लकीरें

वह अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी।

माँ-बाप ने उसे नाज़ों से पाला था, वह उनकी आँखों की पुतली थी।

शादी के छः वर्ष बाद हुई थी वह। तब डाॅक्टर ने उसके पिता को बताया था, मिसेज मेहरा के आगे संतान होना संभव नहीं है, उनकी बच्चेदानी खराब हो चुकी है। 

जैसे जौहरी अपने कीमती नगीने की देखभाल करता है, उसकी परवरिश भी ठाट-बाट से हुई। पैदा होने से ही सोने का चम्मच उसके मुँह में रख दिया गया। उसकी हर इच्छा पूरी की जाती। 

बचपन में उसके पास खिलौनों के ढेर थे। पटरी पर चलने वाली रेलगाड़ी, बैटरी से चलने वाली रंगबिरंगी कारें, ड्रम बजाते भालू, रेशमी बालों एवं नीली आँखों वाली गुड़िया जिसे वह रोज साथ लेकर सोती।

सोने के पहले मम्मी उसके गहरे काले बालों के बीच अंगुलियाँ फेरते हुए लोरी सुनाती, तब उसका एक हाथ पापा के हाथ में होता। 

उस कोमल, अनछुई, हल्की भूरी आँखों एवं रेशमी काले बालों वाली लड़की का नाम ज्योति था, माँ-बाप के आँखों की ज्योति।

पापा फैक्ट्री से आते ही उसे पुकारते, मेरी प्यारी बिटिया कहाँ है? वह दौड़कर पापा से चिपट जाती। अपनी कोमल अंगुलियों से, जिनके सिरों पर अभी नाखून भी कच्चे थे, वह पापा का ब्रीफकेस सम्हालती। तब ब्रीफकेस उसके पाँवों को ढक लेता। फिर वह पापा को अपने दिन भर की कथा सुनाती जिसमें कुछ मम्मी की शिकायतें होती, कुछ गुड़िया की। वह पापा को गुस्से भरी आँखों से मम्मी को घूरती हुई देखती। तब उसे क्या पता था, गुस्सा झूठ-मूठ का भी होता है। मम्मी जब बाएँ हाथ से अपना कान पकड़ती तो उसका चेहरा गर्व से चमक उठता। पापा को उसकी पूरी कथा सुननी पड़ती। कितनी ढेर सारी बातें, कितनी शिकायतों का अम्बार। 

एक बार पापा घर आए तो अन्यमनस्क थे, उस दिन न जाने वे क्यूँ उदास थे। उसे क्या पता था, बड़े लोगों का कभी-कभी मूड भी ऑफ होता है। तब वह भी गाल फुलाकर एक कोने में बैठ गई। पापा की हिम्मत कैसे हुई मुझसे बात किए बिना बेडरूम में आकर लेटने की? बाद में पापा की नजर उस पर गई तो उसने गाल फुलाकर मुँह मोड़ लिया। पापा को कान पकड़कर दस उठक-बैठक लगानी पड़ी।  उस दिन गवाह की तरह होठ दबाये मम्मी मुस्कराते हुए एक कोने में खड़ी थी।

मम्मी उसकी जरा-सी आवाज सुनकर चोकन्नी हो जाती। उसकी ड्रेसों से अलमारी भरी होती। वह हमेशा अपने पसंद की ड्रेस पहनती।

वह अपना हर हठ पूरा करवाती।

उसके पापा शहर के माने हुए उद्योगपति एवं गणमान्य व्यक्ति थे। उनकी फैक्ट्री सोना उगलती थी। बड़े लोगों की संतानों में थोड़े गुण भी कई गुना निखर कर आते हैं। घर पर रिश्तेदार एवं ऑफिस के मुलाजिम आते-जाते रहते। वह सही हो या गलत सभी उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते।

