मुझे नहीं मालूम मैं बैंक मैनेजर क्यों बना पर ईश्वर यदि ऐसी नौकरी की बजाय मुझे इतिहास अथवा पुरातत्व का प्रोफेसर बना देता तो आम के आम गुठली के दाम वाली बात बन जाती। जाने ये महाजनी मेरे पल्ले कैसे पड़ गई ? नौकरी रुचि की नहीं हो तो आदमी उसे करता कम ढोता अधिक है।
मुझे तो प्रारम्भ से ही इतिहास, पुरातत्व जैसे विषयों में रस मिलता है। इस रस के आस्वादन के लिए मैं अनेक नई-पुरानी पुस्तकों को पढ़कर इतिहास-वीथियों में भटकता रहता हूँ।
यूँ मुझे कुछ याद नहीं रहता पर बात इतिहास की हो तो मैं आपको गत दो हजार वर्षों के युद्धों तक के बारे में बता सकता हूँ। यही नहीं मुझे वह किंवदंती भी याद है कि हेमू की आंख में पिछड़ी जाति के एक हिन्दू कबाइली ने तीर मारा था एवं इस एक तीर ने युद्ध की दिशा बदल दी थी। यह कबाइली तीरंदाज अकबर के सेनापति बैरम खां को जंगल में शिकार करते हुए मिला था। उसकी प्रतिभा पर रीझ कर बैरम खां ने उसे अपनी फ़ौज में शुमार कर लिया था। मैंने यह भी सुना है कि उस समय वर्ण व्यवस्था से मर्माहत पिछड़ी जाति के लोग लगभग बगावत पर थे। कहते हैं पानीपत के मैदान में हेमू का प्रेत आज भी आंख में धंसे तीर के साथ घूमता हुआ दिख जाता है। ओह ! इतिहास से कितना कुछ सीखने को है यदि इसका सही अन्वेषण किया जाय।
मुझे इतिहास जितना रुचिकर लगता है उतना ही पुरातत्व भी लगता है। मुझे सिंधु घाटी सभ्यता, मिश्र, बेबीलोन की सभ्यता से लेकर अनेक पुरा खोजों का ज्ञान है। इतना ही नहीं मुझे पुराने किलों, बावड़ियों, स्मारकों आदि को देखने में अतुलनीय आनंद मिलता है। मैं इन्हें देखते ही उस युग का हिस्सा बन जाता हूँ जिस युग में ये बने थे। सुना है कुछ लोगों में परकायाप्रवेश का हुनर होता है पर मैं तो उनसे भी आगे हूँ, मैं परकालप्रवेश तक कर जाता हूँ।
हर इतवार मैं किसी न किसी पुरा महत्व के स्थान को देखने जाता हूँ जैसे कि आज शाम शहर की सबसे ऊंची पहाड़ी पर स्थित इस किले को देखने आया हूँ।
यह किला अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका है एवं यहाँ बहुत कम लोग आते हैं सिवाय मेरे जैसे इतिहास-बावरे जो किले की हर चीज को गहराई के साथ देखते हैं। यहां तक कि तोपों के ऊपर निर्माण वर्ष क्या लिखा है, इन तोपों का नाम क्या है एवं यह भी कि इनका इस्तेमाल कब-कब किया गया? मैं तो यहां तक पता करता हूँ कि ये तोपें कहां ढलती थीं, बारूद कहां से आता था एवं उनको चलाने वाले कौन थे ? मेरा बस चले तो मैं यह तक पता करूं कि कौन से युद्ध में इन तोपों ने आग उगली एवं कब ये फुस्स हुईं? अनेक बार तो मैं स्वयं को पगड़ी आदि पहनाकर तोपची बना लेता हूँ एवं दनादन गोले दागना शुरु कर देता हूँ। तोप जोरदार चले तो खुद ही खुद को शाबाशी भी देता हूँ। मेरी बीवी यूं ही थोड़े कहती है ऐसा मर्द सात जन्म में ना मिले। मुझे कौन-सी उसकी परवाह है वरन कुंठित उसकी बात से चिढ़कर तोप में गोले पर गोले रखता जाता हूँ। अधिक बोले तो सामने न खड़ा कर दूं। मुझे पता है मैं अज़ीब आदमी हूं पर हूं सो हूं। गुलशन में जैसे फूल जुदा होते हैं, धरती पर आदमी भी अलग-अलग तरह के होते हैं। इसमें हैरत की क्या बात है ?
