सर्दियों में सूरज को जाने क्या हो जाता है? उगता तो उंघते-उंघते है पर डूबने को इस कदर उतावला होता है मानो उसे किसी ने अपमानित कर दिया हो एवं वह अंधेरे के आगोश में मुंह छुपा लेना चाहता हो। मुंह छुपा लेने से क्या उसका अपमान कम हो जायेगा ? शुतुरमुर्ग शिकारी को देखकर मुंह छुपा लेता है तो क्या बच जाता है ?
राधेवल्लभ शहर की प्रसिद्ध झील के किनारे बैठे जाने किस उधेड़बुन में खोए थे। वे सब कुछ सहन कर लेते और अब तक किया भी लेकिन कोई स्त्री आकर उन्हें इस तरह अपमानित कर दे यह उन्हें सर्वथा असह्य था। बाजार मे आज उनकी अच्छी किरकिरी हुई। आस-पास के सभी व्यापारी पहले से जले-भुने थे। यह स्थिति उनके लिए हाथ में बटेर लगने जैसी थी, उन्होंने भी आग में घी डाला तो राधेवल्लभ तिलमिला उठे। वे नित्य दुकान रात आठ बजे बन्द कर सीधा घर जाते लेकिन आज ऐसा उखड़े कि छः बजे बंद कर सीधे पिछोला चले आए। बन्द कमरे में कोई चाहे आपका कत्ल भी कर दे तो मंजूर है लेकिन यूं खुले बाजार में कोई आपको रूसवा कर दे, लोई उतार दे, तो पीछे शेष क्या रह जाता है ? आदमी की इज्जत उतर जाए, जगत की हंसी का पात्र बन जाए तो वह स्वयं अपनी नजरों में गिर जाता है एवं यह सबसे बुरी स्थिति होती है। घोडे़ का गिरा सम्भल सकता है, आंख के गिरे आदमी की गत वही समझ सकता है, जिसके साथ बीतती है।
झील के किनारे माथा पकड़े वे इस तरह बैठे थे मानो किसी खड्डे में गिर गये हों। उनका इस तरह अपमानित होने का यह पहला अवसर नहीं था, गत एक वर्ष से घटनाओं का ऐसा सिलसिला चला कि वर्ष पूरा होते-होते उनका धैर्य बिखर गया। एकबारगी उन्हें लगा इस झील में कूद कर आत्महत्या कर लूं पर वे बुज़दिल नहीं थे। जीवन से यूं भागना उन्हें कतई मंजूर न था। सोचते-सोचते उन्होंने सिर उठाकर सामने देखा। सूरज लाल-पीला होकर काला हुआ एवं देखते-देखते अंधेरे के आगोश में खो गया।
शाम गहराने लगी थी। वे बहुत देर वहीं गुमसुम बैठे रहे। यकायक वे चौंके , उन्होंने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा, साढे़ आठ बजे थे। ओह, कल्पना इंतजार कर रही होगी। इस ख्याल के आते ही वे वहीं रखी अपनी गाड़ी की ओर बढ़े एवं सीधे घर आ गए।
राधेवल्लभ उदयपुर शहर के परकोटे के भीतर गत तीस वर्षों से किराने का कारोबार करते हैं। पचास पार है, पत्नी से बेहद प्यार करते हैं, एक लड़का है जो हैदराबाद किसी कम्पनी में कार्य करता है। पत्नी उनसे तीन वर्ष छोटी सुन्दर , सुलक्षणा है। लड़के का विवाह उन्होंने गत वर्ष ही किया है। उनका कारोबार बड़ा नहीं तो इतना छोटा भी नहीं है कि उन्हें कोई आर्थिक कष्ट हो। जस-तस गुजर हो जाती है एवं वे इतने भर से संतुष्ट भी हैं । नित्य सुबह झील पर घूमने जाते हैं एवं यूं नियमित कसरत करने के कारण ही इस उम्र में भी उनका शरीर सौष्ठव दर्शनीय है। मंझला कद, तीखी नाक , तेज चाल , दार्शनिक आंखें एवं सदैव सुंदर परिधान पहनना उनकी खास आदत है। शहर की अच्छी कॉलोनी में स्वयं का तीन कमरों का मकान है जो आज से बीस वर्ष पूर्व उन्होंने औने-पौने दामों पर खरीदा था पर अब यहां भी अच्छे भाव बन गए हैं। शहर बढ़ने के साथ जमीन-जायदाद मेें विनियोजन करने वाले निहाल हो गए। कुल मिलाकर सारे सुख हैं पर इन सब सुखों के बीच एक टीस रह-रहकर अंतस से उभरती है, उन्हें बेवजह जगह-जगह अपमान क्यों मिलता है जबकि वे कभी किसी का अपमान नहीं करते ? यह बात याद आते ही उनका हौसला टूट जाता है। गत एक वर्ष में तो कमाल के वाकिये हुए हैं ।
