सोने की चिड़िया

दुनिया में सब कुछ मनुष्य के अनुकूल होता तो वह भगवान होता। अनुभव तो यही बताता है कि मनुष्य सोचता कुछ है एवं होता कुछ और है।

राधेश्यामजी ने सोचा था कि बंटवारा करके वे चैन से जिएंगे, लेकिन जो कुछ वे देख रहे थे उससे लगता है कि उन्होंने सांप की बांबी में हाथ डाल दिया। उन्होंने सोचा न था कि उनका निर्णय उड़ते तीर की तरह उन्हीं के लिए दुःखदायी बन जाएगा। बचपन में ‘बाबा-बाबा’ कहकर कोमल नन्हें हाथों से धोती खींचने वाले बच्चे आज सचमुच उनके धोती-हरण पर आमादा थे।

घर युद्ध का मैदान बन गया था। राधेश्यामजी दोनों हथेलियां कनपटियों पर रखे गर्दन झुकाकर अपने ही घर में अपराधी की तरह बैठे थे। दो माह पूर्व ही उन्होंने पचहत्तर पूरे किए थे। जीवन भर साये की तरह साथ चलने वाली पत्नी हेमलता दो वर्ष पूर्व मस्तिष्क ज्वर से चल बसी थी। वे इस हादसे से अब तक नहीं उबरे थे।

आज रह-रहकर उन्हें हेमलता की याद आ रही थी। वह होती तो वे दुःख बांट लेते, पर यह व्यथा तो विधाता ने अकेले उनके भाग में मढ़ी थी। बड़े बुजुर्ग ठीक कह गए हैं कि बुढ़ापे में बिजली गिरने का दुःख झेला जा सकता है पर अर्धांगिनी के अभाव का नहीं। बिना पत्नी बुढ़ापा अभिशाप बन जाता है।

उनके तीनों बच्चे अमर, विनय एवं कैलाश धन के लिए आज ऐसे लड़ रहे थे जैसे गिद्ध मांस के लिए लड़ते हैं। इतना ही नहीं इच्छित बंटवारा न हो पाने के कारण तीनों बाप को ही कोस रहे थे।

सुबह जब राधेश्यामजी ने बच्चों के सामने अपनी सम्पूर्ण संपत्ति का खुलासा किया तो तीनों चकित रह गए। आँखें फटी की फटी रह गई। सभी का यही आकलन था कि पिता के घर एवं बैंक जमाओं को जोड़कर उनके पास बीस लाख से अधिक सम्पत्ति नहीं होगी। यह तो उनकी कल्पना से भी परे था कि सभी संतानों का विवाह करने के पश्चात् भी बाबा के पास ऐसी अथाह संपत्ति होगी। धन की सूची एवं मूल्य जानकर सबकी दशा अंधे के हाथ बटेर जैसी थी। सौ तोला से ऊपर सोना, तीन रहवासी प्लाट, बीघों कृषि भूमि एवं यहां-वहां बिखरी लाखों की जमाओं का कुल मूल्य दो करोड़ से कम न था। कम संपत्ति होती तो शायद बंटवारा सरल होता, लेकिन इतनी संपत्ति देखकर सबका लोभ आसमान छूने लगा।

संपत्ति का ब्यौरा एवं कुल मूल्य बताने के पश्चात् राधेश्यामजी तीनों बच्चों एवं बहुओं को कह रहे थे, ‘‘यह संपत्ति मेरे खून पसीने की कमाई है। मैंने एवं हेमलता ने मन मसोस कर इसे जोड़ा है। जवानी से ही मैं अपनी आय का पच्चीस प्रतिशत विनियोग करता था। यह संपदा उसी की परिणति है। तुम्हारी मां ने इस कार्य में मुझे हमेशा सहयोग दिया। हम दोनों ने बहुत गरीबी देखी, यहां तक कि व्यापार के प्रांरभिक वर्षों में खाने के लाले पड़ गए। प्रभु की कृपा थी धीरे-धीरे सभी कार्य बन गए। चाहते तो हम भी इस संपदा को भोग सकते थे पर मेरा एवं तुम्हारी मां का सदैव यह चिंतन रहा कि जिस घनघोर गरीबी को हमने भोगा है, उसे बच्चे कभी न भोगें। उस कठोर समय की स्मृतियां उघड़ते ही मेरी रूह कांपने लगती है। प्रारंभिक संघर्ष के दिनों में मैं तुम्हारी मां को तीन वर्ष तक एक साड़ी भी भेंट न कर सका। उस तपस्विनी ने गहने तक बेचकर व्यापार का घाटा पूरा किया।’’ कहते-कहते भावावेश में उनकी आंखें गीली हो गई।

