सूर्य अंगड़ाई तोड़ते हुए क्षितिज से काफी ऊपर उठ आया था। सर्दियों में लोग अजगर की तरह निश्चेष्ट पड़े रहते हैं। रईस लोग मर्जी आए तब उठें, कामगारों को तो दिहाड़ी की चिंता ही उठा देती है।
हर रोज की तरह गोविन्द ने लकड़े की पेटी कंधे से उतारी और अपनी छोटी-सी दुकान के आगे रख दी। पेटी रखते-रखते उसका पतला शरीर इतना झुक जाता कि उसके पीठ की हड्डियाँ साफ नज़र आती। सर्दी हो या गर्मी वह सदैव खादी की जैकेट पहनता जिसके आगे दो बड़ी-बड़ी जेबें होती। इन जेबों में जाने क्या-क्या भरा होता ? नीचे हमेशा वह घुटनों के ऊपर तक धोती पहनता जो जगह-जगह से फटी होती। उसके पिचके गाल घनी लम्बी काली दाढ़ी के नीचे छिप जाते। वह चालीस के पार ही होगा, पर सर पर अब भी घने काले घुंघराले बाल थे। ऊँची ललाट, काली चमकती आँखें एवं तीखी नाक उसके व्यक्तित्व को एक अलग आयाम देते।
उस जगह को दुकान कहना लाजमी नहीं होगा, वह तो बस्ती के बाहर शहर को जाती हुई सड़क के किनारे चार फुट गुना चार फुट की एक जगह थी जिसके तीन ओर गोविन्द ने दो-दो फुट की ईंटों की कच्ची दीवार बना दी थी। दीवारों के बीच बनने वाले छोटे-से आंगन पर गोविन्द ने दो इंच ऊँचा एक चौकोर पत्थर रख दिया था, वहीं बैठकर वह दिनभर बस्ती के लोगों के जूते ठीक किया करता। लकड़ी की पेटी भी उसी ने बनाई थी। किसी ठूंठ को चीरकर आठ-दस पट्टियाँ बराबर काट ली, कीलें ठोकी और पेटी तैयार। पेटी के ऊपर काले रंग का लम्बा चमड़े का पट्टा लगा था, यह पट्टा भी उसी ने बनाया था, इसी से वह पेटी कंधे पर लटकाकर लाता ले जाता था।
वर्षों पहले जूते टाट में बांधकर वह यहीं छोड़ जाता था। भला जूते भी कोई क्या चोरी करे और यहाँ कौन से शहरी बाबुओं के जूते चप्पल आते जो महंगे होते हैं, पर एक रात इतना मेह पड़ा कि जूते और टाट सब बह गए। तब लोगों ने गोविन्द को आडे़ हाथों लिया। लोगों को इससे अच्छा अवसर और कब मिलता ! फकीरों का क्या धर्म। हर खोने वाले ने अपने जूते कीमती बताकर महिनों उससे मुफ्त में जूते ठीक करवाए। तब गोविन्द को अक्ल आई। विवश पेटी बनानी ही पड़ी।
पत्थर को साफ कर गोविन्द वहीं बैठ जाता। पेटी को खोलकर वह उसमें से कई सारे जूते निकालता और अपने दोनों ओर जमा देता। पेटी में से एक-एक कर औजार निकालता, एक छोटी हथौड़ी, कीलें ठोकने का लोहे का दस्ता, गोल लकड़ी में फँसा हुक एवं चमड़े की तल्लियां आदि-आदि। फिर अंगूठे से धागा बांधकर मोम से मजबूत करता। मोम के दो-चार डले उसकी जेब में ही होते। बस यही उसकी कुल पूंजी थी पर वह कहता अपने आपको मालिक था।
दुकान जमाते ही वह सबसे पहले अपनी पगड़ी में से बीड़ी का पैकेट निकालता, एक बीड़ी सुलगाता, चार-पांच लम्बे कश लेता, लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरता एवं काम शुरू। उसके बाद दिन भर कीलें ठोकते हुए, जूते सीते हुए या पाॅलिश करते हुए नजर आता। तब जूते कम लोगों को ही नसीब होते थे और फिर इस कच्ची झौपड़पट्टी में कौन-से साहब बसते थे। इस बस्ती में कोई दो सौ से ऊपर झोंपडे़ होंगे। सर्वत्र विपन्नता का साम्राज्य था। बस्ती शहर से कोई पाँच किलोमीटर पर होगी। बस्ती में अधिकतर कामगार, मजदूर, छोटे काश्तकार थे जो जैसे-तैसे गुजर करते। अधिकतर लोग अनपढ़ थे एवं उनका शैक्षिक एवं नैतिक विकास नगण्य था। न किसी को पहनने-ओढ़ने का सलीका था न बात करने का। लोगों के रूखे-सूखे चेहरे यही बताते मानो गरीबी की चादर ओढे़ एक बस्ती जी रही हो। सौ में से एकाध घर में कभी कोई चार पैसे कमा भी लेता तो बाकी सब उसको श्राप देते रहते या ऐसी तिकड़म बिठाते कि उसका पैसा कपूर की तरह उड़ जाता। साम्यवाद के सैलाब में पूंजीवाद के बीज बोते ही बह जाते।
अक्सर त्यौहारों के इर्द-गिर्द सबकी अच्छी कमाई होती। तब बस्ती के आधे मर्द सड़क पर ताड़ी पीकर पड़े मिलते। घर में भूजी भांग नहीं, पर ताड़ी पीना जरूरी था। पैसा उनकी जेबों को काटता। किसी को भविष्य की चिंता नहीं, आत्मगौरव की परवाह नहीं। भला नंगों से कोई क्या लेगा ? औरतें कौन सी कम थी – मर्द बाहर होते तो मिल बैठकर ताड़ी मार लेती, कुछ सयानी औरतें पराये मर्दों पर भी मुंह मार लेती। पता चल भी जाता तो एकाध दिन दोनों मर्दों में झगड़ा होता। दूसरे दिन दोनों ताड़ी पीकर रबड़ते फिरते। यह एक आम जिन्दगी का हिस्सा था। हमारे देश में दो ही तबके स्वातंत्र्य को चरम पर जीते हैं- एक अमीर एवं उच्च पदासीन लोग जिनकी इज्जत पर कोई हाथ नहीं डाल सकता और एक दरिद्र जिसे इज्जत आबरू की चिन्ता ही नहीं।
दस में से आठ लोग गोविन्द को काम के पैसे नहीं देते, न ही वह मांगता। लोग उसे फुसलाते रहते- ‘भला एक दो कील ठोकने एवं एक दो टाँकें मारने का भी कोई पैसा लेता है। अभी गोविन्द इतना गिरा नहीं है।’ गोविन्द सब समझता पर मन मसोस कर रह जाता। हर एक से पैसे मांगना उसके खुद के बस में नहीं था। फिर कोई थोड़ी सी तारीफ कर दे, गोविन्द के पैसे वसूल।
तब मैं मात्र दस वर्ष का था। मेरे चप्पल भी गोविन्द ही ठीक करता। मेरे क्या सारे घर के गोविन्द ही ठीक करता था। लेकिन मेरे उसके बीच एक अजीब-सा नाता था। करीब दो वर्ष पहले उसके मेरी ही उम्र का एक बच्चा गुजर गया था , न जाने क्यों वह मुझमें उसकी प्रतिकृति देखता था। जब भी मैं मेरे या बाबा के चप्पल ठीक करवाने जाता, वह मुझे बलात् वहाँ रोक लेता। सारा काम छोड़कर बनिये की दुकान से टाॅफियाँ लाता, मेरे हाथ में देकर स्नेह से मेरे सर पर हाथ फेरता। उसकी अनुराग भरी आँखों से वात्सल्य के मोती टपकने लगते , ‘आज किशना होता तो तेरी उम्र का होता !’ कहते-कहते उसकी आँखों से रोष टपकने लगता, हृदय में फँसा कोई शूल हिलने लगता, ‘भगवान बुरा करे इन मोटर वालों का ! कब कुचलते हैं और कब भाग लेते हैं पता ही नहीं चलता। आँखें हैं पर अंधे हैं, गरीब की जान की कोई कीमत नहीं।’
‘टाॅफी बहुत अच्छी है !’ टाॅफी का रेपर फैंकते हुए मैं बोलता। बस इतना कहते ही उसका रोष घुल जाता, ‘बिटुवा को टाॅफी अच्छी लगी, पैसे वसूल !’ उसकी आंखें चमक उठती।
स्कूल से आते हुए उसकी दुकान रास्ते में ही होती। मैं जब भी वहां से निकलता गोविन्द को नमस्ते करता, ‘बाबा नमस्ते!’ गोविन्द काम को दो पल वहीं छोड़ देता, ‘आ गए बिटुवा!’, फिर मेरे भारी बस्ते की ओर देखकर कहता, ‘यह सरकार सठिया गई है। बच्चों के दिमाग में तो कुछ भरते नहीं बस बस्ते भरते जाते हैं।’ फिर मेरी चप्पलों की ओर देखकर कहता, ‘अरे यह चप्पल तो फट गई है, मैं इसे सी देता हूँ।’ चप्पल मेरे हाथ में देते हुए कहता, ‘अब तेरे बाप को बोलकर जूते की जोड़ी क्यूं नहीं खरीद लेता, टनाटन साहब लगेगा। अब तो उसका काम भी ठीक चलता है, बस्ती के लोग वहीं कपड़े सिलवाते हैं।’ फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर कहता, ‘अरे! तेरी तो ललाट देखकर कह सकता हूँ, एक दिन साहब बनेगा। ऐसा करना पुलिस अफसर बन जाना। यह दुनिया डण्डे की भाषा ही समझती है।’
उस दिन घर आकर मैंने जूते लेने की जिद पकड़ ली। पिताजी का गुस्सा तेज था, माँ पर ही बस चलता, ‘अम्मी अब मुझे जूते दिलवा दो, स्कूल में कई बच्चे जूते पहनकर आते हैं।’ मुझे मालूम था मैं झूठ बोल रहा हूँ पर जूते पहनने का प्रलोभन मेरे सर चढ़ा था। स्कूल में कच्ची बस्ती के ही बच्चे पढ़ते थे। आधे से ऊपर तो नंगे पाँव ही आते थे, सबकी ड्रेस बिना प्रेस की होती। जूते तो मात्र बगरू चाचा का पुत्र पहनकर आता था। बगरू चाचा सरकार में चपरासी थे। सब उसके जूतों को टुकर-टुकर देखते।
न जाने इस बार पिताजी ने माँ की बात कैसे सुन ली। एक दिन स्कूल से घर आया तो कहा, ‘चल! तुझे जूते दिलाकर लाता हूँ।’ मेरी बाँछें खिल गई। दुकान वाले ने बहुत अच्छी-अच्छी जोड़ियाँ बताई पर पिताजी ने सबसे सस्ती जोड़ी खरीदी। बहुत देर दोनों में भाव-ताव हुआ। एक बार तो पिताजी ने जोड़ी पटक दी, ‘अब देना है तो दे, और कई दुकानदार शहर में बैठे हैं।’ मेरा दिल बैठ गया, चेहरे पर जर्दी छा गई। दुकानदार ने मेरी और देखा फिर न जाने क्या सोचकर पिताजी की बात मान गया। उस दिन जूता पहनकर घर आते हुए मुझे जो खुशी मिली, उसका बयान नहीं कर सकता।
दूसरे दिन स्कूल से आते हुए मैं फिर गोविन्द के पास रुक गया। मुझे देखकर वह लगभग चीख पड़ा, ‘अरे! आज तो नये जूते पहनकर आया है, देखूं तो!’ मैंने जूते खोलकर उसे दिखाए। उसके होठों पर मुस्कराहट फैल गई। कितना विमल, विशुद्ध हृदय था उसका, अपनों की खुशी में समरस हो जाने वाला। देखते-ही-देखते उसने पाॅलिश की डब्बी निकाली एवं जूतों को चमका दिया। मुझे बिठाकर खुद अपने हाथों से जूते पहनाए एवं तस्मे बाँंधे, ‘अब लगे न साहब!’ उसने हँसते हुए कहा। मैं जाने लगा तो उसने पुकारा, ‘बिटुवा, जरा रुकना तो!’ फिर अपने हाथों को गमछे से पोंछकर पेटी में से एक लोहे का टिफिन निकाला। वह रोज इसी में खाना डालकर लाता था। डिब्बा खोलते ही मैं चहक उठा। गोविन्द की आँखों की चमक भी देखने लायक थी, ‘गुलाब जामुन खाओगे !’ शायद यह गुलाब जामुन उसने मेरे लिए बचाकर रखा था। मैंने चट से गुलाब जामुन पेट में उतारा। पेट में जाते ही उपकृत जिह्वा ने धन्यवाद दिया, ‘बाबा! तुम बहुत अच्छे हो।’
‘अब रहने भी दे !’ कहते हुए वह मेरे सर पर हाथ फेरने लगा, ‘किशना को भी गुलाब जामुन बहुत भाते थे।’ यह कहते-कहते उसने खींचकर मुझे अंक में भर लिया। उसकी सांसों के उतार चढ़ाव से एक मूक ध्वनि आ रही थी , तुम भी तो मेरे किशना हो।
गोविन्द पूरा दत्तचित होकर कार्य करता। उसका कौशल एवं हस्तलाघव अद्भुत था। कई बार तो उसके आगे से बारात तक निकल जाती, उसे पता तक नहीं चलता। एक बार सुबह से कह रहा था, आज शाम नगर सेठ के बेटे की बारात निकलेगी तो जी भर कर देखूंगा। बारात आने के ठीक पहले भीखू एक जोड़ी लेकर आया जो पूरी बेकार हो चुकी थी। दोनों जूते हर तरफ से फट गए थे। गोविन्द ने जूतों को उलट पुलट कर देखा व सर पीट लिया, ‘अब दया कर जूतों पर भीखू! यह जोड़ी ठीक नहीं हो सकती। फेंक दे इन जूतों को।’ भीखू कौन-सा कम था, उसकी रग-रग से चतुराई टपकती थी। आँखें तरेर कर बोला, ‘धिक्कार है तेरे हुनर पर गोविन्द! सारा मोहल्ला तो कहता है कि गोविन्द वह जूता ठीक कर देता है जो कोई नहीं कर सकता।’ बस यही बात गोविन्द को लग गई। गोविन्द ने बीड़ी सुलगाई। चार लम्बे कस लिए एवं मोर्चा बाँध लिया। दत्तचित होकर जूतों पर लग गया। बैण्ड वाले बैण्ड बजाते चले गए, हाथी घोड़ों और बारात का शोर भी गोविन्द के कानों पर नहीं पड़ा, बस गोविन्द और कर्म-कौशल एक लय हो गया। दो घण्टे में जोड़ी तैयार हो गई पर बारात देखने की उसकी इच्छा धरी रह गई। जो ध्यानावस्था बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है, निर्लिप्त गोविन्द उसे सहज ही प्राप्त कर लेता था। सच ही है कर्म-कौशल की उत्कृष्टता पर ध्यानावस्थित कर्ता योगी बन जाता है।
मेरा जूता छः महीने बाद ही काटने लगा। बढ़ती उम्र में भला जूते कितने चलते। अब पिताजी तो क्या माँ से भी कहने की मेरी हिम्मत नहीं थी। स्कूल से आता तो जूते खोलते हुए पाँव में तेज दर्द होता, कुछ रोज बाद फफोले पड़ गए। तब मैं गोविन्द के पास गया। उस दिन तो गोविन्द भी हँस पड़ा, ‘अरे बिटुवा! हम तो जूते छोटे कर सकते हैं, बडा़ तो कोई नहीं कर सकता।’ तब मेरी आँखों से आँसू ढुलक पड़े, ‘अब बाबा जूते नहीं दिलाएंगे’, मैं रुआंसा होकर बोला। उस दिन गोविन्द काम छोड़कर उठ खड़ा हुआ। मेरा मुँह अपने दोनों हाथों के बीच लेकर बोला, ‘अरे बिटुवा! वो बाबा नहीं दिलाएंगे तो गोविन्द बाबा कौन-सा मर गया है? भला ऐसी कौन-सी जोड़ी है जिसे गोविन्द लम्बा न कर सके। ऐसा कर! तू तीन घण्टे बाद आना।’ उस दिन गोविन्द ने तीन घण्टे मेहनत कर मेरे जूतों के तल्लों में एक-एक टुकड़ा जोड़ा। तल्ले के ऊपर पूरी बारीकी से चमड़ा चढ़ाया फिर रंग करके जोड़ी ऐसी चमकाई कि पता भी न चले जूता कहाँ से जोड़ा है। जूता पहनते ही मेरी बांछें खिल गई। मेरा खिला चेहरा गोविन्द का पारितोषिक था।
गोविन्द कभी-कभी ताड़ी भी मार लेता। ताड़ी चढ़ते ही उसे किशना की याद आती। वैसे भी इस दुख से उसकी छाती जलती रहती। ताड़ी का नशा हृदय की भट्टी को और सुलगा देता। वह आने-जाने वाली मोटरों को कोसने लगता। फिर मरते-घुड़ते-बड़बड़ाते हुए अपने झौंपड़े में पहुँचता। वहाँ सारा गुस्सा अपनी लुगाई पर निकालता, ‘करमफूटी! एक पूत जना उसे भी परलोक भिजवा दिया। अब तू ही देना आग मेरी चिता को। तीनों बेटियाँ तो गई ससुराल।’ खाली घर उसे काटने को दौड़ता। किशना का दुख उसकी आत्मा का नासूर बन गया।
बद्रीनाथ यात्रा गोविन्द के जीवन का चिरस्वप्न थी। पर इतने पैसे कहां से आते। घर गृहस्थी के अंधेरे कुएँ में पड़ा गरीब तीर्थ कैसे करे ? तीनों बेटियों की शादी में ही वह खाली हो गया। एक बार मैं उधर से निकला तो देखा गोविन्द ने दिन में ही चढ़ा रखी थी। मुझे देखते ही उसने पुकारा, ‘ओ किशना!’ फिर एकाएक उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। नाम बदलकर बोला, ‘ओ बिटुवा! कैसे हो?’ मैं चुपचाप उसके पास आकर बैठ गया। उसने फिर मेरे पाँवों से जूते उतारे एवं पाॅलिस कर मुझे वापस पहनाने लगा। पहनाते हुए बोला, ‘मेहनताना तो तुम देते नहीं! बस बद्रीनाथ तुम्हीं करवा देना। मेरे तीरथ का सारा पुण्य तुम्हें दे दूंगा।’ न जाने उस दिन मुझे भी क्या सूझी, उस दिन मैं बहुत खुश था। गोविन्द के निरंतर अहसानों ने ने मेरे बाल हृदय को उसके उपकारों से लबालब कर दिया था। मैंने उसके गंदे काले हाथ की हथेली पर मेरा नन्हा-सा हाथ रखा और कहा, ‘बाबा! मैं बड़ा होकर आपको बद्रीनाथ करवाऊंगा।’ गोविन्द हतप्रभ रह गया। प्रेम के उद्रेक एवं आनन्दपरवश उसकी आँखों में आँसू नाचने लगे। अपनी दूसरी हथेली से मेरे नन्हे हाथ को दबाते हुए वह बोला, ‘सच! क्या तू मुझे बद्रीनाथ ले जाएगा ?’ मैंने पूरे विश्वास के साथ कहा, ‘वचन, गोविन्द बाबा !’ गोविन्द के रुके हुए आँसू फूट पड़े, सारा चेहरा आँसुओं में नहा गया। उसका चेहरा देखते बनता था मानो आनन्द और विश्वास की अविरल धाराएं उसके पुत्र संतप्त हृदय का अभिषेक कर रही हो। मेरा नन्हा हाथ अब भी उसकी दोनों हथेलियों के बीच था। उसके ऊपर भी एक अदृश्य हाथ मेरे वचन की तस्दीक कर रहा था।
उस दिन घर पहुँचा तो मामा देहरादून से आकर बैठे थे। मुझे देखते ही बोले, ‘कब से तेरी राह तक रहा हूँ। सुना है आजकल बस्ती में दिन भर रबड़ता रहता है।’ मैंने आगे बढ़कर उनके पाँव छुए। मैं सीधा माँ के पास रसोई में गया। मामा आने का मतलब था पेठे की मिठाई एवं दाल मोठ का नमकीन घर में है। माँ मेरी आँखों की मौन भाषा समझ गई। हाथ में प्लेट पकड़ाते हुए बोली, ‘खाने को तो जुबान लपलपाती रहती है, मामा को प्रणाम भी किया या नहीं।’ मैं उत्तर देता उसके पहले ही वह चाय-नाश्ता लेकर मामा के पास जाकर बैठ गई। बहन-भाई का रिश्ता संसार के सुंदरतम रिश्तों में से एक है। मात्र भाई को देख लेने भर से बहन कितनी प्रसन्न हो जाती है। कितना पवित्र, कितना स्निग्ध नाता है यह। बाबा बीच-बीच में हूँ…..हूँ कर रहे थे। जब बहन भाई कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय ले रहे हो तो पति का इतना ही बोलना लाजमी है। यही वह समय होता है जब पत्नी अक्सर कहती है, ‘अब तुम क्या तो समझते हो।’ संसार की सारी समझ भी शायद भाई बहनों की बातों में सिमट जाती है। कुल मिलाकर उनकी बातों से मुझे इतना ही समझ में आया कि अब यहाँ से अन्न-जल उठ गया है। हमें बीकानेर छोड़कर देहरादून जाना है। मामा ने वहाँ नई काॅलोनी में बाबा के लिए कोई दुकान देखी थी। मामा बता रहे थे कि वहाँ काम का बहुत ‘स्कोप’ है। अगर सितारों ने साथ दिया तो तकदीर बदल जाएगी। आनन-फानन में देहरादून जाने का निर्णय हुआ।
झोंपड़े में रखा ही क्या था ? दूसरे दिन माँ और मामा सारे दिन सामान बाँधते रहे। मैं भी जब तब उनके काम में हाथ बंटाता रहा। पड़ौस के झोंपड़े में रहने वाले गिरधारी जुलाहे एवं उसकी बीबी ने भी माँ की बहुत मदद की। पूरे दिन गोविन्द से मिलने का भाव मेरे मन में घुड़घुड़ाता रहा पर उस दिन माँ और मामा का स्पष्ट आदेश था, ‘आज घर छोड़कर कहीं मत जाना !’
ट्रैन देर रात रवाना होती थी। हम सभी टैक्सी में सामान लादे रेलवे स्टेशन जा रहे थे। गोविन्द की दुकान रास्ते पर ही थी जो अब तक बंद हो चुकी थी। मैं तब तक उस दुकान को देखता रहा जब तक वह आँखों से ओझल न हो गई।
देहरादून पहुँचकर मैंने गोविन्द बाबा को पत्र लिखा जिसमें उनसे मिलकर नहीं आने के लिए माफी मांगी एवं मेरे नये घर का पता लिखा। कुछ रोज बाद गोविन्द का उत्तर आया। उस दिन मैं घर पर ही था, मैंने जुखकर पत्र उठाया। पत्र किसी और ने लिखा था, गोविन्द तो अनपढ़ था पर पत्र में लिखी बातें मेरे मन को भिगो गई- ‘…..बिटुवा मिलकर तो जाते….. अब तो जीने का आखिरी सहारा भी गया। अपनी सेहत का ध्यान रखना।’ प्रारंभ में ये पत्र पन्द्रह दिन में एक बार होते, फिर महीने में एक बार, फिर छः माही और अंत में पत्र भी बंद हो गए। बस, गिरधारी जुलाहे से प्राप्त पत्रों से ही गोविन्द का पता चलता।
