सूर्यदेव उदयांचल पर आरूढ़ हुए ही थे कि पक्षियों ने कलरव कर उनका यशोगान किया, पेड़-पौधों ने पत्तों पर ओस की बूंदों को धारण कर उन्हें जलांजलि दी तो खुशबू चुराती ताजी हवाओं ने भी फूलों की कुछ पंखुड़िया गिरा कर उन्हें पुष्प अर्पित किए। मनुष्य से कई गुना अधिक आस्तिकता का विस्तार तो प्रकृति की मौन भाषा में है।
देखते-ही-देखते आकाश प्रकाश किरणों से भर गया। अक्टूबर की हल्की गुलाबी ठंड में न जाने कहाँ से आकर धूप का एक टुकड़ा मेरे बरामदे में पसर गया। क्या अंधेरा जाते-जाते उसे कोई संदेश दे गया था ?
उड़ती निगाह से मैंने अखबार के मुख पृष्ठ पर छपी हेडलाइन्स पढ़ी, कश्मीर में दस आंतकवादी मरे, तीन जवान एवं एक मेजर शहीद। एक मनुष्य होने के नाते मुझे इन रक्त रंजित शब्दों एवं मनहूस खबर से मायूस होना चाहिए था, पर इस खबर ने मुझे उत्तेजित नहीं किया। यह आये दिन की खबरें थी। मैं तटस्थ रहा। मुखपृष्ठ के नीचे वाली खबर पर मेरी नजर पड़ी तो मैं स्तब्ध रह गया, ‘मेजर अजय अग्रवाल शहीद।’ मैंने आनन-फानन पूरी खबर पढ़ी तो पल भर के लिए मेरी नसों में खून जम गया। जम्मू में एक होटल में घुसे आंतकवादियों को नेस्तनाबूद करने के प्रयासों में गत रोज सुबह मेजर अग्रवाल शहीद हो गए। कल रात विमान से उनका शव हमारे शहर आ चुका था। आज सुबह नौ बजे अंत्येष्टि होनी थी।
मैंने अपने आपको सम्भाला और इस खबर के एक-एक अक्षर को पुनः ध्यान से पढ़ा। मेरी नजर फिर हेडलाईन्स पर गई। इस बार मैंने हेडलाइन्स तथा इसके नीचे खबर के विस्तार को पूरे से पढ़ा। इससे आगे अखबार पढ़ना मेरे लिए सम्भव नहीं था। क्या मेरा प्रिय मित्र अजय हमें यूँ छोड़कर चला जायेगा ? अभी तो उसके विवाह को दो वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे।
अभी एक माह पूर्व ही उसके बच्चे के जन्मोत्सव की पार्टी में वह और रानी कितने खुश नजर आ रहे थे। अंकल-आंटी के हृदय में खुशी नहीं समाती थी। रम के दो पेग मैंने उस दिन अजय के साथ लिए थे। रम के दूसरे पेग को हलक से उतारते हुए उसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा था, ‘अश्विन! अब तू भी शादी करले। कहे तो रानी की छोटी बहन से बात चलाऊं, रानी जैसी ही खूबसूरत है-गोरी, लम्बी-चिट्टी।’ फिर कुर्सी पर बैठे-बैठे ही पीछे मुड़कर तेज आवाज से पुकारकर उसे बुलाया, ‘रविना! जरा इधर आना।’ गोरी-चिट्टी यूनानी प्रतिमा की तरह तराशी एक नाजनीं मेरे सामने थी। अजय के इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं झेंप गया पर उसकी फौजी जिन्दादिली ने बातों का रुख ही मोड़ दिया, ‘रविना! मीट माई फ्रेण्ड अभिमन्युसिंह! इसके बचपन से झेंपने की आदत है, बट ही हेज एक्स्ट्राओरडीनरी इंटेलिजेंस। स्कूल की परीक्षाओं में मैं इसकी खूब नकल करता था।’ यह कहकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा था। बाद में वह तो ‘एक्सक्यूज मी’ कहकर चला गया, मैं और रविना कई देर बतियाते रहे। शायद यह ‘एक्सक्यूज मी’ उसने सदैव के लिए कह दिया था।
