत मिली। ज्ञानदेव ने उपकृत आँखों से युवकों की ओर देखा, युवकों को लगा मानो उन्होंने एक अबूझ उपलब्धि प्राप्त की हो।
ज्ञानदेव ने अपना बैग खोला, उसमें से एक कपड़ा निकाला एवं तुरन्त घायल व्यक्ति के सिर पर रख दिया। चोट ज्यादा तो नहीं थी पर हाँ, उसकी शुश्रूषा आवश्यक थी। सेक्शन में बैठे सभी व्यक्तियों का ध्यान अब घायल व्यक्ति पर था, सभी ने अपने-अपने बैग टटोले। किसी ने रुई दी तो किसी ने टिंचर। एक अन्य व्यक्ति के पास पट्टी मिल गई। ज्ञानदेव ने उसका घाव साफ किया एवं टिंचर लगाकर पट्टी बाँधी। एक औरत ने अपनी केतली से ठण्डा पानी लेकर दोनों को पीने के लिए दिया। पानी पीने के बाद दोनों के मुख पर ऐसा संतोष था मानो अमृत पिया हो। खिड़की से आती ठण्डी हवा ने इस सुकून को और बढ़ाया। देखते-देखते एक घण्टा बीत गया। ट्रेन अब फिर धीरे होने लगी थी। कुछ यात्री बोले, ‘इन्दौर आ रहा है।‘ कोच में फिर खटपट बढ़ने लगी थी।
इन्दौर पर ट्रेन आधी खाली हो गई। कहाँ उज्जैन में इतनी भीड़ थी एवं कहाँ अब आधा खाली डिब्बा। इन्दौर चूंकि एक व्यावसायिक नगर है अतः अधिकांश यात्रियों का यह अंतिम पड़ाव था।
ट्रेन पुनः प्रारम्भ हुई। कोच के बल्ब अब जल चुके थे। पतली जालियों के पीछे धीमी रोशनी बिखेरते जीरो वाॅट के बल्ब ऐसे लग रहे थे मानो असंख्य कर्मबन्धनों में बंधी आत्माएं देह धारण कर अपनी-अपनी यात्रा पर जारही हों। कोच में बा मुश्किल बीस यात्री होंगे। ज्ञानदेव वाले सेक्शन में तो मात्र ज्ञानदेव एवं घायल व्यक्ति रह गये। दोनों अब आमने-सामने बैठे थे। घायल व्यक्ति ने खिड़की की ओर पीठ कर अपने पाँव फैला दिये।
वह अब तक व्यवस्थित नहीं हो पाया था, बार-बार अपने हाथों से टखने को छू रहा था। सम्भवतः गिरते समय उसका टखना चोट खा गया था। उसने बैग खोला एवं उसमें से तेल की एक शीशी निकाली। वह टखने पर तेल मलना चाहता था, शायद इससे आराम मिले। वह हाथ में तेल लेकर टखने पर मलने लगा पर ठीक ढंग से नहीं मल पा रहा था। ज्ञानदेव तुरन्त आगे बढ़े।
‘जरा अपना पाँव इधर रखना।’ वे सीट से उठकर उसके पाँव की ओर बैठ गये एवं टखना अपनी गोदी में लेकर धीरे-धीरे मलने लगे। घायल व्यक्ति के मुँह से संकोच एवं श्रद्धा टपकने लगी। उसकी आँखें उपकार से लबालब हो गई। सहृदयता के मरहम के आगे भला कौन-सा दर्द टिका है?