समय अपने विशाल मुँह से दिन, महीनों एवं वर्षों तक को निगल जाता है। बीकानेर से आये बारह वर्ष होने को आए। न जाने कितने मौसम बदले, कितनी ऋतुएँ आकर चली गई। देहरादून आकर तो हमारी तकदीर ही बदल गई। नई दुकान जमाने में पिताजी ने जी तोड़ मेहनत की, दिन-रात एक कर दिए। फल श्रम का अनुसरण करते हैं। कारोबार दिन-ब-दिन बढ़ता गया। श्रम रूपी अग्नि का सम्पर्क पाकर गरीबी कपूर की तरह उड़ गई। माँ-बाबा ने मेरी शिक्षा में कोई कमी नहीं रखी। मैंने एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी में लग गया। एक ही धुन सवार थी, मुझे पुलिस अफसर बनना है।
‘रिजर्वेशन’ की बलिहारी वरना नौकरियों में बनिये-ब्राह्मणों के साथ नम्बर लगना असंभव है। मेरे साथ गोविन्द बाबा का आशीर्वाद भी तो था। मेरा पुलिस सब-इंसपेक्टर परीक्षा में चयन हुआ एवं पहली तैनाती फैजाबाद हुई। उस दिन मुझे गोविन्द की बहुत याद आई। उसके जैसे कर्मयोगी का आशीर्वाद कैसे निष्फल जा सकता था। मेरी इच्छा हुई मैं उड़कर बीकानेर पहुँचूं एवं यूनिफार्म में गोविन्द बाबा को सेल्यूट करूं। अब तक तो वह भी पचपन के पार होंगे। सारे बाल सफेद हो गए होंगे। अब किसे टाॅफिया खिलाते होंगे, किसके लिए गुलाब जामुन रखते होंगे। अतीत मेरे मन के आकाश पर पक्षी की तरह मंडराने लगा। इसी उधेड़बुन में मुझे मेरे वचन की याद आई।
मैंने अपने प्रथम तन्ख्वाह में से पाँच हजार रुपये का मनीऑर्डर बनाया एवं गोविन्द बाबा को एक लम्बी चिट्टी लिखी जिसके अंत में 18 जून को हर हाल में बद्रीनाथ पहुँचने का आग्रह किया। पत्र में मैंने बाल हठ के वहीं पैंतरे इस्तेमाल किए जो वर्षों पहले उनके साथ बैठकर करता था।….. बाबा! अगर आप नहीं पहुंचे तो मैं आपसे मिलने कभी नहीं आऊंगा। मैंने धर्मशाला इत्यादि का नाम एवं अन्य सारा ब्यौरा पत्र में लिख दिया। 2 जून को पत्र डाक में डालते समय मुझे मालूम था कि पत्र अधिकतम दो-तीन रोज में बीकानेर पहुँच जाएगा। 18 जून से 21 जून तीन रोज तक मेरा बद्रीनाथ में प्रथम प्रशिक्षण कैम्प था। इसी के मद्देनजर मैंने यह तारीखें तय की थी। पत्र भेजने के बाद मैं अत्यन्त प्रफुल्लित था। कर्ज चुकाने एवं वचन पूरा करने का आनन्द भी अलौकिक है।
18 जून को मैं निर्दिष्ट समय पर बद्रीनाथ में बताई धर्मशाला के बाहर पहुंचा, पर वहाँ गोविन्द नहीं था। मैं वहाँ चार बार गया, पर गोविन्द नहीं मिला। मुझे लगा, शायद कहीं और ठहर गया होगा। मैं अन्यमनस्क हो गया।
शाम बद्रीनाथ मंदिर के बाहर दर्शन करने वालों की भीड़ जमा थी। कोई दो-तीन हजार से कम दर्शनार्थी नहीं होंगे। मैं भीड़ में सबसे पीछे सादे कपड़ों में खड़ा था कि यकायक मंदिर के द्वार पर सबसे आगे गोविन्द को देखकर चीख पड़ा, ‘गोविन्द बाबा!’ जैसे मेघों को देखते ही मोर का रोम-रोम खिल उठता है, मेरा चेहरा भी गोविन्द को देखकर खिल उठा। वही कद काठी, ऊँची ललाट, वही तीखी नाक एवं घुंघराले बाल जो अब सफेद हो गए थे। कमर से ऊपर तक की बण्डी एवं घुटनों के ऊपर तक चढ़ी धोती। वही अदा वही हाव-भाव। संदेह की कोई गुंजाइश न थी। वो मुझसे काफी दूर था। पास ही खड़े एक भक्त के हाथों में दूरबीन थी। मैंने पलभर उससे दूरबीन लेकर दरवाजे की ओर देखा, वह गोविन्द ही था-हाथ में नारियल, प्रसाद एवं फूलों की माला लिये हुए। मैंने दूरबीन वापस देकर भीड़ को चीर कर आगे आने की कोशिश की पर भीड़ रास्ता ही न देती थी। तभी एकाएक दरवाजा खुला और गोविन्द अन्दर हो गया। ‘जय बद्री विशाल’ की आवाजों से सारा वातावरण गूँज गया। मुझे पूरा विश्वास था अब दर्शन के बाद गोविन्द से मिलना हो ही जाएगा। दर्शनों के लिए जाने का रास्ता अलग था एवं निकलने का अलग। लेकिन बद्रीनाथ कौन-सी बड़ी जगह है।
मैंने तुरत-फुरत दर्शन किए एवं दूसरे दरवाजे से बाहर आया पर गोविन्द नहीं दिखा। मैं दो-तीन घण्टे इधर-उधर ढूंढता रहा, कई धर्मशाला-होटलों में चक्कर मारे, पर वह नहीं मिला। मैं परेशान हो गया। चेहरे पर एक रंग आता दूसरा जाता। देर रात तक मैं पागलों की तरह उसे ढूंढता रहा पर वह नहीं दिखा। अगले दो दिन भी मैं सुबह शाम मंदिर गया, कई जगह ढूंढा पर गोविन्द नहीं मिला। गर्मी ने बेहाल कर दिया।
फैजाबाद वापस जाते वक्त मेरा मन भारी था। मुझे रह रह कर गोविन्द पर गुस्सा आ रहा था। एक तो मेरी बताई जगह पर नहीं ठहरा दूसरे मुझसे मिलने का प्रयास तक नहीं किया। मैंने पत्र में प्रशिक्षण कैम्प का भी पता लिखा था। लौटते वक्त आती-जाती बसों में भी यहाँ-वहाँ ताकता रहा, शायद गोविन्द दिख जाए, पर वह नहीं मिला।
फैजाबाद आकर मैंने गोविन्द को एक लम्बा शिकायत भरा पत्र लिखा। मैंने मेरे मन की पूरी भड़ास निकाल दी। अब मैंने तय कर लिया कि आगे से मैं उसे कभी पत्र नहीं लिखूंगा। बद्रीनाथ दर्शन तो कर गया पर मुझे धत्ता दिखा गया- खाना था सो खालो बाकी छींके में टांग दो। मैंने कठोर मन से उसे भुलाने का निर्णय लिया। मेरा मन अंतर-क्रोध से दहक रहा था।
30 जून को मैं माँ-बाबा से मिलने देहरादून आया। संयोग से उसी दोपहर बीकानेर से पत्र आया। पत्र गिरधारी जुलाहे ने लिखा था।….. 14 जून को गोविन्द का निधन हो गया। उस रात ही वह बद्रीनाथ के लिए रवाना होने वाला था। दिन भर बस्ती में घूम-घूम कर सबको कह रहा था, ‘बबुआ ने अपना वचन पूरा किया।’ उसी शाम एक तेज रफ्तार से आते ट्रक ने सड़क पर उसे कुचल दिया। वहीं उसकी मौत हो गई। पत्र के साथ रुपये पाँच हजार का बैंक ड्राफ्ट है जो उसकी बीवी ने मुझसे बनवाकर इस पत्र के साथ भिजवाया है।’
पत्र मुँह पर लगाकर मैं वहीं घुटनों के बल बैठ गया, ‘गोविन्द…..बा…..बा…..’ एक चीत्कार के साथ ही मेरी आँखों से आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा।
फिर 18 जून को बद्रीनाथ के मुख्य द्वार पर मैंने किसे देखा था? क्या गोविन्द मेरा वचन पूरा करने आया था?
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02.08.2004