स्कूल जाते-जाते उसे इस बात का अहसास हो गया कि वह अपने माँ-बाप की इकलौती संतान है एवं इकलौती संतानों के कुछ विशेष अधिकार होते हैं जैसे उनका स्कूल बैग सबसे कीमती होता है, उसे स्कूल में हर रोज ड्राइवर छोड़ने एवं लेने आता है। उसके टिफिन में कुछ विशेष चीजें रोज रखी जाती हैं जैसे केक, चाॅकलेट आदि। 

कई बार उसकी इच्छा होती कि वह भी स्कूल बस में उसके सहपाठियों के साथ मस्ती करती  हुई  पहुँचे,  सबके  साथ  मिल बाँटकर टिफिन खाए, पर यह अधिकार उसे नहीं दिया गया। कुछ विशिष्ट सुख भगवान ने मध्यम तबके के लिए रिजर्व रखे हैं।

बचपन पंख लगाकर उड़ता है। उसके स्कूल के पौधे अब और ऊँचे हो गए थे। वह दस वर्ष की हुई तो उसने एक बार जिद पकड़ ली, मैं कार चलाना सीखूंगी। सभी ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं मानी, ड्राईविंग सीखकर ही दम लिया। ड्राइविंग सीखते हुए कई बार दुर्घटना होते-होते बची पर ड्राइवर ने घर आकर यही कहा, बिटिया रानी कमाल की ड्राइवर है।

अपने क्लास की अव्वल लड़कियों में उसका नाम था। वह सुंदर भी थी और बुद्धिमान भी। रूप, गुण और धन की त्रिवेणी कितनी दुर्धर्ष होती है।

भाग (2)

अब वह वयस्क थी, पूरे इक्कीस वर्ष की। 

शीत ऋतु के पश्चात् अपने प्रतिनिधि चिह्नों के साथ बसंत मौन पदचाप से कब आता है, पता ही नहीं चलता। ऋतुओं में बसंत और मानव जीवन में यौवन के एक से चिन्ह है। जब लताएँ शाखाओं की ओर झुकने लगे तो समझो बसंत आ गया , युवक युवतियों के इर्द-गिर्द भौरों की तरह मंडराने लगे तो समझो यौवन आ गया। जब लड़की-लड़के को देखकर दाँयें पाँव के नाखून से धरती कुरेदने लगे तो समझो यौवन आ गया। जब लड़कियों की कजरारी आँखों में लाल डोरे तैरने लगे, अल्हड़ लड़कों की मीठी बातों से लड़कियों के कपोल गुलाबी हो जाए, जब गाँव की अल्हड़ युवती, गाँव के अल्हड़ छोरे को मंदिर के पिछवाड़े मिलने को कहे तो समझो यौवन आ गया। कैशोर्य की स्वप्निल राहों से होकर यौवन मनुष्य के जीवन में ऐसे उतरता है जैसे ऋतुओं में बसंत।

वयस्क होते-होते उसे लगा उसके शरीर में कुछ विशिष्ट परिवर्तन हो रहे हैं। न जाने क्यूँ इन दिनों वह घण्टों आईने को निहारती। इसी दरम्यान एमएससी करते हुए वह शरद के सम्पर्क में आई। लम्बा ऊँचा छः फुटा लड़का। उसके गोरे रंग पर बड़ी-बड़ी आँखें व तीखी नाक खूब फबती।

पहली ही मुलाकात में शरद ने उसका दिल जीत लिया। उसकी जिंदादिली एवं वाक्चातुर्य ने ज्योति पर मोहिनी मंत्र का काम किया। 

इन दिनों दोनों अक्सर कैन्टीन में होते। धीरे-धीरे उनका प्रेम परवान चढ़ने लगा। 

एक बार दोनों मार्केटिंग पर निकले तो सलवार सूट के कलर को लेकर दोनों में दुकान पर ही झड़प हो गई। तब वह ऐसी रूठी की दस रोज तक काॅलेज नहीं आई। शरद भी पूरा अकडू था, मनाने नहीं गया।

ग्यारवें रोज वह काॅलेज आई तो शरद से बात भी नहीं की। उसके रूठे रूप को देखकर शरद खिलखिलाकर हँस पड़ा, पास आकर कहा, ‘अच्छा! तुम जीती मैं हारा।’