उनकी दुकान के आस-पास तीन-चार और किराने की दुकानें हैं जिनके मालिक एक से एक छंटे हुए शोहदे हैं। वे अक्सर मिलकर उन्हें अपमानित करते रहते हैं। प्रतिस्पर्धा में भारी पड़ते ही वे ऐसा अट्टहास करते हैं कि राधेवल्लभ का दिल टूट जाता है। वे खून के घूंट पीकर रह जाते हैं। शहर में दो-तीन मित्र भी हैं जो बचपन में स्कूल के दिनों से ही उनसे जुड़ गए थे। वे भी जब-तब मिलते हैं उन्हें आड़े हाथों लेते हैं। राधेवल्लभ प्रत्युत्तर देने का प्रयास करते हैं पर एक अकुशल शिकारी की तरह उनके तीर भौंथरे हो जाते हैं। वे अक्सर ईश्वर से इस बात की शिकायत भी करते हैं कि लोग अकारण उनके पीछे क्यों पड़े रहते हैं पर ईश्वर ने पहले किसी को उसके दुःख का कारण बताया हो तो उन्हें बताए।
उन्हें याद है बचपन में एक बार परीक्षा में सभी बच्चे नकल कर रहे थे, निरीक्षक अध्यापक अजीब बावला था, किसी को कुछ नहीं कह रहा था। इसी के चलते सभी मौके का फायदा उठा रहे थे । राधे को नकल से सख़्त नफरत थी। वे निर्भीक चुपचाप परीक्षा दे रहे थे। साहूकार किसी से क्यों डरे ! तभी आकस्मिक निरीक्षण हुआ एवं निरीक्षक ने उन्हें धर लिया। जाने कैसे उस दिन उनकी पुस्तक ड्रावर में रह गई एवं वे निर्दोष शिकार हो गए। प्रधानाध्यापक को बुलाया गया, जिसने सरे आम उन्हें न सिर्फ प्रताड़ित किया, दीवार की तरफ मुंह कर खड़ा होने का निर्देश भी दिया। लज्जित, उनका सिर शर्म से झुक गया।
कॉलेज के दिनों में भी किसी शातिर लड़की ने उन्हें अपने इश्क में फांस लिया। लड़की कुछ समय बाद जब-तब उनसे रुपये की उगाही करने लगी, उनके सहपाठियों ने घर आकर शिकायत की तो पिताजी नाराज हुए। उन्होंने लड़की को तो डांट-डपटकर विदा किया लेकिन राधेवल्लभ पर उखड़ गए। उनकी अच्छी जलालत हुई, इज्जत तार-तार हो गई। तब से अब तक ऐसी अनेक छोटी-बड़ी घटनाएं होती रहीं। अनेक बार कोई खास दुःख, कष्ट अथवा कमी हमारे भाग्य से चिपक जाती है।
गत एक वर्ष से तो मानो उनकी प्रतिष्ठा को ग्रहण लग गया । यह सिलसिला बैंक की तीन किश्तें न चुका पाने से प्रारंभ हुआ। मैनेजर सनकी था, उसने सरे आम , बाजार में आकर उगाही कर ली। प्रतिस्पर्धी ऐसे ही अवसर की तलाश में थे, उन्होंने घटना को तीन का तेरह करके बताया, बेचारे राधेवल्लभ की हालत चुल्लू भर पानी में डूबने जैसी बन गई। वे तड़पकर रह गए। इन दिनों अक्सर अन्यमनस्क रहते।
इसके कुछ दिन बाद दुकान आते हुए उनकी कार किसी राहगीर को कोने से टकरा गई। उस व्यक्ति के बहुत चोट तो नहीं लगी थी पर वो तेजी से नीचे गिर पड़ा। वह चेहरे-मोहरे से काफी रूआब वाला लगता था। उस दिन बाजार में किसी उत्सव के चलते बहुत भीड़ थी, उन्हें लगा यहां से शीघ्र किनारा कर लेने में सार है, उन्होंने कार तेज की तो सामने दो-तीन राहगीर आ गए, इसी बीच उस व्यक्ति ने उठकर उन्हें रोक लिया। दुर्भाग्य! वह कोई वकील था, उसने सरे राह राधेवल्लभ की कॉलर पकड़ी, हिट एण्ड रन केस की धमकी दी एवं पकड़कर एक कोने तक ले आया। उस दिन उनकी अच्छी फजीहत हुई। वकील रूपये बीस हजार और ले गया। इन दिनों व्यावसायिक अवसाद के चलते उनकी माली हालत खराब थी, वे मन मसोस कर रह गए।
इसी दरम्यान एक रिश्तेदार के कहने से उन्होंने किसी के ऋण की जमानत दी , दुर्भाग्य से वह व्यक्ति फर्जी निकला। उसके पास तो कोई विशेष संपति नहीं थी, राधेवल्लभ के मकान पर प्रभार बन गया। कोर्ट वालों ने कॉलोनी में आकर नोटिस चस्पा किया तो सभी पड़ौसी आ गए। अब तो रही-सही खाक में मिल गई। अनुशंसा करने वाला रिश्तेदार भी किनारा कर गया। उनका हृदय डूब गया। वे चीख पड़े, हे भगवान! मुझे उठा लो! यूं अपमानित होकर जीने से तो अच्छा है मर जाऊं। मुझे बार-बार यूं अपमान क्यों सहना पड़ता है ?
