जोधपुर शहर के ज्वालाविहार मोहल्ले में स्थित उस बगीचे में आज सुबह कुछ भी नया नहीं था। वही हरे मखमली कालीन की तरह बिछी दूब जिस पर पतली टांगों वाले कुछ पक्षी यहां-वहां फुदक रहे थे, वही चारों ओर झूमते पेड़ जिनमें अधिकांश नीम के थे हालांकि एक-दो पेड़ गुलमोहर, पीपल के भी थे लेकिन जो बात जुदा थी वह यह कि बगीचे के चारों ओर बनी डेढ़ फुटी दीवार के दांये कोने में बैठे बुड्ढों में चर्चा आज कुछ ज्यादा ही गरम एवं गंभीर थी।
माॅर्निंगवाॅक कर बुड्ढ़े अक्सर यहीं आकर बैठते। रोज किसी न किसी मुद्दे पर बात कर अपने मन की भड़ास निकालते एवं सूरज चढ़ने के पहले अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर लेते । इनमें से अधिकांश सेवानिवृत्त एवं कुछेक व्यापारी भी थे। व्यापारी सेवानिवृत्त बुड्ढ़ों से कभी-कभी इस बात पर रश्क करते कि नौकरी वाले तो सभी एक दिन रिटायर हो जाते हैं, व्यापारी सारी उम्र पिलते रहते हैं। तब सेवानिवृत बुड्ढ़ों में से एकाध कह उठता नौकरी में रखा क्या है, सारी उम्र बंधी बंधाई तनख्वाह में पलो, सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली रकम बच्चों के ब्याह आदि में स्वाहा हो जाती है , असल चांदी तो व्यापार में है। तब व्यापारी बुड्ढ़ों के आंखों की चमक बढ जाती। व्यक्ति अपने समूह में ऊंचा उठकर कितना प्रसन्न होता है।
आज की चर्चा में सभी बढ-चढ़कर इसलिए भी भाग ले रहे थे कि यह मुद्दा देश की अस्मिता एवं स्वाभिमान से जुड़ा था। राष्ट्रभक्ति का नशा अफीम के नशे से भी बढ़कर होता है। होना भी चाहिए, जहां हम जन्मते हैं, मरते हैं, जहां की मिट्टी में पलते-बढ़ते हैं, जहां का अन्न खाते हैं, जहां की फिज़ाओं में सांस लेते हैं उस देश के प्रति अनुराग, उस देश का हितचिंतन, वफ़ादारी वहां के देशवासियों में नहीं होगी तो और कहां होगी ? हां, यह बात अलग है राष्ट्रभक्ति के चिंतन , स्वरूप यहां तक कि उसकी क्रियान्विति, निष्पादन के तरीके में भिन्नता हो सकती है। एक बगीचे में जैसे असंख्य फूल खिलते हैं , लोगों के चिंतन भी जुदा होते हैं। आज की चर्चा का आग़ाज देवपुराजी ने किया एवं यह भी सच है बहुधा मुद्दा वे ही छेड़ते थे, अन्य सभी प्रेरे हुए से चर्चा के हिस्सेदार बनते। देवपुराजी जानते थे ज्ञानियों की ज्ञान-सरोवर में एक कंकरी फैंक दो, वर्तुल स्वतः बन जाते हैं। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ।
“आजकल पाकिस्तान लगातार कुछ न कुछ हरकतें करता रहता है। कल ही सीमा पर बम फटने से हमारे बीस जवान शहीद हो गए। यह खबर सभी अखबारों की सुर्खियां बनी हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने भी उन्हें इसका माकूल जवाब देने की धमकी दी है।’’ देवपुराजी की इसी बात से आज की चर्चा का प्रारम्भ हुआ। वे अभी-अभी माॅर्निंगवाॅक पूरी कर नित्य की तरह दीवार के दांये कोने में आकर बैठे थे। उनकी चाल अन्यों से तेज थी एवं वे बहुधा सबसे पहले वाॅक पूरी कर यहां आकर बैठते, अन्य सभी फिर एक-एक कर उनके दोनों ओर बैठ जाते। देवपुराजी का कद लम्बा, रंग सांवला एवं नित्य कसरत करने के कारण शरीर चुस्त, फुर्तीला था।
