धर्म का गौरव प्रतिष्ठित करने वाले राम, पिता के वचन को पूरा करने के लिए, अनुज लक्ष्मण एवं भार्या सीता के साथ राजभवन छोड़कर जाने लगे तो नगर के आबाल-वृद्ध सभी उनके साथ हो लिए । उन सभी की दशा ऐसी थी जैसे प्यास से पीड़ित प्राणी पानी की ओर दौड़ रहे हो। उन्हें यूं जाते हुए देख राजभवन की स्त्रियां कुर्रियों के झुण्ड की भांति चीख उठी एवं देखते ही देखते उनके आर्तनाद से समूचा राजभवन गूंज उठा। वही नगर जो कुछ दिन पूर्व स्त्रियों की खिलखिलाहट एवं कर्मवीर पुरुषों के उत्साह से पूर्णचन्द्र की तरह उल्लसित नजर आता था आज मरघट की तरह सुनसान दिखाई दे रहा था।
राजभवन के प्रथमतल के गवाक्ष पर खड़े दशरथ अब भी उस सूने पथ को इस आशा के साथ निहार रहे थे कि कदाचित् राम पुनः अयोध्या लौट आए लेकिन नियति के कठोर विधान ने उनकी सभी आशाओं पर तुषारापात कर दिया था। वे जानते थे अब यह संभव नहीं है। उनकी चेतना लुप्त हो चुकी थी एवं चेहरे की दशा ऐसी थी मानो पूर्ण खिले कमल पर यकायक पाला पड़ गया हो। पुत्र पिता का आत्मज होता है। गुणी-ज्ञानी-तत्त्वज्ञ पुरुष भी पुत्र बिछोह में आपा खो बैठते हैं, वे फिर उस पुत्र का बिछोह कैसे सहते जो उनकी पुतलियों में बसता था। रह-रहकर राम का चेहरा, उनकी कर्तव्यपरायणता, मीठी वाणी एवं सुमधुर व्यवहार दशरथ की आंखों के आगे आकर प्रश्न करने लगे, ’दशरथ ! उस निरपराध ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कि उसे ऐसा कठोर दण्ड मिला ? वन के कठोर दुःखों को वे सुकुमार कैसे सहेंगे ? राम को प्राणों से अधिक प्रिय मानने वाले अयोध्या के लोग इस दुष्कृत्य के लिए क्या तुम्हें क्षमा कर देंगे ? समय जब अयोध्या का इतिहास लिखेगा तो उसमें क्या यह नहीं लिखा जाएगा कि एक काम-परवश राजा ने अपनी रानी के इशारे पर उस पुत्र को वनवास दे दिया जो अयोध्या का हृदय-सम्राट था एवं जो राज्य के विकास तथा जनकल्याण का प्रमुख बिंब बन सकता था , ओह ! क्या दशरथ के भाग्य में इतना अपमान अपयश, तिरस्कार एवं अवहेलना लिखी है ?’ यही सोचते-सोचते शोक से कातर राजा वहीं बरामदे में हे राम! कहते हुए गिर पड़े। चिंतन की इसी उधेड़बुन में राजा को पता भी नहीं चला कि कब दिन ढल गया एवं कब रात हो गई। राजा जड़, संज्ञाहीन हो चुके थे। उन्हें लगा जैसे उनकी आंखों के आगे अन्धेरा छा रहा है। उनका स्वर अवरूद्ध हो चुका था। बची-खुची शक्ति बटोरकर राजा ने रुंधे गले से पास ही खड़ी रानी को पुकारा, “कौशल्या! किंचित मेरा स्पर्श करो! मुझे कुछ भी नहीं दिखाई देता है। लगता है प्राण अब कुछ पल के लिए शेष रह गए हैं। ’’
रात गहरी होने लगी थी। सारा नगर अंधकार से पुत गया था। राजा सेज पर मुर्दे की भांति लेटे थे। उनकी आँखें पथराने लगी थी। दशरथ की सेवा-शुश्रूषा को आतुर सभी रानियाँ, दासियाँ, सेवक सेज को घेरे खड़े थे लेकिन इस अभेद्य सुरक्षा कवच को तोड़कर भी उनका कर्मबंधन उन्हें कर्मफल देने पर आमादा था। मनुष्य के कर्म सोने पर उसके साथ सोते हैं, जागने पर साथ जागते हैं, चलने पर साथ चलते हैं यहां तक कि मृत्यु-शैय्या पर भी उम्र भर का लेखा लेकर उसके सम्मुख उपस्थित हो जाते हैं ।