अजय के घर जनसैलाब उमड़ आया था। अपने शहर के जांबाज सिपाही को नमन करने एवं श्रद्धांजलि देने सारा शहर खड़ा था। अजय का शव बाहर लंबे-चोड़े बगीचे के बीच तिरंगे में लिपटा था। रानी शव के बाँयी ओर तथा अंकल-आंटी शव के दाँयी ओर बुत बने ऐसे बैठे थे मानो उनके जीवन भर की कमाई खो गई हो। उनकी पत्थर बनी आँखें बता रही थी कि पूरी रात उन्होंने अथाह आँसू बहाये होंगे। राजनेता एवं वीआईपी अजय के शव के आगे पुष्पहार रख रहे थे। भीड़ में से बार-बार नारों का नाद गूँज रहा था, जब तक सूरज चाँद रहेगा, अजय तुम्हारा नाम रहेगा। नारों का नाद थमता तो कई बार रानी एवं अंकल-आंटी की आँखों से आँसू छलक जाते। उनके रिश्तेदार एवं अन्य लोग उन्हें ढाढ़स बंधाते, आपका बेटा देश के लिए शहीद हुआ है, वह मरा नहीं अमर हो गया है।
अजय के शव का अंतिम दर्शन कर पुष्पांजलि देते हुए पल भर के लिए मानो मेरा रक्त प्रवाह रुक गया। मित्र के पार्थिव शरीर को देखकर हृदय चीत्कार उठा। मेरा मन एक सिपाही का अभिनन्दन कर रहा था पर मित्र के अवसान से मैं विह्वल हो उठा। पुष्पहार रखकर बाहर आते-आते मेरी आँखों में आँसुओं की लड़ी लग गई। मैं रानी एवं अंकल-आंटी को अपनी संवेदनाएँ भी नहीं कह सका, इतना साहस ही कहाँ बचा था।
इसी शहर की स्कूल में मैं और अजय बारह वर्ष साथ पढ़े, पहली से हाई स्कूल तक। वह बचपन से ही एक जांबाज फौजी के गुणों से भरा था। मुझे याद है जब हम दोनों पांचवीं जमात में थे एक फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता हुई थी। प्रतियोगिता मे वह एक सिपाही बनकर आया था, उसकी आँखें आत्मविश्वास से लबरेज थी। प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार लेते हुए उसने सेल्यूट किया तब किसे पता था कि सारा राष्ट्र एक दिन इस सूरमा का अभिनन्दन करेगा। हाई स्कूल करने के बाद उसका एनडीए में चयन हो गया एवं वह देहरादून चला गया। आगे की पढ़ाई, प्रशिक्षण एवं कमीशन भी वहीं हुआ। मैंने आगे बीए कर एमबीए किया। नौकरी करना मेरे बस में नहीं था, मैने इसी शहर में ओटो पार्ट्स का उद्योग प्रारंभ किया, संयोग से कुछ समय में ही उद्योग अच्छा चल निकला। इस दरमियान मैं और अजय जब-जब मिलते, दोनों घण्टों बचपन की मधुर स्मृतियों को कुरेदते रहते। ‘मेजर’ का प्रमोशन मिला तो उसने सबसे पहले मुझे सूचित किया, ‘अभिमन्युसिंह! दिस इज मेजर अजय !’ उस दिन वह कितना खुश था। मैंने बधाई दी तो हँसकर बोला, ‘यारों की बधाई ऐसे कबूल नहीं होती, वहाँ आऊंगा तब मिठाई तू खिलाएगा और पार्टी मैं दूंगा।’ जिस दिन अपने विवाह का कार्ड लेकर वह घर आया, मैं पापा-मम्मी के साथ ही बैठा था। पापा को कार्ड थमाते हुए वह बिंदास बोल रहा था, ‘अंकल! सारी दुनिया एक तरफ और अभिमन्यु एक तरफ। पूरे पाँच दिन इसकी इण्डस्ट्री में ताला लगवाऊँगा।’ मित्रता वह नियामत है जो ईश्वर नसीब वालों को ही बख्शता है।
अजय की अर्थी बगीचे से उठी तो परिवार एवं रिश्तेदारों का करुण विलाप देखकर सबकी आँखें नम हो गई। दसों दिशाएँ चीत्कार उठी। नियति कितनी निष्ठुर है, मृत्यु कितनी दर्दनाक। वैज्ञानिक प्रगति के उत्कर्ष को छूने वाला इंसान आज भी मृत्यु के आगे लाचार है, विवश है। जीवन कितना क्षणभंगुर एवं अनित्य है, मृत्यु आज भी अमर है, शाश्वत है।
श्मशान अजय के घर से तीन किलोमीटर दूर विशाल हनुमान झील के किनारे था। पहुँचते-पहुँचते एक घण्टा लग गया। सारे रास्ते दोनों ओर लोगों का हुजूम नम आँखों से अपने शहर के सूरमा को विदाई दे रहा था। सारे रास्ते नारे गूंजते रहे। अर्थी के पीछे असंख्य लोगों की भीड़ चल रही थी। देश भक्तों का जुनून एवं पांवों की गति भी कभी रुकी है?