“आप ठीक कहते हैं देवपुराजी! मुझे तो लगता है इन छोटे-छोटे झगड़ों के चलते कोई बड़ा युद्ध न हो जाए। ’’ देवपुराजी के कहते ही व्यासजी ने सुर मिलाए। आज हवा कुछ तेज थी एवं इसी के चलते उनके शर्ट की बाहें फर-फर उड़ रही थी। व्यासजी कद से मंझले, मितभाषी थे। जब बोलते नाप-तोल कर बोलते।
“हमारे मरे हैं तो उनके कौन से बच जाएंगे ? युद्ध तो किसी एक बहाने से प्रारंभ हो जाता है, उसके बाद विनाश ही विनाश है। पिछले युद्धों की परिणति आप देख चुके हैं, भले हम जीते हों, जान-माल की दोनों ओर भारी हानि हुई। हमारे जैसे बाॅर्डर सेे लगे शहरों का आलम और भयानक बन जाता है। देवपुराजी! याद हैं पिछले युद्ध के वे दिन जब रात के घुप्प सन्नाटों में शत्रु देश के विमान आते थे, हम सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़े एक कमरे में चुप बैठे होते, घर के किंवाड़ ऐसे बजते जैसे कोई प्रेत इन्हें खड़खड़ा रहा हो। उसके बाद खतरा टलने का साइरन बजता तो सांस आती। लड़ाई में लाडू कोनी बंटे सा।’’ इस बार शर्माजी बोल रहे थे। वे गार्डन के चारों ओर लगे पेड़ों में बहुधा गुलमोहर के नीचे बैठते। उन्हें मानो इस पेड़ से मोहब्बत हो गई थी। शर्माजी भी देवपुराजी की तरह लम्बे कद के थे। पतले होने से और लम्बे लगते।
“ठीक कहते हैं शर्माजी! युद्ध हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाला भी हार जाता है। ’’ व्यासजी ने शर्माजी के तर्क को पुरजोर किया।
“हानि हो तो हो, हर राष्ट्र को अपने स्वाभिमान की रक्षा खुद करनी होती है। कोई आपको बार-बार उकसाएगा तो आप चुप थोड़े बैठेंगे। ‘शठे शाठ्यम् समाचरेत्’ यानि जो जिस भाषा को समझता हो उससे उसी भाषा में बात करनी चाहिए अन्यथा वह आपको कमजोर समझने लगता है। ’’ अब दत्ता साहब बोल रहे थे। उनका रंग काला, सपाट ललाट एवं शरीर से मोटे होने के कारण बोलते हुए अक्सर हांफते। अपने निजी जीवन में भी वे टिट फॅार टेट अर्थात् जैसे को तैसा के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। बगीचे में जब भी बहस होती बहुधा ये चार लोग ही बोलते, अन्य चुपचाप सुनते , कभी-कभी इनमे से भी कोई बोल देता था।
“पता नहीं संसार में युद्ध कब रुकेंगे ? युद्ध पूर्व एवं युद्ध के पश्चात् के भय, अवसाद से स्त्रियां एवं बच्चे ही नहीं , आम आदमी यहां तक कि गर्भस्थ शिशु तक प्रभावित होते हैं। यह अवसाद लम्बे समय तक चलता है। ’’ इस बार चुप बैठे लोगो में से मि. छिब्बर बोल रहे थे। मि. छिब्बर का कद , शरीर सौष्ठव दत्ताजी जैसा ही था, पर उनका रंग गोरा था।
