सच में सूर्य कभी-कभी पश्चिम से निकल आता है। आज रेखा की बत्तीसवीं वर्षगांठ पर मैंने उसे खूबसूरत छल्ले में कार की चाबी लटकाकर वर्षगांठ की मुबारकबाद दी तो उसे यकीन ही नहीं आया। दरअसल इस सोच का उद्गम उसके विचारों की गंगोत्री में ही न था। पहले तो उसने सोचा कि विनोदवश यह फटीचर नया छल्ला भेंट लाया होगा लेकिन बिटिया अक्षिता ने जब जोर से चिल्लाकर कहा कि मम्मी, पापा सच में गाड़ी लेकर आये हैं, तो उसकी बांछें खिल गई। झटपट घर से बाहर आकर उसने पुरानी ‘फिएट’ को निहारा, उस पर हाथ फेरा तो उसे लगा आज उसका चिरस्वप्न पूरा हुआ हो।
कितने समय से वो अनिल को कार खरीदने के लिये कह रही थी, पर बस ये तो अपनी मस्ती में रहते हैं, इनके कानों पर जूं भी नही रेंगती। चलो, इन्हें सद्बुद्धि तो आई। पड़ौस के वर्माजी भी तो इनके साथ बैंक में कार्य करते हैं उन्हें गाड़ी लिये तीन वर्ष हो गए। वर्माजी भी तो इनके हमउम्र ही हैं, आखिर वो कैसे फटाफट हर चीज खरीद लेते हैं? श्रीमती वर्मा कई बार जब वर्माजी एवं बच्चों के साथ गाड़ी में निकलती थी तो रेखा के मन में एक अजीब-सी टीस उभरती थी। रेखा रूप-रंग-बुद्धि में श्रीमती वर्मा से कई आगे थी। उम्र के बत्तीसवें वर्ष में भी उसका यौवन निखार पर लगता था। अब भी जब कभी अपनी माँ के दिये हीरे के टाॅप्स पहनती तो उसकी सुदंरता को चार-चाँद लग जाते । पीहर के इन्हीं टाॅप्स को जिस दिन पहनती, वो श्रीमती वर्मा से मिलने अवश्य जाती । चाय के दौर में श्रीमती वर्मा इनकी तारीफ करती तो उसे बहुत अच्छा लगता , ‘‘पापा-मम्मी ने अक्षिता होने पर ये उपहार में दिए थे, वरना इनके भरोसे तो वही नकली टाॅप्स जीवन भर पहनो।‘‘ वह सुषमा वर्मा को कहे बिना नहीं रह पाती थी। श्रीमती वर्मा को कौन-सा उसके हीरों के टाॅप्स देखकर खुशी होती थी, बस एक औपचारिकतावश सहमति दे देती थी। वरन जब भी रेखा, सुषमा से ऐसी बातें करती, सुषमा कहे बिना नहीं रहती थी, ’’आज शाम को हम सभी ड्राइव पर झील के किनारे घूमने जा रहे हैं। गाड़ी में बैठकर झील के किनारे घूमना इन्हें बहुत अच्छा लगता है, बच्चे नहीं होते तब तो ये छेड़ने से भी बाज नही आते।’’ बस यही बात रेखा के जेहन में कहीं गहरे टीस कर जाती । नारी न मोहे नारी रूपा। रात मुझसे जरूर कहती, ‘‘तुम भी एक पुरानी गाड़ी ले आओ ना, कुछ मदद पापा कर देंगे, कुछ बैंक का लोन ले लेना। कोई चीज आती है तो उसके लायक व्यवस्था भी हो जाती है। आखिर वर्माजी भी तो मैन्टेन कर ही रहे हैं।’’ न जाने क्यों मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता था, जैसे किसी ने मेरे स्वाभिमान को ललकार दिया हो लेकिन रेखा को नाराज करने को दिल नहीं होता था। सोचता इसका अपना एक आकाश है, मैं क्यों इसके आगे हकीकतों का आवरण बनाऊँ। किसी के स्वप्न पर किसी का कोई नियंत्रण थोडे़ ही है।
दुनिया में अधिकतर लोग इसलिए दुःखी हैं कि उनके पड़ौसी सुखी है। संभवतः कुछ इसलिए सुखी लगते हैं, जैसे उनके पड़ौसी दुःखी हों। सुख-दुःख सापेक्षिक अनुभूति हो गए हैं, उद्गम में कोई झरना नहीं है। मुझे एवं वर्माजी दोनों को बैंक में काम करते कोई दस वर्ष होने को आए। हम दोनों सिद्धांततः छत्तीस के आंकडे़ में हैं। वर्माजी पूरे घाघ आदमी है, लोगों को कार्य में ऐसा फंसाते हैं कि लोग दिये बिना नहीं रहते। उन्हें लोगों की जेब खाली करने की पूरी कला आती है। वो अच्छी तरह जानते हैं कि ग्राहक किस मुकाम पर आकर टूट जाता है। न जाने मैनेजर से भी हर बार किस तरह अच्छी पटरी बिठा लेते हैं। वर्षों से लोन विभाग में बैठे हैं, कोई मैनेजर इनको हटाने का नाम नहीं लेता। इस देश में ईमानदारी विधवा हो गई है । बेईमान आदमी और भिखारी में क्या फर्क है? कभी कभी लगता जाकर मैनेजर की गर्दन पकड लूँ। साला हर बार ऋण विभाग वर्माजी को ही देता है। वर्माजी नाकेबंदी में पारंगत है। अब तक सभी स्वीकार कर चुके थे कि इस सीट पर उनका कब्जा पक्का है।
