सूरज-चाँद परमात्मा की दो आँखें हैं फिर वह दिन में मात्र सूरज की एवं रात को चन्द्रमा की एक आँख से ही क्यों देखता है? क्या दो आँखों से देखना उसे सुहाता नहीं, अथवा ऐसा तो नहीं कि दोनों आँखों से देखने में उसे तकलीफ होती है? क्या पृथ्वी पर फैले अनाचार, अत्याचार, दुख एवं दुराचार को वह दूसरी आँख से नजरअंदाज करना चाहता है? क्या इसीलिए लोग उसे समदर्शी कहते हैं?
समदर्शी सिर्फ ऊपरवाला ही नहीं है, पृथ्वी पर भी अनेक समदर्शी हैं। नेताओं को क्या पता नहीं अव्यवस्था क्यों है? पुलिस क्या जानती नहीं चोर कहाँ है? लेकिन एक आँख बंद करके जीने में जो सुख है, सुकून है, वह दोनों आँखों से देखने में कहाँ! लेकिन यह तो मात्र दर्शन झाड़ने की बात हुई। मैं आपको एक सच्चे समदर्शी से मिलवा रहा हूँ, ‘हनुमान प्रसाद’ जिसके बचपन से एक ही आँख है।
हनुमान प्रसाद मेरी ही तरह मेरे ऑफिस में क्लर्क है। जब मैं नया-नया इस ऑफिस में आया तो कई दिनों तक समझ नहीं पाया कि लोग उसे समदर्शी क्यूँ कहते हैं ! वह तो एक दिन रंजीत ने मुझे दबी आवाज में समझाया, ‘‘अंधे को अंधा कहना अच्छा लगता है क्या! सूरदास भी तो कह सकते हैं।’’ फिर मुँह से डस्टबिन में जर्दा थूकता हुआ बोला, ‘‘काने को काना कहना ठीक नहीं लगता इसीलिए समदर्शी कहते हैं।’’ कहते-कहते उसकी कटारनुमा मूंछों के नीचे ऐसा मंद हास्य फैल गया जिसका दर्शन गुणीजनों के मुखमण्डल पर भी दुर्लभ है।
सरकारी ऑफिस में निठल्ले बैठे बाबुओं को तो मजाक बनाने की आदत है। यह कार्य उन्हें ब्रह्मानंद-सा सुख देता है। घर्र-घर्र चलते पंखों के नीचे जिस हास्य एवं ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’’ का सृजन होता है, वैसा उत्कृष्ट सृजन विद्वद्जनों की गोष्ठियों में भी नहीं होता। फजीती करने के असंख्य नुस्खे हैं उनके पास। वे समय भी व्यर्थ नहीं करते। ऑफिस चल रहा हो तो ग्राहकों की फजीती करते हैं एवं खाली बैठे हों तो एक-दूसरे की। उन्हें तो कोई बकरा चाहिए।
आज बिक्रीकर बंद करने के मुद्दे को लेकर बाजार बंद था। खाली बैठे सभी की जीभ में खुजली मची थी। थोड़ी देर तो सभी अनर्गल प्रलाप करते रहे, फिर न जाने कैसे समदर्शी उनके हत्थे चढ़ गया। सभी उस पर फिकरे कसने लगे। वह था भी तो ठेठ का अंतर्मुखी, कभी विरोध नहीं करता। योगी की तरह तटस्थ भाव से ताने सुन लेता, कभी क्रोध नहीं करता। उसकी विनम्रता लोगों में और साहस भरती। आजकल सर्वाइवल, जीने के लिए आदमी को कुत्ता होना पड़ता है। आपको गुर्राना आता है तो ठीक, नहीं तो लोग गर्दन दबाने में देर नहीं करते। शुरूआत रंजीत ने ही की। कान में कलम डालते हुए समदर्शी की तरफ देखा, फिर धीरे-धीरे गुनगुनाने लगा, ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर………………’ जब हनुमान पर कोई असर नहीं हुआ तो मुझसे बोला, ‘‘जगदीश! तुझे मालूम है तुलसीदास ने मानस में एक जगह बड़ी गूढ़ बात लिखी है!’’ मुझे मालूम था कुछ गंदा ही बोलेगा। मैं भी खाली था, अतः वार्ता को गति देते हुए बोला, ‘‘उगल!’’ कान में घुसी कलम को और आगे-पीछे करते उसने हनुमान की ओर टेढ़ी नजरों से देखा, फिर दबे स्वर में बोला, ‘‘काणे, खोड़े, कुबड़े, कुटिल, कुचालि जान……..!’’ इतना कहकर वह चुप हो गया। उसकी बात मेरे ज्ञान सरोवर में कंकर की तरह गिरी, क्षण भर में विचारों के वर्तुल बिखर गये। ज्ञान यज्ञ में अपने विचारों की आहूति डालते हुए मैंने भी वार्ता को बढ़ाया, ‘‘क्या तुझे मालूम है बाडे में बहत्तर एवं काणे में करोड़ गुण होते हैं ।’’
ऐसी रसभरी बातें सुनते ही बाकी बाबुओं के भी कान खड़े हो गये। अब जानकीदास बोल रहा था। उसका शरीर सौष्ठव भी दर्शनीय था। इकहरा बदन, लम्बोतरा मुँह, पीले दांत लेकिन ज्ञान-गुण निधान। स्वाहा कहकर उसने भी आहूति दी, ‘‘अरे इससे अच्छा तो यह दोहा है, काणा खोड़ा कायरा, सर से गंजा होय। बात करो जब पास में, लंबा डंडा होय।।
इस बार एक भरपूर अट्टहास हुआ। रंजीत ने अर्थपूर्ण नजरों से जानकीदास की ओर देखा और बोला, ‘‘यह दोहा तूने कहाँ पर देखा?’’
