विधान

राजा सूर्य रातरानी का आलिंगन छुड़ाकर जाने लगे तो अलसाई रातरानी ने उन्हें हाथ पकड़कर रोक लिया। मस्तक घुमाकर काले लंबे बालों को पीठ पर डालते हुए उसने रोष भरी आँखों से सूर्य को निहारा, फिर बोली, ‘‘देव! इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मंद-मंद पवन बहने लगा है, जरा रुककर इस क्षणभंगुर जीवन को भोग क्यों नहीं लेते, आखिर इस असार संसार में रक्खा क्या है?’’ कहते-कहते उसने दूसरा हाथ ऊपर कर अंगड़ाई ली तो उसकी देहयष्टि देख सूर्य का मन ललचा गया। क्षण भर के लिए तो वे डिगे, फिर जाने क्या सोचकर सहम गये। उनकी आँखों में एक विशिष्ट भय उभर आया। मन को दृढ़कर उन्होंने रातरानी का हाथ झटका फिर आँखें तमतमाते हुए बोले, ‘‘बावरी, जरा सोच! यूँ सभी मनमर्जी से चलने लगे तो संसार का क्या होगा? मैंने तुम्हें नहीं छोड़ा तो क्या किसान, मजदूर एवं कामगार अपनी प्रेयसियों को छोड़ देंगे? कल हवाएं भी मनमर्जी से बहने लगेंगी, नदियाँ मतवाली हो जायेंगी एवं बादल जब चाहें विचरने लगेंगे। आखिर इस संसार का कोई विधान है कि नहीं?’’

मेरे आंगन में अब हल्की सुनहरी धूप बिखरने लगी थी।

सबको मानो एक तारीख का ही इंतजार होता है।

अखबार वाले का भुगतान कर सोफे पर आकर बैठा ही था कि एक और आवाज आई, ‘‘दूधवाला!’’ अनमने रसोई में जाकर मैंने भगोनी उठाई  एवं सीधे दूधवाले के आगे आकर खड़ा हो गया। भगोनी में दूध डालते-डालते उसकी कटारनुमा मूंछों के नीचे एक रहस्यमयी मुस्कराहट फैल गई। मैंने भगोनी हाथ में ली तब तक उसने रहस्य उगल ही दिया, ‘‘बाबूजी! भूल तो नहीं गये। आज की तारीख याद है ना!’’

‘‘सब याद है भाई। कोई छोड़ता है क्या!’’ मैंने उत्तर दिया।

‘‘अब आप तो सब समझते हों, घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या!’’ कहते-कहते उसने जोर से अट्ठहास किया।

‘‘यह बात भी ठीक है।’’ मैंने जेब से रुपये निकालकर उसे सुपुर्द किये।

‘‘क्यों बराबर है ना!’’ उसे छेड़ते हुए मैंने प्रश्न किया।

‘‘बाबूजी! वर्षों बीत गये, आपके हिसाब में कभी गड़बड़ नहीं हुईं।’’ कहते-कहते उसने रुपये तुरंत जेब में ठूंसे।

मैं कुछ और कहता तब तक उसकी मोटरसाईकल फड़-फड़ करती हई आगे बढ़ चुकी थी। अब वह रुकता भी क्यों।

उसके पीछे-पीछे वाचमैन आया, फिर केबलवाला, किरानेवाला, बच्चों की टैक्सी वाला आदि-आदि। मैंने एक-एक कर सबको भुगतान किया एवं चुपचाप आकर पलंग पर लेट गया।

उधार चुकाने के बाद कैसा अतीन्द्रीय सुख मिलता है!

