रात नौ बजे होंगे। पार्टी अब जमने लगी थी।
होटल ताज काॅन्टिनेन्टल के जगमगाते सेंट्रल हाॅल में प्रबुद्ध लोगों की भीड़ जमा थी। प्रोफेसर, डाॅक्टर, समाजशास्त्री एवं अन्य कई विद्वान पार्टी की शोभा बढ़ा रहे थे। मिस शालिनी को बधाई देने वालों का तांता लगा था। शालिनी बाहों पर कढ़ाई किये हल्के गुलाबी रंग के ब्लाउज पर गुलाबी एवं ग्रे काॅम्बिनेशन की बंधेज की साड़ी पहने थी। उसके लम्बे कद पर साड़ी खूब जम रही थी। चारों ओर माणक की जड़ाई किये मोतियों के टोप्स एवं गले में ऐसे ही पेंडेंट की माला उसके रूप की चमक को द्विगुणित कर रहे थे। तीखे नक्श, आई शेडो से चमकती पलकों के नीचे बड़ी-बड़ी आँखें, तराशी भौहें एवं खिले गोरे रंग में वह किसी रूपसी से कम नहीं लग रही थी। शरीर मानो सांचे में ढला था। रूप में बुद्धि का संगम हो जाये तो फिर कहना ही क्या, सोने पे सुहागा। मेहमानों में कई उसकी रूप बगिया के भंवरे थे।
शालिनी ने दो माह पूर्व छब्बीस वर्ष पूरे किये थे। इतनी कम उम्र में न सिर्फ उसने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की, डिग्री प्राप्त करने के कुछ माह पश्चात् समाजशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर पद पर चयनित भी हुई। उपलब्धियाँ अगर यूँ मिलती जाये तो पार्टी लाजमी है। भेड़ पर ऊन कौन छोड़ता है? पार्टी का मुख्य आकर्षण प्रो. शर्मा थे जिनके मार्गदर्शन में उसने पीएचडी की थी। वे उसके शोध कार्य के गाइड थे। पार्टी में झुण्डों में बँटे लोग आपस में गुफ्तगू कर रहे थे। एक ग्रुप में प्रो.शर्मा, मि.टण्डन, मि.वैद एवं शालिनी खड़े थे। मि. टण्डन पुलिस विभाग में डीवाईएसपी एवं मि. वैद स्थानीय जेल में उप-अधीक्षक थे। यहाँ शोध के विषय का मंथन हो रहा था।
मि. टण्डन: ‘भई शर्माजी ! क्या विषय चयन किया है, ‘बलात्कार की मानसिकता’। यह तो अत्यंत संवेदनशील एवं समाजोपयोगी विषय है। आप और शालिनी जी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर शोध किया। आपके शोध की स्थानीय अखबारों में भी चर्चा भी हुई है।’ मि. टण्डन ने चर्चा को हवा दी।
मि. शर्मा : ‘असली बधाई तो आप शालिनीजी को दीजिये जिन्होंने दिन-रात अथक श्रम किया।’
मि. टण्डन : ‘मैडम! आपको अलग से भी बधाई।’
शालिनी : ‘थेंक यू सर ! वस्तुतः आप सभी बधाई के पात्र हैं। आप ही के सहयोग से यह कार्य सम्पन्न हुआ है।’ शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा। हल्के गुलाबी होठों के बीच सुंदर दंतपंक्ति उसके रूप को अब ओर निखार रही थी।
मि. वैद अब शालिनी से बतियाना चाहते थे। उन्होंने बात को चलते से पकड़ा।
मि. वैद:‘मैडम ! आपके शोध के क्या निष्कर्ष है? इस जघन्य कृत्य के जड़ कारण क्या हैं? क्या बलात्कार के पीछे मात्र पुरुषों की विकृत मानसिकता है अथवा उसमे स्त्री भी कहीं दोषी है? आज के हाई-फाई जमाने में लड़कियाँ जिस तरह अर्धनग्न लिबास मेें घूमती हैं उससे तो पुरुष भड़केंगें ही। टीवी, इन्टरनेट कल्चर ने रही-सही कसर पूरी कर दी है। यही नहीं महत्त्वाकांक्षी स्त्रियाँ आज जिस तरह पुरुषों के साथ घूम रही हैं वहाँ इस तरह के अपराधों को बल ही मिलेगा।’ मि. वेद ने चर्चा को गरम किया।