‘‘कबीर बाबा का है, तेरी साहित्य में रुचि हो तो। तुझे रसीली किताबों से निजात मिले तब तो न तू संतों की बातें पढ़े!’’
जानकीदास की बात सही थी। रंजीत का सत्साहित्य यह रसीली पुस्तकें ही थी। क्या क्या तो नाम थे इन किताबों के…………. ‘मस्तानी मेम’, ‘जवानी दीवानी’, ‘धड़कते दिल’, ‘कातिल हसीना’ और जाने क्या! हरामी कहाँ-कहाँ से इन्हें ढूँढ़ लाता। कभी रेल्वे स्टेशन के बाहर बने स्टालों से, कभी बस स्टैण्ड के इर्दगिर्द से, कभी कबाड़ियों से साँठ-गाँठ कर ले आता। शक्करखोर शक्कर ढूँढ़ ही लेते हैं। समय मिलते ही इन पुस्तकों को तल्लीनता से पढ़ता। उसके समाप्त करते ही हम उसे इस प्रकार देखते जैसे मंदिर के बाहर भिखारी दान देने वाले को कातर आँखों से देखते हैं। जिसे पहले मिल जाती वह निहाल हो जाता। हम चुपचाप उसे अपनी ड्रावर में रख लेते। सभी पुस्तकें यौनोत्तेजक मसालों एवं चित्रों से भरी होती। समय मिलते ही हम इन पुस्तकों पर टूट पड़ते। जो सुख योगी को परमतत्त्व प्राप्त कर मिलता है, वही सुख हमें इन पुस्तकों को पढ़कर मिलता। इस दरम्यान कोई ग्राहक आ जाता तो उसकी खैर नहीं। हम मन ही मन कसम लेते, इसका काम तो बिगाड़ना ही है। कई बार रंजीत ब्ल्यू फिल्में भी ले आता जिसके दीदार भी हम कार्यालय समय के पश्चात् आफिस कम्प्यूटर पर करते। इन सब कार्यों में हमें स्वर्गिक सुख मिलता। जानकीदास तो कई बार इन दृश्यों को देखते-देखते हिलने लगता। रंजीत चिल्लाने लगता। किसी को स्वाभिमान की परवाह नहीं । शाम घर ऐसे पहुंचते जैसे हल जोतकर किसान पहुंचता है। बीवी को सुनाते, ‘‘सरकार का बस चले तो हमारा खून निचोड़ ले।’’ तब श्रीमतीजी तरस खाकर चाय बनाती, कभी सर तो कभी हाथ-पाँव दबाती। मुर्गी मारने का सुख हमारे आनंद को सहस्रगुना कर देता। रात वही रसीली कहानियाँ अथवा चित्रों को याद कर हम हमारे कामरस को जगाते। तब श्रीमतीजी यही कहती, भगवान चाहे जो सजा दे, पर अगले दस जन्म में भी बाबुओं की बीवी न बनाये। जाने कहाँ-कहाँ से क्या-क्या सीखकर आते हैं। होता-जाता कुछ नहीं बस दुःखी करते रहते हैं।
जीवन यूं ही चलता रहता। हर क्लर्क का प्रमोशन वरिष्ठता से होता जिसमें वर्षों लग जाते। वह आगे निकल भी जाता तो क्या कर लेता, उसकी पुरानी हरकतें उसके सर चढ़कर बोलती। जिसने स्वयं अनुशासन की गत बिगाड़ी हो, वह अनुशासन को कैसे लागू करता। वह पुनः हमारी टोली में आ जाता। तरक्की का आधार जब मात्र वरिष्ठता होती है तो महत्त्वाकांक्षाएं मृगजल की तरह व्यर्थ, आधारहीन एवं नीरस बन जाती है। तब व्यक्ति निरुत्साह होकर सब कुछ छोड़ देता है। यही कुण्ठा उसे शनैः शनैः उच्छृंखलता एवं अनुशासनहीनता की ओर धकेलती है। जो सेंस वेल्यू अर्थात् सृजन मूल्य नहीं बना सकते वे न्यूसेंस वेल्यू , विध्वंस मूल्य द्वारा ही अपने अस्तित्व का अहसास देते हैं।
कभी कोई मुर्गा फंसता तो हम पिकनिक पर भी जाते। वहाँ भी अक्सर अश्लील एवं छिछोरी बातें ही करते। इस बार पिकनिक हुई तो गज़ब हो गया। उस दिन समदर्शी काजल लगाकर आया। एक आँख और उसमें भी काजल। बेचारे की कयामत आ गई। बस, सबको आनंद आ गया। उसे देखते ही रंजीत ने फिकरा कसा, ‘‘क्या काजल लगाया है, नजर न लगे!’’