उनकी बात सुनने के पश्चात् कुछ देर तो तीनों पुत्र चुप बैठे रहे पर शीघ्र ही तीनों कलह पर उतर आए। नगाड़े पर पहली चोट सबसे बड़े पुत्र अमर ने दी। उसने बात प्रारंभ ही की थी कि उसकी पत्नी अरुणा उसके पास आकर ऐसे खड़ी हो गई जैसे किसी सैनिक द्वारा युद्ध का बिगुल बजाने पर दूर खड़ा सैनिक समीप आ जाता है। अमर अब पचास के पार था। उसके दो जवान बेटे एवं दो पुत्रियां सभी कुंवारे थे। बड़ा अट्ठाईस वर्ष का था। उसके विवाह का गत चार वर्षों से प्रयास चल रहा था, पर बात न बन पाने के कारण बाकी सभी भाई-बहन भी अटके थे। विनय अमर से पांच वर्ष एवं कैलाश विनय से सात वर्ष छोटा था। विनय के पश्चात् दो लड़कियां भी हुई जिनकी शादियां राधेश्यामजी ने कुछ वर्ष पूर्व अपने दम-खम पर की थी। बच्चों को वे आदतन कष्ट नहीं देते थे, लेकिन आज अमर के विचार जानकर उनके कानों में शीशा पिघल गया। अमर बेधड़क कहे जा रहा था, ‘‘बाबा, लगता है बुढ़ापे में आप सठिया गए हैं। आपका सर फिर गया है। आप तीनों को समान रकम देने की बात कैसे कर सकते हैं ? क्या तीनों का त्याग, तीनों का साथ एवं तीनों की जिम्मेदारियां बराबर रही हैं ? मैं पचास वर्ष से आपके साथ हूं एवं गत पच्चीस वर्ष से विवाह के पश्चात् मैं एवं अरुणा आपके सुख-दुख के समभागी है। आपकी बीमारी, मां की तीमारदारी, मेहमानों की आवभगत एवं आपके कारोबार को जमाने में विनय एवं कैलाश ने क्या उतना ही सहयोग दिया है जितना मैंने ? वर्षों से मैं आपकी दुकान पर बैठता आया हूं। आपका मेरा संघर्षपथ समान है। दोनों छोटे भाइयों के विवाह, बहनों के विवाह एवं इन्हें योग्य बनाने में मुझसे अधिक श्रम किसने किया ? आपके प्रारंभिक दुःख के दिनों का सबसे अधिक शिकार कौन बना ? अब तो मेरे बच्चे भी बड़े हो गए, उनके विवाह के दिन करीब आ गए, उन्हें मुझे कैरियर में भी सैटल करना है। झाड़ की तरह खड़े इन पोते-पोतियों से तो आप बैर न निकालें। मुझे आपकी संपत्ति का कम से कम आधा हिस्सा मिलना चाहिए। शेष धन विनय एवं कैलाश बराबरी में बांट लें।’’