“अनेक बार तो लगता है मनुष्य ने यह कैसी सीमा रेखाएं खींच दी हैं ? धरती तो एक ही है, हम धरती का , हमारी मां का स्पन्दन , धड़कन क्यों नहीं महसूस करते ? आज विश्वभर में पर्यावरण की बात चल रही है । क्या ऐसी परिस्थितियों में पर्यावरण सुरक्षित रह सकेगा ?यह सीमारेखाएं भी सदियों के इतिहास में बदलती रहती हैं । कुछ दशक पूर्व पाकिस्तान हमारा हिस्सा था, उसके पूर्व अफगानिस्तान हमारा था, अन्य कई देश भी हमारे अंग थे। तब इनके दिल के साथ हमारा दिल धड़कता था। इनका दुःख हमारा दुःख था । आज यह अहसास भिन्न कैसे हो गया ? ’’इस बार बोलते हुए देवपुराजी गंभीर हो गए।
“सच कहते हो देवपुराजी ! आदमी इधर का हो या उधर का , सिपाही इधर का मरता हो अथवा उधर का , विधवा इधर की होती हो अथवा उधर की , रोती तो कहीं न कहीं मनुष्यता ही है। दर्द की सर्वत्र एक ही भाषा है। सीमा पर कोई घटना हो , कुछ लोग राष्ट्रवाद के नाम पर राजनेताओं को भड़का देते हैं, मीड़िया जले पर नमक छिड़कता है एवं जनभावनाओं का प्रेरा प्रशासन भी युद्धोन्मादी बन जाता है।’’ इस बार शर्माजी भी गंभीर थे।
“संसार आज युद्धों के दावानल में जल रहा है। कहीं सीमाओं को लेकर युद्ध हैं तो कहीं धर्म को लेकर। अब तो बाजार को लेकर भी युद्ध होने लग गए हैं। राजनेता भी इतने सीधे नहीं हैं। उनकी स्वयं की महत्त्वाकांक्षा भी उन्हें युद्धोन्मादी बनाती है।’’ इस बार बात बढ़ाते हुए व्यासजी बोले। वे अब सत्तर पार थे।
“सच कहा व्यासजी! मुझे तो लगता है जितना जुनून हम युद्ध करने में लगाते हैं , उससे आधा शांतिवार्ताओं में लगाएं तो इसके अनुकूल परिणाम मिलेंगे। युद्ध के बाद शेष क्या रह जाता है ? ’’ इस बार उत्तर देते हुए देवपुराजी की आंखें नम होने लगी थी।
“बिल्कुल ठीक कहा देवपुराजी! दो विश्वयुद्धों के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। इन युद्धों में लाखों लोग मारे गए। हिरोशिमा, नागासाकी की विनाशलीला आज भी आंखों के आगे प्रेत बनकर नाचती है। अब तो मनुष्य ने इससे भी भयानक अस्त्र इज़ाद कर लिए हैं। किसी ने कहा भी है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो चौथे में लड़ने को कुछ न बचेगा, चौथा युद्ध लाठी-भाटों से होगा। ’’ शर्माजी ने अपनी बात कहकर देवपुराजी के सुर में सुर मिलाया।
“शर्माजी ! आपने सही तथ्य बताए हैं। संसार के अब तक के युद्धों का विश्लेषण करें तो युद्धोपरान्त मनुष्य के पास हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता। हर युद्ध मनुष्य को निर्दयता से रौंदता है, हर युद्ध के अन्त में मनुष्यता कराहती नजर आती है। जीते अथवा हारें, युद्धोपरान्त वहां के निवासियों को एक लम्बे समय तक मानसिक, सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक मोर्चे पर जूझना होता है। युद्धोपरान्त युद्ध करने वाले देशों में महामारियों का ताण्डव बन जाता है। भारत-पाक युद्ध हो अथवा भारत-चीन युद्ध अथवा फिर क्यूबा,लेबनान, वियतनाम, पनामा, अफगानिस्तान, ईरान अथवा अन्य कोई युद्ध हो, युद्ध के विनाश-परिणाम मनुष्यता को दहला देते हैं। युद्ध में मनुष्य से भी कहीं अधिक मनुष्यता भस्मीभूत हो जाती है। युद्धों में बलात्कार, लूटपाट भी आम है। अब तक जितने लोग बीमारियों एवं प्राकृतिक प्रकोपों से मरे हैं , उससे कहीं अधिक युद्धों की भेंट चढ़े हैं। ’’ कहते-कहते देवपुराजी भावुक हो गए।
