वह कौन है ?

तरुणियों की आँखों में तैरने वाले लाल डोरों में छुपा हुआ वह कौन है ?

वह कौन है जो रूपसियों के रूप की आभा है ?

वह कौन है जो कामिनियों की मछलियों जैसी आँखों, तिरछी भौहों एवं काली पलकों में निवास करता है ?

वह कौन है जिससे पीड़ित होकर प्रेयसियां शर्म से लाल हो जाती हैं ? जो उनके सुर्ख होंठों की लाली है, शंख-सी ग्रीवा का मोड़ है, धड़कते हुए उरोजों का मदमस्त उतार-चढ़ाव है, नाभि का भँवर है ?

वह कौन है जिसके बल पर युवतियों के पाँवों में बंधी पैंजनियाँ अपनी जरा सी रुनझुन से मुनियों के मन को भी मोहित कर लेती हैं ?

स्त्रियों में ही क्यों, पुरुषों के वृषभ कन्धों, लाल आँखों, विशाल छातियों एवं प्रलंब भुजाओं में वही तो निवास करता है।

वह कहीं दिखता क्यों नहीं ?

वह कौन है जिसकी शक्ति से युवक, वृद्ध, राजा, रंक सभी बौराये हुए हैं ?

वह कौन है जिसने संयम से सुदृढ़ सेतु ढहा दिए हैं ? जिसके प्रकोप से पीड़ित होकर पुत्र अपनी जननी को निशंक होकर कहते हैं, ‘तू अपनी बहू के पाँव की जूती की होड़ भी नहीं कर सकती।’

वह कौन है जिसके गुलाम होकर भ्रमर रात को कमल में बद्ध हो जाते हैं ? जिसका बल पाकर पुरुष स्त्रियों को नख-क्षत कर उनका मान-मर्दन करते हैं ? तब स्त्रियाँ अंगारों पर चढ़ी हुई हाण्डी की तरह उबलने लगती हैं।

वह कौन है जिसके वेग को रोकना उतना ही मुश्किल है जितनी उफनती हुई नदी के प्रवाह को ? जिससे आहत होकर मनस्वी जन ऐसे गिरते हैं जैसे बर्फ की खाई में खड़ा इंसान रपट कर गिरता है ?

वह कौन है जिसके वशीभूत होकर युवक युवतियों की अदाओं, शोखियों एवं चितवन की तुलना सैकड़ों मयखानों से करते हैं ?

वह कौन है जिसको प्राप्त करने के लिए यशस्वी पुरुष भी प्रेम पगे स्वरों में स्त्रियों की खुशामद करते हैं ? जिसके आँच में सुलगकर मनचले अपनी तीखी प्रेयसियों को मनाते हैं, ‘अब कब तक छुरियाँ चलाओगी ? तुम चरपरी हरी मिर्च ही सही पर देवी! तुम्हारे बिना हमारा जीना सम्भव नहीं है।’

वह कौन है जिससे पीड़ित होकर विरहणियाँ चिरप्रवास से आये पति को बाहों में जकड़कर कहती हैं, ‘तुम्हारे साथ रूखी-सूखी ही भली पर तुम्हारे बिना चुपड़ी रोटी भी बेकार लगती है।’

वह कौन है जिसका सामीप्य पाकर पुरुषों की देह में बिजलियाँ सनसनाने लगती हैं। जिससे तृप्त होकर स्त्रियों की कली-कली खिल जाती है, नस-नस में मिश्री घुल जाती है।

वह कौन है जिसके प्रथम अहसास भर से अल्हड़ युवकों के पाँव जमीन पर नहीं पड़ते, युवतियाँ तितलियों की तरह उड़ने लगती हैं ?

वह कौन है जिससे पीड़ित होकर चतुर स्त्रियाँ अनुभवी पुरुषों को कहती हैं, ‘रात सीधे मेरे शयनकक्ष में चले आना, मैं दरवाजा खुला रखूंगी।’

वह कौन है जिसकी शक्ति से कठिन से कठिन कार्य सिद्ध हो जाते हैं ? जो प्रेमियों का मदप्रणय है, राजनेता जिसके गुलाम हैं, मुनियों के तप को जो नष्ट कर देता है, स्त्रियों के सत्व का हरण कर लेता है, जिसने सारे जगत के विवेक को पंगु बना दिया है?