सूर्य अब ऊपर उठ आया था। सूर्य रश्मियाँ रोशनदान से कमरे में झांकने लगी थी। थोड़ी देर लेटा ही था कि एक और आवाज आई, ‘‘जय शनिदेव!’’… आवाज इतनी तेज थी कि सारे घर में इसे कोई भी सुन सकता था।

नित्य शनिवार को घर के बाहर एक बुजुर्ग पण्डित लोहे के पात्र में शनि भगवान की छोटी सी मूर्ति डाले दरवाजे पर हाजिर होता। मूर्ति आधी तेल में डूबी होती। पण्डित का रंग काला, शरीर पतला, कद लंबा एवं कपडे़ जगह-जगह से फटे होते। जब तक उसे कुछ दे नहीं देते, वह वहाँ से सरकता भी नहीं। वह हर बार अप्रतिम धैर्य का परिचय देता।

उसकी आवाज सुनते ही मैं बिखर गया, ‘‘सारे उधार चुका दिए अब यह कहाँ से चला आया! हर बार शनि का डर दिखाकर पैसे ऐंठ लेता है! कभी रुपये, कभी तिल तो कभी तेल और जाने क्या-क्या! समझ में नहीं आता शनि भगवान तेल का क्या करते हैं? सबका तेल निकाल देेने वाले को भी क्या तेल की कमी पड़ जाती है? मेरे जैसे सरकारी बाबू का वे बिगाड़ भी क्या लेंगे? सरकारी बाबू तो खुद जनता की नजरों में शनि रूप है। हमारी वक्र द्दष्टि से तो व्यापारी, अफसर एवं राजनेता तक सहम जाते हैं!’’ कुण्ठा में मैं बोलता ही गया।

तभी रसोई से पत्नी माधवी की आवाज आई, ‘‘न जाने क्यूँ शनि महाराज को देखकर आप हुक्के की तरह सुलगने लगते हो। वैसे भी आपको अभी शनि लगा हुआ है। कल ही ज्योतिषी को आपकी पत्रिका बताई थी, कह रहा था अभी शनि का आठवाँ ढैया है, मरणांतक कष्ट भोगने पड़ेंगे। भुगतोगे तो नानी याद आएगी। सबको इतना पैसा चुकाते हो, उसे भी कुछ दे दिया तो क्या आसमान फट जायेगा। आपको भी तो प्रसन्न करने के लिए लोग रिश्वत देते हैं ? वो तो चतुराई से जेब में रख लेते हो। दस रुपये इसे भी दे दिये तो कौन-सा आसमान गिर जायेगा! कुछ पुण्य करेंगे तभी तो न पाप कटेंगे!’’ वह राजनेता की तरह सभी बात एक सांस में कह गई।

‘‘दस रुपये! क्या पैसे झाड़ में लगे हैं।’’ मैं लगभग चीखा।

‘‘दे भी दो! सुबह-सुबह बहस मत किया करो!’’ उसने मानो निर्णय देते हुए आदेश जारी किया।

बाहर खड़ा पण्डित इस वार्तालाप का आनंद ले रहा था। उसे पता था अंततः हर घर से कुछ न कुछ मिल ही जाता है।

मैंने बाहर आकर उसे दस रुपये दिये। जय शनिदेव! कहते हुए उसने रुपयों को माथे से लगाकर अपने हाथ में लटकती एक गंदी थैली के हवाले किए।

उसके जाते ही मेरा क्रोध फूटा, ‘‘हमारे देश में बस चमत्कार को नमस्कार है। अगर कोई वेल्यू है तो बस न्यूसेंस वेल्यू। हम सिर्फ उन्हीं को आदर देते हैं जो हमारा कुछ बिगाड़ सकता है। समझ में नहीं आता नवग्रहों में लोग शनि से इतना क्यों डरते हैं! कहते हैं वृहस्पति ज्ञान का दाता है, बुध विवेक का, शुक्र वैभव का एवं चन्द्रमा शांति का, पर इनके नाम पर कोई दान नहीं देता। शनि के जगह-जगह मंदिर हैं, हर मंदिर के बाहर भीड़ उमड़ती है। उनकी वक्र दृष्टि से हर कोई डरता है। सभी एक टांग पर खड़े रहते हैं। कोई उनके नाम से तेल चढ़ा रहा है, कोई तिल-दान कर रहा है तो कोई मंत्र-जाप कर रहा है। यह तो वही बात हुई कि शहर में गुण्डे को तो सभी नमस्कार करते हैं एवं सज्जन को कोई सूंघता भी नहीं।’’ मैं बिना रुके बोलते गया।