घायल व्यक्ति अब आश्वस्त हो चुका था।
दोनों व्यक्ति साठ पार थे। चेहरे एवं माथे की झुर्रियों से दोनों पकी उम्र के लगते थे। ज्ञानदेव की ललाट ऊँची एवं आँखों में एक विशिष्ट चमक थी। भाल पर केसर की मोटी बिन्दी लगी थी। कानों के पास कुछ-कुछ काले बाल नजर आते थे। गेरुआ वस्त्र पहने थे एवं कानों में कुण्डल लटक रहे थे। उनका चेहरा लम्बा एवं शरीर पतला था। उनकी लम्बी सफेद दाढ़ी छाती तक आ रही थी। घायल व्यक्ति कद-काठी से मजबूत, भरा चेहरा एवं आँखों से रूआब वाला था। कानों में छोटी-छोटी बालियाँ पहने था। बड़ी मूँछ एवं घनी खिचड़ी दाढ़ी से वह भयंकर लग रहा था। नीचे सफेद धोती एवं ऊपर गहरे भूरे रंग का चोला पहने था। हाथों में चांदी के मोटे कड़े एवं पाँव में मोटी जूतियाँ पहन रखी थी। उसके चेहरे पर तनाव के चिन्ह स्पष्ट थे। वह रह-रहकर आशंकित हो उठता था।
बाहर सर्वत्र अंधियारा था। ट्रेन अंधकार को चीरते हुए भागे जा रही थी। आसमान में घने काले बादल उमड़ने लगे थे। बादलों ने चतुर्दशी के क्षीण चन्द्र को ढक-सा लिया था। भागते हुए खेत एवं छोेटे पेड़-पौधों की तो मात्र हल्की आकृति नजर आती थी। बड़े पेड़ एवं लम्बे ठूँठ पीछे जाते हुए ऐसे लगते मानो गहरा रहस्य सीने में दबाये कुछ बुजु़र्ग चुपचाप चल रहे हों।
दोनों के पेट में अब चूहे कूदने लगे थे। घायल व्यक्ति के पास खाने को कुछ नहीं था। ज्ञानदेव उसे ताड़ गये। उन्होंने बैग से पीतल का एक डिब्बा निकाला। दो मोटी रोटी पर भाजी रखते हुए उन्होंने घायल व्यक्ति की ओर हाथ बढ़ाया। उसका संकोच और गहरा गया। उसने संत की ओर देखा, फिर न जाने क्या सोचकर रोटी ले ली। संत के चेहरे की चमक एवं निवेदन के तरीके में ना की गुंजाईश ही न थी। दोनों भोजन करने लगे। इस दरम्यान संत ने बैग से खाने की कुछ और वस्तुएँ नमकीन, मिठाई आदि निकाले। दोनों ने भरपेट भोजन किया। पानी पीकर मूँछ एवं दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए घायल व्यक्ति आभार प्रकट किये बिना नहीं रह सका।
‘आज मैंने आपको बहुत तकलीफ दी है।’ उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में मानो संत का उपकार समा नहीं रहा था।
‘अरे तकलीफ कैसी! यह तो मेरा फर्ज था।’ ज्ञानदेव सकुचाते हुए बोले।
‘कहाँ जा रहे हो?’ घायल व्यक्ति ने वार्ता को गति दी।
‘मुम्बई! वहाँ संतों का अधिवेशन है, उसी में मुझे जाना है।’
‘आप अकेले जा रहे हैं।’
‘अंततः यह जीवन यात्रा सबको अकेले ही करनी होती है, निपट-अकेले, तुम्हारी मेरी तरह। वैसे मैं अपने साथ चेले-चपाटे नहीं रखता।’ संत मुस्कराते हुए दार्शनिक भाव से बोले।
‘आपका नाम!’ घायल व्यक्ति ने वार्ता जारी रखी।
‘ज्ञानदेव!’
‘आपका!’
‘रामसिंह, मैं भी मुम्बई जा रहा हूँ।’
इस संक्षिप्त वार्ता के बाद दोनों कुछ देर मौन बैठे रहे।
रामसिंह के मुख पर पुनः भय एवं आशंका तैरने लगी। अपनी असुरक्षा को छुपाने का प्रयास करते हुए उसने अटपटा-सा प्रश्न किया,
‘आप संत क्यूं बन गये? क्या संसार रास नहीं आया?’
प्रश्न पूर्णतः अप्रासंगिक था।
ज्ञानदेव को हजार बिछुओं ने एक साथ डस लिया। वे इस प्रश्न के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। एकाएक उनका चेहरा गम्भीर वेदना से भर गया। वर्षों सीने में दफन इस राज की वे किसी से चर्चा नहीं करते थे। कभी-कभी घावों को कुरेदना दुःखदायी बन जाता है पर आज तो मानो प्रश्न सामने खड़ा स्वयं उत्तर मांग रहा था।
असंगत प्रश्नों का उत्तर देने से भी अनेक बार मन हल्का होता है।