‘‘काणा काजल लगाने से सुंदर नहीं बन जाता!’’ जानकीदास बोला।
‘‘इन कजरारी आँखें से कहाँ बिजलियाँ गिरानी है।’’ मैंने बात आगे बढ़ाई।
‘‘एक आँख वाला आँख भी कैसे मारे?’’, रंजीत ने दबे स्वर में सुर मिलाया।
हम मन मरजी बोले जा रहे थे, जीभ में हड्डी तो होती नहीं। लेकिन आज पासा उल्टा पड़ गया, हम सबकी अच्छी किरकिरी हुई। हनुमान का मानो खून निचुड़ गया। स्वाभिमान पर ऐसा क्रूर प्रहार वह सहन नहीं कर पाया। अपने स्वभाव के विपरीत आज ऐसे उखड़ा कि किसी के बस में नहीं आया। उसका लावा फूट पड़ा, ‘‘कमीनों! काना हूँ तो तुम्हारे बाप की नहीं खाता!’’, कहते-कहते आगे बढ़कर उसने रंजीत का काॅलर पकड़ा एवं घूरकर बोला, ‘‘अगली बार होशियारी की तो यहीं गाड़ दूंगा।’’ उसकी आँख क्रोध से लाल हो रही थी। जाते-जाते उसने मुझे एवं जानकीदास को ऐसे देखा जैसे कच्चा खा जायेगा।
इस घटना के कई दिनों तक वह गंभीर रहा, फिर यकायक तीस रोज अवकाश पर चला गया।
कभी-कभी बुरा समय हमारे भीतर से वह रत्न निकाल देता है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर पाते। भीतर अगर उद्वेलना नहीं होगी, मंथन नहीं होगा, विचारों की मथनी नहीं चलेगी तो फिर मक्खन कैसे निकलेगा? प्रकाश अंधेरे के गर्भ से ही तो निकलता है!
समदर्शी मानो एक नये संकल्प से जाग उठा। उसके तन-मन में आग लग गई। रात सोता तो यही सोचता कि ऐसे उपहास भरा जीवन भी कोई जीवन है। बचपन से अब तक वह ताने ही तो सुनता आया है। बचपन में सहपाठी चिढ़ाते थे, आज साथी कर्मचारी चिढ़ाते हैं। लोगों की मानसिकता में सेडिज्म , परपीड़न बहुत गहराई से प्रविष्ट कर गया है। बचपन की एक छोटी-सी भूल, एक बच्चे ने तीर-धनुष का खेल खेलते हुए एक तीर उसकी ओर चला दिया और वह अपनी आँख खो बैठा। उसका कोई दोष नहीं और इतनी कड़ी सजा? काश! कोई सच्चा तीर चलाकर उसके प्राण ले लेता। यूँ दिन-रात तड़प कर जीना भी कोई जीना है? लोग मौका मिलते ही दूसरों को नीचा दिखाने लग जाते हैं हालांकि दूसरों की मजाक बनाना, दूसरों पर फिकरे कसना, ताने मारना स्वयं की कुण्ठा, असुरक्षा एवं हीनता का ही रेचन है पर उन्हें कौन समझाये। न जाने इंसान दूसरों को दुःख देने में इतना रस क्यूं लेता है?
