अभी दो माह पूर्व ही मैंने चौबीस पूरे किये हैं। यह उम्र इतनी बड़ी भी नहीं कि मैं दंभ से कह सकूँ कि मैंने अनेक पापड़ बेले हैं अथवा अनेक दुर्धुर्ष समस्याओं को सुलझाया है लेकिन इतना तो कह ही सकता हूँ कि इस छोटे से अन्तराल में यानि जब से मेरी समझ बनी है एवं जिन-जिन समस्याओं को मैंने सुलझाया है, बजरंगबली की कृपा से ही सुलझाया है। मेरी समस्याओं एवं बजरंगबली में अनन्य नाता है। कोई एक समस्या हो तो बताऊँ। जब-जब मेरे परीक्षाफल को लेकर आशंकित हुआ, जब-जब मेरा स्वास्थ्य बिगड़ा, जब-जब मुझे घर-बाहर की अन्य समस्याओं से जूझना पड़ा, मैंने बजरंगबली के इसी मंदिर में माथा टेका है। मेरी समस्याओं में पापा द्वारा मोटरसाईकल न दिलाने अथवा हाथखर्ची न बढ़ाने से लेकर मैं किस विषय का चयन करूँ, कौन-सी नौकरी करूँ आदि तक रही हैं। वस्तुतः इस मंदिर में मुझे तब से ही श्रद्धा हो गई जब मैं दस वर्ष का था एवं भयानक टायफाईड की चपेट में आया था। अन्य कोई इलाज नहीं लगा तब दादी मुझे यहाँ लेकर आई एवं बाद में जाने क्या चमत्कार हुआ मैं भला चंगा हो गया हालाँकि घर आने वाले डाक्टर ने इसका श्रेय यह कहकर लेना चाहा कि एंटिबाॅयोटिक्स का असर होते-होते होता है एवं यह इन दवाइयों का ही चमत्कार है, दादी ने इस तर्क को इंकार कर मेरी श्रद्धा को पुरजोर किया कि यह सब बजरंगबली की मेहर है। तब से अब तक हर मुसीबत की घड़ी में मैं यहीं आता रहा हूँ। कभी-कभी बजरंगबली को देखकर अनेक प्रश्न भी मेरे जेहन में आते हैं कि यह वानर हैं तो इनका मुँह, आँखें, कान, दांत, बुद्धि, विवेक मनुष्यों जैसे क्योंकर है अथवा अन्य वानर यदि निर्वस्त्र रहते हैं तो यह वस्त्रों में क्यों रहते हैं, गले में माला आदि क्यों धारण करते हैं अथवा रामजी के जमाने में मनुष्यों की क्या कमी थी जो उन्हें वानर से दोस्ती करनी पड़ गई लेकिन मेरी अंधश्रद्धा इन सभी प्रश्नों को सिरे से खारिज कर यही कहती है कि तेरी सारी समस्याओं का समाधान तो यहीं माथा टेकने से होता है तो तू क्यों खामख्वाह प्रभु के रूप-वस्त्रों वगैरह का विवेचन करता है। तू कोई ऋषि है जो ईश्वर के रूप-गुण की व्याख्या करे। तुझे आम खाने से मतलब है अथवा पेड़ गिनने से। ऐसा सोचते ही मेरे दोनो हाथ अनायास मेरे दोनों कानों की ओर चले जाते हैं जिसका अर्थ है, हे प्रभु! क्षमा करना ! दुर्बुद्धि मनुष्य कभी-कभी कुतर्की हो जाता है।
बहरहाल इस बार जो समस्या आन पड़ी है उसका समाधान बिना बजरंगबली की कृपा के संभव नहीं है। मैंने बहुत सोचकर देख लिया, मुझे दूर-दूर तक समाधान नजर नहीं आ रहा। साँप सर पर एवं बूटी पहाड़ पर हो तो प्रभु कृपा के बिना समाधान मिल सकता है क्या? इसीलिए पद्मासन लगाकर उनसे याचना कर रहा हूँ, प्रभु! यह समस्या तो पर्वत से अधिक भारी है। पर्वत हिलाना कदाचित संभव हो लेकिन इस समस्या को सुलझाना संभव