राजा की आँखें यकायक एक तेज प्रकाश से आविष्ट हो गई। दीपक बुझने के पूर्व जैसे पुनः प्रज्वलित होता है यही दशा दशरथ के चेहरे की थी। क्षणभर के लिए उनका शरीर स्फूर्त हुआ, लेकिन यह क्या ? वे तेज आवाज में चिल्लाने लगे, वृद्ध! तुमने ठीक कहा था … वृद्ध! तुमने ठीक ही कहा था लेकिन क्या तुम्हारी वह उक्ति भी सत्य सिद्ध होगी कि अगर कोई जीव … ? कहते-कहते मरणासन्न दशरथ, युवराज दशरथ बन गए एवं अतीत उनकी आंखों के आगे होकर नाचने लगा।
वह दशरथ का यौवनकाल था। युवा, अविवाहित दशरथ तब मात्र अठारह वर्ष के थे। इस अल्पवय में ही दशरथ के रूप, शौर्य एवं शस्त्र-कौशल की कीर्ति दूर-दरांत तक फैल चुकी थी। समूचे अवध में रूप-बल में उनका सानी नहीं था। तेज में वे दूसरे सूर्य के समान थे। मतवाले गजराज की तरह चलने वाले दशरथ का रूप तपाये हुए स्वर्ण के समान गोरा, नाक नुकीली, नेत्र लालिमा लिये, कंधे चौड़े एवं भुजाएं इतनी लंबी थी कि अंगुलियों के पोर घुटनों को छूते थे। धनुर्विद्या में उनकी पारंगतता एवं दक्षता देखकर अच्छे-अच्छे धनुर्धर दंग रह जाते। उनकी फुर्ती एवं तेजी देखते ही बनती। निमित्त मात्र में वे धनुष काँधे से उतारते, तीर रखते एवं प्रत्यंचा को कानों तक खींचकर छोड देते । रूप-संम्पन्न, वीर एवं ऊंचे कद वाले दशरथ, धनुष कांधे पर रखकर खड़े होते तो भय के मारे शत्रुओं का रोम-रोम कांप उठता । इसी के चलते अल्पवय में ही उन्होंने आसपास के अनेक क्षेत्र जीतकर अवध में मिला लिए थे। इतना ही नहीं दशरथ को शब्दवेधी बाण संचालन में भी महारथ थी। शब्द के कान में पड़ने भर से वे पहचान लेते कि यह शब्द कितनी दूर से आया है एवं किसका है ? जंगल में अनेक बार पक्षियों एवं हिंसक जानवरों को वे उनके स्वर से पहचान लेते । उनका निशाना एवं पहचान अचूक होती। उनके इसी अप्रतिम कौशल एवं शस्त्रज्ञान के चलते अनेक बार उनके पिता राजा अज एवं मंत्रिगण आशंकित हो उठते कि युवा दशरथ से कोई अनर्थ न हो जाए।
भवितव्यता को नमस्कार है। एक बार युवा दशरथ शिकार खेलते हुए नगर से बहुत दूर एक घने जंगल में चले आये। अपने घोड़े पर बैठे वे एक जंगली व्याघ्र के पीछे भागे जा रहे थे। दोनों में कई देर तक आंख-मिचौली होती रही एवं देखते ही देखते सांझ गिर आई। हल्के अंधेरे का लाभ उठाकर व्याघ्र भी जंगल में लुप्त हो गया। हारे-थके दशरथ घोड़े से उतरे एवं आतुर आंखों से पुनः अपने शिकार को खोजने लगे।