झील के किनारे अजय की चिता पहले से सजी थी। चिता जलाने के पूर्व तिरंगा हटाया गया, मातमी धुन बजाई गई एवं सशस्त्र सलामी दी गई। दाह संस्कार के लिए अंकल अपने पौत्र को साथ लिए मुखाग्नि देने आए तो जयजयकार के नारों से दिशाएँ गूंज उठी।
मुखाग्नि के बाद मैं झील के किनारे आकर बैठ गया। लोग अलग-अलग झुण्डों में झील के किनारे फैल गए। मेरे पास अलग-अलग झुण्डों में चार-पाँच लोग बैठे बतिया रहे थे। जितने मुँह उतनी बातें।
सामने झील पर असंख्य कुरजाँ पक्षी कलरव कर रहे थे। साईबेरिया एवं उत्तरी यूरोप से हजारों मील उड़कर आने वाले यह प्रवासी पक्षी शीत ऋतु की दस्तक के साथ ही राजस्थान की झीलों एवं तालाबों के किनारे प्रतिवर्ष आते हैं एवं शीत ऋतु के समाप्त होते-होते पुनः चले जाते हैं।
मेरे पास बैठे लोग आतंकवाद पर गंभीर चर्चा में तल्लीन थे। अजय की शहादत ने सारे शहर को गंभीर चिंतन का विषय दे दिया था। झुण्ड में एक-एक कर लोग अपने विचार रख रहे थे।
‘बहुत बुरा हुआ ! बेचारे दीनानाथजी एवं अजय की माँ पर क्या गुजरी होगी? एक जवान बेटे का खोना कितना बड़ा गम है। शहादत का साक्षी होना एवं शहादत के दंश को भोगने में बहुत अंतर है। अजय की विधवा एवं बच्चों का क्या होगा ? ईश्वर ऐसा किसी के साथ न करे।’
‘तुम ठीक कहते हो भैया! सरकार तो मूर्ति लगवाकर एवं पेंशन देकर अपना फर्ज पूरा कर लेगी पर भुगतना तो उसके परिवार वालों को ही है। हर रोज अखबार मे दसों आंतकवादियों के मरने की खबर आती है, हमारे सिपाही भी मरते हैं पर आतंकवाद अपना पाँव पसारता ही जा रहा है।’
‘सरकार की नीति ही लचीली एवं दोगली है। आतंकवादियों को तो देखते ही मार देना चाहिए। दुर्जनों का तो अपकार से ही शमन किया जाता है, लातों के भूत बातों से नहीं मानते। शांति की कोई भाषा उन्हें समझ में नहीं आती। उन्हें समझाने का प्रयास भैंस के सींग पर राई ठहराने जैसा है।’
‘सरकार भी कितनों को मारे? कीड़ीनगरे की तरह यह लोग बढ़ते जा रहे हैं। मरने वाले अधिकांश आतंकवादी अठारह से पच्चीस वर्ष के युवक हैं, जिन्हें मज़हब के नाम पर गुमराह किया जा रहा है।’
चर्चा अब गर्म होने लगी थी। मैं मौन बैठा सारे वार्तालाप को सुन रहा था। लोग शायद ठीक कह रहे थे। आतंकवाद का दानव आज सारे संसार की मनुष्यता को निगलने मुँह फाड़े खड़ा है। संसार आंतकवाद के दावानल में जल रहा है। कलियुग के काले रूप की इससे भयावह कल्पना नहीं हो सकती। आतंकवाद चील, गिद्ध एवं कुत्तों की तरह नोच-नोच कर मानवता को खा रहा है। आँख के अंधे लोगों को रास्ता दिखाया जा सकता है पर मज़हबपरस्त लोगों को नहीं। क्या परमात्मा का कोई वर्ण, जाति, कौम या मज़हब है ? मुरली की तानों, मस्जिद की अजानों एव गिरजा के गानों में वही एक है, पर पाखण्डी एवं धर्मांध लोगों को यह नहीं समझाया जा सकता। सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है, धर्मांध लोग भी मात्र अपने चश्मे से देखने के आदि हो गए हैं।कभी एक राष्ट्र आतंकवाद का शिकार हो रहा है तो कभी दूसरा। जिसकी फजीहत होती है वह नसीहत देने लग जाता है। जिसके उपर बिजली गिरती है, वह चीखता है-चिल्लाता है, दूसरे कूटनीति की थोथी भूसी कूटने लग जाते हैं, यह जानते हुए भी कि आतंकवाद की संकीर्ण विचारधारा एवं संकुचित मानसिकता का एक दिन वह भी शिकार हो सकता है। क्या सभी राष्ट्र इस पर एकजुट नहीं हो सकते ? क्या अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है ? जंगल में लगी आग घटाओं के एक जुट होकर बरसने से ही मिट सकती है। मनुष्यता के सामने यह समीचीन-प्रश्न यक्ष-प्रश्न बनकर खड़ा हो गया है।