समदर्शी की अंतरात्मा उसे धिक्कारने लगी। इस बार उसने कुछ करने की ठान ली। उसे समझ में आ गया कि कतार में खड़े होने से कुछ नहीं मिलता। उसने रात-दिन एक कर भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। परीक्षा के लिये उसने जी तोड़ मेहनत की।
उसकी आँख अर्जुन की तरह लक्ष्य पर लग गई।
अब उसके जीवन का एक ही ध्येय था – लक्ष्यभेद!
नियति जिसमें स्वर्ण बनने की संभावना देख लेती है उसे दुखों की तेज भट्टी में तपाती है। आग में तपते ही स्वर्ण चमक उठता है। समदर्शी विकलांग कोटे में आईएएस बना एवं संयोग से उसी विभाग का शीर्ष पदाधिकारी भी। अब उसका पदस्थापन राजधानी में था।
अब यही फिकरे कसने वाले बाबू स्वयं को उसका मित्र कहकर धाक जमाने लगे।
इन्हीं दिनों विभाग में आकस्मिक निरीक्षण हुआ। निरीक्षण अधिकारी ऑफिस खुलने के दस मिनट पूर्व ही पहुंच गया। इस बार सरकार के कड़े निर्देश थे कि देरी से आने वाले किसी कर्मचारी को नहीं बख्शा जाए। निरीक्षण अधिकारी बाबुओं की रग-रग से वाकिफ था। बाबू और भला समय पर आये। वे ऑफिस उसी अंदाज में पहुँचते हैं जैसे दूल्हा ससुराल। उस रोज देर से आने वाले पांच लोग मुअत्तिल हुए जिसमें मैं, रंजीत एवं जानकीदास भी थे। तीनों के तोते उड़ गये, सारी फूंक निकल गयी।
हम राजधानी आये। मुअत्तली रद्द करवाने के लिए हम समदर्शी के घर दो-तीन बार गये पर हर बार चपरासी यही कहता, साहब अभी व्यस्त है। हमारी रही-सही हेंकड़ी भी कपडे़ की तरह निचुड़ गयी। हम जानते थे कि हमारी मुअत्तली रद्द करना समदर्शी के बाँयें हाथ का खेल है, पर वह ऐसा क्यूँ करेगा? बदला लेने का इससे अच्छा मौका उसे और कब मिलेगा? पुरानी सारी बातों की भड़ास निकालेगा। हो सकता है उसने जानबूझकर हमें फंसाने के लिए यह निरीक्षण करवाया हो। खुद समय से आता था, पर इतना तो वह भी जानता था कि अधिकतर स्टाॅफ देरी से ही आता है। खुद हरीशचन्द्र होने का मतलब यह थोड़े न है कि सबको चोर सिद्ध कर दें। आदमी बड़ा होने पर अक्सर अपनी जड़ों को भूल जाता है, विशेषकर छोटा आदमी अगर बहुत बड़ा बन जाये तो अहंकार सर चढ़कर बोलता है। माना कि हमने उस पर फिकरे कसे पर क्या हम सदैव बुरे ही थे? कितनी बार हमने साथ लंच लिया, कितनी बार पिकनिक गये। सौ बार पुचकारो कोई याद नहीं रखता, एक बार मारो लोग जीवन भर याद रखते हैं। हम तीनों ऐसे ही प्रलाप करते। कई बार आपस में चिढ़ जाते। तब मैं कई बातों के लिए रंजीत को, रंजीत मुझे एवं हम दोनों जानकीदास को दोष देते। अब हम एक दूसरे को बकरा बनाते। विवश बैल की तरह हम इन्हीं विचारों के इर्द-गिर्द घूमते रहते। कोई अन्य पहचान तो थी नहीं, सुबह से शाम डोलते-डोलते थक जाते।
आज राजधानी में डेरा डाले सातवाँ दिन था, चेहरे मुर्दों की तरह लटक गये। होटलों में ठहरते एवं खाते-खाते जेबें जबाब दे गई। हम सभी एक दूसरे का चेहरा देखकर रुंआसे हो जाते। पाप सर चढ़ गया।
हमारे पास इन हालात से निकलने का एक ही उपाय था, समदर्शी की कृपा, पर वह तो पत्थर बन चुका था।
आज हिम्मत कर हम पुनः समदर्शी के घर की ओर बढ़ रहे थे। उसके द्वार पर बार-बार जाने के अतिरिक्त हमारे पास विकल्प ही क्या था। भरा तालाब हो वहीं लोग खाली घड़े लेकर जाते हैं। मई का महीना था। तेज गर्मी में पैदल चलते-चलते हम पसीने से भीग गये। तीनों अपराध बोध से एक दूसरे को देखते। समदर्शी पर कसे फिकरों को याद कर हमारा मन ग्लानि से भर उठता। तभी रंजीत ने भारी मन से हम दोनों की ओर देखा और बोला, ‘‘हमने जितनी फजीती समदर्शी की की, उससे कई गुना अधिक हमारी हो गई।’’