“कलिंग युद्ध में कलिंग की हार के बाद अशोक ने युद्धस्थली का निरीक्षण किया तो घायल सैनिकों की चीत्कार एवं मरे सैनिकों के शव देखकर वह भीतर तक दहल गया। ओह, इस युद्ध में मैंने क्या पाया ? वह प्रायश्चित से भर गया एवं बुद्ध की शरण में चला गया। ’’ इस बार चुप बैठे लोगों में से एक अन्य ने बात को गति दी। उसे इतिहास का विशेष ज्ञान था।
“ठीक कहते हो ब्रदर! इन युद्धों से पूर्व हुए पौराणिक युद्धों की भी यही कथा है। राम-रावण युद्ध में युद्धोपरांत लंका में सर्वत्र विधवा-विलाप था ? महाभारत युद्ध में भी अन्त में आंसू, रुदन, विलाप के अतिरिक्त क्या बचा था ? ऋषि उत्तंक इसीलिये तो कृष्ण पर कुपित हुए थे। ’’ अब पुनः शर्माजी बोल रहे थे। उन्हें धर्मग्रन्थों का विशेष ज्ञान था।
“ यह कौन-सी कथा है बंधु ? यह कथा तो अब तक नहीं सुनी। ’’ आश्चर्यचकित देवपुराजी बोले।
“ आश्चर्य ! तुम थार प्रदेश के होकर भी इस महान कथा को नहीं जानते ? कृष्ण-उत्तंक संवाद आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। ’’ शर्माजी के इतना कहते ही सभी उनकी ओर ऐसे देखने लगे जैसे कथा प्रारम्भ होने के पूर्व सभा में उपस्थित श्रोता कथा-वाचक की ओर देखते हैं। शर्माजी की आंखों की चमक बढ गई। वे कुछ क्षण रुके, आंखे मूंदी तत्त्पश्चात आंखें खोलते ही अपनी बात प्रारम्भ की।
भाग – 2
अपनी कुटिया में ध्यानकर ऋषि उत्तंक भुवनभास्कर को अर्घ्य देने बाहर आए तब तक सूर्य ऊपर उठ आया था। नित्य ब्रह्ममुहूर्त में ही वे ध्यान पर बैठ जाते थे। वे तपोधनी , जनरंजक एवं परदुःखकातर तो थे ही , मरूभूमि में उनका प्रभाव भी दूर-दूर तक फैला था। सूर्य मकरगत हुए बीस दिन बीते होंगे, लेकिन वातावरण में अब भी हल्की ठण्ड का अहसास था। सुबह की भीनी-भीनी बयार से उत्तंक की लंबी सफेद दाढी एवं दुपट्टा हवा में लहरा रहा था। यहां-वहां वैरागियों की तरह खडे़ नीम , खेजड़ी एवं पीपल के पेड़़ों पर बैठे पक्षी अब चहकने लगे थे। भृगुवंशी उत्तंक के मुख एवं आंखों का तेज देखते बनता था। उनका व्यक्तित्व आकर्षक , कद ऊंचा तथा शरीर वृद्ध एवं कृश होने के कारण कंधे आगे की ओर झुके थे। ललाट पर त्रिपुण्डी, सिर के पीछे बंधे सफेद बालों के जूडे़ एवं बाहों पर रमायी भस्म उनके तेज को और निखारती। पांवों में खड़ाऊ पहनते, हाथ में कमण्डल रखते जो ध्यानस्थ अवस्था में भी उनके आसन के समीप रखा होता। उनकी कुटिया मुख्य राजमार्ग से थोड़ी अन्दर थी एवं इसी के चलते अनेक बार प्रजाजन ही नहीं , सुदूर क्षेत्रों के राजे-महाराजे, संत-तपस्वी उनके दर्शनार्थ आते रहते थे। यह राजमार्ग आर्यावर्त का अहम राजमार्ग था जो द्वारिका से हस्तिनापुर होते हुए और आगे तक जाता था। ऋषि यहां कुटिया में अकेले ही रहते थे यद्यपि उनके अनेक शिष्य उनके संग रहने को लालायित थे पर उनकी तपस्या निर्भंग चले अतः उन्हें एकान्त अधिक पसन्द था।