इतना सुनते ही विनय की ललाट सिकुड़ गई, चितवन टेढ़ी हो गई तथा गुस्से के मारे आंखें लाल हो गई। वह बिफर पड़ा, ‘‘बड़े भैया, आप भी कमाल करते हैं। आप और मेरी उम्र में मात्र पांच वर्ष का फरक है, इतने कम अंतर में आपने कौन-सा तीर मार लिया? मैंने भी पिताजी के व्यापार को बढ़ाने में कम सहयोग नहीं दिया है वरन् आप तो अनेक बार मुझे अकेला छोड़कर मित्रों के साथ यहां-वहां घूमते रहते थे। आपकी हरकतों का मैं प्रतिकार नहीं कर पाया इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं नासमझ था। मेरे आदर एवं त्याग का आप यह सिला दोगे, ऐसा तो मैं सोच ही नहीं पाया। आप अगर वरिष्ठता क्रम से आधा हिस्सा मांग रहे है तो मुझे चालीस प्रतिशत दे दो, कैलाश दस प्रतिशत में गुजारा कर लेगा। हम दोनों तो अधेड़ होने को आए, इसे तो अभी वर्षों जीना है। उसकी कौन-सी जिम्मेदारियां मुंह बाये खड़ी हैं।’’ कहते-कहते विनय के ओठ फड़कने लगे। पति को यूं आग उगलते देख उसकी पत्नी नीता आगे आई एवं विनय के कंधे पर हाथ रखकर बोली, ‘‘आपका तो सारा त्याग एवं आदर बेकार गया। मैं भी उम्र भर देवरानी-जेठानी के बीच चक्की की तरह पिस गई। बड़ी का हुक्म बजाओ एवं छोटी को कष्ट न दो। मैं तो बुरी फंसी। ऊपर से आज यह सुनने को मिला कि जो किया बड़ों ने ही किया।’’

कैलाश कौन-सा चुप रहने वाला था। दस प्रतिशत की बात सुनकर उसका खून खौल गया। उसे अब समझ में आया कि दोनों भाई उसे दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक रहे हैं। विनय की बात सुनकर तो वह ऐसा भड़का जैसे आग में घी पड़ गया हो। आंखें ऊंची कर क्षणभर के लिए उसने दोनों अग्रजों को देखा फिर तमतमाकर बोला, ‘‘बाबा, मैंने सारी उम्र आपकी ही नहीं इन दोनों भाई-भाभियों की सेवा की, इन्होंने जैसा कहा वैसा किया लेकिन मुझे क्या पता था यह दोनों मुझे पत्थर के मोल तोलेंगे। दोनों काम-धाम कुछ नहीं करते, बस सारा काम मुझ पे लादते रहते हैं। मैं बैल की तरह इनके निर्देशों के कोल्हू के चारों ओर यह सोचकर घूमता रहा कि बड़े भाइयों को आदर देना चाहिए लेकिन इन्होंने तो कमाल कर दिया। मुझे अधिक अथवा बराबर हिस्सा देने की बजाय दस प्रतिशत में यूं टरका रहे हैं मानो मैं पुत्र न होकर आपके द्वार का भिखारी हूं। देर से पैदा होना गुनाह है क्या ? मैं कहे देता हूं कि हिस्सा होगा तो राई-रत्ती बराबर होगा वरना मैं कानून के दरवाजे खटखटाने में भी संकोच नहीं करूंगा। लाॅ-ग्रेजुएट हूं मैं! मैंने कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं।’’ कहते-कहते कैलाश ने अपना बांये हाथ की हथेली को दायें हाथ की मछलियों पर पटक कर यूं बजाया जैसे कोई पहलवान अखाड़े में ताल ठोककर प्रतिद्वंद्वियों को ललकारता है। उसके रुकते ही उसकी पत्नी रीना उसके समीप आकर बोली, ‘‘दोनों जेठजी ने हद कर दी। जेठानियां ऊपर से जहर उगल रही हैं। घर में सबसे छोटा होना तो गुनाह हो गया। सबके चरण भी छूओ और लातें भी खाओ।’’ कहते-कहते उसने कैलाश के कंधों पर हाथ रखकर उसे हौसला दिया।

कैलाश एवं रीना के बात समाप्त करते ही युद्ध परवान चढ़ गया। सभी एक दूसरे पर लांछन लगाने लगे। अपनी लगन एवं सूझबूझ से जिस घर में राधेश्यामजी ने प्रेम के कमल खिलाए थे, वहीं आज कीचड़ फैला था। धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ी कि हाथापाई की नौबत आ गई। राधेश्यामजी को काठ मार गया। वे किसे क्या समझाए? हताश वे सर पकड़ कर बैठ गए।

दिन चढ़ आया था। सूर्य अब आकाश के मध्य आकर आग उगलने लगा था। राधेश्यामजी से कुछ बनाते नहीं बन रहा था। मन ही मन राम का नाम जप रहे थे , प्रभु! चैथपन में यूं दुर्गत होगी ? अब तो आप ही रक्षक हैं!