नहीं है। मैं आपकी तरह इतना बलशाली भी तो नहीं कि पर्वत उठाकर आकाश में उड़ लूँ , मेरी समस्या का समाधान तो आपकी कृपा से ही संभव है। आपकी कृपा ही मेरी संजीवनी है। किसी समस्या के समाधान के मार्ग में एक राक्षस अथवा एक सुरसा खड़ी हो तो उसे लांघ भी जाऊँ , यहाँ तो पग-पग पर राक्षस एवं सुरसाएं खड़ी हैं। एक से बचूँ तो दूसरी हाज़िर। मेरा परिवार है ही ऐसा। इस समस्या के चलते मेरी स्थिति उस ड्राइवर की तरह बन गई है जिसे न सिर्फ अनेक स्पीड ब्रेकर्स पार करने हैं, सड़क के गड्ढों से भी गाड़ी को बचाना है। हे बजरंगबली! अब तो आपका एवं मात्र आपका ही सहारा है।
अगर मैं मेरे कुनबे को घर न कहकर संग्रहालय कहूँ तो लाजमी होगा। आप उस घर को क्या कहेंगे जहाँ एक साथ चार-चार पीढ़ियाँ बसती हों यानि परदादा, दादा, पापा एवं मैं। मैं तो अभी कुँआरा हूँ पर बाकी तीन के साथ उनकी पत्नियाँ यानि परदादी, दादी एवं मम्मी ऐसे रहती हैं जैसे ब्रह्मा के साथ ब्रह्माणी, विष्णु के साथ लक्ष्मी एवं शिव के साथ पार्वती। इन महान देवियों की तरह यह तीनों भी अपने-अपने पतियों की अंधभक्त हैं एवं सदैव उनकी हाँ में हाँ मिलाती हैं। यानि एक अड़ंगे का अर्थ दो अड़ंगा है एवं सब बिगड़ जाये तो अड़ंगा क्यूब। एक बाप ही क्या कम होता है झेलने के लिए? यहाँ तो कृपासिंधु ने बाप का बाप एवं उसका बाप भी बसा रखा है। इतना ही नहीं सभी पके घड़े एवं एक से बढ़कर एक गुणी एवं घुटे हुए हैं। तिस पर मेरी समस्या तो ऐसी है कि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि सुनते ही तीनों की आँखें अंगारे उगलने लगेंगी। परदादी-दादी एवं मम्मी कौन-सा मुझे बख्स देंगी। कोई कुएं में पड़ने की धमकी देंगी तो कोई फांसी से लटकने की। मम्मी का बस चले तो जहर खा ले। इन औरतों के पास कम हथियार हैं क्या? घर में जब भी अपनी चलानी हो तो सभी मर्द इनको आगे कर खुद ऐसे दुबकते हैं जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो। तीनों ने बिलियार्ड कभी न खेली हो पर एक बाॅल से दूसरी बाॅल हिट करने की कला सबको बखूबी आती है। ऐसे उस्तादों- उस्तानियों एवं इतनी भीषण समस्या के बीच मेरी वही गति है जो अभिमन्यु की चक्रव्यूह में फंसने पर हुई थी।
मेरे परदादा जिनका नाम सत्यनारायणजी सक्सेना है, अब नब्बे पार हैं। वे अनेक बार गर्व से कहते हैं, वर्षों पूर्व घर आए एक ज्योतिषी ने ठीक ही कहा था मैं नब्बे से ऊपर जीऊँगा। मैं जब भी उनसे अकेले में मिलता हूँ वे अपने यौवन, तत्कालीन जमाने एवं उस समय की प्रथाओं आदि के बारे में चटखारे लेकर सुनाते हैं। उन जमानों में क्या भोज हुआ करते थे, बारातें दस-दस घोड़ों के साथ निकलती थी, औरतें मर्दों की आँख से डरती थी अब तो सत्यानाश हो गया है, उस समय बहुएँ रोज सास के पाँव दबाती थी एवं जाने क्या-क्या। इन रोमांचक कथाओं को सुनाते हुए कई