शालिनी : ‘सर ! आपका प्रश्न अत्यन्त गंभीर है। बलात्कार के पीछे पुरुषों की विकृत मानसिकता ही नहीं बलात्कारी का अंधा साहस एवं सेडिज्म भी है। हर बलात्कारी विकृत, अंधा एवं यौनिक कुण्ठा से भरा होता है। जहाँ तक स्त्रियों की वेशभूषा एवं महत्त्वाकांक्षा की बात है, तो क्या पुरुष अर्धनग्न नहीं घूमते? क्या पुरुष महत्त्वाकांक्षी नहीं होते? ऐसे में क्या औरतें उनसे जाकर चिपट जाती हैं? यौनिक क्षुधा तो दोनों ओर बराबर है वरन् अगर वात्स्यायन के निष्कर्षों को लिया जाय तो स्त्री में यौनिक क्षुधा पुरुष से कई गुना अधिक होती है। मेरी राय में इसका मुख्य कारण पुरुषों का ‘मेल इगो’ एवं ‘एग्रेशन’ है। कुण्ठित पुरुष स्त्रियों को जलील करके गौरवान्वित महसूस करते हैं। हमारा समाज भी पुरुष प्रधान है। हर बलात्कार में वह स्त्री का दोष ढूंढने लगता है। यही नहीं हर वकील कोर्ट में मुव्वकिल को बचाने के लिये स्त्री को दुश्चरित्रा सिद्ध करने का प्रयास करता है।’ शालिनी की आँखें अब लाल होने लगी थी।
मि. वैद शालिनी के विषय-विवेचन से हतप्रभ थे। अब मि. टण्डन शालिनी की ओर मुखातिब थे।
मि. टण्डन : ‘मैडम! क्या आपको नहीं लगता इसका अह्म कारण एक वर्ग विशेष की अतृप्त यौनिक कामनाएं भी हैं?चिरकुँवारे, घरों से दूर रहने वाले एवं अनेक निर्धन लोग यौनिक रूप से तृप्त नहीं हाते अतः बलात्कार जैसे अपराधों का जन्म होता है। मेरी राय में वह जमाना ठीक था जब समाज में वेश्यालय हुआ करते थे।’
शालिनी : ‘बात तो वहीं की वहीं है। वेश्यावृति एवं बलात्कार में क्या फर्क है? यह तो मात्र अपराध का रूप बदलने की बात हुई? शिकार तो दोनों अवस्था में स्त्री ही है। एक वैधानिक है, दूसरा अवैधानिक। मेरी रिसर्च में बलात्कार करने वाले सत्तर प्रतिशत लोग विवाहित थे। मैं नहीं समझती बलात्कार किसी वर्ग विशेष से जुड़ा है। कुत्सित मानसिकता का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता, गरीबी-अमीरी के आधार पर भी नहीं।’
मि. वैद : ‘हमारे जेलों में आने वाले नब्बे प्रतिशत बलात्कारी वरन् मैं तो यह कहूंगा कि सौ प्रतिशत गरीब होते हैं। मैंने किसी धनी व्यक्ति को इस जुर्म में आते हुए नहीं देखा।’
शालिनी : ‘यह कह कर तो आप गरीब आदमी पर दोषारोपण कर रहे हैं । आपराधिक वृत्ति तो सभी में, यहाँ तक कि अनपढ़ एवं पढ़े लिखो में भी बराबर हैं। कानून अमीरों एवं पहुँच वालों का दास है। वे कानून को खरीद सकते हैं। उसे तोड़-मरोड़ कर पेश कर सकते हैं। गरीब, अनपढ़ व्यक्ति के पास जेल जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। जितने बलात्कारी जेलों में बैठे है, उससे कहीं अधिक बाहर बैठे हैं। कानून का शिकंजा सिर्फ गरीबों को कसता है।’
मि. वैद : ‘मैडम! फिर ऐसे विषय पर शोध की क्या प्रासंगिकता है? आपकी शोध प्रश्नोत्तरी में तो वे लोग आये ही नहीं जो बाहर हैं?’
शालिनी : ‘आपका कहना ठीक है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि शोध की पवित्रता एवं प्रयासों पर प्रश्न लगा दिया जाए ? चोर नहीं पकड़े जाते तो क्या पुलिस थानों को बंद कर दें?’
मि. वैद शालिनी के उत्तरों के आगे शिकस्त महसूस करने लगे थे। अब उन्होंने मि. शर्मा की ओर मुड़ना मुनासिब समझा। उन्होंने ब्रह्मास्त्र का संधान किया।
मि. वैद : ‘प्रो. शर्मा! हमने सुना है आज कल पीएचडी की डिग्रियाँ सब्जी मार्केट में मिलने वाली तरकारियों की तरह मिल रही हैं। कई जगह तो गाइड ही उसे लिख देते हैं। कुछ अन्य जगह मात्र एक युनिवर्सिटी की शोध को कवर बदलकर दूसरी जगह पेश कर दिया जाता है। कई गुण्डों, बदमाशों तक ने यह डिग्री प्राप्त कर ली है। स्तरहीनता एवं डीग्रेडेशन इस सीमा को लांघ चुका है कि कई जगह तो शोधार्थी को शोध का विषय एवं गाइड का नाम तक नहीं मालूम है। सभी अपनी-अपनी रोटियाँ सेक रहे हैं। ऐसे शोध क्या समाज को दिशा दे सकेंगे?’