शायद बूढ़े की पुकार ईश्वर के द्वार तक पहुंच गई। यकायक चौखट के बंद दरवाजे पर दस्तक हुई। रीना ने आकर दरवाजा खोला तो देखकर हैरान रह गई। अपना पल्लू सर पर रखकर उसने आने वाले के पांव छूए फिर जोर से बोली, ‘‘महाराज पधारे हैं !’’

राधेश्यामजी, सभी भाई, उनकी पत्नियां तुरंत उठकर चौखट तक आए। सभी एक-एक कर महाराज के चरणों में गिर पड़े।

‘‘महाराज! यकायक आपका आगमन कैसे हुआ ? आप सूचना देते तो मैं स्टेशन लेने आ जाता।’’ विस्मय से भरे राधेश्यामजी हाथ जोड़कर बोले।

‘‘मैं हरिद्वार से अहमदाबाद जा रहा था। जयपुर रास्ते पर था, इच्छा हुई तुम्हारी सुध ले लूं। बहुत दिनों से तुमसे मिलना नहीं हुआ। कहो, तुम सब कैसे हो?’’

‘‘पहले आप भीतर तो आएं !’’ अमर बोला।

महाराज कृष्णास्वामी अब पाट पर बैठे थे एवं सारा परिवार उनके सामने बैठा था। उनका चेहरा दिव्य कांति से आपूरित था। वे धर्म के ज्ञाता ही नहीं साक्षात् धर्मरूप थे। गत पचास वर्षों से वे इस घर के लिए आराध्य की तरह थे। राधेश्यामजी हर वर्ष उनके दर्शन करने हरिद्वार जाते। जीवन के कठिनतम समय में कृष्णास्वामी ने ही उन्हें मार्ग सुझाया। राधेश्यामजी एवं उनके पूरे परिवार की आंखों में उनका दर्जा भगवान के बराबर था। चतुर संत ने बात ही बात में सबके मन की थाह ले ली। किसी बहाने से राधेश्यामजी उन्हें लेकर ऊपर के कमरे में गए तो महाराज ने पूछा, ‘‘सब कुशल से तो है, राधे !’’

महाराज के इतना भर पूछने से उनके आंसू छलक पड़े। घर का बड़ा अपनी व्यथा किसे कहे? कोई उससे बड़ा आए तब तो न उसका मन पिघलेगा! राधेश्यामजी ने आज की सारी घटना का बयान महाराज को कर दिया।

‘‘सब ठीक हो जाएगा राधे! ईश्वर पर भरोसा रख। यह धन झगड़े की जड़ है। इसके कमाने में दुःख, इकट्ठा करने में दुःख, रखवाली में दुःख, विसर्जन में दुःख यहां तक कि इसे त्यागने में भी दुःख ही दुःख है। संग्रहण को इसी हेतु तो हम पाप कहते हैं। माया विषधर सर्प के समान है। तुमने अकारण ही पिटारी खोलकर सबका लोभ जगा दिया। अब तुम्हारे सभी पुत्र लालच के फन उठाकर खड़े हो गए हैं।’’ वे कुछ और कहते तभी नीचे से विनय की आवाज आई, ‘‘प्रसाद बन गया है। बाबा, महाराज को लेकर नीचे आएं !’’

प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात् कृष्णास्वामी वहीं पाट पर यह कहकर लेट गए कि ‘‘चार बजे सब यहीं रहना, मैं तुम सबसे वार्ता करूंगा।’’ इतना कहकर वे चादर तानकर सो गए।
सूरज ने जब आकाश को पौना पार किया तो कृष्णास्वामी उठे। रीना ने उनके आगे चाय की प्याली रखी। चाय की चुस्कियां लेते हुए महाराज बोले, ‘‘राधे! तुम्हारे घर में चाय बड़ी अच्छी बनती है !’’