यह किला मेरा जाना-पहचाना स्थान है एवं मैं यहां कई बार आया हूँ। मन में किंचित् भय भी है क्योंकि इस किले को लेकर इस शहर में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं जैसे कि इसके भीतर-बाहर भी अनेक लड़ाइयां लड़ी गईं एवं इन लड़ाइयों में असंख्य सिपाही मारे गए। मेरा एक मित्र केशव पांडे तो यहां तक बता रहा था कि यहां रात बारह बजे के बाद कभी-कभी तलवारों, भालों की आवाजों के साथ मारो-काटो की आवाजें भी आती हैं।
केशव की इन बातों को मैं चाव से सुनता हूं एवं अधिकतर उसी के साथ रहता हूँ। मेरी तरह वह भी पैंतीस पार लंबे-चौड़े बदन का मालिक है। उसकी मुस्कुराहट भी मेरे जैसी है एवं कई लोग तो हमें भाई समझते हैं। मुझे जाने क्यों लगता है एक जाति के सभी लोगों की शक्लें कहीं न कहीं मिलती हैं।
मशहूर तो इस किले की रंगीनियां भी हैं एवं मैंने यह भी सुना है कि किसी जमाने में एक हसीन वेश्या इस शहर पर हुकूमत करती थी। उसने अय्याश राजा को अपने हुश्न के पिंजरे में तोता बनाकर बंद कर लिया था। राजा तोते की तरह वही बोलता जो वेश्या कहती। घमंडी वेश्या ने एक बार एक ठिकानेदार को उसकी जूतियां पहनाने को कहा तो वह तैश में आकर बोला, ‘रांड ! तेरी जूतियां मैं उठाऊंगा क्या ?’ कहते हैं उसी रात ठिकानेदार का कत्ल हो गया था।
किला देखकर मैं नीचे उतरा तो मुख्य दरवाजे से थोड़ा पहले, दांयी ओर ,रास्ते से हटकर एक मंदिर पर दीया जलता देखा। यह दीया भी अल्लादीन के चिराग की तरह बहुत पुराना था। इससे पहले तो यह दीया मुझे नज़र नहीं आया। आता भी कैसे, मैं शाम को तो पहली बार आया हूं एवं किला देखकर आते-आते संध्या भी तो गहरा गई है। मुझे जिज्ञासा हुई। मैं उस ओर आया तो वहां एक बूढ़ा बैठा था। उसने मुझे बताया कि वह यहां नित्य दीपक जलाने आता है, यह अखंड दीपक है एवं गत एक वर्ष से निरन्तर जल रहा है। मैं कुछ और पूछता तब तक बूढ़ा चलता बना। वह शायद जल्दी में होगा।
मैं इस मंदिर के नज़दीक आया। वस्तुतः यह मंदिर नहीं एक छोटा थानक था जिसके बाहर लगे बोर्ड पर लिखा था ‘शहीद रविदास स्मारक’ । नीचे इसका किंचित् ब्यौरा लिखा था हालांकि बहुत कुछ घिस चुका था । मेरे जैसा इतिहास रसिक इसे क्योंकर न पढ़ता। मैंने इसका हरफ़-हरफ़ पढ़ा तो मैं सिहर उठा। अब मुझे याद आया मेरे पिता इस किले के बारे में कहते थे कि इस किले की नीवें भरने के बाद इसे उठाते तो दीवारें भरभराकर गिर जाती थीं। मजदूर, कारीगर हार गए। ऐसा अनेक बार हुआ तो यहां नरबलि दी गई। पिता यह भी बताते थे कि तत्पश्चात् दीवारें नहीं गिरीं एवं कालान्तर में पूरा किला भी बन गया। ओह! यही वह स्थान है जहां रविदास की बलि दी गई। युवा रविदास की बलि ! दो बच्चों के बाप रविदास की बलि ! राजा ने ऐसा क्रूर कृत्य क्यों किया? मैं दहल गया एवं क्षणभर के लिए उसी युग में प्रविष्ट कर गया जब किले का निर्माण प्रारम्भ हुआ था। मुझे तगारियाँ उठाए मजदूरों की आवाज़ें, टांकी-हथौड़ों का शोर सुनाई देने लगा एवं कुछ क्षण में यह शोर भी थम गया। सर्वत्र चुप्पी पसर गई।
