सेवा

मि. कक्कड़ की व्यथा वे ही जानते थे। पिता की सेवा करते-करते शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तर पर वे टूट चुके थे। उनकी पत्नी सुरेखा की आंतें भी श्वसुर की तीमारदारी करते गले में आ चुकी थी। मि. कक्कड़ की उम्र तकरीबन चालीस के आसपास थी, सुरेखा उनसे तीन वर्ष छोटी थी। बिचारे दोनों जवानी में ही गल गये। वे कहे भी तो किससे। जीवन में कई बातें हलक से नीचे रखनी होती है, उन्हें उगलते ही तूफान उठ खड़े होते हैं। ‘सेवा’’ के दो अक्षर कहना कितना सरल है एवं करना कितना कठिन।

वैसे इस जगत में जिसे देखो सेवा का आलाप किये जा रहा है। राजनेता कहते हैं हम जनता की सेवा कर रहे हैं, समाज सेवी समाजसेवा का दंभ भर रहे हैं, सरकारी मुलाजिम देश की सेवा कर रहे हैं, व्यवसायी ग्राहकों की सेवा कर रहे हैं एवं विद्यार्थी अध्यापकों की सेवा कर रहे हैं। इतना ही नहीं, पत्नियों को पूछो तो कहती है पति परमेश्वर की सेवा में लगी हैं, पति कहते हैं पत्नी की सेवा में हड्डियाँ गल गई, पुत्र माँ-बाप की सेवा कर रहे हैं एवं माँ-बाप से पूछो तो इधर-उधर देखकर यही कहते हैं, हमारे भाग्य में सेवा कहाँ, सच्चाई तो यह है कि हम इन औलादों की सेवा कर रहे हैं। वस्तुतः हर व्यक्ति किसी न किसी स्वार्थ से ही सेवा कर रहा है, सबके अवचेतन मन की अंतःदृष्टि सेवा के नेपथ्य में छिपे ‘मेवा’’ पर ही है, पर मनुष्य की चतुराई तो देखो सभी उस मेवे को पूरी मुस्तैदी से छुपाकर सेवा का नाम दे रहे हैं। मन में तो सबके कहीं न कहीं ‘आम के आम, गुठली के दाम’ का ही समीकरण चल रहा है।

बहरहाल कक्कड़ साहब भी अपने बाप की सेवा करते-करते दुःखी हो गये हैं। दस साल में किसी का भी हौसला पस्त हो जाता है। अस्सी साल के बूढ़े आदमी की सेवा करना सरल कार्य नहीं है। अच्छे-अच्छों को दिन में तारे नजर आ आते हैं।

कक्कड़ साहब की माँ का स्वर्गवास हुए भी पन्द्रह वर्ष होने को आये। उसने तो सेवा का सुख भोगा ही नहीं। यह पुण्य तो कक्कड़ साहब एवं सुरेखा के भाग्य में ही लिखा था। जवानी में तो कक्कड़ साहब सुरेखा को श्वसुर की संपत्ति का ब्यौरा देकर रिझाते रहे, ‘‘सेवा हम कर रहे हैं तो कौन-सा अहसान कर रहे हैं, संपत्ति के वारिस भी तो हम ही होंगे। बाबूजी की संपत्ति हाथ लगते ही ऊपर से नीचे तक सोने से लद जायेगी।’’

कक्कड़ साहब के कांच दिखाते ही सुरेखा के स्वप्न आकाश पर चढ़ बैठते। कुछ समय तो सपनों की डोर में बंधी फुदकती रही, लेकिन समय बीतने लगा तो उसका हौसला भी रीतने लगा। एक मुकाम पर हर एक का दम टूट जाता है। कल रात जली-भुनी थी, कक्कड़ साहब ने फिर कांच दिखाया तो बिफर पड़ी, ‘‘तुम्हीं बांधना अपनी छाती पर यह धन! सारी जवानी तो सेवा में पिल गई, बुढ्ढा है कि साँस को पकड़े बैठा है। मरे न माचा छोडे़। रीढ़ की हड्डी दस साल पहले श्वसुरजी की टूटी, लेकिन लगता है सेवा करते मेरी टूट जायेगी। तुमसे कुछ होता भी तो नहीं। बस बतिया लो। पड़ौस में शर्माजी जगत भर की जन्मपत्रियाँ देखते रहते हैं, एक बार बाबूजी की भी दिखा आओ ना!’’ कहते-कहते उसने कक्कड़ साहब की ओर तल्ख आखों से ऐसे देखा कि बिचारे को साँप सूँघ गया। उन्हें मालूम था सुरेखा सेवा करते-करते ऊपर तक भर गई है, भरे आदमी को छेड़ते ही वह उल्टा पड़ता है। समय अनुकूल उन्हें यही उत्तर सूझा, ‘‘कल रविवार है, सुबह-सुबह ही जाकर दिखा आऊँगा।’’