‘‘आपकी कृपा है, महाराज!’’ कहते-कहते राधेश्यामजी उनके समीप आकर बैठ गए।
‘‘हमारा परिवार भी चाय की तरह होता है, राधे! बनती तो चाय हर जगह पत्ती एवं शक्कर से है पर फ्लेवर हर जगह अलग होता है। परिवार में भी सभी जगह एक-सी बातें हैं लेकिन परिवार जुदा-जुदा है। रिश्तों में भी फ्लेवर के लिए त्याग की पत्ती एवं प्रेम की शक्कर चाहिए। ऐसे में अगर कड़वा अदरक भी मिल जाए तो वह चाय का स्वाद ही बढ़ाता है।’’ कहते-कहते कृष्णास्वामी ने अपनी लंबी सफेद दाढ़ी पर ऊपर से नीचे तक हाथ फेरा।

‘‘आप ठीक कहते हैं, महाराज!’’ इस बार सबसे पीछे बैठा कैलाश बोला।

‘‘कैलाश! त्याग कहने में तो बड़ा सरल है, पर करना बड़ा कठिन है। आदर्श जब तक व्यवहार में नहीं आता कोरा उपदेश है।’’ यह कहते हुये उन्होंने बांये हाथ की अंगुलियां कनपटी पर यूं रखी मानो किसी गहरे चिंतन में डूब गए हांे। सोचते-सोचते उनकी आंखें इस तरह मुंद गई मानो वे ध्यान में गहरे उतर रहे हांे। मुंदी आंखें, उन्नत ललाट, माथे पर भस्म की रेखाएं, भगवा वस्त्र, पास में रखा कमण्डल एवं लम्बी सफेद दाढ़ी उनकी मुख-प्रभा को द्विगुनित करने लगी थी।

कुछ देर बाद उन्होंने आंखें खोली एवं सबको एक-एक कर यूं देखा मानो सबकी मनःस्थिति परखने का प्रयास कर रहे हों। उनकी आंखें ठहरी तो वे बोले, ‘‘आज मैं तुम्हें ‘महाभारत’ काल की एक कथा सुनाता हूं, तुम सभी ध्यान से सुनो !’’
भाग-2

वारणावत लाक्षागृह से निकलने के कुछ माह पश्चात् वनगमन के समय पांचों पाण्डव माता कुंती सहित एक ब्राह्मण के अतिथि बने थे। उस ब्राह्मण के परिवार में एक सुलक्षणा पत्नी, एक किशोरवय कन्या एवं दस वर्ष का एक छोटा पुत्र भी था जो अब तक तुतलाती भाषा में बोलता था। उस परिवार में अनन्य प्रेम था एवं सभी एक दूसरे को समुचित आदर देते थे। निर्धन होते हुए भी उनका आतिथ्य देखते बनता था।

कुंती एवं पाण्डव नित्य संध्या पूर्व भ्रमण पर जाते थे एवं संध्या होते-होते लौट आते थे। एक बार सभी वनगमन कर लौट रहे थे तो उसी ब्राह्मण की झोंपड़ी से चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनकर हतप्रभ रह गए। कुंती ब्राह्मण के आतिथ्य से अभिभूत थी। उसने पांचों पुत्रों को वहीं रुकने का आदेश दिया एवं दबे पांव चलकर झोंपड़ी के पिछवाड़े आकर खड़ी हो गई। ब्राह्मण परिवार के विलाप को सुनकर वह दंग रह गई। ब्राह्मण रो-रोकर अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘तुम जिद न करो ब्राह्मणी, उस राक्षस के पास आज रात मुझे जाने दो। तुम्हारा पति एवं परिवार का भर्ता होने के नाते जीवनदान का प्रथम अधिकार मुझे ही है। तुम मेरी सहधर्मिणी, कुलीन, सुशीला एवं संतानवती हो। मन, वचन, कर्म से सदैव तुमने मेरी सेवा तथा मेरी संतति का पालन-पोषण किया है। तुमने सदैव मेरा उपकार किया है। इस तुच्छ जीवन के मोह के लिए मैं तुम्हारे अथवा परिवार के किसी अन्य प्राणी के त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। हमारी कन्या किशोर वय प्राप्त कर विवाह की दहलीज पर खड़ी है। शास्त्रों में कन्यावध ब्रह्महत्या के बराबर माना गया है। हमारा यह पुत्र अभी बहुत छोटा है और इसे मैं बहुत प्यार करता हूं। इसे तो मैं किसी भी हालत में उस राक्षस के पास नहीं भेज सकता। वह पुरुष ही क्या जो सारा जीवन तो धौंस एवं अधिकार दिखाता रहे एवं प्राणों पर बन आने पर परिवार को असहाय छोड़ जाए। ऐसे जीवन को धिक्कार है। कल्याणी! मुझे जाने दो। मैं किसी भी अवस्था में तुम में से एक का त्याग न कर सकूंगा। भद्रे! मुझे इस महापाप का भागी न बनाओ।’’ कहते-कहते वह शोक संतप्त द्विज बिलख पड़ा।