यकायक मैं चौंका। थानक के पीछे नीचे गहरे से किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही थी , ‘मुझे निकालो! मुझे निकालो! मुझे सांस नहीं आ रही है। मैं मर जाऊंगा, मैं मरना नहीं चाहता।’ आवाज़ें सुनकर मेरा हृदय भीतर तक कांप गया।
मैं पीछे की ओर आया तो वहां नीचे तालाब की ओर जाती कुछ सीढियां बनी थीं, ये आवाज़ें वहीं से आ रही थीं। मुझे न जाने क्या हो गया, यंत्रचालित-सा उस आवाज़ की ओर खिंचता चला गया एवं नीचे जाकर अंतिम सीढ़ी पर बैठ गया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था जैसे किसी ने मेरा सम्मोहन कर दिया हो।
मैंने कान ऊंचे किए। ओह ! ये आवाजें तालाब से आ रही थीं। मेरी रूह कांप गई, ये हृदय को दहलाने वाली आवाजें थीं।
यकायक ये आवाज़ें थम गईं। मैं सहम गया। लेकिन यह क्या अब तो कोई मिनख बोल रहा था-
“इतिहासविज्ञ ! मैं रविदास हूँ। यूँ तो जब-तब इतिहास की खाक छानते फिरते हो, क्या मेरी कथा नहीं सुनोगे ?” मेरा खून जम गया पर अब विकल्प ही क्या था।
“अवश्य ! लेकिन तुम हो कौन ? मुझे दिख नहीं रहे ?” मैं साहस बटोर कर बोला। मरता क्या न करता।
मेरे देखते-देखते एक हृष्टपुष्ट युवक तालाब के किनारे खड़े एक पेड़ के पीछे से प्रकट हुआ एवं मेरे सामने कुछ दूरी पर बैठ गया। वह ऊपर सफेद बंडी एवं नीचे घुटनों तक की धोती पहने था , सर पर केसरिया रंग की कल्लेदार पगड़ी थी जिसके नीचे ललाट पर कुंकुम, तिलक, अक्षत आदि लगे थे। उसके दांए हाथ में चांदी का कड़ा एवं कानों में चांदी की छोटी बालियां थीं। नीचे बाँयी पिंडली में चांदी का मोटा कड़ा एवं उसके नीचे पैरों में चमड़े की जूतियां पहने वह अद्भुत तेजस्वी लग रहा था। यौवन उसके पोर-पोर से फूट रहा था। तांबे जैसा रंग, चमकती आंखें एवं तीखे नक्श से वह सिपाही जैसा लगता था । यकायक मुझे लगा ऐसे युवक अब तो दिखते भी नहीं। मेरी आँखे उसके चेहरे पर टंग गई। मनुष्य के चरित्र के साथ क्या उसके सौंदर्य का भी पतन हो गया है ? अब युवक बोल रहा था-
“ मैं रविदास हूँ । वही रविदास चमार जिसे हज़ार वर्ष पूर्व यही जिंदा गाड़ा गया था , तुम्हारे ही पूर्वज-पुरोहितों की उपस्थिति में उन्ही के द्वारा। मैं तड़पता रहा, चीखता रहा, चिल्लाता रहा पर किसी ने मेरी एक नहीं सुनी। अन्ततः तेज मंत्रोच्चार के बीच मुझे यहीं दफन कर दिया गया। तब से इसी बियाबान में भटक रहा हूँ। ” कहते-कहते उसकी सांस यूँ फूलने लगी मानो उसका दम घुट रहा है।