प्रो. शर्मा उत्तर देते उसके पहले ही किसी ने घोषणा की, ‘डिनर इज रेडी’। परवान चढ़े विषय अधूरे रह गये।
मि. वैद का अन्तिम प्रश्न किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं था। जिन लोगों ने रक्त जलाकर दीपक की रोशनी में शोध किये, वे महामानव अब कहाँ हैं? उन्हें किसी डिग्री का प्रलोभन नहीं था। जन कल्याण ही उनका लक्ष्य था। जेनर ने चेचक के टीके की खोज की, जेम्सवाॅट ने इंजन की। एडीसन ने बल्ब बनाया, फ्लेेमिंग ने एन्टीबाॅयोटिक्स ईजाद की। उनकी शोध कितनी पवित्र थी।उनके लक्ष्य कितने ऊँचे थे? वे एक महान शृंखला एवं सिद्धान्त की कड़ी थे। आज का सुखी जीवन उन्हीं शोधकर्ताओं के त्याग एवं तपस्या का फल है। वर्षों देवियों की पूजा करके चेचक नहीं मिटी। चेचक मिटी तो मात्र जेनर के कर्म, परिश्रम एवं खोज से। यह अंधा एवं भयग्रस्त समाज आज भी उन्हीं देवियों की पूजा करता है। जेनर के नाम को कितने लोग जानते हैं ?
रात चढ़ने लगी थी। प्रबुद्ध लोगों ने पहले मन की भड़ास निकाली, फिर पेट की आग बुझाई, अब विदा ले रहे थे।
शालिनी की भी अपनी एक कहानी थी। वस्तुतः इस दुनियाँ में हर व्यक्ति की एक कहानी होती है। उसके अपने निजी सुख-दुख, उसकी अपनी एक विशिष्ट सोच होती है। कुछ लोग अपनी कहानी कह देते हैं, कुछ की प्रगट हो जाती हैं।कुछ अनकहे अपनी कहानियों एवं अनुभवों के साथ मर जाते हैं। इन अकथ, अचिन्हित कहानियों के मर्म, वेदना एवं निष्कर्ष, कही-सुनी, लिखी-पढ़ी कहानियों से अधिक गहरे हैं। कई बार एक ही व्यक्ति के जीवन में कई कहानियाँ घटित होती हैं, कुछ प्रगट एवं कुछ अप्रगट होती है। लोगों की अप्रगट कहानियाँ प्रगट होने लगे तो समाज में भूचाल आ जायेगा।
शालिनी ने पाँच वर्ष पहले एम.ए. समाजशास्त्र विषय में उत्तीर्ण किया था। पूरी क्लास में अव्वल थी। एम.ए. करतेे ही वह पीएचडी की तैयारी में जुट गयी। प्रो. शर्मा से वह काॅलेज के दिनों से प्रभावित थी। शोध कार्य में भी उसने उन्हें ही गाइड बनाया। प्राध्यापक बनना उसकी चिरसंचित अभिलाषा थी एवं इस मुकाम तक पहुंचने के लिए पीएचडी अनिवार्य थी। पीएचडी होनेके पश्चात् ही उसके महत्त्वाकांक्षाओं की इमारत खड़ी हो सकती थी। शोध रजिस्ट्रेशन के बाद उसे अपने स्वप्न फलित होते दिखायी देने लगे थे।
प्रो. शर्मा चालीस के पार, विवाहित, दो बच्चों के पिता थे। जवानी अब भी उनमें हिलोरे लेती थी। उनकी नजर गिद्ध की तरह सैकड़ों योजन दूर तक देख लेती थी। शालिनी को पीएचडी करने के लिये उन्होंने ही एनकरेज किया था। ऐसी रूपसी युवतियों का गाइड होना क्या कम सौभाग्य की बात है ?