अपने पति का विलाप सुनकर वह पतिप्रिया उसके चरणों में गिर पड़ी। कुछ समय पश्चात् आंसू पौंछते हुए वह पुनः उठी एवं पति का हाथ थामकर बोली, ‘प्राणवल्लभ! आप व्यर्थ विलाप कर रहे हैं। आप विद्वान् हैं। मेरे सर्वस्व एवं बच्चों के प्राणाधार हैं। आपका यूं शोक विह्वल होना उचित नहीं है। जरा सोचिए, आपके बिना इस घर की क्या दशा होगी ? क्या आपके बिना मैं निरापद रह सकूंगी ? मैं एवं बच्चे दाने-दाने को तरस जाएंगे। क्या आपको यह शोभा देगा कि आपका परिवार भिखारियों की तरह जीवन-यापन के लिए यहां-वहां हाथ पसारे ? आपके बिना इस कन्या का विवाह मैं कैसे करूंगी ? कैसे इस पुत्र को बड़ा करूंगी ? आपके बिना हम सभी की स्थिति बिना पानी की मछलियों की तरह हो जाएगी। वैधव्य वैसे ही स्त्री के लिए मृत्यु तुल्य है। पतिविहीन स्त्री का जीवन सारहीन, निराधार एवं पराधीन बन जाता है। आपके अभाव में घुट-घुटकर मरने से तो अच्छा है कोई एक ही बार में मेरे प्राण ले ले। नररत्न! मैंने आपसे सारे सुख भोग लिए हैं, फिर स्त्री के लिए इससे बड़ा कोई सुख नही है कि वह पति के पहले मृत्यु को प्राप्त हो जाए। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात होगी। आप मुझे फिर उस राक्षस के पास जाने से क्यों रोक रहे हैं ? आपके तथा परिवार के लिए किया जाने वाला यह प्राणोत्सर्ग जीते जी स्वर्ग प्राप्त करने जैसा है। आप किंचित् संकोच न करें एवं मुझे वहां जाने की आज्ञा दें। धर्मज्ञ! आपका एवं मेरे परिवार का इसी में कल्याण है।’’ कहते-कहते ब्राह्मणी की आंखों से नदी में आई बाढ़ की तरह अश्रु बह गए।

ब्राह्मणी के ऐसा कहते ही वहां आर्तनाद हो गया। माता-पिता की ऐसी दशा देखकर वह किशोरी कन्या बोली, ‘‘आप दोनों एक दूसरे के आगे हठ करके क्यूं बार-बार रो रहे हैं। मैं घर की ज्येष्ठ संतान हूं। मेरे होते हुए आपको जीवन का त्याग करना पड़ जाय इससे अधिक लज्जा, ग्लानि एवं धिक्कार की बात मेरे लिए क्या हो सकती है? बूढ़े मां-बाप का जीवन कष्टसाध्य कर जीने वाली संतान से अधिक पापी पृथ्वी पर कौन है ? आपने यह सोच भी कैसे लिया कि मेरे होते हुए आप में से कोई एक राक्षस के पास जाएगा ? मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी। पुत्री को तो वैसे ही एक दिन पितृगृह त्यागना होता है, पहले अथवा बाद में इससे क्या फ़र्क पड़ता है। आपको तो हर हाल में मुझे त्यागना है फिर आप यह त्याग आज ही क्यों नहीं कर देते। आज रात राक्षस के पास मैं ही जाऊंगी, यह मेरा प्रण है।’’ इतना कहकर वह किशोरी माता-पिता के चरणों में यूं गिर पड़ी जैसे कोई कटा वृक्ष धरती पर गिर पड़ता है।