बार वे अपनी ऊपर जाती मूंछों पर ताव भी देते हालांकि साफ दिखता है इन मूंछों में अब वो ताब नहीं है। हाँ, यह बात अवश्य है कि नब्बे में भी वे अपने सारे कार्य स्वयं करते हैं एवं किसी के अधीन नहीं है। उनकी कमर थोड़ी झुकी होने से उनकी लंबाई का आकलन कठिन है। परदादी बताती हैं जवानी में इनका सिर दरवाजे की ऊपरी चौखट से टकराता था तब सास ताने देकर कहती थी, जरा संभल कर चला कर। परदादाजी को हम सभी बाबा कहते हैं। परदादी बताती है अपनी जवानी में यह न सिर्फ सौ दण्ड नित्य लगाते थे, पहलवानी करने अखाड़े भी जाते थे। पूरे मौहल्ले में इनका दबदबा था। रूआब तो आज भी कौनसा कम है। दादा एवं पापा से अपनी बात मनवाते समय यूँ आँखें तरेरते हैं कि दोनों के पास उनसे सहमत होने के अतिरिक्त विकल्प ही नहीं रहता। बाबा की तुलना मैं उस बूढे़ शेर से कर सकता हूँ जो शिकार के लिए भले न दौड़ पाता हो पर अपने दायीं ओर के दो दाँत दिखाकर शिकार हथिया अवश्य लेता है। बाबा हमें अनेक बार अंग्रेजों एवं स्वातंत्र्य संग्राम की कथाएं भी गर्व से सुनाते हैं। गांधी के साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में जेल भी होकर आये हैं एवं आज भी शहर के उन चंद स्वतंत्रता सेनानियों में हैं जिन्हें सरकार प्रतिवर्ष सम्मानित करती है। बाबा कहते हैं स्वतंत्रता का जुनून उन दिनों हर युवा दिलों में समुद्र की लहरों की तरह हिलौरे लेता था। कभी-कभी आज की व्यवस्थाओं को देखकर बाबा निराश भी हो उठते हैं। तब कोफ्त में भरकर कहते हैं हमें क्या पता था कि असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान से मिली इतनी महंगी आजादी का आज की पीढ़ी के लिए यह मोल होगा। काश! इन्होंने अंग्रेजों की प्रताड़नाएं देखी होती। जमाखोरों, मिलावटखोरों एवं भ्रष्ट्राचारियों के तो नाम से ही बाबा उखड़ जाते हैं। जिक्र होते ही आँखें लाल हो जाती है। तब रोष में भरकर कहते हैं हमारे जमाने में इनकी रूह काँपती थी। बाबा अनेक बार मुझे उन जमानों की व्यवस्थाओं, रूढ़ियों के बारे में भी बताते हैं। कहते हैं परदादी प्रथम बार घर आई तब एक हाथ घूंघट ओढे़ थी। मेरे परदादा यानि मेरे बाबा के माता-पिता से तो वह वर्षों बात नहीं करती थी। उस समय बहुओं को सास-श्वसुर से बोलने तक पर पाबंदी थी।
मेरे दादा सत्तर पार हैं। परदादा जब बीस के रहे होंगे तब उनका जन्म हुआ। बाबा का विवाह तो मात्र सोलह वर्ष में हो गया था। तब परदादी चौदह की थी। उन दिनों रजस्वला होते ही लड़कियों का विवाह कर देते थे। कमोबेश दादा के जमाने में भी यही प्रथाएँ चलती रही पर हाँ, घूघंट चार अंगुल का हो गया, लड़कियाँ पढ़ने लगी एवं युवक-युवतियों के विवाह की उम्र में भी कुछ इजा़फ़ा हुआ। दादा का विवाह हुआ तब वे बीस एवं दादी सत्रह की थी। परदादी निपट निरक्षर थी लेकिन दादी आठ जमात पढ़ी थीं। मैंने