‘‘थोड़ा सोच समझकर बोला करो! देवों की पूजा नहीं कर सकते तो प्रताड़ना तो मत दिया करो! खुद तो ढैया भुगतोगे ही, हमारी भी शामत करवाओगे!’’ कहते-कहते माधवी के चेहरे पर एक विचित्र भय उभर आया।

उसकी बात कुछ हद तक ठीक भी थी। मैंने कई लोगों को साढे़ साती एवं ढैये में भुगतते हुए देखा था। हमारे पड़ौसी शर्माजी को साढ़े साती लगी, तब वे दो बार दुर्घटनाग्रस्त हुए, कारोबार बैठ गया एवं यहाँ तक कि उनका लड़का मानसिक ज्वर से मरते-मरते बचा।

इन सब बातों को याद कर मैं कांप गया। हाँ, शनिदेव के प्रति मेरा क्रोध बरकरार था।

इत्तफाक से अगला एक वर्ष मेरा भी बहुत बुरा बीता। एक बार बैंक से बीस हजार रुपये लेकर आ रहा था तो कोई पर्स उड़ा ले गया। उसके कुछ रोज बाद घर में चोरी हुई, श्रीमतीजी का सारा सोना स्वाहा हो गया। छः महीने पूर्व ऐसा चर्म रोग हुआ कि अब तक खुजा रहा हूँ। अभी दस रोज पहले आफिस से मोटरसाईकल पर आ रहा था कि एक चलती ट्रक के किनारे से भिड़ गया। गनीमत थी कि बच गया, पर बचते-बचते भी कंधे की हड्डी टूट गई।

गत 10 दिनों से खाट में पड़ा हूँ। न करवट बदल सकता हूँ, न कोई काम कर सकता हूँ। बस, पड़े-पड़े शनिदेव को कोस रहा हूँ, ‘‘तुम देव हो या दानव! सुना है देवता तो सदैव कृपा बरसाते हैं। जरा-सा भला बुरा क्या कह दिया, आप तो लट्ठ लेकर पीछे पड़ गये! देखता हूँ और क्या बिगाड़ते हो। कोई आपको भी समझाने वाला है कि नहीं? आप तो सांस ही नहीं लेने दे रहे! पता नहीं कैसे देव हो?’’ शनिदेव के प्रति मेरा विरोध चरम पर चढ़ बैठा था। 

आज फिर शनिवार था। दरवाजे से जय शनिदेव की आवाज आई तो मैंने माधवी को स्पष्ट कह दिया, ‘‘किसी हालत में इसे दान मत देना। कितने शनिवार से ले जा रहा है पर मिला क्या? भुगतना तो वैसे ही पड़ रहा है!’’

माधवी ने आज मेरी बात नहीं मानी। बाहर जाकर न सिर्फ दस रुपये दिए, तेल भी चढ़ाया एवं तिल-दान भी किया। भीतर आते हुए बोली, ‘‘इतना मत कोसा करो। देवता रुष्ट होते हैं तो तबाह कर देते हैं।’’

उस रात मैं शनिदेव के बारे में ही सोचता रहा। गुड़गुड़ करते जाने कब आँख  लग गई। स्वप्न में मेरे सामने एक अलौकिक दिव्य देव खड़े थे। पकी उम्र, लंबी सफेद दाढ़ी, मस्तक पर सिंदूर की मोटी बिंदी, गहरा नीला रंग, नीली आँखें, नीले वस्त्र एवं यहाँ तक कि उसके शरीर से भी नीला ही प्रकाश आ रहा था। वे कंधे पर जनेऊ धारण किए हुए थे एवं उनके साथ ही उनका वाहन भैंसा भी खड़ा था। वे हाथों में स्वर्ण कंगन एवं गले में रुद्राक्ष की माला पहने थे। नीली धोती पर जरी की सुंदर किनारी थी। उनका स्मितहास देखते ही बनता था। वे जितने अलौकिक थे उतने ही सौम्य भी।