कोई दस वर्ष हुए। कक्कड़ साहब के पिता राधावल्लभ एक सुबह मोर्निंग वाॅक से लौट रहे थे। तब उनकी उम्र सत्तर के करीब थी। पत्नी का अवसान हुए पाँच वर्ष हो चुके थे, पर थे पूरे मुस्तैद। अपना सारा काम स्वयं कर लेते थे। इतना ही नहीं, बच्चों को स्कूल छोड़ना, शाक-तरकारी, किराना, हौजरी आदि का सामान लाना सभी काम उन्हीं के जिम्मे था। बिजली, पानी, टेलीफोन का बिल भी वे ही जमा करवाते। घर के अन्य अनेक काम भी उन्हीं के जिम्मे होते। शायद इतनी जिम्मेदारियों के चलते वे तंदुरुस्त भी लगते। काम करने वाले कब बूढ़े हुए हैं। उनकी पेंशन भी इन्हीं कामों में फुंक जाती लेकिन दुर्भाग्य! अनायास एक दिन बिजली गिर गई। उस दिन मोर्निंग वाॅक से लौटते हुए अचानक हादसा हो गया। तेजी से आ रहा एक ट्रक किनारे से उन्हें टक्कर मार गया। गनीमत थी बच गये। वे जोर से चीखे तब तक ड्राइवर चलता बना। लोग उन्हें उठाकर घर लाये। दस दिन तक तो होश भी नहीं आया। दुर्घटना में तेजी से नीचे गिरने के कारण उनकी रीढ़ के मध्य भाग में फ्रेक्चर हुआ एवं तब से बिचारे बामुश्किल खाट से उठते हैं। बुढापा बीवी के बिना वैसे ही बोझिल था, अब तो बैर निकालने लग गया। वर्षों सरकारी मुलाजिम रहे, दवा के पैसे तो सरकार से मिल जाते, पर भुगतना तो स्वयं को ही पड़ता है अथवा फिर परिवार वाले भुगतते हैं। इन दिनों रो-रोकर यही कहते, ‘‘भगवान अब मौत दे दे।’’ लेकिन मांगने से मोती शायद मिल जाये, मौत नहीं मिलती।

कबूतर को कुआं ही दिखता है। इस रविवार को कक्कड़ साहब अपने पड़ोसी के घर सुबह-सुबह पत्री लेकर पहुँच गये। शर्माजी वैसे तो कचहरी में मुंशी थे, पर ज्योतिष के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनके पिता राज ज्योतिषी थे, शायद वहीं से यह विद्या उन्हें विरासत में मिल गई।

कक्कड़ साहब घर के अंदर आये तो मिसेज शर्मा ने उनका अभिनंदन किया, ‘‘भाई साहब इतने दिनों से आये हो, पहले चाय-नाश्ता करो फिर जन्मपत्री दिखाना।’’ अपने ही काम में फंसे कक्कड़ साहब भला क्या कहते। वे चुपचाप बैठ गये।

चाय पीते-पीते मि. शर्मा एवं मिसेज शर्मा दोनों ने कक्कड़ साहब एवं सुरेखा के सेवा भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की। मिसेज शर्मा ने तो यहाँ तक कहा, ‘‘आप एवं भाभीजी जैसे पिता की सेवा करने वाले मैंने आज तक नहीं देखे। आप सचमुच धन्य हैं।’’