ऋषि अर्घ्य देकर मुड़ने ही वाले थे कि उन्हें दूर एक रथ आता हुआ दिखाई दिया। रथ ज्यों-ज्यों नजदीक आया उस पर लगी भगवा रंग की पताका स्पष्ट दिखने लगी। रथ में दिव्य सफेद घोडे़ जुते थे एवं इसे चलाने वाले व्यक्ति का तेज भी उतना ही अनुपम था। रथ जब कुटिया के पास आकर रुका तो उत्तंक आने वाले को देखकर दंग रह गए। ओह! यह तो आर्यावर्त में अपनी लीला-कथाओं से जन-मन को रससिक्त करने वाले, आततायी कंस का वध कर अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त करने वाले अमित तेजस्वी कृष्ण हैं।
कृष्ण जब उनके सम्मुख आए तो उनका रूप-लावण्य देखकर ऋषि क्षणभर के लिये सुध-बुध भूल गये। ओह, उनकी कुटिया पर आज वह अतिथि बनकर आया है जिसके दर्शन पाने की लालसा में सिद्ध, योगी तक अहर्निश तप, साधना करते हैं। कृष्ण पीतवस्त्र पहने थे, उनके सिर पर रत्नों से जड़ा मुकुट था एवं उसी मुकुट में मोरपंख भी लगा था जो सवेरे की हवा के साथ ऊपर से हिल रहा था। ललाट पर वैष्णवी तिलक लगा था एवं वे कानों में कुण्डल पहने थे। उनकी आंखों का सम्मोहन देखते बनता था।
“प्रणाम ऋषिवर!’’ कृष्ण ने चरणों में लेटकर उन्हें प्रणाम किया तो ऋषि चौंके।
“आयुष्मान भव! स्वागत है द्वारिकाधीश! आपको यूं अचानक मेरी कुटिया पर देखकर मैं आश्चर्यचकित हूं। ’’ ऋषि उत्तंक की प्रसन्नता देखते बनती थी।
ऋषि उन्हें भीतर लेकर आए। अर्घ्य, पान एवं स्वागत के पश्चात् दोनों आमने-सामने बैठे थे।
“वासुदेव! यकायक आपका इधर आगमन कैसे हुआ ?’’ उत्तंक ने वार्ता प्रारम्भ की।
“महातेजस्वी ऋषिवर ! मैं द्वारिका से चला हूं एवं हस्तिनापुर जा रहा हूं। मार्ग में आपके दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाया, इसी हेतु इधर आया हूं। ’’ कृष्ण ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया। उत्तर देते हुए उनके गुलाबी होठों के पीछे श्वेत दंतपंक्ति मोतियों-सी चमक उठी। उनका स्मितहास कामदेव की शोभा को भी पस्त कर रहा था।
“इतनी लम्बी यात्रा क्या किसी विशेष प्रयोजनार्थ है ? वहां सभी कुशल तो हैं ?’’ इस बार बोलते हुए उत्तंक के चेहरे पर विस्मय फैल गया।
“ऋषिवर ! हस्तिनापुर में राज्य प्राप्ति के लिए युद्ध के हालात बन गए हैं। आपको तो पता ही है धृतराष्ट्र के अन्धे होने की वजह से पाण्डु का राज्याभिषेक किया गया, उनके वनगमन के कारण धृतराष्ट्र को प्रतिनिधि राजा बनाया गया। अब वन में पाण्डु के निधन के पश्चात धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने स्वयं को राज्य का वंशज घोषित कर दिया है, वह पाण्डवों को कुछ भी नहीं देना चाहता। इसी समस्या का निवारण करने मुझे वहां मध्यस्थता हेतु बुलाया गया है। वस्तुतः यह राज्य तो पाण्डवों का है पर दुर्योधन इसे अपना मान बैठा है।’’ उत्तर देते हुए कृष्ण ने अपने कंधे से नीचे आ रहे दुपट्टे को व्यवस्थित किया।