सामने कुरजाँ पक्षियों का एक ओर नया झुण्ड झील पर उतर रहा था। मैं सोच रहा था पक्षियों को कितनी आजादी है, कितनी स्वाधीनता है। हजारों मील दूर से ये पक्षी बेरोकटोक आते हैं। इन्हें अफगानिस्तान के पक्षी नहीं रोकते, पाकिस्तान के पक्षी नहीं रोकते एवं भारत के पक्षी भी नहीं रोकते। इन्हें किसी प्रकार के पासपोर्ट एवं वीसा की जरूरत नहीं। असीम आसमान को कोई सीमाओं में नहीं बाँट सकता। अगर मनुष्य के पंख होते तो वह आसमान को भी रक्तरंजित कर देता। शायद इसीलिए विधाता ने मनुष्य को पंख नहीं दिए। धरती को हमने फिर क्यूँ सीमाओं में बाँट दिया है ? कई नदियाँ पाकिस्तान से होकर भारत में आती हैं, कई नदियाँ हमारे यहाँ से वहाँ जाती हैं। पहाड़ बेरोकटोक फैले हुए है। वायु इधर की गंध लेकर उधर जाती है, उधर की गंध लेकर इधर आती है। वृक्षों के बीज, रजकण एवं घुमक्कड़ बादल इधर-उधर उड़कर आते-जाते रहते हैं। सूर्य तटस्थ भाव से सबको प्रकाश देता है, चन्द्रमा निष्पक्ष भाव से अपनी शीतल किरणें बरसाता है फिर क्यूँ मनुष्य ने सीमाएँ बनाली है? क्यूँ मनुष्य पर इतना अंकुश है?
आतंकवादियों को मारने वाले को हम शहीद कहते हैं एवं हमें मारने वालों को वे शहीद। मरने वाले आतंकवादी भी किसी के बेटे, भाई एवं पति है एवं मरने वाले सिपाही भी किसी के बेटे, भाई एवं पति हैं। दोनों तरफ से कोई भी मरता हो, मनुष्यता का तो विनाश ही है। दोनों के घरों में होने वाले विलाप की एक ही भाषा है, सभी के आँसुओं से पिघलने वाले दर्द की एक ही कथा है।
ऊपर बैठे मालिक ने तो हमे मात्र धरती दी, क्षितिज तक फैली धरती। असीम धरती। मनुष्य की महत्त्वाकांक्षाओं ने उसे सीमाओं में बाँट दिया।
क्या धरती पुनः कभी असीम बनेगी? क्या मानव जाति मनुष्यता के ध्वज तले खड़ी हो सकेगी ? क्या हर राष्ट्र की आत्मा धरती की आत्मा के साथ एकीकार कर सकेगी? क्या हम ऊपर जाकर ईश्वर को जवाब दे सकेंगे कि मनुष्यता ने अब सीमाओं की बेड़ियाँ तोड़ दी हैं? क्या हम कभी एक विश्वग्राम की स्थापना कर सकेंगे? ज्ञान का दीपक जलाने से ही आतंकवाद का तिमिर हटेगा। प्रेम के बीज को अंकुर बनाने के लिए वैचारिक एकजुटता का जल चाहिए, क्या हम उसे जुटा सकेंगे? धर्मांधता एवं निजी महत्त्वाकांक्षाओं की अनेक नदियाँ मनुष्यता के समुद्र में विलीन होकर ही महासंगम को जन्म दे सकेंगी ! क्या चेतना के पंख लगाकर हम मनुष्यता के अनंत आकाश पर उड़ सकेंगे?
प्रभु! हमें मात्र उतना विवेक दो जितना आपने कुरजाँ को दिया है।
तभी किसी ने आवाज दी, ‘कपालक्रिया हो चुकी है, जो जाना चाहे जा सकते हैं।’
अजय के चिता की लपटें अब शांत होने लगी थी। इस चिता में अजय नहीं, मनुष्यता भस्मीभूत हुई थी।
मेरे बाएँ कंधे पर गमछा लटकाये मैं श्मशान से वापस लौट रहा था। मेरे दाएँ कंधे पर मनुष्यता की लाश झूल रही थी। मेरे दग्ध हृदय से एक ही पुकार उठ रही थी, ‘फिर अवतार लो हे प्रभु!’
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01.10.2004