कार की रेखा ने बहुत देखभाल की। कार भले पुरानी हो पर रेखा हर सुबह उसे अच्छी तरह से साफ करती। जब तक वो इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाती कि हमारी गाड़ी वर्माजी की गाडी से अधिक सुंदर है, उसे चैन नहीं आता था । थोडे़ समय में उसने सफेद कपडे़ के सुंदर सीटकवर भी बना दिए थे। अब कार वाकई सुंदर लगती थी। बैंक से आने के बाद कई बार जब मैं और बिटिया उसके साथ सैर करने झील पर निकलते तो उसे बहुत अच्छा लगता था। आगे काॅर्नर वाली सीट पर बैठे उसके काले लम्बे बाल उड़ते तो उसे बरबस पीहर की याद हो आती । वो भी क्या दिन थे, पापा के पास तीन-तीन सरकारी गाड़ियां रहती थी। जो मैं कहती, उसी गाडी में पापा चलते थे, रास्ते में कितने पूरी-पकवान खाते थे और बस, घर आकर सो जाओ। सोचते-सोचते रेखा भाव-विभोर हो जाती । मैं सब कुछ जानता था पर मेरी अपनी सीमाएँ थी। इसके बाप तो सार्वजनिक निर्माण विभाग में चीफ इंजीनियर थे, पर यहाँ तो सारी तीमारदारी वेतन पर है। तनख्वाह कपूर की तरह पन्द्रह तारीख तक ही उड़ जाती है, बाकी दिन तो तौबा करते निकलते हैं।
खैर! कार आ जाने के बाद घर में कई महीनों तक खुशी का वातावरण रहा। स्त्री मन अत्यंत अगाध होता है। स्त्री हर संवेदना को कहीं गहरे जीती है, फिर वो चाहे प्यार, नफरत, ईर्ष्या या और कोई भावना हो। हर संवेदना में गहरे उतर जाना उसकी फितरत है। इन दिनों रेखा मेरी तारीफ भी करने लगी थी, ‘‘आप कार से उतरते हो तो ऐसा लगता है, जैसे कोई बड़ा अफसर उतर रहा हो। काॅलोनी के सब लोग यही कहते हैं, आप कार में बहुत फबते हो।’’ मैं सब कुछ जानते हुए उसकी इन अपरिपक्व बातों को सुनकर मन ही मन खुश होता था। अपनी तारीफ सबको अच्छी लगती है, बीवी करें तो आदमी को लगता है, जैसे किला फतह कर लिया हो। सच ही कहा है, हर सफल व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है। स्त्री प्रेरणा का मूल स्रोत है। किसी की पत्नी खुश हो तो समझो वो इंसान उपलब्ध हो गया। घर में ही जब सुकून न मिले तो इंसान कहां जाए। जड़ों से कटकर कोई कभी खुश नहीं हुआ, चाहे पत्तों-पत्तों पर पानी दे दो पर इससे क्या कुछ होने वाला है। परिवार इंसानी रिश्तों की सबसे बड़ी कड़ी है। जो अपने परिवार में प्रसन्न है, लगता है उसने जहाँ लूट लिया है। कुछ ऐसी ही अनुभूति इन दिनों मेरे मन में होती थी। अच्छे दिनों में हर चीज अच्छी लगती है।
इन्हीं दिनों रेखा का भाई सुमित इलाहाबाद से आया तो उसने बढ़- चढ़कर मेरी तारीफ की। ‘‘जीजू! आजकल आपके सितारे आसमान छू रहे हैं!’’ उसे भी मैं बैंक से अवकाश लेकर सारा शहर गाड़ी में घुमाकर लाया। पेट्रोल का बिल भी उस दिन बहुत आया, पर इसकी भरपाई रेखा की गुप्त तिजोरी से हो गई। हमेशा वो अलमारी में कुछ न कुछ अलग से बचाकर रखती थी। मेरी फितरत से बेखबर नहीं थी वो। कई बार विपत्ति के दिनों में, जब मैं बगलें झांकता तब वही मोर्चा संभालती थी। न जाने ये औरतें कहां कहां पैसे रख लेती हैं?
