मुझे ठीक से याद तो नहीं आ रहा कि नेताराम हमारे यहां किसके मार्फत आया था, शायद मेरी बैंक के किसी ग्राहक ने उसके बारे में बताया था, पर इतना जरूर याद है वह हमारे यहां आया तब फकत दस वर्ष का था। मेरी उदयपुर नई तैनाती हुई थी, मैं इस बैंक में मैनेजर बनकर आया था। बाद में वह ग्राहक भी खाता बंदकर जाने किस बैंक में चला गया।
नेताराम गठीला, मजबूत एवं उसका शरीर सौष्ठव उम्र से कहीं अधिक था। गांव में बच्चे , विशेषतः एक खास जनजाति जिससे वह था, बचपन से कठोर परिश्रम करते हैं, इन्हें फिर भूख भी अच्छी लगती हैं, इसीलिए दस में तेरह-चौदह वर्ष का लगता था। जहां हम उसी के उम्र की हमारी औलाद यानि पुत्र तरुण को भूख बढ़ाने हेतु जाने कौन-कौन से विटामिन खिलाते, उसकी मां उसे दूध-फल आदि खिलाने के लिए हजार नौरे खाती, नेताराम में यह समस्या मैंने कभी नहीं देखी। इस उम्र में भी उसकी अच्छी-खासी खुराक थी, दिन भर काम में पिलता, भूख स्वतः उभर आती। सदैव हमारे खाने के बाद भोजन करता, हां एक बात अवश्य थी हमने उसे हमसे भिन्न अथवा बासी भोजन कभी नहीं दिया। दूध-फल बचते तो उसे मिल जाते एवं कपड़े-जूते वह बहुधा तरूण के उतरे हुए पहन लेता। इन कपड़ों मे विशेषतः जब जीन्स, टी-शर्ट पहनता, वह खिल उठता।
नेताराम उसके उम्र के बच्चों से अधिक लम्बा भी था एवं अगर उसका रंग काला न होता तो उसके नक्श ऐसे तीखे थे कि वह राजकुमार लगता। उसकी गोल बड़ी-बड़ी आंखें सदैव कुछ खोजती रहतीं। कभी-कभी इतवार अथवा छुट्टी के दिन हम सभी इन्फॉर्मल गुफ़्तगू करते तब वह भी अपने पुरखों के शौर्य के किस्से हमें सुनाता। मेरे पिता शिकार के समय खरगोश से भी तेज भाग लेते। मेरे दादा मेरे पिता की तरह अच्छे तीरंदाज थे, उड़ते पक्षी को नीचे गिरा देते। मेरे दादा बताते थे कि पानीपत के युद्ध में उन्हीं के एक पुरखे ने अद्भुत पराक्रम दिखाया था।
हम उसकी बातें सुनते भी , हमें इसमें आनंद भी आता पर वह अकारण सर न चढ़ जाए अतः बात पूरी होते मैं उसे पानी लाने, मेरे पांव दबाने आदि कार्य बता देता। वह पांव बहुत अच्छे दबाता, मालिश भी खूब करता हालांकि पैंतीस की उम्र में मुझे इन सेवाओं की आवश्यकता नहीं थी पर जाने क्यूं यह सभी सेवाएं मुझे उसका मालिक होने का अहसास देतीं।
इस अहसास से भरना मेरे लिए जरूरी भी था क्योंकि बहुधा मुझे मेरे उच्चाधिकारी टारगेट्स पूरा न होने के कारण डांटते थे। मैं यह कोफ्त बीवी पर निकालने की कोशिश करता पर वह कॉलेज में प्रोफेसर थी, खुद अपना फ्रस्ट्रेशन मुझ पर निकालने की फिराक में होती। तरुण नकचढ़ा था, उस पर क्रोध करने का अर्थ होता, वह ऐसा रूंसता कि घर सिर पर उठा लेता। तब उलटे हम दोनों को उसे मनाना पड़ता। उस दिन वह बलात् अपने आईसक्रीम खाने अथवा सिनेमा आदि देखने का शौक पूरा कर लेता। वह मेरी आंख का तारा था, मां के लिए तो आसमान का चंदा था। उसे कुछ भी कहता, बीना आकाश-पाताल एक कर देती। शायद इसी के चलते वह बिगड़ गया था।