वे पावस के दिन थे। उस दिन सुबह से आसमान काले बादलों से ढका था लेकिन सांझ होने तक बादल न बरसने से वातावरण में विचित्र उमस थी। यहां-वहां तोते, मोर, सारस आदि पक्षी कूज रहे थे। मेंढक टर्र-टर्र करने लगे थे। पक्षियों एवं मेंढकों के शोर मिलने से समूचे वातावरण में एक विचित्र कोलाहल बन गया था। तभी उन्हें कुछ दूरी पर उगी झाड़ियों के आगे खड़े वृक्षों के पीछे डब-डब की आवाज सुनाई दी। वे समझ गये । पशु-पक्षियों के स्वर का उन्हें अच्छा ज्ञान था। निश्चय ही यह किसी हाथी की आवाज थी जो अपनी सूण्ड से किसी सरोवर में किलोल कर रहा था। उन्होंने अब तक किसी हाथी का शिकार नहीं किया था। सुबह से थका होने एवं शिकार न मिलने के कारण वे हताश हो चुके थे। उनसे रहा न गया। यौवन मनुष्य को मतवाला एवं निरंकुश बना देता है। उन्होंने आनन-फानन तरकश से एक तीक्ष्ण तीर निकाला एवं उसी शब्द का लक्ष्य कर संधान किया। लेकिन यह क्या ? हाथी की चिंघाड़ के स्थान पर उन्हें एक वनवासी की चीख सुनाई दी। वे दौड़कर वहां पहुंचे एवं देखकर हैरान रह गए कि उनका बाण एक वनवासी के हृदय में धंसा था। वह बाण का पृष्ठ भाग हाथ में पकड़े तीव्र वेदना से बिलख रहा था। पास ही एक मिट्टी का घड़ा लुढ़का पड़ा था। संभवतः वह यहां घड़े में पानी भरने आया होगा। उसे इस अवस्था में देख वे समझ गए कि उनसे अनजाने एक गंभीर पाप हो गया है। वनवासी की वेदना असह्य थी। वह उन्हें ऐसे देख रहा था मानो अपने तेज से उन्हें भस्म कर देगा। उसे इस अवस्था में देख शोक उद्वेग दशरथ व्याकुल हो उठे। उनका सिर घूमने लगा, हृदय में दीनता छा गई एवं क्षणभर के लिए उनकी चेतना लुप्त हो गई।
’’मुझ निरपराध को यह बाण किसने मारा है ?… मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया था ?… हत्यारे ! तुम कौन हो ?” वनवासी युवक का करुण आलाप सुनकर दशरथ भीतर तक कांप गए।
“मैं अवध का युवराज दशरथ हूँ। मुझे क्षमा करना युवक! यह अपराध मुझसे भूलवश हो गया। तुम्हारे घड़े की डब-डब को मैं हाथी के सूंड का किलोल समझ बैठा। तुम कौन हो और यह घड़ा लेकर यहां किस हेतु आए हो ? ’’ कहते-कहते दशरथ की सभी इन्द्रियां व्यथित हो उठी।
‘मेरा नाम श्रवण है राजन्! … मेरे अंधे एवं प्यासे मां-बाप यहां से कुछ दूरी पर बैठे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ………… मैं उन्हीं के लिए इस घडे़ में पानी लेने आया था। राजन् ! यह तुमने क्या कर डाला। … अब उन्हें पानी कौन पिलायेगा ?… उनकी देखभाल कौन करेगा ? … आपने एक तीर से एक साथ तीन निष्पाण प्राणियों की हत्या कर दी है।’ कहते-कहते उसका स्वर कांपने लगा था।
“मैं पुनः क्षमा-प्रार्थना करता हूँ। ओह! यह अनर्थ मुझसे कैसे हो गया ? ’’ दशरथ का रोम-रोम कांप उठा।
“राजन् ! तुम्हारे इस बाण से मुझे असीम वेदना हो रही है. … लगता है मैं मृत्यु के समीप आ पहुंचा हूँ. … तुम मेरे शरीर से यह बाण निकाल दो। ’’
वनवासी का करुण-क्रंदन असहनीय हो चला था।
बाण निकालते ही वनवासी की आंखें घूमने लगी। उसके कपडे़ खून से सन गये। अपने हृदय पर हाथ रखकर उसने पुनः दशरथ की ओर देखा। वह कुछ कहना चाहता था पर उसका स्वर अस्पष्ट हो चला था।