मैं ऊपर से नीचे तक कांप गया। मैंने झुककर उन्हें प्रणाम किया तो वे बोले, ‘‘पुत्र! मैं शनिदेव हूँ। वैसे तो मेरे दर्शन दुर्लभ है पर तुम्हारे साहस एवं न्यायपूर्ण विचारों से अभिभूत होकर मैं तुम्हारे सम्मुख उपस्थित होने को विवश हुआ हूँ। तुम ठीक ही सोचते हो, जगत में सभी मुझसे भयभीत रहते हैं। मैं जहाँ भी जाता हूँ, वहाँ दुःख का ताण्डव मच जाता है। मनुष्य तो क्या मैं किसी जीव, देवता यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तक को नहीं बख्शता। सूर्य जैसे तेजस्वी ग्रह भी मेरे कोप से डरते हैं!’’ कहते-कहते शनिदेव कुछ पल के लिए रुक गये।

इसी अवसर का फायदा उठाकर मैंने प्रश्न दागा, ‘‘प्रभु! आप ऐसा क्यों करते हैं, क्या प्राणियों को यूँ डराकर उनके मन में श्रद्धा उत्पन्न करना उचित है?’’

‘‘तुम्हारा प्रश्न तर्क संगत है पुत्र! लेकिन मैं  परमात्मा द्वारा आवंटित अपने कर्तव्य से बंधा हूँ। वस्तुतः मैं शनि परमात्मा का विधान एवं न्याय हूँ। विधाता ने मुझे धर्म की स्थापना एवं अन्याय के शमन का कार्य सौंपा है। मैं मनुष्य समाज एवं राष्ट्रों को ही नहीं, देव-दानवों, प्रकृति एवं नवग्रहों तक को धर्मरथ पर आरूढ़ करता हूँ। मैं देश-देशांतरों में अलग-अलग नाम से जाना जाता हूँ पर मेरी अनुभूति सभी जगह समान है। मैं चराचर जगत को परमसत्ता के अनुशासन की लगाम से खींचे रखता हूँ। इन्द्र के वज्र, शंभु के त्रिशूल एवं विष्णु के चक्र से कदाचित कोई बच सकता है, पर मेरी आँख से नहीं। जैसे चन्द्रमा के आगे लोमड़ी नहीं छुप सकती, वैसे ही सृष्टि के अनंत विस्तार तक होने वाला कोई पाप मुझसे नहीं छिप सकता’’।

‘‘यह तो बड़ा दुष्कर कार्य है देव! यह सब आप कैसे करते हैं?’’

‘‘यह कार्य मैं नहीं मेरा यह दण्ड करता  है।’’  कहते-कहते  उन्होंने अपने कंधे तक लम्बे दण्ड को ऊपर उठाकर बताया।

‘‘वह कैसे प्रभु!’’ आश्चर्य के मारे मेरी आँखें फैल गई थी।

‘‘यह दण्ड अमोघ है पुत्र! संसार में जड़-चेतन सभी मात्र तीन कारणों से धर्मरथ पर आरूढ़ होते हैं। दुःख पाकर, बोधगम्य होकर अथवा ज्ञानगम्य होकर। बोधगम्य एवं ज्ञानगम्य व्यक्ति स्वतः धर्माभिमुख हो जाते हैं। न्याय एवं परोपकार उनके जीवन के मूलमंत्र बन जाते हैं लेकिन संसार में ऐसे व्यक्ति अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। अधिसंख्य लोग तो मद, मोह एवं प्रमाद में ग्रस्त होते हैं। तरह-तरह के पापाचार करके धन, शक्ति एवं संपदा का अर्जन करते हैं, यही नहीं इन्हें पाकर मदांध भी हो जाते हैं। वे आम आदमी पर तरह-तरह के जुल्म करने लगते हैं। मैं ऐसे अभिमानियों को जुल्म के घेरे में लेकर उन्हें परमात्मा के न्याय से परिचय करवाता हूँ। मैं विधाता की अदृश्य आँख हूँ। दुःख की भट्टी में तपाकर मैं सबको उनकी औकात का अहसास करवाता हूँ। जिस घर में मैं चला जाता हूँ वहाँ लोग स्वतः आत्मोत्थान की  ओर  बढ़ने  लगते  हैं इसीलिए मेहनतकश, ईमानदार एवं धर्मभीरू लोगों पर मेरी वक्रदृष्टि कभी नहीं पड़ती वरन् वे तो मेरी कृपादृष्टि पाकर निहाल हो जाते हैं। हाँ, प्रमादग्रस्त, कामचोरों एवं कुमार्गियों को तो मैं कड़ा दण्ड देता हूँ, यहाँ तक कि मेरे नाम से भीख मांगने वाले भी पीढ़ियों तक दरिद्र ही बने रहते हैं। मैं किसी भी अधर्मी को नहीं छोड़ता। मेरा दण्ड अमोघ है।’’