वर्षों पहले मेरी भी गृहस्थी थी। मैं भरतपुर शहर में रहता था। एक सद्गृहस्थ पत्नी एवं पाँच वर्ष का बेटा भी था। हम दोनों की जान एक दूसरे में बसती। दोनों एक दूसरे पर रीझते थे। दोनों में घी-खिचड़ी प्रेम था। तब मेरे अनाज एवं आढ़त का कार्य था। कारोबार बहुत अच्छा चल रहा था। मेरे भाग्य के आंगन में सातों सुख पसरे थे। लेकिन होनी अटल है। सारे सुख शायद विधाता को भी रास नहीं आते। एक रात उस इलाके का मशहूर डाकू माधोसिंह मेरे घर में घुस आया। उसके कंधे पर बन्दूक एवं कमर पर पिस्तौल एवं अन्य हथियार लटके थे। मैं और मेरा परिवार उसके सामने असहाय खड़ा था। मेरी पत्नी एवं बच्चा सूखे पत्तों की भाँति काँपने लगेे। उस आततायी ने उस रोज मेरे घर को ही नहीं लूटा, मुझे बाँधकर मेरी ही आँखों के सामने मेरी पत्नी से बलात्कार किया। उसकी हवस इतने से भी नहीं बुझी। जाते-जाते वह उसकी एवं मेरे पुत्र की हत्या कर गया। उस रात सन्नाटे भी काँप रहे थे। उसने मुझे भी गोली मार दी थी पर उपचार के बाद मैं बच गया। काश! मैं मर जाता। ठीक होने के बाद वर्षों बदला लेने के लिए मैं उस आततायी को ढूंढ़ता रहा पर वह नहीं मिला। इसी दरम्यान मैं एक दिव्य संत के संपर्क में आया। उनके सान्निध्य में मेरा जीवन बदल गया। तप, साधना एवं स्वाध्याय की आँच में मन का सारा कलुष बह गया। बाद में उनकी प्रेरणा से मैं भी सन्यस्त हो गया, अपनी कहानी कहते-कहते ज्ञानदेव का चेहरा आँसुओं से नहा गया।
उन्होंने कपड़े से मुँह पोंछा, कुछ देर शांत रहे फिर उसकी ओर देखकर बोले, ‘भाग्य की आँधी मेरी छोटी-सी, सुखी गृहस्थी को सूखे पत्तों की तरह उड़ा ले गई।’
अनायास ही किए इस प्रश्न के उत्तर को सुनकर रामसिंह का चेहरा भी एक अजीब वेदना से भर गया। आगे और जानने का उसमें साहस ही नहीं रहा।
वह आया तब से परेशान था। प्लेटफार्म की दुर्घटना एवं संत की कहानी सुनने के बाद वह और गम्भीर हो गया। उसके चेहरे पर पुनः भय एवं आशंका तैरने लगी। इस बार ज्ञानदेव ने चुप्पी तोड़ी, उसकी ओर देखकर बोले, ‘तुम इतने घबराये हुए क्यों हो?’
रामसिंह कुछ देर अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता रहा। ज्ञानदेव के प्रश्न ने उसे असमंजस में डाल दिया। उसके माथे पर पड़ते बल उसके मन की उलझन बयां करने लगे थे। कुछ देर रुककर बोला, ‘आप ठीक कह रहे हैं। मैं एक सजायाफ्ता कैदी हूँ। दो माह पूर्व चोरी करते हुए पकड़ा गया था। मुझे एक वर्ष की कैद हुई थी। कल मेरी बेटी की मुम्बई में शादी है। वह मेरी आँख की पुतली है, मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ। इस अवसर को मैं किसी कीमत पर खोना नहीं चाहता। मेरे लाख कहने पर भी कोर्ट ने मुझे पैरोल नहीं दिया, अतः जेल से भागकर आ रहा हूँ। आपके मन की विशालता एवं सहृदयता देखकर मैंने सच कह दिया है। पुलिस मेरे पीछे पड़ी है।’
उसने अभी बात पूरी भी नहीं की थी कि ट्रेन में दो पुलिस वाले कोच के उस छोर से प्रविष्ट हुए। दोनों के कंधों पर बंदूकें थी। वे एक-एक आदमी को गौर से देख रहे थे। चोर के मन में चांदनी। रामसिंह ने पुलिस वालों को अपनी ओर आते देखा एवं तुरन्त चादर से मुँह ढककर लेट गया।
पुलिस वाले धीरे-धीरे चलकर ज्ञानदेव के पास आये। दोनों ने उन्हें नमस्कार किया। शायद वे ज्ञानदेव को जानते थे। उनमें से एक ने रामसिंह की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘यह कौन है?’
‘यह मेरे शिष्य सनातन देव है, थके हुए थे अतः जल्दी सो गये।’ ज्ञानदेव सहज भाव से बेाले।
अविश्वास एवं संदेह की कोई गुंजाईश नहीं थी। भला संत भी कभी झूठ बोलते हैं ?