इन दिनों उन्हें अजीब स्वप्न आते। एक बार उन्होंने स्वयं अपनी चिता जलती देखी। चिता समाप्त होने के बाद जाते हुए लोग उपलों की बजाय चिता में पत्थर फेंक रहे थे। वे हड़बड़ाकर उठे, उस रात वे पसीने से तरबतर थे। इसके दो दिन बाद जाने किस बात पर उनकी किसी सहभोज में रिश्तेदारों से ठन गई। सभी ने अवसर पाते ही जी भरकर उनके दुर्व्यवहार की निंदा की। अब तो वे स्वयं में सिमट गए।
बाजार में एक स्त्री के साथ हुई अंतिम घटना के बाद तो उनके औसान जाते रहे। हुआ यों कि एक स्त्री अपने कुछ अन्य स्त्री मित्रों के साथ उनके यहां सामान खरीदने आई। वह तीन-चार बार पहले भी आ चुकी थी। उस दिन सामान पैक करवाने के बाद उसने उधार लिखने की बात की। राधेवल्लभ उधार देते नहीं थे, उन्होंने तीखे शब्दों में कहा, “यूं बिना रकम लोग आते क्यों हैं ? बेवजह मजदूरी करवा दी।” औरत यह बात सहन नहीं कर पाई तत्पश्चात् जाने किस बात पर बहस हुई कि वह उखड़ गई। वह एक तेजतर्रार औरत थी, उसने राधेवल्लभ पर छेड़छाड़ का आरोप लगा दिया। वहीं खड़ी उसकी सखियों ने इस बात की पुष्टि की। बात बढ़ी तो अन्य ग्राहक, प्रतिस्पर्धी एवं व्यवसायी वहीं आकर इकट्ठे हो गए। अच्छी खासी भीड़ जुट गई। दो-चार मनचलों ने राधेवल्लभ को आड़े हाथों लिया, उनका मुंह लटक गया। आज तो जूतोें में दाल बंट गई।
रात राधेवल्लभ बिस्तर पर बदहवास पड़े थे। यह तो उनके बचे-खुचे सम्मान के कफन में कील ठोकने जैसी बात थी। व्यक्ति को सम्मान मिले, न मिले पर यूं तिल-तिल, घड़ी-घड़ी आपमानिक मृत्यु कोई कैसे सहन करे? ऐसे अंगुलियां उठेंगी तो क्या वे जी पाएंगे ? आज पहली बार वे कल्पना के आगे रो पड़े , कल्पना ! इतने अपमान, उपेक्षा एवं अवमानना के साथ क्या मैं जी पाऊंगा ? ऐसे निरादर, तिरस्कार एवं तौहीन के साथ जीना भी कोई जीना है ? क्या मैं कभी इससे उबर पाऊंगा ? जाने किस जन्म में कौनसे पाप किए जिसका यूं सिला मिला है ? अब यह दुःख मेरी ताकत के बाहर का है। हे प्रभु ! मुझे ऐसी अवहेलना, जिल्लत, बेकद्री से उबार। अब बस कर, अब और नहीं! मेरी लुटी इज्जत एवं फूटे भाग्य का तूं ही तारणहार है।
कल्पना दूसरे दिन उन्हें किसी ज्योतिषी के पास ले गई। उसने बताया कि अवश्य आपके हाथों जाने-अंजाने किसी का अपमान हुआ है। ऐसा कोई पाप आपकी आत्मा से चिपक गया है। यह उसी की बद्दुआ का परिणाम है। उसने कई उपाय बताए, राधेवल्लभ के नाक-कान छिदवाए, आंखों में सूरमा लगाने को कहा, राहु-केतु के दान करवाए पर राधेवल्लभ को चैन नहीं मिला। बाद में वे किसी तांत्रिक के पास भी गए। उसने कीकर की जड़ों में दूध डलवाया, गधे-सूअर तक के बाल बंधवाकर टोटके किए पर स्थिति जस की तस थी। वरन् इन दिनों तीन-चार ऐसी और घटनाएं बन गई। कलंक गहरा गया।
हताश, वे एक संत के पास गये। उसने इसे पूर्व जन्म का दोष बताया। संत प्रबुद्ध, पढे़-लिखे ज्ञानी-ध्यानी थे, उन्होंने राधेवल्लभ को किसी मनोचिकित्सक से राय लेने की सलाह दी, मनोचिकित्सक ने उन्हें ‘पास्ट लाइफ रिग्रेसन’ अर्थात् पूर्वजन्म प्रवेश करवाकर जड़ कारण जानने की सलाह दी। इस प्रकार की थेरेपीज् के इन दिनों अच्छे परिणाम मिलेे थे। मरता क्या न करता, राधेवल्लभ इस थेरेपी के लिए तैयार हो गए। उन्हें शांत कर जब पूर्वजन्म की यादों में ले जाया गया तो असल कारण जान वे स्तब्ध रह गए।