उस दिन वह कितनी खुश थी।

भाग (3)

पापा ने शादी से पूर्व उसे समझाया कि शरद अत्यन्त साधारण परिवार से है, इतने विषम आर्थिक अंतर में समायोजन कठिन होगा, पर वह नहीं मानी।

शादी के बाद कुछ दिन प्रेम से बीते। शरद उसकी रूप मदिरा में आकण्ठ डूब गया। रूप की अग्नि को यौवन का घी मिल जाए तो फिर क्या चाहिए। क्या अग्नि भी कभी घी की बूंदों से तृप्त हुई है ? दोनों एक दूसरे को जी जान से चाहने लगे।

वह शरद से अपनी हर बात मनवाती। पति की नाक में नकेल होनी ही चाहिए। शरद भी उसके हुस्न का दीवाना था, ज्योति को रूठने में मजा आता उसे मनाने में। यौवन मद में डूबे हुए किस प्रेमी ने अपनी स्त्री को हठी कहा है? हठी तो वह तब कहलाती है जब रूप का नशा उतरने लगता है। तब रूठने एवं हठ करने में अंतर महसूस होने लगता है।

शादी के छः माह बाद उसके हाथ से एक जार फूट गया। उस दिन शरद का मूड ऑफ था। उन दिनों नौकरी में उसके बाॅस से अनबन चल रही थी। कल ही बाॅस ने स्पष्ट कहा था, ‘मिस्टर शरद! काम दिल लगाकर कीजिए वरना मुझे कुछ दुःखद निर्णय लेने पड़ सकते हैं।’ बाॅस का गुस्सा उसने बीवी पर निकाला, ‘देख कर काम नहीं कर सकती क्या! यहाँ तुम्हारे पीहर की तरह झाड़ में रुपये नहीं लटके हैं। माँ-बाप ने कुछ तो काम करना सिखाया होगा? कभी जार फोड़ देती हो, कभी रोटी जला देती हो तो कभी सब्जी में नमक ज्यादा है। ढंग से काम करो नहीं तो पीहर वापस भिजवा दूंगा।’

गुस्से के आठ आँखें होती है, वह सदैव सुपात्र को ढूंढ लेता है। बीवी क्या तो बिगाड़ सकती है?

जो डाँट उसे बाॅस से मिली उसने भाषा बदल कर ज्योति के हवाले किया। भार बाँटने से ही हल्का होता है। 

लेकिन यहाँ दाँव उल्टा पड़ा। 

‘मेरे पीहर के बारे में ऐसी गिरी हुई बात करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती।’ ज्योति की आँखों से अंगारे बरसने लगे थे। 

‘अरे  शर्म  किस  बात  की !  साँच  को आँच नहीं। सही को सही कहना अपराध है क्या ?’

‘साफ क्यों नहीं कहते, तुम्हारा मन अब मुझसे भर गया। वहाँ ऑफिस में चुडैलेें मिल जाती होगी ना !’ 

‘बिना बात मुझ पर लांछन लगाती हो। एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। तुम्हें तुम्हारे माँ-बाप ने बिगाड़ कर रख दिया है। जरा भी मैनर्स नहीं सिखाए। हर बात पर अकड़ जाती हो। मेरे गुस्से को शह मत दो, एक हाथ पड़ गया तो धूल चाटती फिरोगी।’

बात बढ़ती गई। यह उसके धैर्य की अन्तिम सीमा थी। उसने उसी दिन अटैची में गहने एवं कपड़े डाले तथा सीधे पीहर की राह ली, मेरे पीहर को इतना लज्जित कर दिया, अब उसी चौखट पर आकर नाक रगड़ोगे तभी वापस आऊंगी। चार दिन में फूंक निकल जाएगी। तब पता चलेगा ज्योति क्या-क्या काम करती थी ! उसने जाते हुए तीर डाला।