“वासुदेव! आपकी बात सुनकर मैं चिन्ता में पड़ गया हूं। अगर यह युद्ध हुआ तो भारी मारकाट मचेगी क्योंकि दोनों पक्ष के योद्धा दिव्यास्त्रों से संपन्न हैं। ’’ कहते हुए भार्गव उत्तंक के माथे पर बल पड़ गए एवं ललाट पर चिंता की रेखाएं उभर आई।
“आप धर्म के ज्ञाता हैं ऋषिवर ! आप मुझे मार्ग सुझाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में मेरे लिये क्या निर्देश हैं?’’ कृष्ण ने इस बार हाथ जोड़कर उनके आगे शीष झुकाया।
“ आपकी मध्यस्थता इतनी कुशल हो कि युद्ध किसी स्थिति में न हो। आप तेजस्वी, बुद्धिमान ही नहीं, प्रखर कूटनीतिज्ञ एवं समाधान-कौशल से परिपूर्ण हैं। आप इस मध्यस्थता में शांति के सेतु बनो। संसार का इतिहास युद्धोन्मादी नहीं, संसार के शांतिदूत लिखते हैं। यही मेरी आज्ञा है एवं यही तुम्हारा कर्तव्य भी। स्मरण रहे, आप वही करोगे जो मैंने कहा है। आपको शांतिदूत बनना है युद्धदूत नहीं। इतना ही नहीं ,आप लौटते हुए मुझे बताकर जाएं कि वहां क्या हुआ ?’’ कहते हुए उत्तंक का चेहरा गंभीर हो गया।
‘जी ऋषिवर! मेरी यात्रा बहुत लंबी है ,अब आज्ञा चाहता हूं।’ कृष्ण अब जाने की अनुमति मांग रहे थे।
कृष्ण की बात सुनकर उत्तंक उन्हें कुटिया के बाहर तक छोड़ने आए एवं उन्हें तब तक देखते रहे जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए। तत्त्पश्चात् कुटिया के भीतर आकर वहीं लगे आसन पर बैठकर पुनः ध्यानस्थ हो गये।
महाभारत के युद्ध में खून की कीच मच गई। दोनों ओर के असंख्य योद्धा काल-कवलित हुए। युद्ध में भीष्म, द्रोण, अभिमन्यु एवं कर्ण सरीखे वीरों तक को काल ने लील लीया। युद्ध जीतने के लिए धर्म की सारी मर्यादाएं ढह गई। अपार छल-बल का प्रयोग हुआ। युद्ध अठारह दिन तक चला। सर्वत्र घायल सैनिको का चीत्कार मचा था। युद्ध इतना वीभत्स था कि वहां असंख्य गिद्ध एवं नरभक्षी पशु-पक्षी घायल सैनिकों को नोचने लगे थे। अंत में दुर्योधन भीम के हाथों मारा गया। ऐसी विनाशलीला पहले कभी नहीं देखी गई। कुरूक्षेत्र में सर्वत्र स्त्रियों एवं बच्चों का विलाप रह गया। युद्धोपरांत दोनों ओर के लाखों सैनिकों में पाण्डव पक्ष में पांच पाण्डव , कृष्ण एवं सात्यकि तथा कौरव पक्ष में मात्र कृपाचार्य, कृतवर्मा एवं अश्वत्थामा जीवित शेष रहे।
हस्तिनापुर से द्वारिका लौटते हुए कृष्ण ने पुनः उत्तंक के दर्शन किए। उन्हें देखते ही उत्तंक बोले, “ कृष्ण! क्या तुमने मध्यस्थता का वैसा ही परिणाम पाया जैसा मैने कहा था ? क्या तुम सफल शांतिदूत बन सके ? क्या तुमने मेरी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया ? ’’उत्तंक मध्यस्थता का परिणाम जानने को उत्सुक थे।