पिछले जन्म में वे न सिर्फ एक प्रतिष्ठित लेखक, पत्रकार तथा साहित्यकार थे, एक कुशल वक्ता भी थे। सरस्वती मानो उन पर सवार थी। लोग उनकी कलम एवं वाणी का लोहा मानते। पाठक उनकी पुस्तकों के दीवाने थे, उनके उद्बोधनों में भीड़ उमड़ती। उन्हें घेरे हुए लोग उनकी प्रशंसा के पुल बांध देते। इस दरम्यान उन्हें अनेक सम्मान भी मिलेे। इन्हीं स्थितियों के चलते उन पर विद्वता का नशा चढ गया, अहंकार सर चढ़कर बोलने लगा। वे अपने आगे किसी को कुछ नहीं मानते। असहमति, आलोचना उन्हें जरा नहीं सुहाती। अहंकार पर खरोंच मात्र से वे उखड़ जाते। अब वे अपने प्रतिद्वंद्वियों, प्रतिस्पर्धियों एवं साथी साहित्यकारों का जमकर उपहास करने लगे। भरी सभा, महफिलों तक में पानी उतारने से नहीं चूकते। उन्हें कुछ भी कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
थेरेपी के दरम्यान मनोचिकित्सक ने राधेवल्लभ को उन अपमानित लोगों को गौर से देखने को कहा। उसने एक-एक कर उन्हें पहचानने, उनका नाम बताने को कहा पर वे उस स्मृति तक नहीं पहुंच सके।
थेरेपिस्ट ने अब उनकी आंखों में झांकने को कहा। उन्होंने गौर से देखा, इस बार वे सबको पहचान गए। उन्हें पहचानते ही वे विव्हल हो गए। थेरेपिस्ट ने अब उन्हें एक-एक से याचना कर क्षमा मागने को कहा। राधेवल्लभ हाथ जोड़े , गर्दन झुकाये उन सबके आगे खडे़ थे। उनसे क्षमा मांगते हुए वे बिलख पडे़े। ओह! परमात्मा का न्याय कितना निष्पक्ष है। जैसे वायु गंध को सहज ही अपने साथ ले जाती है , पूर्वजन्मों के गुण-दोष भी तब तक जीव के साथ चलते हैं, जब तक विमोचित नहीं हो जाते। मरणोपरांत वे नये शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
क्षमा मांग कर वे हल्के हुए तो मनोचिकित्सक ने उस जन्म की स्मृतियां वहीं छोड़ने को कहा। उन्होंने वैसा ही किया।
थेरेपी के पश्चात् वे शांत भाव से उठे एवं कल्पना के साथ सीधे घर चले आए।
वे आंखें फिर किसकी थी ? वे किन आंखों को पहचान गए थे।
वे आंखें उन व्यावसायिक प्रतिस्पर्धियों की थीं जो उनकी नित्य फजीहत करते थे। स्कूल में नकल करते हुए उन्हें पकड़ने वाले निरीक्षक एवं मुंह उलटाकर खड़ा करवाने वाले प्रधानाध्यापक की थीं। इन आंखों में उनके स्कूल-कॉलेज के मित्र, वकील, बैंक मैनेजर की आंखें भी थीं। जिस रिश्तेदार के कहने से उन्होंने जमानत दी एवं जिसकी जमानत देने से उनका मकान गिरवी हुआ, वे आंखें भी थी। इनमें कॉलेज की वह शातिर लड़की, शिकायत करने वाले सहपाठी एवं उन पड़ौसियों की आंखें भी थीं जो उनके घर पर नोटिस चस्पा होते देख मजाक उड़ा रहे थे। उन आखों में उस स्त्री की आंखें भी थीं जिसने उन्हीं की दुकान में उन पर बद्तमीजी का आरोप लगाया था।
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02.04.2020