दादा को बाबा का विरोध करते हुए कभी नहीं देखा, हाँ पापा से उनका अनेक मुद्दों पर मत-मतांतर रहता है। दादा कहते हैं इन दिनों जमाने की हवा तेजी से बदली है एवं वे अक्सर मुझे एवं मेरी दोनों बहनों को लेकर आशंकित रहते हैं। हमारे पहनावे का वे विरोध तो नहीं करते लेकिन कभी-कभी हम जीन्स पहनते हैं, पार्टियों में डांस करते हैं अथवा फिल्में देखकर देरी से आते हैं तो दादा की भौंहें चढ़ जाती है। हमारा नसीब अच्छा है कि वे सीधे हमें कुछ नहीं कहते पर कभी-कभी दादी पर अथवा अपने सुपुत्र यानि मेरे पापा पर भड़ास अवश्य निकालते हैं। पापा तब चिढ़कर कहते हैं कि खुद अपने पोते को क्यों नहीं समझाते तो वे वहीं पुराना जुमला इस्तेमाल करते हैं, ‘‘मैं क्यों कहूँ पोते से। ब्याज मूल से प्यारा होता है। तुझे बाबा कुछ कहते हैं क्या ?’’ दादा की यह बातें सुनकर मेरी छाती चौड़ी हो जाती है। कभी-कभी घर के अनेक मुद्दों पर दादा की अथवा पापा की स्थिति सेंडविच की तरह होती है जिसके ऊपर-नीचे दो अलग-अलग पीढ़ियों का दबाव होता है। मेरे पापा बैंक में काम करते हैं, अब पचास पार है। पापा ने एम.काॅम किया है एवं मम्मी भी एम.ए है। दादी बताती है पापा का विवाह हुआ तब पापा तेबीस वर्ष के थे एवं मम्मी इक्कीस की। मैं उनके विवाह के दो वर्ष बाद हुआ एवं मेरी दो बहनों में से एक पांच एवं दूसरी मेरे सात वर्ष बाद हुई। खुदा का शुक्र है कि बहनें छोटी हैं। अगर वे बड़ी होती तो इस वंशावली में मेरी स्थिति पहाड़ के नीचे दबे चूहे की तरह होती। बाबा एवं दादा दोनों अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे जबकि पापा के मेरी ही तरह दो बहने हैं। फूफा-फूफी जब कभी सपरिवार घर आते हैं तो हमारी बीस कुर्सियों वाली डाइनिंग टेबल पूरी भर जाती है। बाबा आज भी किसी उत्सव में जाते हैं तो पगड़ी बांधकर जाते हैं। दादा पगड़ी बांधना तो नहीं चाहते पर बाबा के कहने से कभी-कभी लगा लेते हैं। दादा अक्सर पैंट-शर्ट पहनते हैं पर यदा-कदा धोती-झब्बा भी पहन लेते हैं। पापा को यह सब पसंद नहीं है अतः वे इन प्रथाओं का पालन नहीं करते। वे पैंट-शर्ट पहनते हैं एवं पगड़ी लगाना तो उन्हें कतई नहीं सुहाता। मम्मी घूंघट नहीं रखती एवं कभी-कभी सलवार-कुर्ता भी पहन लेती हैं हालांकि दादी-परदादी को यह नहीं सुहाता। परदादा-दादा-पापा तीनों को औरतों की नौकरी नहीं सुहाती अतः पापा ने मम्मी को नौकरी नहीं करने दिया हालांकि मम्मी भी बैंक प्रतियोगी परीक्षा में सलेक्ट हुई थीं। मम्मी पापा को आज तक इसका ताना देती हैं। परदादी अक्सर ईश्वर भजन में लगी रहती हैं। दादी-परदादी के साथ मंदिर जाती हैं तो मम्मी की रसोई में हाथ भी बंटाती हैं। कुल मिलाकर खट्टी-मिट्टी यादों के बीच हमारा कुनबा ठीक चल रहा है एवं गली-मौहल्ले के लोग पारिवारिक संगठन की बात पर अक्सर हमारा उदाहरण देते हैैं।