“नहीं ऋषिवर! मैं आपके आदेश का पालन नहीं कर पाया। मैं पाण्डवों के लिए तमाम राज्य के स्थान पर मात्र पांच गांव लेने पर राजी हो गया परन्तु हठी दुर्योंधन तब भी नहीं माना, अतः युद्ध अपरिहार्य हो गया। इतना ही नहीं , उसने भरी सभा में मुझ शांतिदूत को जंजीरों से बांधने का दुस्साहस किया। ’’ उत्तर देते हुए कृष्ण ने महाभारत युद्ध का सम्पूर्ण वृतांत बताया तो लोकपालक उत्तंक की भोंहे खिंच गई, वे आगबबूला हो उठे।
“जर्नादन ! आपके होते हुए यह अनर्थ क्यों हो गया ? बुद्धिमानों की बुद्धि का फिर क्या प्रयोजन ? आप जैसे समस्त कलाओं में प्रवीण, सर्वसमर्थवान चाहते तो युद्ध टाल सकते थे ? यह आपने क्या कर दिया ? युद्ध की विनाश-लीला मेरी आंखों के आगे मण्डराने लगी है । मेरी दृष्टि में इसका कारण आप एवं मात्र आप हैं। आपने मेरी अवज्ञा की है। अब मैं आपको कठोर श्राप दूंगा, आप इसे ग्रहण करने को तत्त्क्षण तैयार हो जाएं।’’ उतंक के ऐसा कहते ही पृथ्वी हिलने लगी, आकाश में असमय बादल उमड़ आये एवं यत्र-तत्र बिजलियां चमकने लगी।
“महातेजस्वी ऋषिवर ! किंचित रुकिए! मेरे तर्क को पुनः सुनिए। आपने यह शक्तियां कठोर तप कर प्राप्त की हैं , इन्हें यूं व्यर्थ नष्ट न करिए। ’’ कृष्ण ने श्राप अभिमुख उत्तंक से अनुरोध किया।
“शीघ्र कहो! मैं तुम्हें अंतिम अवसर देता हूं।’’ ऋषि अब भी क्रोध में थे। उनके नथुने फड़क रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो उनके क्रोध की नदी सब कुछ बहा ले जाएगी।
“ऋषिवर! मैं पुनः कहता हूं मैंने अंतिम क्षण तक युद्ध टालने का प्रयास किया। इससे आगे युद्ध रोकना असंभव था। अगर यह युद्ध न होता तो संसार में धर्म नहीं , अधर्म की विजय का इतिहास लिखा जाता, धर्म की फिर कैसी दुर्गति होती इसका आकलन आप स्वयं कर सकते हैं।’’ यह कहकर कृष्ण उत्तंक के आगे शांतभाव से इस तरह खड़े हो गये जैसे तमाम प्रयास करने के पश्चात दावानल रोक पाने में असफल व्यक्ति स्वयं को अग्नि की शरणागत कर देता है।
कृष्ण का शांत, सौम्य रूप देखकर उत्तंक इस बार संयत हुए लेकिन वे अब भी गंभीर थे।
“वासुदेव्! धर्म-अधर्म की व्याख्या करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया ? यह व्याख्या मध्यस्थ का धर्म नहीं हो सकती। आगत पीढ़ियाँ अब धर्म की निजी व्याख्या कर अपने उन्मादी निर्णय समाज पर थोप देगी। ओह, तब कितना विनाश होगा। ’’ उत्तंक की आंखें अब भी लाल एवं वाणी गांभीर्य से ओत-प्रोत थी।
“ ऋषिवर! मैं मानता हूं मध्यस्थ का धर्म हर हाल में शांतिवार्ता प्रशस्त करना है। मैं यह भी मानता हूं युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। आपकी पीड़ा लोकपीड़ा है एवं निश्चय ही स्तुत्य है। भावी पीढ़ियां जब मेरी मध्यस्थता की असफलता पर चिंतन करेंगी तो उसमें मरूभूमि में आज हुए कृष्ण-उत्तंक संवाद की भी चर्चा होगी। युद्ध टालने हेतु आपकी विकलता आगत संसार की शांति का अग्रदूत बनेगी। मेरा वचन मिथ्या नहीं होगा। इस महाविनाश एवं युद्ध में हुए भीषण छल-बल का मैं भी कहीं अपराधी हूं। इसके लिए मैं आपसे क्षमायाचना करता हूं। आप मुझे क्षमा करें ऋषिवर ! मैं पुनः आपको श्राप न देने का अनुरोध करता हूं।’’ कृष्ण अब भी ऋषि के सम्मुख हाथ जोड़े खड़े थे। इस बार कृष्ण के मधुर वचनों से उत्तंक का क्रोध इस तरह शांत हुआ मानो किसी ने उफनते दूध में जल के शीतल छींटे डाल दिए हों। ऋषि लेकिन अब भी गंभीर थे। परदुःखकातर ऋषि के मस्तिष्क में अब एक नई योजना आकार लेने लगी थी। वे कृष्ण की ओर देखकर बोले –
“ठीक है , अगर श्राप नहीं लेना चाहते हो तो आपको मुझे यहीं , इसी मरूभूमि में , उस विराट, दिव्यस्वरूप के दर्शन देने होंगे जो आपने कुरूक्षेत्र में अर्जुन को दिए थे।’’ उतंक का क्रोध अब अनुरोध में रूपान्तरित हो चुका था।
ऋषि उत्तंक के अनुरोध पर कृष्ण ने उन्हें वहीं , उसी विराटस्वरूप के दर्शन दिए जिसे देखकर चकित अर्जुन ने कहा था- ओह , आज सहस्त्रों सूर्य एक साथ उग आए हैं।
“ऋषिवर ! आप और क्या चाहते हैं ? ’’ कृष्ण अब मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जानते थे उनके सच्चे भक्त उनके दर्शन एवं जनपीड़ाशमन के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहते।
“ हे विश्वेश्वर! मरुप्रदेश में वर्षा बहुत कम होती है। इसी के चलते यहां का जन-जीवन त्रस्त रहता है। आप किसी ऐेसे समाधान को उद्घाटित करें जिससे इस विकट समस्या का समाधान हो। ’’ इस बार उत्तंक का अनुरोध पुतलियों में उतर आया।
“ यहां के निवासी जब भी मुझे ‘घनश्याम’ नाम से पुकारेंगे, मैं उत्तंक बादल बनकर बरसूंगा। मेरा वचन मिथ्या नहीं होगा। ’’ यह कहते हुए कृष्ण कुटिया के बाहर आए एवं रथ पर सवार होकर द्वारिका की ओर चल दिए।
उन्हें विदा देते हुए उत्तंक की आंखों से आंसुओं की अजस्र धारा बह गई।
भाग – 3
“ क्या खूब कथा सुनाई, शर्माजी! सदियों से इस देश के सन्तों , तपस्वियों ने युद्ध रोकने की ही बात कही। वे महान संत परदुःखकातर तो थे ही , विश्वशांति के अग्रदूत भी थे। ’’ कहते-कहते देवपुराजी भावुक हो गए।
“ सच कहते हो मित्र! ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ हमारा सर्वकालिक नाद है। हमने सदैव देश, काल, निजधर्म से ऊपर उठकर सर्वहितकारी चिंतन किया है। ’’ बात आगे बढाते हुए शर्माजी बोले।
“आप उचित कहते हैं शर्माजी ! युद्ध दोतरफा सकारात्मक चिन्तन से ही मिटेेंगे। विश्वशांति की दिशा में यह अहम कदम होगा। आज विश्वभर में इसीलिये तो जगह-जगह शांतिवार्ताएं हो रही हैं।’’ अब व्यासजी बोल रहे थे।
“जब युद्ध के बाद भी सारे समाधान, निर्णय टेबल पर होने हैं तो यह कार्य पहले ही क्यों न कर लें।’’ इस बार कई देर से चुप छिब्बर साहब बोले।
“हां मित्र! हम आशान्वित रहें। सूरज पिघल रहा है।’’ शर्माजी का अंतिम वाक्य सुनकर सभी मित्र वहां से उठे एवं अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान किया।
दिनांक: 27/05/2019
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