अपने परिवार का ऐसा संताप देख अब उस बालक से न रहा गया। वह नन्हा उन सबके पास आकर तुतलाती भाषा में बोला, ‘‘आप सभी चिंता क्यों कर रहे हैं? पुत्र के होते हुए पिता, माता अथवा बहन प्राणों का त्याग कैसे कर सकते हैं ? ऐसा पुत्र जीते जी मृत है। मेरे होते हुए आप में से कोई प्राणदान करे तो जीवनभर मुझे निंदा , उपहास का पात्र बनना पड़ेगा। ऐसे निर्लज्ज जीवन से तो मृत्यु अनंतगुना श्रेयस्कर है। मैं छोटा नहीं हूं। कोई मुझे रोकने का दुस्साहस न करे। पुरखों का तपोबल मेरी थाती है। आज रात राक्षस के पास मैं ही जाऊंगा।’’ इतना कहकर वह बालक पिता के आदेश की प्रतीक्षा में उनके समीप आकर खड़ा हो गया।

ब्राह्मण कुमार के ऐसे वचन सुनकर कुंती झर-झर रो पड़ी। अब उससे न रहा गया। तुरंत भीतर आकर वह ब्राह्मण से बोली, ‘‘क्षमा करें देव! मैंने पूरा वार्तालाप सुन लिया है। मेरे पांच वीर पुत्रों के होते हुए आप में से किसी को वहां जाने की आवश्यकता नहीं है। इसी बहाने हम आपकी कृपा का ऋण उतार लेंगे। लेकिन पहले आप बताएं वह राक्षस कौन है ? आपके परिवार का आज वहां जाना क्यों अपरिहार्य हो गया है?’’

‘‘देवी! वह एक बड़ा भयानक नरभक्षी राक्षस है। प्रति रात उसके पास नगर का एक आदमी तीन मन भात, पका मांस एवं अन्य भक्ष्य पदार्थ लेकर जाता है। वह राक्षस इस सारी सामग्री सहित इसके ले जाने वाले को भी अपना ग्रास बना लेता है। ऐसा न करने पर वह नगर में विध्वंस कर सारी व्यवस्था को उलट-पुलट कर देता है। इसीलिए सबकी बारी तय करदी गई है। इसी क्रम में आज मेरी बारी है। आज रात मेरे परिवार के किसी सदस्य को उसके पास यह सामग्री लेकर जाना होगा और जाने वाले की मृत्यु तय है।’’ कहते-कहते उस ब्राह्मण के पांव कांपने लगे।

इतना सुनते ही कुंती की आंखों में क्षत्रियोचित शौर्य उभर आया। क्रोध के मारे उसकी आंखें अंगारे उगलने लगीं। ब्राह्मण को आश्वस्त कर कुंती ने भीम को उस रात उस नरभक्षी के पास भेजा। दोनों में भयानक युद्ध हुआ एवं देखते ही देखते भीम ने उस दानव को चीरकर यमलोक पहुंचा दिया। यह समाचार जानकर नगरजनों में हर्ष की लहर दौड़ गई। उन्होंने कंधे पर बिठाकर भीम का जय-जयकार किया।

इस कथा को समाप्त कर कृष्णास्वामी राधेश्यामजी एवं उसके परिवारजनों की ओर मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘प्रेम एवं त्याग ही पारिवारिक सुख एवं शांति का मूल है। पारिवारिक सौहार्द्र एवं संगठन स्वार्थ की खाद पर नहीं पनपता, यहां तो सर्वाधिक त्याग करने वाला ही विजेता है। जिन परिवारजनों में त्याग का भाव है उस परिवार के सुख, शांति एवं समृद्धि को भगवान भी नहीं रोक सकता। परमात्मा भी संगठित परिवार के साथ चलने को विवश हैं।’’ इतना कहकर वे पाट से उठ खड़े हुए, अपना कमण्डल संभाला एवं उसी रात अहमदाबाद के लिए प्रस्थान कर गए।
भाग-3