शनिदेव के प्रति मेरे मन में अब श्रद्धा जगने लगी थी। लेकिन मेरे प्रश्न अब भी शेष थे। बात बढ़ाते हुए मैंने पुनः प्रश्न किया, ‘‘प्रभु मैंने ऐसा क्या पाप किया कि आप इन दिनों मेरे पीछे पडे हैं?’’ मेरा प्रश्न सुनकर उनके चेहरे का स्मितहास और फैल गया। मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘मनुष्य पाप करके सब कुछ भूल जाता है। याद कर, अब तक तूने कितने लोगों से रिश्वत ली है! कदाचित मैं तुम्हें माफ कर देता, पर कई बार तुमने गरीबों, भोले ग्रामीणों, मजबूर स्त्रियों एवं मोहताजों तक को नहीं छोड़ा। देख! तेेरी सारी रिश्वत चोरी एवं बीमारी में स्वाहा हो गई है। वर्षों पहले तू एक बच्चे को स्कूटर से टक्कर मारकर भाग निकला था। अपनी चतुराई से तू उस दिन तो बच गया पर ट्रक के समीप मुझे टक्कर लगाते हुए नहीं देख पाया। तू छः माह तक चर्मरोग से पीड़ित रहा, यह सब उन लोगों की बद्दुआओं का असर है जिन्हें तू अपनी कठोर वाणी से पीड़ित करता रहा। परमात्मा का न्याय निष्पक्ष है। वहाँ हर काँटा बराबर कर दिया जाता है। मैं तुम्हें यही बोध देने आया हूँ, जैसा करोगे वैसा भरोगे। परमात्मा कहीं नहीं दिखता पर सब कुछ देखता है। वह उचित समय आने पर न्याय करता है। उसकी सजा एवं कृपा के असंख्य रूप है। तुम्हें अब भी चेता रहा हूँ ,  धर्माभिमुख हो जाओ, परोपकारी एवं समाज उपयोगी कार्यो में अपना जीवन व्यतीत करो अन्यथा तुम्हारा नाश करके ही दम लूंगा। मैं न तिल दान से प्रसन्न होता हूँ न तेल दान से, न नीलम धारण करने से एवं न ही किसी मंत्र से। दान ही करना है तो मुझे करुणा, प्रेम एवं सौहार्द्र का दान करो, चमकते हुए नीलमों की बजाय न्याय एवं नैतिकता के नीलम धारण करो। मुझे प्रसन्न करने का यही मंत्र है। मैं शनि हूँ……… परमात्मा का न्याय……… उसका अमोघ दण्ड …….. उसका विधान ………. उसकी अदृश्य आँख।’’

भयवश मैंने उनके चरण पकड़ लिए, ‘‘प्रभु क्षमा करें, अब मैं कभी गलत कार्य नहीं करूँगा। मैं उसका विधान समझ गया हूँ। मैं सच्चे मन से शरणागत हूँ।’’

यकायक मैं सकपका कर उठा। पूरा चेहरा पसीने से तरबतर था। तकिये से नेपकिन उठाकर मैंने मुँह पौंछा। सवेरे की ठण्डी हवाओं से मन कुछ पल में शांत हुआ। दूर मंदिर से आती घंटियों की आवाज के साथ आरती की स्वरलहरियाँ भी कानों में गूंजने लगी थी….. तुम पूरण परमात्मा तुम अतंर्यामी….. पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी……। अब तक इन पंक्तियों को मेरे कानों ने ही सुना था। इनका गूढ़ार्थ समझकर आज मेरा अंतर सुवासित होने लगा था।

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05.07.2007

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