“राजन् … तुम मेरे प्यासे माता-पिता को तुरन्त जाकर पानी पिलाओ … वे अत्यन्त दुर्बल है … कहीं ऐसा न हो वे प्यास के मारे प्राण त्याग दें।’’ कहते-कहते श्रवण की आंखें पथराने लगी एवं दशरथ के देखते-देखते उसने प्राण त्याग दिए।
दशरथ की दशा ऐसी थी जैसे किसी हरे पेड़ पर यकायक बिजली गिर गई हो। उनकी मुख-कांति फीकी पड़ गई एवं हृदय एक अप्रत्याशित भय से सिहर उठा। उन्होंने युवक की लाश को पेट के बल घोड़े पर लिटाया एवं भरा घड़ा हाथ मे लिए उसके माता-पिता की ओर बढ़ने लगे। वे जड़वत् घोड़े के साथ-साथ चल रहे थे। थोड़ी देर में वे वहां पहुंच गए जहां उसके अंधे माता-पिता कावड़ में बैठे अपने पुत्र की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने घोड़े को उसके मां-बाप से थोड़ी दूर खड़ा किया। युवराज दशरथ ने आकलन कर लिया कि यह निष्पाप वृद्धजन अपने पुत्र की हत्या के बारे में सुनेंगे तो उन्हें श्राप तो देंगे ही स्वयं भी प्राण त्याग देंगे। ऐसी विकट अवस्था में उन्होंने युक्ति का सहारा लिया। वे उनके समीप आकर बोले, “मैं यहां का युवराज दशरथ हूँ। इस निर्जन वन में आप अकेले क्यों बैठे हैं ?’’ कहते हुए उन्हें लगा जैसे किसी ने उनके हृदय पर पत्थर रख दिया है।
“हम तीर्थयात्री है राजन् ! हमारा पुत्र समीप ही किसी तालाब से हमारे लिए पानी लेने गया है। ’’श्रवण के वृद्ध पिता बोले।
“मेरे घड़े में पानी है। कदाचित आपके पुत्र को आने में देरी हो गई होगी। आप मेरे घड़े से पानी पी लें। मैं भी तो आपके लिए पुत्र समान हूँ।’’ राजा दशरथ का छल उनके हृदय को भेदे जा रहा था पर वे सत्य कहने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे।
“निश्चय ही तुम मेरे एवं मेरी वृद्ध भार्या के लिए पुत्र समान हो। तुम घड़े से पानी उड़ेलो। पहले इस वृद्ध मां को पिलाओ, फिर मैं पीऊंगा।’’ वृद्ध पिता बोले।
दोनों ने हाथ आगे कर पानी पिया। तृप्त वृद्ध तब आशीष देते हुए बोले, “तुम्हारा कल्याण हो। आज तुमने दो अंधों को पानी पिलाकर अनायास ही पुण्यलाभ ले लिया है। प्यासों को पानी पिलाना महापुण्य है पुत्र ! ’’
“पितृ! मैं आपके आशीर्वाद से कृतार्थ हुआ। क्या सचमुच मनुष्य को उसके हर कर्म का फल मिलता है ?’’ दशरथ के मुख पर एक विचित्र भय उभर आया।
“निश्चय ही मनुष्य को उसके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुरूप फल अवश्य मिलता है। आम बोने वाला आम पाता है, बबूल बोने वाला आम का अधिकारी कैसे हो सकता है ?’’ वृद्ध पिता ने उत्तर दिया।
“पितृवर! यदि किसी से अनजाने किसी की हत्या हो जाए तो क्या उसे वही पाप लगता है जो जान बूझकर हत्या करने वाले को लगता है। ’’ कहते हुए दशरथ विह्वल हो उठे।
“अनजाने पाप करने वाले को भी पूरा नही तो आधा पाप तो अवश्य लगता है। ऐसा न हो तो समूचा जगत असावधान बन जाएगा।’’ वृद्ध पिता ने उत्तर दिया।