अरे बाप रे! इन सबका पर्सनेलिटी-पुराण पढ़ते-पढ़ते मैं मेरी समस्या तो भूल ही गया। मैंने सीए किया है एवं अभी छः माह पूर्व ही बैंक में लगा हूँ। इसी दरम्यान मेरा सकीना जो जाति की मुसलमान है से परिचय हुआ है। वह भी सीए है, बिंदास है, ऑफिस जीन्स एवं टाॅप पहनकर आती है एवं अपने काम में भी मुस्तैद है। अनेक बार तो वह मुझे भी काम में मदद करती है हालांकि यह इतर बात है कि मैं उसे कम ही सहयोग करता हूँ एवं न ही वह कभी ऐसा करने को कहती है। औरतों में कुछ न पाकर देने का भाव जन्मजात होता है। वह इसी शहर की है, उसके पापा-मम्मी दोनों एलएलबी हैं एवं यहीं स्थानीय कोर्ट में नामी वकील है। सकीना जितनी कर्मठ एवं विदुषी है उतनी ही सुंदर एवं आकर्षक भी है। उसके ऊँचे कद, पहनावे, तीखी नाक, कसी भौंहे, शराबी आँखें एवं ताजे फूल की तरह खिले रूप पर कोई भी युवक रीझ सकता है। तबस्सुम जान लेवा है एवं दन्तपंक्ति इतनी सुंदर कि हंसते हुए मोती झरते हैं। आवाज ऐसी की कोयल भी लजा जाय। अब जबकि अधिकांश लड़कियाँ बाॅबकट पर उतर आई हैं उसके बाल घने लंबे हैं। वह मेरे बगल वाली सीट पर बैठती है। जाने कब हम दोनों में प्रेम के अंकुर पैठ गए एवं गत तीन माह से आलम यह है कि हम एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। हम दोनों विवाह के इच्छुक हैं एवं मेरा सौभाग्य है कि उसके माता-पिता ने सहमति दे दी है। मेरी आधी समस्या का तो समाधान हो गया है लेकिन मैं जानता हूँ मेरे कुनबे से अनुमति मिलना टेढ़ी खीर है। एक बाप को तो मनाया जा सकता है पर यहाँ तो बाप के बाप कतार में लगे हैं। इन दिनों यही सोचता रहता हूँ कि क्या जुगत भिड़ाऊँ की इन छहों यानि पापा से बाबा एवं मम्मी से परदादी सबको पार पा जाऊँ। मैं जानता हूँ अगर मैंने पापा को मना लिया तो दादा-बाबा अड़ सकते हैं एवं दादा को मना लिया तो पापा एवं बाबा अड़ सकते हैं। यह मान भी गए तो औरतें कौन-सी मान जाएंगी? सबसे पहले तो परदादी दादी को चश्मा उठाकर कहेगी, यही लच्छन दिये हैं बहू-बेटों को। दादी फिर मम्मी के एवं मम्मी मेरे कान ऐंठेगी। यही सोचते-सोचते मेरी खोपड़ी इन दिनों गरमा जाती है एवं मैं अकारण क्रोध करता रहता हूँ। इसी समस्या को लेकर आज बजरंगबली के आगे पद्मासन लगाकर बैठा हूँ। सुना है ध्यान-साधना में अच्छे-अच्छे समाधान निकल आते हैं।
यकायक मेरे मन में एकजुगत आई है एवं मैं बल्लियों उछल पड़ा हूँ। चाह सच्ची हो तो राह दिख ही जाती है। यह युक्ति एक ताली से अनेक पक्षी उड़ाने जैसी है। मैंने तीनों को यानि बाबा-दादा-पापा को अलग-अलग गोपनीय पत्र लिखने की ठानी है। शायद यह तरीका कारगर सिद्ध हो जाय हालांकि इसमें जूते खाने की जोखिम भी कम नहीं है। खैर जो होगा देखा जायेगा यही सोचकर मैंने पहला पत्र परदादा को लिखा है जो इस प्रकार है-
गोपनीय
आदरणीय बाबा,
सादर प्रणाम!