उसके माँ-बाप उसे जी-जान से प्यार करते थे। जो आग समझाकर बुझाई जा सकती थी उनके कवच ने उसे और हवा दी। उनके पास कोई विकल्प भी नहीं था। उन्हें पता था ज्योति ने जिद पकड़ ली तो पकड़ ली। 

अब वह गर्भवती थी। उसके पेट में एक नन्हा शिशु उकडूं-सा बड़ा होने लगा। बाहर उसका बाप घोड़े की तरह अड़ा था, गरज है तो अपने आप आएगी …..मेरी तो जूती भी ससुराल नहीं जाने वाली।

ज्योति की सहेली मोनिका ने ज्योति के गर्भवती होने की खबर शरद को दी तब वह बड़बड़ाता हुआ चला गया, क्या यह खबर वह खुद फोन करके नहीं बता सकती थी ! इतनी अकड़ किस बात की है?

इधर वह अड़ गई, समाचार भिजवाने के बाद भी नहीं आए ? इतना अहंकार ? इस समय तो अच्छे-अच्छे बाप पिघल जाते हैं। अगर अभी नहीं आए तो मैं जीवन भर नहीं जाऊंगी। सारी अकड़ नहीं निकाल दी तो नाम ज्योति नहीं।’

इस घटना के आठ माह बाद ज्योति के घर पुत्र जन्म की किलकारी गूँजी, जिसका नाद शरद के घर तक गया पर वह नहीं आया। वह भी पूरा जिद्दी था, ससुराल जाऊँगा तो बुलाने से ही, वरना राम भजो।

वह और तुनक गई। बच्चा होने पर भी मिलने नहीं आए। इतना अभिमान ? अब मैं उन्हें बरबाद करके ही छोडूंगी। शरद के माँ-बाप होते तो वह अपने पापा-मम्मी से उनकी बात करवा देती पर वे तो उसके विवाह के पूर्व ही चल बसे थे। अब उसे समझ में आया, अनाथ बच्चे कितने बेपरवाह होते हैं। आगे नाथ न पीछे पगहा, इह कारण नाचे यह गदहा। 

इसी मूँछ की लड़ाई में दो वर्ष बीत गए, बीज अब वृक्ष बन चुका था। उन्माद कलह-वृक्ष की जड़ है। हठ और अहंकार इसके खाद बीज है। अपनों की शह इसे पानी देती है। दुर्भाग्य इसका तना है। अपरिपक्वता, निर्बोधता एवं विवेकशून्यता इसकी टहनियाँ है। दुःख एवं बदनामी इसके फल हैं।

समय सबको निगल जाता है सिवाय उन यादों के जो समय को भी पीछे छोड़ देती हैं।हम जिन्हें पूरी ताकत से भूलाने का प्रयास करते हैं, वो उतने ही वेग से हमें याद आते हैं।

ज्योति जितना शरद को भुलाने का प्रयास करती, वह उतनी ही ताकत से उसके यादों के आकाश पर पंख फैलाकर मंडराने लगता। तब उसे वे हसीन मंजर याद आते, जब दोनों एक दूसरे को जी-जान से चाहते थे, वो घड़ियाँ याद आती जब दोनों हाथों में हाथ लिए घण्टों बाग-बगीचों में घूमते होते, वो मधुर पल याद आते जब मोहब्बत परवान चढ़ी थी। वह घण्टों रूठती वह घण्टों मनाता। व्यथित मन को यादों का ही सहारा होता है। दुर्भाग्य के एक झोंके में सब कुछ बह गया, वह मात्र दृष्टा बन कर देखती रह गई।

इन दिनों वह शरद के दिए उपहार ढूंढने लगती। उस हार को हाथों में लेकर सहलाती जो उसने मधुयामिनी के दिन भेट किया था। वो साड़ियाँ, वो सलवार सूट उसे प्रिय लगने लगे जो शरद ने उसे समय-समय पर भेंट किए थे। वह अक्सर इन्हें पहनती, इन्हीं से जुड़ी यादों को कुरेदती पर तभी हठ के कई वर्तुल उसके विचारों को चारों ओर से घेर लेते। पहल करके समस्या सुलझाना उसे नागवार था। 