“उन्होंने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों किया? क्या तब नरबलि अपरिहार्य थी ? ” मेरे माथे पर पसीने की बूंदे उतर आईं।
“नहीं! तब नरबलि की कोई प्रथा नहीं थी। इस किले के प्रथम निर्माण पर पशुबलि अवश्य हुई थी लेकिन किले की दीवारें बार-बार गिर जाती थीं। यहां के मजदूर-कारीगर इस कार्य हेतु पारंगत नहीं थे। राजा ने तब राजपुरोहित को डांटा,’ पंडितजी ! ऐसा कैसा मुहूर्त निकालते हो ? पंडित डर गया , उसे विकल्प नहीं सूझा तो उसने नरबलि का सुझाव दे दिया। नरबलि भी किसी सामान्य व्यक्ति की नहीं, छत्तीस गुणों से परिपूर्ण युवक की। ” कहते हुए रविदास गम्भीर हो गया। उसके माथे पर रेखाएं खिंच गईं।
” फिर क्या हुआ ? ” प्रश्न करते हुए मुझे लगा मानो मेरी धमनियों का प्रवाह रुक गया है।
“क्या होना था ? नगरभर में ढिंढोरा पीटा गया कि क्या कोई युवक ऐसा बलिदान कर सकता है पर इस हेतु कोई नहीं आया। राजा ने तब राजपुरोहित से पुनः मशविरा किया।” इस बार उसकी आँखों में उदासी थी।
” ओह ! उन्होंने फिर क्या सुझाया ? ” स्तब्ध मैंने एक और प्रश्न किया।
“राजपुरोहित दमोदर कृष्ण ने इस हेतु राजा से कहा कि छत्तीस गुण के युवक तो आपकी क्षत्रिय जाति में ही मिल सकते हैं। आप ही अब तक बलिदान देते आए हैं एवं इस बार भी आप ही को लाज रखनी होगी। ” चतुर पुरोहित को लगा बला टले।
” तो क्या कोई क्षत्रिय युवक आया ? “
” नहीं ! इस हेतु कोई क्षत्रिय नहीं आया। ऐसे काम के लिए कौन आगे आता वरन् क्षत्रियों के मुखिया ने तो यहां तक कह दिया कि अगर हमारे कौम से बलि ली गई तो बगावत तय है। “
“तो फिर इसके लिए तुम्हारा चयन कैसे हुआ ? “
“चयन कहाँ हुआ ? क्षत्रियों के मना करने के बाद ब्राह्मणों से कहा गया तो वे रुष्ट हो गए। उन्होंने ब्रह्महत्या एवं ब्रह्मकोप का भय बताकर किनारा किया।” उत्तर सुनकर इस बार मेरी आँखें नीची हो गईं लेकिन बात तो पूरी करनी थी।
” आगे क्या हुआ ? ” मेरी कनपटियाँ गर्म होने लगी थीं।
” इसके बाद महाजनों से कहा गया तो उनकी धोती ढीली पड़ गई। वे कांप उठे। तब राजा को लुभाने के लिए वे स्वर्ण मोहरों से भरी थैलियां लेकर आए। राजा लोभी था। उसने भयभीत महाजनों को आश्वस्त किया कि उनके कौम की बलि नहीं होगी। अंत मे हम ही बचे थे जिन पर आप सदियों से ज़ुल्म ढाते आए हैं। एक रात राज के सैनिक घोड़ों पर हमारी कच्ची बस्ती में घुस गए। तब मैं सो रहा था, वे मुझे जबरन उठाकर ले गए । मेरे बूढ़े मां-बाप , पत्नी एवं दो बच्चे बिलखते रहे। किसी ने एक न सुनी। भोर होने से पहले यहीं पर मंत्रोच्चार के साथ अफीम पिलाकर मुझे दफन कर दिया गया।” कहते हुए वह हांफने लगा। उसकी बात सुनकर किले की दीवारें तक कांप उठी।