कई बार कक्कड़ साहब मोहल्ले से गुजरते तो गली के बड़े-बूढ़े भी उन्हें यही कहते। कुरेदने में सबको आनंद मिलता है। सुनते-सुनते अब कक्कड़ साहब के भी कान पक चुके थे। बुड्ढे बड़ी चतुराई से द्विअर्थी संवादों में बातें करते हैं – इस तरह की दूसरे की प्रशंसा हो जाये एवं उनके स्वयं के घर वाले भी सुनकर अपना कर्तव्य समझ लें।

बहरहाल मि. शर्मा कक्कड़ साहब के पिता राधावल्लभ की जन्मपत्री देख रहे थे। पत्री देखते-देखते वे आँखें ऊपर-नीचे करते तो कक्कड़ साहब की धड़कन तेज हो जाती। कक्कड़ साहब मन ही मन जानना तो यही चाहते थे कि बुड्ढा कब तक प्राण पीयेगा पर लोक-लाज का ध्यान रखकर बोले, ‘‘बाबूजी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा है, मेरे भाग्य में सेवा का सौभाग्य बचा है कि नहीं।’’


जिनके अंदर आग लगी हो लेकिन धुआँ बाहर नहीं निकाल पाते, वे ही जानते हैं उन पर क्या बीती है?

कक्कड़ साहब की जिज्ञासा सुनकर शर्माजी ने ऊपर से नीचे तक उन्हें इस तरह देखा मानो पूछ रहे हों, सच कह रहा है कि जानना कुछ और है। अपनी भावना को दबाते हुए बोले, ‘‘आपके पिताजी की आयुष्य उत्तम है। आयुवर्धक शनि स्वयं अष्टम घर में उच्च के होकर विराजे हैं। शनि जिस भवन में बैठता है उसका नाश करता है, मृत्यु भवन में बैठकर मृत्यु का भी नाश कर जातक को दीर्घायु बनाता है। फिलहाल यह सुख आपसे छूटता नजर नहीं आ रहा।’’

शर्मा जी की भविष्यवाणी कक्कड़ साहब के अंतर में विष-तीर सी लगी। उनका दिल बैठ गया। अपनी भावनाओं को दबाते हुए बोले, ‘‘माँ-बाप की सेवा बड़भागी को मिलती है।’’


कक्कड़ साहब घर लौटे तो सुरेखा ने लपककर पूछा, ‘‘शर्माजी क्या बता रहे थे?’’ अगर कक्कड़ साहब शर्माजी की भविष्यवाणी दोहरा देते तो आग लग जाती। उन्होंने इतना ही कहा, ‘‘बस, छः माह और बचे हैं।’’ सुनते ही सुरेखा ने इस तरह लंबी आह भरी मानो उम्र कैद की सजा पाये कैदी के मात्र छः माह बचे हो।

वक्त का प्रवाह कब रुका है। छः माह भी पूरे हुए। सातवाँ मास पूरा होतेे तो सुरेखा ने आसमान उठा लिया, ‘‘जाकर फिर बताओ शर्माजी को। ऐसे कैसे हो रहा है? दिन भर पिलने के लिए ब्याह नहीं किया है। तुम्हारा और बच्चों का तो ध्यान रखूं ही, बुड्ढे की भी सेवा करो। कितना तेल निकालोगे मेरा! आजकल माइग्रेन और हो गया है। रात को घुटने भी दुखते हैं। भगवान नैन-गोडे सलामत रखे। तंत्र-मंत्र- कामण सब कर लिए पर श्वसुरजी हैं कि जाने का नाम नहीं ले रहे। सुबह-शाम महादेव के जल चढ़ाती हूँ कभी तो दिन फिरे। लेकिन वही बात कि करम लिखे कंकर तो क्या करे शिवशंकर।’’ क्रोध में सुरेखा फुफकार रही थी। प्रेशरकूकर की सीटी उछलने के बाद जिस तेजी से हवा निकलती है, उसी तरह सुरेखा एक सांस में सब कुछ उगल गई।