सबसे पहले तो मैं गर्व सेे यह बात आपको कहना चाहता हूँ कि मैं एक ऐसे परिवार में रहता हूँ जिसके मुखिया आप हैं। गत अनेक वर्षों से आपने जिस तरह से परिवार को बांधकर रखा है, काबिल-ए-तारीफ है। अनुकूल परिस्थितियों में परिवार की नाव तो कोई भी खे सकता है पर आपने विषमतम परिस्थितियों में भी सटीक एवं साहसी निर्णय लेकर हमारे परिवार को न सिर्फ मानसिक द्वन्द से बचाया है, टूटने से भी बचाया है। आपकी सूझबूझ, अनुभव एवं विवेक से आज हमारा परिवार शहर के चंद अच्छे परिवारों में गिना जाता है। आपने परिवार की सभी कड़ियों को जंजीर की तरह जोडे़ रखा है। सच मानें तो दादा एवं पापा से भी आगे जीवन की सीख हमें आपसे मिली है। आपसे आपके समय की गाथाएं सुनकर मैं आत्मविभोर हो उठता हूँ। स्वातंत्र्य युद्ध में आपकी वीरगाथाएँ मैं अपने मित्रों को गर्व से सुनाता हूँ। आपके साथ रहकर ही मैंने यह जाना है कि अनुभव शिरोमणि ही ज्ञान शिरोमणि है। आप एवं परदादी का स्नेह मेरे लिए उस विशाल बरगद की तरह है जिसके साये में सभी निर्द्वन्द सोते हैं। आप सदैव समय से आगे सोचते हैं एवं हर पीढ़ी की लय-ताल-वैवलेंथ समझते हैं। मेरे प्रति आपके स्नेह का स्मरण कर मैं गद्गद् हो उठता हूँ। पापा जब भी मुझे डांटते हैं आपकी तीखी आँखें देखकर सहम जाते हैं। पापा के चिढ़ने पर आपका उन्हें यह कहना कि अगर मूल से ब्याज प्यारा है तो तू ही सोच ब्याज पर ब्याज कितना प्यारा लगेगा, मुझे गर्व से भर देता है। धन्य हैं वे परिवार, वे बच्चे जिन्हें आप जैसे वयोवृद्ध बुजुर्गों का सानिध्य मिलता है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि प्रत्यक्ष रूप से ना सही अप्रत्यक्ष रूप से मेरे केरियर को दिशा देने में आपका अहम् योगदान रहा है। यह पत्र लिखते हुए इसीलिए मैं विव्हल हो उठा हूँ।
बाबा! गत एक माह से मैं एक ऐसी समस्या में उलझा हूँ कि लाख प्रयास करने पर भी मार्ग नहीं सूझ रहा। मैं इस समस्या को आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे कंधें पर हाथ रखकर इस समस्या के समाधान में मदद करें। समस्या यह है कि इन दिनों सकीना नाम की एक मुस्लिम लड़की से मुझे प्यार हो गया है। वह मेरी सहकर्मी है एवं अच्छे संस्कारित घर से भी है। चूंकि उनकी हमारी जाति-धर्म भिन्न है एवं मेरे दो छोटी बहनें हैं तो मैं सोच नहीं पा रहा कि मैं क्या करूँ। किंकर्तव्यविमूढ़ कभी मुझे बहनों की चिंता सताती है तो कभी इस बात की कि अगर मैंने भागकर यह विवाह कर लिया तो आप सब की प्रतिक्रिया क्या होगी? मैं ऐसा करना भी नहीं चाहता। परिवार की जिस प्रतिष्ठा को आपने दशकों के संघर्ष से बनाया है उसे मैं धूल में कैसे मिला सकता हूँ। इसी कशमकश में मेरी बैचेनी बढ़ती जा रही है। सकीना के साथ मेरे संबंध बहुत आगे बढ़ गए हैं एवं मैं अब अन्य किसी से विवाह करने की सोच भी नहीं सकता।