समुद्र मंथन के समय राक्षस अमृत पा गए थे। अमृत का चषक लेकर जब वह भाग रहे थे तो देव त्राहिमाम् करने लगे। अगर राक्षस अमर हो गए तो धर्म गर्त में चला जायेगा। तब विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर राक्षसों पर ऐसा सम्मोहन किया कि असुरों ने बिना किसी प्रयास के अथक श्रम से प्राप्त अमृतकुंभ उस रूपगर्विता को यूँ दे दिया जैसे हीरे का मूल्य न जानने वाला गंवार उसे पत्थर समझकर फैंक देता है। मोहिनी के रूप, हाव-भाव एवं अदाओं में बसा, छल से राक्षसों को बिना प्रयास ही बरगला देने वाला-वह कौन है ? ऐसे विकट समय में धर्म की रक्षा करने वाला वह तत्व क्या धर्म का प्राण नहीं ? फिर क्यों उससे उन्मत्त लोगों को हम दुराचारी, व्यभिचारी एवं अनाचारी कहते हैं ?

वह कौन है जो अजंता, एलोरा की गुफाओं में मण्डित असीम सौन्दर्य से भरी प्रतिमाओं, कलाकार की कलाओं, कवियों की कल्पनाओं एवं ब्रह्मानंद में डुबो देने वाली संगीत की स्वर लहरियों में तात्पर्य रूप से छिपा हुआ है ? फूलों की सुगन्ध में छुपा हुआ वह तत्त्व कौन है ? शराब की मस्ती में छुपा हुआ वह नशा क्या है ? हवाओं की रागिनियों, वर्षा की बूंदों, उमड़ते हुए मेघों एवं इन्द्रधनुष के सप्तरंगों की छटा बिखेरने वाला-वह कौन है ?

वह कौन है जिसके बल पर प्रेयसियां अपने प्रेमियों की छवि, आँखों के रास्ते हृदय में उतारकर पलकों के किवाड़ बंद कर लेती हैं ?

वह कौन है जिसके बल पर मोर पंख फैलाकर नाच रहा है, कोयल कूक रही है, पपीहे गा रहे हैं एवं चकोर एकटक चन्द्रमा को तक रहे हैं ?

वह कौन है जिससे स्फूर्त होकर हिरण चौकड़ियाँ भरता हुआ हिरणी के समीप आ जाता है ? हिरण ही क्यूँ सारे पशु-पक्षी, नभचर, जलचर एवं थलचर उसी का बल पाकर बौराये हुए हैं। वही तो है जिसके बल पर मदमस्त हथिनियों को देखकर विशाल हाथी चिंघाड़ने लगते हैं।

कौन है जिसने भूपतियों के राज्य उलट दिये हैं ? जिससे भ्रमित होकर विद्वानों, मनस्वियों एवं ब्रह्मर्षियों तक ने अपना तेज, बल एवं यश खो दिया है ?

वह अदृश्य क्यों है ? जिसके बल पर प्रेमी अपनी प्रेयसियों को स्पर्श कर निहाल हो जाते हैं, उसका स्पर्श क्यों नहीं कर पा रहे हम ? कौन है जो हमारे दिल के रूमानी दरवाजे पर समय-असमय दस्तक देता रहता है ? कौन है जिसकी अकृपा हो जाये तो वृद्ध, साधु तक बलात्कार जैसे गंभीर अपराध कर लेते हैं, निष्ठावान एवं सती स्त्रियाँ अपना मान खो देती है ?

वह हमारी पकड़ में क्यों नहीं आता ?

हमे उसे जानना ही होगा।

भाग (2)

सहस्त्रों शताब्दियों पुरानी बात हे, त्रेता युग की। तब पृथ्वी पर तारक नाम के असुर का राज्य था। पृथ्वी ही नहीं स्वर्ग, पाताल एवं देवलोक तक में उसकी तूती बोलती थी। वह न सिर्फ एक दुष्ट दानव था, अत्याचारी, आततायी एवं धर्म का परम विरोधी भी था। अपनी भुजाओं के बल, प्रताप एवं तेज से उसने समस्त लोक एवं लोकपालों को जीतकर उन्हें सम्पत्ति एवं राज्य से च्युत कर दिया था।