” क्या उसके बाद दीवारें नहीं गिरीं ? ” मैंने बात बढाई।
“ नहीं , स्थिति वही रही पर राजा ने इस बात को छिपा लिया। तब अन्य राज्यों से कुशल मजदूरों की व्यवस्था की गई। तब जाकर दीवारें उठीं एवं किले का निर्माण पूरा हुआ “
“ क्या तुम्हारी जाति के लोगों ने इसका विरोध नहीं किया ? ” मैं लगभग चीख पड़ा।
“ विरोध तो हमारी कौम ने भी किया पर उनकी क्या बिसात थी। राजा ने क्षत्रियों तथा बनियों-ब्राह्मणों को साथ लेकर विद्रोह कुचल दिया। हमारे जात सरदार को असंख्य प्रलोभन दिए गए। मुझे शहीद का दर्जा देकर हर वर्ष मेरे नाम पर उत्सव मनाने की घोषणा की गई। धीरे-धीरे यह घटना भी आई-गई हुई। समय एवं इतिहास सब कुछ पचा लेता है। ” अब उसकी आंखें लाल होने लगी थीं।
” मैं अवश्य तुम्हारी मुक्ति के लिए कुछ करूंगा लेकिन यह तो बताओ तुम ’ मुझे निकालो ! मुझे निकालो !’ क्या कह रहे थे ? ” इस बार मैंने निर्भीक होकर पूछा। भय का अतिरेक अनेक बार हमें अति साहसी बना देता है।
” मेरा पंचभौतिक शरीर तो कब का समाप्त हुआ। अब तो मेरा कंकाल भी चूर्ण हो गया है। मैं जो ‘मुझे निकालो ! मुझे निकालो ’ कह रहा था उसका अभिप्राय कुछ और था। ” उत्तर देते हुए उसकी आंखों में नमी एवं आक्रोश एक साथ तैर गए।
” वह क्या ? ” मैं बमुश्किल इतना ही बोल सका।
” मेरा तुम सवर्णों से अनुरोध है कि हमारी कौमों को उस दलदल से निकालो, उस गहरे अवसाद से निकालो जिसमें तुम ऊंची जात वालों ने हमें धकेल दिया है। सदियों हम पर पशुवत् व्यवहार किया गया, हमें हमारे हकों से महरूम किया गया। आज भी स्थितियां बदली नहीं हैं। आज भी शहर-गांवों का अछूत जिंदा है। आज भी कुओं से हमें पानी नहीं भरने दिया जाता। आज भी अनेक जगह हमारी बारातें नहीं निकल पातीं। कब तक हमें नीचा करते रहोगे ? कब तक एकलव्य से अंगूठा मांगते रहोगे ? कब तक शम्बूक वध होते रहेंगे ? कब तक हमें ढोल, गंवार, पशुओं के समकक्ष रखा जाएगा ? यह जो तुम्हारा धर्म-रूपांतरण हो रहा है , यह जो तुम्हारे आंतरिक विघटन की बात तुम करते हो, उसके नेपथ्य में अन्य धर्म नहीं तुम्हारी अपनी कमजोरियां हैं। हमें अपना बनाओ। हमें सम्मान चाहिए, समरसता चाहिए, बराबरी का दर्जा चाहिए। हेमू की आंख में धंसा तीर तभी निकलेगा। ” उत्तर देते हुए उसके रोम-रोम से चिंगारियां फूटने लगी थीं।
मुझे काठ मार गया।
उसका उत्तर सुनकर किले की दीवारें , पेड़-पौधे एवं उन पर बैठे पक्षी तक स्तब्ध रह गए।
रविदास कब गायब हुआ मुझे पता ही नहीं चला।
सांझ अब गहरी से घनी हो चली थी। मैं किले से बाहर आया तब दूर आसमान में कुछ तारे टिमटिमाने लगे थे।
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25.10.2021