लेकिन अच्छे दिन हमेशा कहां रह पाते हैं। दुःख भरे इस जीवन मेें सुख कभी-कभी ठंड़ी फुहार की तरह ही आता है। आज मैं बैंक से घर आया तो घर में एक अजीब उदासी थी। बिटिया अपने कमरे में पढ़ रही थी, रोज की तरह लपककर उठकर नहीं आई। मैं समझ गया, आज इसको जरूर पढ़ाई को लेकर डांट पड़ी है। रेखा भी अन्यमनस्क-सी अपने काम में लगी रही। मैं आरामकुर्सी पर रोज की तरह कुछ देर बैठ गया। पूरे दिन काम करने के बाद कुछ देर का आराम कितना अच्छा लगता है। थोड़ी ही देर में रेखा चाय लेकर आई। चाय पीते हुए ही मैंने रेखा से पूछा, ‘‘मेडम! आज माहौल भारी क्यों है? न वो तबस्सुम, न वो फर्ज अदाई, जैसे कोई मेहमान आकर बैठ गया हो।’’ मेरा प्रश्न वह यह कहकर टाल गई, ‘‘आपको तो बस शायरी सूझती है। दिन भर काम करते-करते थक जाती हूँ , आज मुई नौकरानी भी नहीं आई। कल बिटिया की परीक्षा भी है। पढ़ाना भी मुझे ही है।’’ मुझे लगा माहौल के गर्भ में तकलीफ कुछ और है। थोड़ी देर में रेखा बाहर दूध लेने गई तो बिटिया ने आकर सारा माजरा बताया, ‘‘पापा आपको मालूम है वर्मा अंकल आज नई मारुति कार लाए हैं।’’
अब मुझे सारी बात समझ में आई। हमें प्रतिस्पर्धा इतना क्यों सताती है ? मेरे घर की दुनिया वहीं पर थी, फिर भी मेरे घर की दुनिया बदल गई। हम आखिर चाहते क्या हैं? क्या इंसान कभी मंजिल पर नहीं पहुंचेगा? क्यों हर वक्त नियति उसे चार कदम नीचे होने का अहसास देती रहती है? हम हमारे समीकरणों में क्यूं नहीं खुश हो जाते? क्यूं हमारे सुख-दुःख तुलनात्मक हो जाते हैं? लगता है इंसान की गढ़ाई में ही कुछ दोष है।
रात खाना खाकर मैं अपने बेडरूम में आकर लेट गया। रेखा कुछ देर बाद साॅटन का गाऊन पहने ऊपर आई। गले में गोल्ड पाॅलिस किया चांदी का मंगलसूत्र एवं कानों में वही पुराने नकली टोप्स। उदास होते हुए भी बल्ब की मद्धम रोशनी में वो बहुत सुंदर लग रही थी। प्रकृति ने उसे स्वस्थ एवं सुघड़ देह की नेमत अदा की थी। आज भी वही मन मोह लेने वाले तीखे नाक नक्श, बड़ी-बड़ी आँखें, शबाब व कशिश से भरपूर। मेरे पास आकर चुपबैठ गई। मुझे लगा जैसे शराबी के हाथों मादक प्याला आ गया हो। अनायास मेरी अंगुलियाँ उसके बालों में घूमने लगी। मुझे लगा जैसे धीरे- धीरे तूफान थमने लगा है। वह समीप आकर मेरी छाती पर सर रखकर लेट गई।
‘‘रेखा ! तुम आज भी कितनी सुंदर हो!’’ मैं धीरे से बोला।
‘‘ अब रहने भी दो। क्या आपको मालूम है वर्माजी के यहां नई कार आई है ?’’ अंततः उसने मन की व्यथा उगल दी।
‘‘वह कुछ भी ले आये मुझसे अधिक अमीर नहीं हो सकता ?’’ मैंने स्थिति पर पकड़ मजबूत की।
‘‘ वह कैसे ?’’ उसने आश्चर्य से पूछा।
‘‘ देखो! वह हर समय पत्नी को लेकर कितना परेशान रहता है? लेकिन मेरे जीवन में कोई रिक्तता नहीं हैं। उसके पास तुम्हारे जैसी सुंदर, सुशील पत्नी है क्या ?’’ मैंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा
‘‘ सच कह रहे हो?’’ उसके भीतर कुछ पिघलने लगा था।
‘‘ बिल्कुल सच रेखा! तुम इन छोटी बातों से परेशान क्यों हो जाती हो ? तुम इससे कहीं ऊपर हो। दुनिया में सबके अपने सुःख-दुःख हैं। भगवान ने हर चीज हर एक को नहीं दी हैं। कहीं वे अमीर हैं, कहीं हम। धन से ही इंसान मालामाल नहीं होता। ऐसा होता तो सभी धनी और, और की रट नहीं लगाते। वस्तुतः सबसे बड़ा धन तो संतोष है जिसे पाकर कुछ भी पाने की इच्छा नहीं रहती। मुझसे पूछो तो संतोषी व्यक्ति असल शहंशाह है। चाहतों के दलदल में फंसा व्यक्ति भी क्या कभी खुश हुआ है।’’ ? कहते -कहते मैंने मुड़कर देखा।
वह निश्चिंत , गहरी नींद में सो रही थी।
उसे ‘समाधान’ जो मिल चुका था।
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09.11.2002