संपूर्ण जगत को प्रकाशमान करने वाले भगवान भास्कर का बिंब पूर्वी छोर पर उभरा तब राधेश्यामजी स्नानादि कर पाट पर बैठे थे। कुछ समय पश्चात् एक-एक कर उनके तीनों पुत्र, पुत्र वधुएं एवं पोते-नाती उनके सामने आकर बैठ गए। बंटवारे का पुनः प्रसंग छिड़ा लेकिन आज नजा़रा भिन्न था। कल की तरह आज भी शुरुआत अमर ने ही की।

‘‘बाबा! कल जो कुछ मैंने कहा वह गलत था। वस्तुतः मैं भटक गया था। मात्र उम्र में बड़ा होने से कोई बड़ा नहीं होता, बड़ा वही है जिसका त्याग बड़ा है। अगर बड़ा भाई छोटे भाइयों से छीनने का प्रयास करे तो वह बड़ा कैसा ? उम्र का उत्कर्ष आदर का पैमाना नहीं हो सकता, आदर का पैमाना तो त्याग, श्रद्धा एवं प्रेम ही बन सकते हैं। आप दस प्रतिशत हिस्सा मेरे लिए तय करें, बाकी धन मेरे अनुज इच्छानुसार बांट लें।’’

अमर कुछ और कहता उसके पहले ही विनय बोला, ‘‘बड़े भैया! मुझे क्षमा करो। लोभ ने कल मेरी आंखों पर पर्दा डाल दिया था। जीवनभर आप मुझे छाते की तरह कष्ट एवं तकलीफों की बौछारों से बचाते रहे, लेकिन आज त्याग का समय आया तो मैंने मुंह मोड़ लिया। मैं निकृष्ट एवं पापी ही नहीं अधम भी हूं। अब तक आप मुझे संभालते रहे, अब जबकि मेरे भतीजे-भतीजियां, कैरियर एवं विवाह की दहलीज पर खड़े हैं, मैंने तोते की तरह आंख फेर ली। इतना ही नहीं आपके जीवनभर के त्याग एवं स्नेह को दरकिनार कर कल आपको कटु शब्द भी कहे। मेरी यही सजा है कि बाबा मुझे बंटवारे में कुछ न दे।’’ कहते-कहते विनय की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई।
अब कैलाश की बारी थी।

विनय की बात सुनकर वह भी बिलख पड़ा।

‘‘बाबा! इन दोनों भाइयों ने जीवनभर मुझे ढाल की तरह सहारा दिया। इनके साये में मैं निद्र्वन्द्व घूमता रहा। कल मैंने इन्हें जो कुछ कहा उसके लिए ईश्वर भी मुझे क्षमा नहीं कर सकता। मुझमें तो अब इनसे आंख मिलाने का भी साहस नहीं है। मुझे बंटवारे की आवश्यकता ही कहां है ? मेरे पास तो अभी एक लंबा समय पड़ा है। इनके आशीर्वाद से मैं निश्चय ही अपना अभीष्ट सिद्ध कर लूंगा।’’ कहते-कहते कैलाश दोनों भाइयों के चरणों में गिर पड़ा। उसका रुदन थमता ही न था।

पाट पर बैठे राधेश्यामजी यह सब सुनकर हैरान रह गए। हर्षविभोर उनकी आंखों में स्नेह एवं आनंद के आंसू छलक आए। मन थमा तो सोचने लगे-यह देश सोने की चिड़िया इसलिए नहीं था कि यहां सोने के पहाड़ थे। यह देश सोने की चिड़िया इसलिए था कि यहां स्वर्ण-संस्कार थे। इस देश का मन भटक सकता है, आत्मा नहीं।

…………………………….

12.04.2010

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *