सहस्रों वर्ष पुरानी कथा है।
तब पृथ्वी को सुचारू रूप से चलाने के लिए परमात्मा ने ब्रह्मा को ऐसा प्राणी सृजन करने का निर्देश दिया जिसके उन्मुक्त हाथ पैर हों, अन्य जीवों से अच्छी बुद्धि हो, जिसमें विवेक हो तथा जो ईश्वर भीरू हो। परमपिता की आज्ञा शिरोधार्य कर ब्रह्मा ने रात-दिन श्रम कर मनुष्य का सृजन किया। मनुष्यों में भी सर्वप्रथम उन्होंने ब्राह्मण, तत्पश्चात उनकी रक्षा के लिए क्षत्रिय एवं अंत में उनकी सेवा के लिए शूद्रों का सृजन किया। इसके बाद ब्रह्मा कालरात्रि में विश्राम करने चले गए।
अनेक वर्ष पश्चात् काल दिवस के प्रथम चरण में वे जागे तो पृथ्वी पर त्राहिमाम् मचा हुआ था। विकट समस्या देखकर उन्होंने स्वर्ग से चित्रगुप्त को बुलाया। चित्रगुप्त ब्रह्मा की सेवा में उपस्थित हुए एवं श्रद्धावनत अपना मस्तक झुकाकर खड़े हो गये। तब ब्रह्मा विकल होकर बोले, ‘चित्रगुप्त! सत्,रज एवं तम तीनों गुणधर्मा मनुष्यों का सृजन कर मैंने पृथ्वी पर भेजा फिर पृथ्वी पर हाहाकार क्यों? इसके अतिरिक्त किसी भी गुणधर्म का सृजन तो असंभव है?’
चित्रगुप्त मस्तक ऊपर कर बोले, ‘प्रभु! आपके गुण धर्म में कहीं त्रुटि नहीं है। ब्राह्मणों ने अपने गुण अनुसार सत्य साधना की, क्षत्रियों ने उनकी रक्षा की एवं शूद्रों ने दिन रात एक कर उनकी सेवा की। सभी ने आप द्वारा आवंटित कार्य पूरी कुशलता से किया।’
‘फिर पृथ्वी पर इतनी अव्यवस्था कैसे हो गयी?’ ब्रह्मा विस्मय से बोले।
‘प्रभु! पृथ्वी के संचालन के लिए व्यावसायिक निपुणता की भी आवश्यकता है ताकि एक दूसरे की जरूरतें आपसी विनिमय से पूरी हो सके। कुछ ब्राह्मणों ने यह कार्य करने का दुस्साहस किया तो वे सत्यपथ से भटक गये। उन्हें वेद, उपनिषद् तक गिरवी रखने पड़ गए। क्षत्रियों ने यह दुस्साहस किया तो उनके तलवार की धार भोंथरी हो गयी। कई क्षत्रिय दिवालिया हो गये। लेखा-जोखा की गणित साधने में उनका सर गरमा गया, कुण्ठा में तलवारें खिंच गयी। कई शूद्रों ने भी इसका प्रयास किया पर वे भी औंधे मुँह गिरे। उन्होंने कुछ धन इकट्ठा किया तो ब्राह्मणों ने उन्हें श्राप का एवं क्षत्रियों ने तलवार का डर बताकर सारा धन लूट लिया। पृथ्वी पर इस समय ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो इस विनिमय व्यापार को संभाल सके। इस गुण के अभाव में सभी वर्ण अपने-अपने पथ से भटक गये हैं। सर्वत्र अराजकता का साम्राज्य हो गया है, त्राहि-त्राहि मच गई है।’ कहते-कहते चित्रगुप्त के मुख पर पसीने की बूँदें उभर आयी।
इतना सुनते ही ब्रह्मा की ललाट पर तीन रेखाएँ खिंच गयी। कुछ पल ध्यानस्थ होकर वे गंभीर चिंतन में डूब गये। उनके चेहरे पर कई तरह के भाव उभरने लगे। कभी उनके चेहरे पर ब्राह्मणों का तेज दिखता तो कभी क्षत्रियों का दर्प। अनेक बार उनके मुख पर शूद्रों का सेवा भाव तैरने लगता। कभी उनके मुख पर कुटिल मुस्कराहट फैल जाती तो कभी उनके आनन पर चातुर्य के भाव उभर आते। उनके चेहरे का रंग भी प्रतिक्षण बदलने लगता। कभी चेहरा ऐसा नीला पड़ जाता मानो उन्होंने विषपान किया हो तो कभी चेहरा क्रोध से लाल हो उठता। कई बार चेहरे पर काली रेखाएँ उभर आती तो कभी चेहरे का रंग पहचानना भी मुश्किल होता। ब्रह्मा के इस असमंजस को देखकर चित्रगुप्त ठगे से रह गये। बदहवास हाथ जोड़कर उन्होंने आँखें मूंद ली।
कुछ देर पश्चात् ब्रह्मा की समाधि टूटी। उनके चेहरे पर एक चातुर्य भरी कुटिल मुस्कराहट फैल गयी। अपनी आँखों को ऊपर-नीचे घुमाते हुए वे बोले, ‘चित्रगुप्त! अब समस्या का समाधान हो गया है। मैंने ऐसे प्राणी का सृजन कर लिया है।’
‘वह कैसे प्रभु! इन तीन गुण धर्मों के अतिरित तो कोई गुणधर्म हो ही नहीं सकता?’ चित्रगुप्त विस्मय से बोले।
‘तुम ठीक कहते हो पुत्र! इसके अतिरित किसी भी गुणधर्म का सृजन असंभव है।लेकिन इनका मिश्रण तो संभव है।’अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी पर ऊपर से नीचे तक हाथ फेरते हुए ब्रह्मा बोले।
चित्रगुप्त के चेहरे पर शांत भाव तैरने लगा। उन्होंने नेति-नेति कहकर ब्रह्मा की स्तुति की। तब ब्रह्मा ने ब्राह्मणों से ज्ञान, क्षत्रिय से साहस एवं शूद्रों से सेवाभाव का गुण लेकर एक मिश्रण तैयार किया। इस मिश्रण को यज्ञ अग्नि में डालकर उन्होंने देवों एवं ब्रह्म ऋषियों का आह्वान किया। महादेव ने इस यज्ञकुण्ड में समुद्र मंथन के समय धोखे से पिलाया गया विष वमन किया, नारद ने चाटुकारिता एवं इन्द्र ने अवसरवादिता की आहुतियाँ दी। श्रीगणेश एवं उनकी भामिनियाँ रिद्धि-सिद्धि ने बुद्धि, चातुर्य एवं विवेक की समिधाएं अर्पित की। अंत में लक्ष्मी ने लाल कमल पर खड़ी होकर अपनी कृपा-दृष्टि का घी उड़ेला तो यज्ञकुण्ड भभक उठा। यह यज्ञकुण्ड शांत हुआ तो उसमें से एक पुरुष प्रगट हुआ। उसके एक हाथ में पोथी एवं दूसरे हाथ में कलम थी। ललाट पर वैष्णवी तिलक लगा था। माथे पर केसरी पगड़ी एवं शुभ्र वस्त्र पहने उस व्यक्ति की मुख मुद्रा ऐसी थी मानो सत्य, शौर्य एवं सेवा की त्रिवेणी बह रही हो।
वह पुरुष बाहर आकर ब्रह्मा के आगे नत हो गया। कुछ देर पश्चात् सर उठाकर उसने सभी देवताओं की वंदना की, तत्पश्चात ब्रह्मा के चरणों में दण्डवत् लेट गया। ब्रह्मा ने बड़े आदर से उसे उठाया, प्रेम से उसके सर पर हाथ रखा एवं उसकी ओर देखकर बोले, ‘पुत्र! तुम अनंतगुणी एवं अनेक विधाओं से परिपूर्ण होंगे। तुममें ब्राह्मणों का तेजांश होगा। कभी-कभी तुम क्षत्रियोचित साहस एवं शूद्रों जैसा सेवाभाव भी प्रदर्शित करोगे। तुममें नारद-सी चाटुकारिता एवं इन्द्र जैसी अवसरवादिता होगी। यज्ञकुण्ड में महादेव के विष वमन करने के कारण तुम्हारे हृदय में धोखे का विष भी होगा। बुद्धि, विवेक एवं चातुर्य जैसे गुण तुम्हारे चरण चूमेंगे। लक्ष्मी की तुम पर सदैव कृपा रहेगी। व्यावसायिक निपुणता, धनार्जन एवं धनसंचय में तुम्हारी बराबरी कोई नहीं कर पायेगा। धन की शक्ति से तुम ब्राह्मणों का तेज हर लोगे, क्षत्रियों की राजनीति तुम्हारे आगे पंगु हो जायेगी एवं शूद्र तुम्हारी गणित के गुलाम बन जायेंगे। तुम्हारे त्रास से प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठेगी। किसान तुम्हारे चक्रवृद्धि ब्याज की पाश से पीढ़ियों तक नहीं निकल पायेंगे। सतयुग से कलियुग के आते-आते तुम उत्तरोत्तर बली होते जाओगे। कलियुग के अंतिम चरण में सर्वत्र तुम्हारा साम्राज्य होगा। समस्त गुण तुम्हारे ही अधीन होंगे। हे अनंतगुणी! मैं तुम्हें ‘वणिकपुत्र’ नाम देकर पृथ्वी पर भेज रहा हूँ, तुम्हारा कल्याण हो।’ इतना कहकर ब्रह्मा अन्तर्ध्यान हो गए।
ब्रह्मा के आदेश से ‘वणिकपुत्र’ पृथ्वी पर चला आया। कुछ वर्षों में ही उसने अपनी व्यवहारपटुता से पृथ्वी का सारा कारोबार संभाल लिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं शूद्र तीनों उसकी बुद्धि का लोहा मान गये। अपने कौशल एवं चातुर्य से उसने धन के भण्डार भर लिये।
शताब्दियाँ बीत गयी। सतयुग, त्रेता एवं द्वापर ने भी दम तोड़ दिया। कलियुग के आगमन के साथ वणिकपुत्र उत्तरोत्तर शक्तिशाली होता गया। सर्वत्र धन की ही महिमा रह गयी। ‘वणिकपुत्र’ ब्राह्मणों के तेज, क्षत्रियों के शौर्य एवं शूद्रों के सेवाभाव को शनैः शनैः अजगर की तरह निगल गया।
ब्रह्मा का वरदान भला कैसे निष्फल जाता?
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24.04.2005