कक्कड़ साहब फिर शर्माजी के घर आये। एक बार फिर पत्री दिखाई। शर्माजी ने फिर उन्हें आश्वासन दिया। यूँ समय-समय पर उनके पड़ौसी के घर आकर पत्री दिखाने एवं आश्वासन लेने का सिलसिला चलता रहा। ज्योतिषी भगवान नहीं होता, वह भी भवितव्यता को जानने का प्रयास ही कर सकता है। ज्योतिषी अगर सब कुछ जानते तो पहले स्वयं का घर नहीं सुधार लेते। खैर, आश्वासन देते-देते अब तक शर्माजी थक गये एवं सेवा करते-करते कक्कड़ साहब।

इस बात को भी चार वर्ष बीत गये। अब तक कक्कड़ दम्पती हताश हो चुके थे। कक्कड़ साहब की आँखों के कोशों से कालापन झाँकने लगा था। आँखें अब धँसी-धँसी लगती। चेहरा निस्तेज हो गया। इन दिनों एक गहरी जड़ता भरी उदासी उनके चेहरे पर छाने लगी थी। घर-बाहर संज्ञाहीन से इधर-उधर देखते। सुरेखा के ताने आग में घी का काम करते। एक गहरा सूनापन उनके जीवन में प्रविष्ट कर गया। भावहीन आँखें एवं उदास चेहरा मन का भेद प्रकट करने लगे थे। जवानी में तीखे-बांके दिखने वाले कक्कड़ साहब अब पतझड़ के वृक्ष की तरह सूखे नजर आने लगे।

इस बार शर्माजी को पत्री बताते हुए वे लगभग फूट पडे। अंतर्मन ने धक्के मारकर मन-कपाट खोल दिये, विह्वल होकर बोले, ‘‘आखिर कब मरेगा बुड्ढा! मेरे तो प्राण ही सूख गये। आप तो लगातार झांसा दिये जा रहे हैं।’’ कहते-कहते कक्कड़ साहब क्षणभर के लिए निश्चेत हो गये।

जैसे निरंतर रोगग्रस्त व्यक्ति से चुनौती मिलने पर वैद्य सावधान होकर अंतिम पथ्य का अवलंब लेता है, शर्माजी भी इस बार गंभीर हुए। सारी गणित लगाकर बोले, ‘‘कक्कड़ साहब, थोड़ा संयम और रखो। नाव अब किनारे पर है। दिन आने पर ही सभी मरते हैं। बस, अब अंतिम माह है। अगले एक माह में आपके घर से अर्थी नहीं उठी तो पत्री देखना छोड़ दूँगा। यह ब्राह्मण का वचन है।’’

कक्कड़ साहब का मन हल्का हुआ। शर्माजी के वचनों ने जलते हुए शरीर पर चंदन के लेप का कार्य किया। उन्होंने एक गहरी सांस ली। मंजिल दिखने लगे तो मीलों चलकर आये मुसाफिर को भी परिश्रम नहीं खटकता। आशा संजीवनी है।

कक्कड़ साहब आश्वस्त होकर घर लौटे। सुरेखा को उन्होंने कान में आखिरी भविष्यवाणी बताई। पीछे खाट पर लेटे बुड्ढे की आँखों में भी एक रहस्य गहरा गया।

अंतिम अवसर जानकर मियाँ-बीवी रात-दिन बुड्ढे की सेवा में लग गये। लक्ष्य इतना करीब हो तो जगत के यश-पात्र क्यूँ न बने। दोनों का सेवा भाव देख उनके मित्र, रिश्तेदार एवं यहाँ तक कि मौहल्ले वालों ने भी दांतों तले अँगुली दबा ली। लोग कहे बिना नहीं रह सके, ‘‘कक्कड़ ने तो श्रवण कुमार को भी भुला दिया।’’

शायद अंतिम भविष्यवाणी करते समय शर्माजी की जिह्वा पर सरस्वती बैठ गई थी।
एक माह बाद उनके घर से सचमुच अर्थी उठी, बुड्ढे की नहीं, स्वयं कक्कड़ साहब की।
भाग्य के खेल को इस जगत में कौन समझ पाया है?

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03.10.2007

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