ऋषियों, तपस्वियों एवं मनस्वियों पर वह अमानुषिक जुल्म ढाता। उनके यज्ञकुण्डों में विष्ठा, खून एवं मरे हुए जानवरों की अस्थियाँ डालकर उनका यज्ञ भंग कर देता। शक्तिशाली देवताओं एवं बह्मर्षियों तक को वह अपने रथ में जुतवा देता। वह अपराजेय था,देवता उसके साथ सभी तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गये। उसके आतंक से सभी दिशायें, आसमान, धरती एवं पाताल तक काँपने लगे थे। वह जब धरती पर चलता तो धरती डगमगाने लगती, आर्त होकर देवताओं से कहती, ‘असंख्य मनुष्यों, जीवों, वनस्पतियों, पर्वतों एवं समुद्रों तक का भार मैं सहज ही वहन कर लेती हूँ पर यह आततायी असुर जब मेरी छाती पर चलता है तो उसके भार से मैं डगमगाने लगती हूँ।”

तब देवताओं ने ब्रह्मा से अनुनय-विनय कर उन्हें इस असुर से त्राण दिलाने का निवेदन किया। ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा कि अखण्ड समाधिस्थ शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र ही तुम्हें इस समस्या से मुक्ति दिला सकता है। जब शिव-पार्वती का पुत्र कार्तिकेय जन्म लेगा, तभी तुम्हें इस असुर के अत्याचारों से मुक्ति मिलेगी।

लेकिन शिव तो समाधिस्थ थे। कौमार्या पार्वती उन्हें प्राप्त करने के लिए कठोर तप कर रही थी। शिव की समाधि टूटे तब तो न शिव-पार्वती का विवाह हो ?

शिव की समाधि तोड़ने का साहस तीनों लोकों के किसी देव में नहीं था। शिव की समाधि भंग करने का अर्थ था, साक्षात् मृत्यु। शिव कोप को वहन करने का अर्थ था-सम्पूर्ण विनाश। शिव-समाधि को भंग करने के विचार से ही सबको साँप सूंघ गया।

देवों की ऐसी दुर्दशा देखकर कामदेव ने इस दुरूह कार्य का बीड़ा उठाया। वे अच्छी तरह जानते थे कि शिव से विरोध करने में कुशल नहीं है तथापि सबके कल्याण के लिए मैं इस असाध्य कार्य को भी सिद्ध करूँगा।

दूसरों के उपकार से बड़ा धर्म क्या है ? जो जगत के कल्याण के लिए अपने शरीर को त्याग देता है उसी की तो यश, कीर्ति अक्षुण्ण है।

ऐसा सोचकर कामदेव अपना पुष्प धनुष कंधे पर रखकर रथ पर सवार हुए। उस समय मछली के चिन्ह से युक्त उनका ध्वज फर-फर लहरा रहा था।

कामदेव ने शिव-निवास, कैलाश की एक पहाड़ी के पीछे छिपकर अपने प्रभाव को फैलाया।

देखते ही देखते सारा संसार उसके अधीन हो गया। सभी कामपरवश हो गए। लताएँ कसकर पेड़ों की शाखाएँ से लिपट गयी। स्त्रियों ने पुरुषों को अपनी बाहों में जकड़ लिया। चराचर जगत के सभी जीव, जड़-चेतन, पशु-पक्षी काम के अधीन हो गये। कामदेव के कोप से पीड़ित होकर लोक मर्यादाओं के समस्त दुर्ग ढह गये। ब्रह्मचर्य, संयम, तप, योग, वैराग्य, धैर्य, सदाचार, विवेक, ज्ञान-विज्ञान, सद्ग्रन्थ पर्वतों की कंदराओं में जाकर छुप गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि एवं योगी तक काम पीड़ित हो गये। जब ऐसे मनस्वियों की यह दशा हो गयी तो पामर मनुष्यों के लिए क्या कहा जाये। मदन सर्वत्र अपने मद का ताण्डव करने लगा। कामदेव ने मृतप्रायः मनुष्यों तक में प्राण फूंक दिये।

अमोघवीर्य शिव अब भी समाधिस्थ थे।

अपना प्रयास असफल होते देख कामदेव किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया। उसने सोचा कि हारकर वापस जाने से जगत में अपयश प्राप्त होगा। अपयश सम्मानीय लोगों के लिए मृत्यु तुल्य है। निःसंदेह शिव समाधि को भंग कर मरण को वरण करना ही श्रेयस्कर होगा।