शरद भी दो वर्षों के बिछोह में कंटाल गया। उसे भी वो हसीन पल याद आते, रात तकिया पटकता रहता पर हठ पटकने को तैयार नहीं था।

कलह वृक्ष को अब तन्हाई की दीमक खाने लगी थी। मन बावरा है। कई बार वह उसी की एक झलक पाने को बेताब हो उठता है जिसे वह बलात् छोड़ आता है, उन्हीं राहों पर भटकने लगता है जो उसे रास नहीं आई थी। तन्हाई की सूनी राहों पर चलते-चलते इंसान थक जाता है। तन्हाई रूपी बीमारी का इलाज तो प्रेमियों का दीदार ही है। 

कलह का वृक्ष विवेक, अनुभव एवं सुमधुर यादों की कुल्हाड़ियों के संयुक्त वार से ही कटता है। 

इसी दरम्यान शरद के चाचा रामेश्वरनाथ उसके शहर आए। उम्र सत्तर वर्ष, लम्बी धवल दाढ़ी, तीखा नाक एवं धँसी हुई आँखें जिनके पीछे सात दशक का अनुभव था। बुड्ढे ने पहले ही दिन सारी बात ताड़ ली।

एक बार देर रात तक चाचा-भतीजे बतियाते रहे। रिश्तों की भी बातें हुई, इनके बनने-बिगड़ने की भी व्याख्याएँ हुई। इसी चर्चा के बीच अनायास बात करते-करते शरद के आँसू टपक पड़े। मन का दर्द अपनों का सान्निध्य पाकर पिघल गया, विवेक की लगाम छूट गई, आँखों की कोर से आँसू हटाते हुए बोला, ‘चाचा! जिनके माँ-बाप नहीं होते, उनका संसार में कोई नहीं रह जाता।’ भावातिरेक जाने क्या-क्या बोल गया। 

रामेश्वरनाथ को नश्तर लगे पर वे घूंट पीकर रह गए, बस इतना ही कहा, सब किस्मत का खेल है।

कुछ देर चुप्पी रही। रामेश्वरनाथजी पुराने चावल थे, विचार कर बोले, ‘एक काम करना, इस बार दुर्गाष्टमी पर सुबह गढ़ी वाले मंदिर में चढ़ावा चढ़ा कर आना, सब ठीक हो जाएगा। माँ सबके दुखों को हर लेती है।’

इन्हीं दिनों रामेश्वरनाथ ज्योति के यहाँ भी गए। बहू को शुभाशीष एवं बच्चे को ढेरों उपहार देते हुए उनकी आँखें सजल हो उठी। बच्चे को गोदी में लेकर बोले, ‘पूरा शरद पर गया है, वैसा ही तीखा नाक, बड़ी-बड़ी आँखें। बचपन में शरद ऐसा ही लगता था।’ फिर ज्योति की तरफ मुँह करके बोले, ‘शरद की तरह अकड़ू तो नहीं है ?’

ज्योति के रुके हुए आँसू उबल पड़े। सर पर हाथ रखते हुए रामेश्वरनाथ बोले, ‘सब ठीक हो जाएगा, इस बार दुर्गाष्टमी पर सुबह मंदिर चढ़ावा लेकर जरूर जाना।’ 

दुर्गाष्टमी पर मंदिर चारों ओर बंदनवारों से सजा था। सूर्य किरणों के पड़ने से मंदिर के कलश चमकने लगे थे। सोलह शृंगार किए माँ अपने भक्तों की हर आस पूरी करने को तत्पर थी। भक्तों की उपासना से प्रसन्न निर्गुण ब्रह्म की शक्तियाँ सगुण में सिमट गई थी। जो सबके हृदयों में रहती है, उससे भला अपने भक्तों का कौन-सा दुख छुपा रह सकता है? 