इस कठिन घड़ी में आप ही मेरा संबल हैं लेकिन आपको व्यक्तिशः कहने में मुझे डर लगता है। मैं जानता हूँ आपकी हाँ में सबकी हाँ एवं आपकी ना में सबकी ना है इसीलिए विवश आपको पत्र लिखा है। बाबा! मुझे मार्ग सुझाएँ।
पुनः प्रणाम।
आपका प्रपौत्र
कौशल
ऐसा ही एक गोपनीय पत्र मैंने दादा एवं पापा को लिखा जिसमें उनके प्रशंसा-पुराण के साथ-साथ मेरे जीवन में उनके योगदान की चर्चा भी थी। मैं स्वयं आश्चर्यचकित था ऐसे चापलूसी भरे शब्द एवं पत्र-लेखन की ऐसी अद्भुत कला का प्रादुर्भाव मुझमें क्योंकर हुआ ? सचमुच प्रेम की ताकत कितनी सघन होती है। सुबह एक साथ इन सभी खलनायकों का मैं कैसे सामना करूंगा ? पापा तो फाड़ खायेंगे। रात बारह बजे उठकर मैंने उनके कमरो में यह पत्र अलग-अलग लिफाफे में बंदकर सरकाए एवं चुपचाप अपने कमरे में आकर लेट गया।
सारी रात आँखों में बीती। एक-दो बार तो लगा जाकर पत्र उनके दरवाजे से वापस ले आऊँ। मैंने यह क्या कर डाला ? सुबह-सुबह घर में कोहराम मचना एवं मेरी फजीती दोनों तय थी। यही सोचकर मैं आनन-फानन तैयार हो मुँह अंधेरे घर से निकल गया। ऑफिस जाकर मैंने मम्मी को फोन किया कि आज मुझे दो-तीन कर्लाइंट्स से मिलना था अतः जल्दी निकल गया। आज का ब्रेकफास्ट मैंने ले लिया है एवं लंच भी बाहर ही लूंगा। दोपहर लंच में सकीना को उन सभी पत्रों के बारे में बताकर मैं हल्का हुआ। सकीना ने प्रत्युतर में यही कहा, ‘खुदा पर भरोसा रखें। अगर हमारे दिलों में सच्ची मोहब्बत है तो वह अवश्य मदद भेजेगा।’
रात डाइनिंग टेबल पर अपराधी की तरह मुँह लटकाए बैठा था। कभी-कभी गर्दन उठाकर बाबा, दादा एवं पापा का चेहरा देखता तो भीतर ही भीतर सहम जाता। उनके चेहरे पर उभरते मिश्रित भावों को देखकर यह आकलन करना कठिन था कि वे रो रहे हैं, हँस रहे हैं अथवा तटस्थ हैं। अमूमन परदादी-दादी-मम्मी की भी यही स्थिति थी। आज मैं खाना खा नहीं रहा था, गटक रहा था। मन कह रहा था जितना जल्दी इन सबसे निजात मिले अच्छा है। खाना पूरा कर मैं उठने लगा तो यकायक बाबा गंभीर होकर बोले, ‘जाना नही! वहीं बैठे रहना।‘
मैं कुर्सी से चिपक गया। हे भगवान मुझे इश्क क्यों हुआ। न करता न डरता।
बाबा ने छड़ी हाथ में ली एवं घीरे-धीरे चलकर मेरे करीब आए। मेरे कंधे पर हाथ रखकर पहले तो जोर से अट्टहास किया फिर बोले, ‘प्यार करते समय यह नहीं सोचा था कि आगे क्या होगा? जो कार्य तुम्हारी औकात में नहीं है, जिस कार्य को करने से डरते हो, उसे करते क्यों हो?‘
मुझे सांप सूंघ गया।