रंजीत की बात सुनकर हम दोनों विह्वल हो उठे। पाप-कलश मानो स्वतः छलकने लगा।
‘‘मैं तो कहता हूँ अपने पापों का प्रायश्चित करने का अब एक ही मार्ग है।’’ मैंने रंजीत की ओर देखकर कहा।
‘‘क्या?’’ रंजीत ने विस्मय से पूछा। उसके आँसू आखों की कोर में ठहर गये।
‘‘हम तीनों अपनी एक-एक आँख फोड़ लें। शायद हम भी समदर्शी हो जाये तो हनुमान को हम पर दया आ जाये।’’ कहते-कहते मेरी छाती भर आयी।
‘‘साहब से बराबरी करोगे!’’ इस बार जानकीदास बोला। इतने भारी दुख को न ढो सकने के कारण उसकी पतली काया हिलने लगी थी।
‘‘तो क्या दोनों आँखें फोड़ लें! सूरदास बन जायें तो हनुमान प्रसाद अवश्य पिघल जायेगा!’’ मैंने रुंधे गले से उत्तर दिया।
इन्हीं बातों के चलते हम हनुमान के घर पहुँचे। मैंने डरते-डरते चिट चौकीदार के हाथ में दी, चौकीदार ने हमें घूरकर देखा एवं चिट लेकर अन्दर चला गया। हमें मालूम था इस बार भी रटा रटाया जबाब मिलेगा, साहब व्यस्त हैं। यह भी हो सकता है इस बार हनुमान हमें धक्के देकर बाहर निकलवा दे। हम कातर आँखों से उस ओर देख रहे थे जिधर चौकीदार गया था।
आश्चर्य! इस बार चौकीदार के साथ खुद हनुमान आ रहा था। क्या हमारे बार-बार आने से उसे इतना गुस्सा आ गया है कि वह खुद लताड़ने आ रहा है? आज तो खैर नहीं। हमारी पिण्डलियाँ हिलने लगी। पल भर में हमने सैंकड़ों मनौतियाँ कर डाली।
हनुमान हमारे पास आया। सबसे पहले मुझे देखा और दोनों हाथ फैला दिये। मैं उससे इस तरह गले मिला जैसे वर्षों से बिछुड़े दो भाई मिले हो। मेरे बाद वह रंजीत एवं जानकीदास से गले मिला।
हम तीनों उसके ड्राइंगरूम में बैठे तब हनुमान ने बताया कि गत पाँच दिनों से वह हमारी मुअत्तली रद्द करने के प्रयासों में लगा था। इस बार मंत्रीजी अड़े हुए थे कि किसी भी कीमत पर सस्पेंशन रद्द नहीं होंगे। कब तक हम जनता की शिकायतें सुनते रहें! संयोग से कल मंत्रीजी के पास समाचार आया कि उनके पौत्र हुआ है एवं वे दादा बन गये हैं । इस समाचार से वे अत्यन्त प्रसन्न थे। इसी दरम्यान मैंने तुम्हारी फाईलें उनके आगे रख दी, सर! ये मेरे पुराने साथी हैं। आप दादा बनने की बधाई में इन्हें नौकरी बख्श दीजिए। आगे के लिए इनकी गारण्टी मैं लेता हूँ। गद्गद् मंत्रीजी ने तुरंत हस्ताक्षर कर दिये। कल ही तुम्हारे आर्डर टाईप हो गये थे एवं शाम को मैं इन्हें घर ले आया था।
आदेश हाथ में थमाते हुए वह बोला, ‘‘तुम्हीं बताओ, यह कार्य किये बिना मैं तुम सबसे कैसे मिलता। मित्रों को आश्वासन नहीं दिये जाते, उनका तो काम करना पड़ता है।’’
हम तीनों जमीन में गड़ गये। आज हमारी आँखें हनुमान के नहीं, एक सच्चे समदर्शी के दर्शन कर रही थी जो दूसरों के पापों को क्षमा कर उन्हें अभयदान देता है।
हम बाहर आये तब आसमान का अकेला सूरज छाती ठोककर चमक रहा था, परमात्मा की एक आँख का प्रतीक बनकर, हमें समझाते हुए कि दूसरी बंद आँख है मेरे न्याय की जिसे दुनियाँ देख तो नहीं पाती, हाँ, समय-समय पर अनुभूत अवश्य करती है।
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25.05.2007