कुपित कामदेव ने तब अपनी अमोध शक्तियों का उपयोग किया। दो पल आँखें मूंदकर सर्वप्रथम उन्होंने बंसत ऋतु का प्रादुर्भाव किया। देखते ही देखते वृक्ष, लतायें, वन-वाटिका सभी कुसुमित हो गये। शीतल, मंद सुगंधित पवन बहने लगी। पहले से कामातुर जगत को बसंत के प्रादुर्भाव ने अग्नि में घी का कार्य किया।

निर्विकार, निर्लिप्त शिव अब भी अविचल एवं अडिग थे।

हताश कामदेव ने अपने अंतिम अस्त्रों का अवलंब लिया। वे शिव के अत्यंत समीप आ गए। अपने तूणीर से रूप, रस, शब्द, स्पर्श एवं गंध के एक-एक बाण निकालकर उन्होंने अपने पुष्प धनुष पर चढाये एवं देखते ही देखते शिव पर छोड़ दिये। बाण छोड़ते समय हर बार उसने प्रत्यंचा को कानों तक खींचा ताकि प्रत्येक प्रहार सटीक हो।

शिव की समाधि में अब व्यवधान उपस्थित हुआ। 

कुपित शिव ने अपने दोनों नेत्र खोले। उनकी आँखों के तेज एवं क्रोध को देखकर कामदेव ने भागकर पेड़ एवं लताओं की ओट ली लेकिन सर्वव्यापी शिव की नजरों से वे कैसे छिपते? शिव ने ललाट के मध्य स्थित अपना तीसरा नेत्र खोला जिसके तेज और जाज्वल्यमान लपटों ने कामदेव को वहीं भस्म कर दिया।

क्षणभर के लिए समय ठहर गया। कामदेव के भस्म होते ही कामातुर जगत अपनी पूर्व स्थिति में इस तरह आया जैसे नशा उतरने पर शराबी अपनी सामान्य स्थिति में आता है।

कामदेव की पत्नी रति अपने पति के विनष्ट होने का समाचार सुनकर मूर्च्छित हो गयी। होश में आने पर वह शिव चरणों में गिरकर विलाप करने लगी। ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं ने भी महादेव को देवों के अभीष्ट से अवगत करवाया एवं रति पर कृपा करने हेतु विनम्र प्रार्थना की।

शिव, जो कल्याणकारी हैं।

शिव, जो महेश्वर हैं।

शिव, जिनके अधीन होने पर वक्र चन्द्रमा भी जगतवंद्य हो जाता है।

शिव, जो अमंगलवेषधारी होने पर भी मंगल की राशि हैं।

शिव, जिनके सर पर सुशोभित होकर श्मशान की अपवित्र राख भी पवित्र हो जाती है।

शिव, जो शरणागतवत्सल हैं।

शिव, जो शीघ्र प्रसन्न हो जाने वाले आशुतोष’ हैं।

शिव, जो मुँह मांगा देने वाले ‘अवढ़रदानी’ हैं।

तब शिव ने विलाप करती हुई रति को अभयदान दिया, ‘तुम निराश न हो देवी! तुम्हारा पति अब बिना शरीर ही सबको व्यापेगा। वह हर समय, हर युग में अपना प्रभाव प्रगट करेगा। बिना देह ही वह अजर होगा, अमर होगा।’

शिव के वरदान से कृतार्थ रति तब जड़-चेतन सभी के हृदय में इस आशा से प्रविष्ट कर गयी कि जब भी उसके विदेह पति इन प्राणियों के हृदय पटल पर दस्तक देंगे, वह उनका प्रयोजन सिद्ध करने में उन्हें सहयोग करेंगी।

भाग (3)

आज भी बिना पाँवों के वह जब चाहे हमारे शयनकक्षों में चला आता है। बिना कानों के हमारी रसभरी बातें सुनता है। बिना देह हमें स्पर्श करता है।

रति उसको सहयोग कर जीवन के नये अंकुर स्थापित करती है।

बिना अंग ही वह सबमें व्याप्त है।

अनंग है वह।

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06.08.2005

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