लेकिन यह क्या ! अब बाबा की अंगुलियाँ मेरे सर में घूम रही थी। धीरे-धीरे यही अंगुलियाँ वहाँ से हटकर मेरे कंधों पर आ गई। मेरा कंधा दबाकर वे बोले, ‘मेरी हाँ है।’ बाबा का इतना कहना था कि दादा-पापा एवं तीनों औरतें एक साथ बोलीं, ‘हमारी भी हाँ है।’
मेरे कानों में अमृत पिघल गया। कपोलों से अश्रु बह गए। मेरे आंसू पौंछते हुए बाबा बोले, ‘तुमने यह कैसे सोच लिया कि मैं ना कहूँगा। मैं तो हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ। जात-पांत, धर्म, छुआछूत, पर्दाप्रथा, घूंघट, स्त्री अशिक्षा, औरतें घर की चौखट में रहेंगी जैसी कुप्रथाओं को हमने खूब ढो लिया एवं उसके दुष्परिणाम भी भोग लिए। आज नया सवेरा उगा है तो हम तुम्हारा साथ क्यों न दें? अब जमाना अगर जाति-धर्म विहीन सिद्धान्तों से ऊपर उठकर मनुष्यता की दुहाई दे रहा है तो इसमें बुरा क्या है? समुद्र सामने हिलौरे ले रहा हो तो हम कुएँ के मेंढक क्यों बनें ? मैं तो उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ जब सकीना से तुम्हारा ब्याह होते देखूंगा। मेरी बूढ़ी सांसे अब तक शायद इसीलिए अटकी है।‘
मेरी दशा ऐसी थी जैसे मन के बगीचे में सैकड़ों चिड़ियाँ एक साथ चहक उठी हों। आनंद-उद्रेक देह की सुधि न रही। मैं कुर्सी से उठकर बाबा के चरणों में लौट गया।
रात मैं अपने कमरे में आकर लेट गया।
आज फिर आँखों में नींद कहाँ थी। अत्यधिक बेचैनी एवं अत्यधिक चैन दोनों सोने कब देते हैं ? आधी रात कमरे के दरवाजे पर सरसराहट सुनी तो मैं चौंका। मैंने उठकर बत्ती लगाई तो देखा वहाँ एक लिफाफा पड़ा था। शायद कोई उसे बाहर से सरका गया था।
लिफाफा खोलकर पढ़ा तो हतप्रभ रह गया। मन श्रद्धा से लबालब हो उठा। बाबा का पत्र था, लिखा था-
प्रिय कौशल,
सदा सुखी रहो।
सकीना से तुम्हारे विवाह पर सहमति का निर्णय मेरे अकेले का नहीं था। यह हम तीनों का संयुक्त निर्णय है। तुमने भले दादा एवं पापा को गोपनीय पत्र लिखे, लेकिन उन्होंने निर्णय लेने के पूर्व दोनों पत्र यह कहकर मेरे हवाले कर दिए कि आप जो भी निर्णय लें, हमें मंजूर है। तुम्हारी परदादी-दादी एवं मम्मी ने भी हमारे निर्णय पर अपनी सहमति की मोहर लगाई है। हम सभी इस शुभ अवसर को शीघ्र देखने के उत्सुक हैं।
बरख़ुरदार! अलग-अलग पत्र लिखकर तुमने तिकड़म तो खूब भिड़ाई पर यह भूल गए कि मैं भी सरदारों का सरदार हूँ। मेरी आँख से कौन बच सकता है? मेरे होते हुए मेरे ही घर में सेंध? पकड़े गये ना। खैर! अब चिंता नहीं करना।
आशीर्वाद!
तुम्हारा
बाबा
अब कहने-सुनने को क्या बचा था। मैं चुपचाप आकर अपने बिस्तर पर लेट गया।
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09-12-2011