“अगर कोई अनजाने हत्या कर बैठे तो उसके विमोचन का क्या उपाय है ?’’ दशरथ का गला रुंधने लगा था।
“वैसे तो कोई उपाय नहीं है राजन् ! हां, एक उपाय अवश्य है जिससे पाप एक चौथाई रह जाता है।’’ वृद्ध पिता अब गंभीर होने लगे थे।
“वह क्या है ?’’ शोकातुर दशरथ बोले।
“अगर वह हत्यारा उस हत्या से पीड़ित व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के सम्मुख आकर खुद स्वीकार कर ले कि यह जघन्य अपराध उसने किया है तो उसका पाप क्षय हो जाता है। स्वीकारोक्ति सत्य की परछाई है राजन् ! अपराध की स्वीकारोक्ति अपराधी को अनायास विमोचित कर देती है। उसका बड़ा पाप भी तब छोटा बन जाता है अन्यथा किसी निरपराध की हत्या करने वाले का वंश उसी तरह नष्ट हो जाता है जैसे हाथी जड़ से किसी पेड़ को उखाड़ फैंकता है। लेकिन तुम ये सब बातें क्यों पूछ रहे हो ? क्या भूलवश तुमसे कोई गंभीर अपराध हो गया है ? ’’ वृद्ध पिता अब आशंकित हो चले थे।
“पितृवर! मुझे क्षमा करें। मैंने …’’ बिलखते हुए दशरथ ने वृद्ध पिता को तब पूरी कथा कह सुनाई।
वे उनके आगे उस अपराधी की तरह खड़े हो गये जिसने अपने पाप स्वयं प्रकट कर दिए हों ।
“दुष्ट! यह तुमने क्या कर दिया ? कहां है मेरा पुत्र ?’’ वृद्ध पिता कहते-कहते बिलख पड़े। पास ही बैठी वृद्ध माता भी यह सुनकर चीख उठी।
सांझ ढल चुकी थी। पक्षियों का शोर भी थम चुका था। उस निर्जन जंगल में उस समय मानो चुप्पी पसर गई थी।
बिलखते-लड़खड़ाते दशरथ ने श्रवण का शव घोड़े से उतारकर उसके माता-पिता के आगे रखा। शव का स्पर्श कर माता-पिता की दशा ऐसी थी जैसे उनका सब कुछ लुट गया हो। माता तो शव को छूते ही स्वर्ग सिधार गई। मरणासन्न वृद्ध पिता ने दशरथ की ओर जलती आंखों से देखा एवं बोले, “ अच्छा हुआ यह पाप तुमने स्वयं यहां आकर मुझे बता दिया अन्यथा तुम्हारे मस्तक के सैकड़ों -हजारों टुकड़े़ हो जाते । अपने अथवा पुरखों के किसी पुण्यवश तुम बच निकलते तो भी तुम्हारी पीढ़ियां नष्ट हो जाती। लेकिन अपने पाप से तुम अब भी नहीं बच सकते।’’ कहते-कहते वृद्ध पिता ने घड़े से जल अपनी अंजलि में लिया एवं धरती-वायु-आकाश एवं अंतरिक्ष को साक्षी कर बोले, “प्रमादी दशरथ ! इस समय पुत्र वियोग से जैसा दुःख मुझे हो रहा है वैसे ही तुम्हें भी होगा। जैसे मैं प्राण त्याग रहा हूँ, तुम भी पुत्र विरह में प्राण त्यागोगे। हां, तुम्हारी स्वीकारोक्ति से अवश्य … ।’’ कहते-कहते वृद्ध पिता ने प्राण त्याग दिए।
रात बढने लगी थी। सेज के चारों ओर रानियों एवं सेवकों से घिरे मरणासन्न दशरथ ने एक बार पुनः पूर्व पाप का स्मरण किया एवं इस बार जोर से चीखकर बोले, “तुमने ठीक कहा था वृद्धजन … तुमने यह भी ठीक ही कहा था कि स्वीकारोक्ति से पाप …हे पुत्र! हा पुत्र! हे राम! हा राम! …. राम!’’ कहते-कहते दशरथ काल के गाल में समा गए।
दिनांक 05.12.2013