पुलिस वाले आगे बढ गये। जाते हुए उनमें से एक बोला, ‘बाबा! ध्यान रखना। खतरनाक डाकू माधोसिंह आज इंदौर जेल से भाग गया है। उस दुष्ट की निर्दयता एवं करतूतें आप अच्छी तरह जानते हैं। आप ध्यान रखें, उसका कोई भरोसा नहीं। सफेद धोती एवं भूरे चोले में आज दोपहर किसी ने उसे बाजार में देखा था। हमें सूचना भी मिली लेकिन हम पहुँचते तब तक वह छू-मंतर हो चुका था।’
ज्ञानदेव सकते में आ गये।
अब जानने को कुछ भी शेष नहीं बचा था। डाकू माधोसिंह उनके सामने लेटा था। अतीत उनकी आँखों के आगे चित्रपट की तरह घूम गया। चीखती-चिल्लाती पत्नी एवं लथपथ पुत्र उन्हें न्याय के लिए पुकारने लगे। प्रतिशोध का एक तेज बवण्डर उनके अंतस से उठा लेकिन पलक झपकते ही एक और बड़ा बवण्डर आया और पहले बवण्डर को ले उड़ा। वो चाहते तो पुलिसवालों को रोककर उसे गोलियों से भुनवा सकते थे। पर न जाने क्या सोचकर चुप रहे। संत की दिव्यता ने संत के प्रतिशोध को मजबूती से दबोच लिया।
अपने प्रति अपराध करने वाले को दण्ड देने की क्षमता एवं सुअवसर होते हुए भी उसका अनिष्ट न करना एवं उसके प्रति सद्भावना रखना ही असली ‘क्षमा‘ है। इस धरती पर न जाने कितने अकथ ईसा आये और चले गये। उन अनजान लोगों की कहानियाँ उनके साथ ही काल-कवलित हो गयी। ईसा तो परमात्मिक शक्तियों से स्फूर्त असाधारण देव पुरुष थे। उन्हें सलीब पर टंगते हुए सबने देखा, उनके बहते हुए खून का सारा संसार गवाह बना, उनकी करुणा के उत्कर्ष चिन्ह को मानवता ने सदियों तक चर्च के गुंबजों पर चढ़ाकर उनका आभार जताया पर उन अनाम स्वःस्फूर्त तितिक्षुओं के रिसते हुए हृदयों की व्यथा को कौन समझ पाया ? उनकी दिव्यता ही उनके दर्द की औषधि बन गई। करुणा के ये अकथ पन्ने इतिहास मंचों के नेपथ्य से उड़ गये। इन गुमनाम उजालों को किसने याद किया? सदियाँ बीत गई, हमारी धर्मान्धता ने दूसरा ईसा पैदा ही नहीं होने दिया। सिद्धान्त देने वाला अमर हो गया, सिद्धान्त खो गया।
पुलिस के जाते ही रामसिंह ने मुँह से चादर हटाई एवं ज्ञानदेव के सामने बैठ गया। ज्ञानदेव ने उसे गहरे से देखा, रामसिंह के छद्मवेष में वह माधोसिंह ही था।
डाकू माधोसिंह को तो यह राज ज्ञानदेव की कहानी सुनते ही खुल गया था। वह समझ गया कि यही वह व्यक्ति है जो तीस वर्ष पहले उसके जघन्य कृत्य का शिकार बना था।
डिब्बे में सन्नाटे तैरने लगे थे। छत पर चलते पंखों एवं बाहर से आती हवाओं की सर्र-सर्र अब और स्पष्ट सुनायी देने लगी थी। माधोसिंह का अपराधी मन उसके चिंतन पर हावी हो बैठा। हे प्रभु! मैंने यह क्या कर डाला ? इतने भले, सहृदय एवं निष्कपट व्यक्ति का जीवन बरबाद कर दिया। प्रश्न-प्रतिप्रश्नों के तीर उसकी आत्मा को बेधने लगे। वह स्वयं अपने प्रश्नों के बाणों से बिंध गया। देखते ही देखते उसका मुँह आँसुओं में नहा गया। प्रकाश के आगे अंधकार भला कब तक टिकता ? दण्ड की तरह संत के चरणों में गिरकर उनके पाँव पकड़ लिये, फफक कर बोला, ‘आप देवता है, मैं ही आपका अपराधी डाकू माधोसिंह हूँ। मैंने ही आपकी गृहस्थी को तबाह किया था।‘
इतना कहकर उसने बैग से पिस्तौल निकाली एवं संत के हाथों में जबरन थमाते हुए बोला, ‘आप मुझे मार डालिये। अब मैं और अधिक नहीं सह सकता। आपकी करुणा ने मेरी चेतना को झकझोर दिया है।’
ज्ञानदेव उसे पिस्तौल थमाते हुए बोले, ‘सुबह का भूला शाम को घर आ जाये तो भूला नहीं कहलाता।’
इतना कहकर वे चादर ओढ़कर सो गये।
कुछ देर बाद कोच में पिस्तौल छूटने की एक तेज आवाज गूँजी।
डाकू माधोसिंह ने अपनी कनपटी पर गोली मार ली थी
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16.01.2005