रजिस्ट्रेशन के बाद से ही शालिनी ने कमर कस ली। वह दिन-रात अथक परिश्रम में डूब गयी। मंजिल सामने हो, इरादों में ताकत हो तो इंसान का मार्ग कौन रोक सकता है? वह नित्य प्रो. शर्मा के घर जाती, कभी प्रश्नोत्तरी बनाती तो कभी शोध प्रारूप आदि बनाने के कार्य में उलझ जाती। इस प्रश्नोत्तरी को लेकर उसे ऐसी पचास स्त्रियों से साक्षात्कार करना था जिनके साथ बलात्कार हुआ हो। यही नहीं जेलों में जाकर कुछ बलात्कारियों से भी उसे पूछताछ करनी थी। ‘बलात्कार की मानसिकता’ विषय उसी ने चुना था। प्रो. शर्मा ने तो मात्र सहमति दी थी। इस विषय पर शोध कर वह समाज को बलात्कार के मूल कारणों से अवगत करवाना चाहती थी। इस विषय के चुनाव में उसके निजी कारण भी थे। इस विषय को वह कहीं गहरे से जानना चाहती थी। वर्षों पहले वह खुद भी इसका शिकार हुई थी जब उसके जीजा ने उसके साथ बलात्कार किया था। तब वह मात्र सत्रह वर्ष की थी। यह बात वह न तो अपनी बहन को बता पाई एवं न ही किसी अन्य से अपनी पीड़ा बाँट पाई। यह टीस दिन रात उसका रक्त चूसती रहती थी। यह घटना जब-जब उसके हृदय आकाश पर मंडराती, उसका कलेजा दुख से फटने लगता। जीवन की यह दर्द भरी नज़्म उसके हृदय में हलाहल भर देती। छाती में शूल उभरने लगते। यौवन दस्तक दे उसके पहले ही दामन में काँटें उलझ जायें तो इससे बड़ी व्यथा क्या हो सकती है? बलात्कार के पश्चात् उसे पुरुष समाज से घृणा हो गयी थी। उसने प्रण लिया था कि वह शादी नहीं करेगी। माँ-बाप, परिवार के दबाव में भी वह नहीं झुकी। उसने कलेजा काठ का कर लिया।
प्रश्नोत्तरी लेकर वह गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमी। कई जेलों में कार्य किया। पीड़ित स्त्रियों की दास्तां सुनकर उसका दिल दहल गया। हर वर्ग, हर उम्र की महिला इसका शिकार थी। यही नहीं बलात्कारी भी हर वर्ग से सम्बद्ध थे, यहां तक की एक साधु ने भी एक विवाहिता के साथ बलात्कार किया था। वह उसके पास पुत्र कामना से आशीर्वाद लेने गई थी।
वह जब-तब प्रो. शर्मा से ‘एपोइन्टमेन्ट’ लेकर उसके घर जाती। रात-दिन कार्य करती पर प्रो. शर्मा की गिद्ध दृष्टि तो उसके रूप पर थी। वह नित नये शगूफे बताता, अड़चने पैदा करता, बेवजह मीन-मेख निकालता रहता। कई बार घर के काम तक उसके हवाले कर देता। शालिनी यह भी सहन कर लेती। दूसरों के पाँव तले गर्दन दबी हो तो उसके तलवों को सहलाने में ही खैर है। इसी कशमकश में चार वर्ष बीत गये। शोध वहीं की वहीं थी। शालिनी नया गाइड लेती तो इतने वर्षों की मेहनत बेकार हो जाती। यह साँप छछूंदर वाली हालत थी।
एक शाम शालिनी प्रो. शर्मा के यहाँ पहुँची तो उसकी पत्नी एवं बच्चे घर पर नहीं थे। प्रो. शर्मा घर में अकेले थे एवं शाम गहरी होती जा रही थी। शालिनी को उस दिन रसोई एवं घर के अन्य कार्य भी करने पड़े। यह सब बातें अब तक उसके जीवन का हिस्सा हो चुकी थी पर शोध पूरी होने तक लहू का घूँट पीने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। हारी-थकी वह प्रो. शर्मा के पास आई। प्रो. शर्मा आज अच्छे मूड में नजर आ रहे थे। न जाने किस शक्ति से स्फूर्त होकर उसने कहा ‘सर! शोध पूर्ण होने में बहुत विलंब हो गया है। अब तक तो थीसिस जमा हो जानी चाहिये थी।’
‘बेबी ! थीसिस ऐसे थोड़ी न जमा होती है।’ यह कहते हुए उसने शालिनी के कंधे पर हाथ रखा। देखते-ही-देखते उसके हाथ उन्मुक्त होने लगे। अवसर पाते ही पापी की पाप चेष्टा जाग्रत हो जाती है। साँप को कितना ही दूध पिलाओ, वह डसे बिना नहीं रहता।
शालिनी ने अपना मुँह दोनों हाथों से ढक लिया। संध्या की लालिमा को अब बेशर्म एवं बेगैरत अंधकार का दानव निगल चुका था।
चंद माह बाद उसकी थीसिस जमा हो गयी।
अब वह डाॅ. शालिनी थी।
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21.06.2003