चढ़ावा चढ़़ाकर शरद मुड़ा ही था कि ज्योति एक हाथ में चढ़ावा लिये एवं दूसरे हाथ से बच्चे की अंगुली थामे ऊपर चढ़ रही थी। मात्र दो सीढ़ियाँ शेष थी, एक अहंकार एवं दूसरी हठ की। दोनों की आँखें मिली, दोनों वहीं ठिठक गए। आँखें वाचालता की हर सीमा का अतिक्रमण कर रही थी पर जिह्वा पर हठ के पहरे लगे थे।

दो याचक, एक माँग लेकिन पहल कौन करे ? 

माँ हर आस पर कुदरत रखती है। 

तभी एक अप्रत्याशित घटना घटी। देखते ही देखते बच्चा ध्यान चूका और  सीढ़ियों से लुढ़कने लगा। ज्योति चीखती उसके पहले ही शरद बेतहाशा बच्चे के पीछे भागा, उसे अपने हाथों से उठाया एवं गोद में लेकर ऊपर आया। बच्चे के माथे से खून बहने लगा था, उसने जेब से रुमाल निकाला और कसकर उसके माथे पर बाँधा। सर पर खून भरी पट्टी बांधे बच्चा ऐसा लग रहा था मानो वह भी माँ के दरबार में लाल पट्टी बाँधकर अपने पिता का प्यार मांगने आया हो। पलभर के लिए वक्त थम गया। ज्योति अब भी चुप थी पर आज शरद सौभाग्य से मिले इन पलों को छोड़ना नहीं चाहता था। अपने सारे दंभ को समेट कर बोला, ‘कैसी हो ज्योति ?’ इन तीन शब्दों को कहने में उसे जितनी शक्ति इकट्ठी करनी पड़ी उतनी प्रेम के असंख्य शब्द कहने में भी नहीं जुटानी पड़ी होगी। 

‘आँखों के बिना ज्योति कैसी हो सकती है ?’ वह सर झुकाकर बोली। 

शरद भीतर तक काँप गया। एक के कदम बढ़ाते ही दूसरे का कदम बढ़ा, फिर तो मानो कदमताल मच गई। 

‘अब गुस्सा थूक भी दो। इतनी अच्छी हो, इतनी सुंदर हो और इतनी बुद्धिमान, फिर इतना हठ क्यूँ करती हो।’ उसने काँपते हुए से ब्रह्मास्त्र डाला। 

‘तुम जैसों की अकल ठिकाने लगाने के लिए।’ उसकी आँखों में अनार के दानें नाचने लगे थे।

‘अब तुम कहो तो दस ऊठक-बैठक लगाऊ।’ शरद ने कान पकड़ते हुए कहा।

उस दिन वह वापस पीहर नहीं गई।

भाग (4)

उस रात ज्योति के पिता ने रामेश्वरनाथजी से पूछा, ‘चाचाजी यह चमत्कार हुआ कैसे?’

‘कुछ भी नहीं। अब शरद मर्म की बात समझ गया है।’

‘क्या?’ मिस्टर मेहरा की आँखें विस्मय से फैल गई।

‘बच्चों का हठ पानी पर खिंची उस लकीर की तरह होता है जो क्षणभर में मिट जाता है, बूढों का हठ पत्थर पर खींची लकीर की तरह  होता है जिसे मिटाना दुष्कर है मगर स्त्री का हठ …… ? ’ कहते-कहते रामेश्वरनाथजी रूक गये। उनकी आंखों में गांभीर्य तैरने लगा। 

‘ स्त्री का हठ……! बात पूरी कीजिये चाचाजी ! ’ कौतुक भरे मि. मेहरा अब उत्तर के लिए चाचाजी को देख रहे थे।

‘स्त्री का हठ मोम पर खींची उस लकीर की तरह होता है जो प्रशंसा की थोड़ी सी आँच में पिघल जाती है।’ रामेश्वरनाथजी ने उत्तर दिया।

दोनों बुड्ढे अब धरती पर लाठी टिकाये खिलखिला रहे थे।

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22.10.2004

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