इन परिस्थितियों में मेरा क्रोध-भाजक बनने के लिए नेताराम ही बचता, आश्चर्य! वह चुप यह सब सहन कर लेता । ठण्डा होने पर मेरा अपराध-बोध जब मेरी आत्मा पर दस्तक देता, मैं उसे फ्रीज से चॉकलेट इत्यादि निकालकर देता। यह मरहम मैं कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर भी लगाता, ‘ओह! नेताराम तू फुलके कितने पतले प्यारे-प्यारे बनाता है अथवा फिर ऐसा भी कि ‘नेताराम तुझसे अच्छी आलू-प्याज की सब्जी अन्य कोई नहीं बनाता।’ वह तब मुस्कुराकर रह जाता। उसकी स्वच्छ दंतपंक्ति तब झिलमिल तारों जैसी लगती।
धीरे-धीरे वह हमारे परिवार में घुल-मिल गया। सुबह बीना को कॉलेज जाना होता, उसके बाद तरुण को स्कूल बस तक छोड़ना पड़ता, फिर मुझे बैंक जाने की जल्दी होती एवं इसी के चलते नेताराम को सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती। वह तड़के उठकर ही आधी तैयारी कर लेता। सबकी ड्रेसेज, टॉवल आदि यथास्थान रखना, घर का पानी भरना, ब्रेकफास्ट तैयार करना एवं अन्य ऐसे छोटे-मोटे कार्यों में वह लगा रहता। मैं, बीना उसे जब-तब मदद करने का प्रयास करते पर अधिकांश कार्य वही समेटता। बीना कॉलेज से आते ही तरुण को होमवर्क करवाती, अनेक बार तो उसे समझाते-समझाते सिर पीट लेती। पढ़ाई में उसका दिल जरा नहीं लगता। अधिक कहने पर रोने लगता। हम दोनों हैरान थे, हम दोनों के विद्वान डीएनए से ऐसी औलाद क्योंकर निकली ? तब बीना कहती, “तुम्हारी मां मूर्ख थी, उसी का अंश इसमें आया है।” मां जब तक थी बीना से उसकी जरा नहीं बनी।
रात बीना से बतियाते हुए मुझे अनेक बार नेताराम का भी ख्याल आता। एक रात मेरी बीना से उसको लेकर लम्बी बात हुई। उस रात बाहर बारिश पड़ रही थी। वातावरण के अनुरूप मेरा मन भी भीगा-भीगा था। बीना भी प्रसन्न थी। मैंने बीना की ओर मुड़कर कहा, ‘बीना ! नेताराम हमारे लिए वरदान बनकर आया है। सुबह से शाम तक लगा रहता है।’ कहते हुए मैं बेतरतीब उसके बाल सहलाने लगा।
“आप ठीक कहते हैं इसके आने से मुझे बहुत आराम हो गया है। बार-बार गांव भी नहीं भागता। इसका बाप खुद शहर आता है तब इससे मिल लेता है। मां इसकी है नहीं। तरुण को बस तक छोड़ आता है, ले भी आता है एवं पीछे से घर की रखवाली भी हो जाती है।” बीना की आंखों में संतोष उभर आया था।
“बीना ! कभी-कभी मैं सोचता हूं इसमें और तरुण में क्या फर्क है, दोनों में समान संभावनाएं हैं पर एक मालिक का बेटा है और एक नौकर है। बचपन से ही दो बच्चों में इतना अन्तर हो जाए तो एक बच्चा तो पिछड़ ही जाएगा। ” आकाश में यकायक उड़ आए पक्षी की तरह यह विचार यूं ही मेरे चिंतन में उतर आया।
“अपना-अपना भाग्य है जी। सबको सब कहां नसीब है। सरकार इन्हें नौकरियों आदि में इसीलिए तो रिजर्वेशन देती है।” बीना ने एक केज्युअल उत्तर दिया।
“रिजर्वेशन हो तो भी क्या उसके लिए भी कुछ शिक्षा जरूरी है। अगर नेताराम भी पढ़ जाए तो इसका जीवन बदल जाए। सदियों दासता की जंजीरों में बंधे रहे। अब तो सूर्याेदय हो। क्या ही अच्छा हो हम तरुण के साथ इसे भी पढ़ाएं। प्राईवेट स्कूल नहीं भेज सकते तो सरकारी स्कूल में एडमिशन लेकर यह घर पर भी पढ़ सकता है। दोपहर खाली बैठा रहता है।” मैंने बात आगे बढ़ाई।
“आपका दिमाग खराब हो गया है? अभी पढ़ते ही इसके तेवर बदलेंगे, फिर ये यहां रहेगा क्या ? तुम भी औंधी खोपड़ी हो, बड़ी मुश्किल से नौकर मिला है एवं इसे भी भगाने पर तुले हो।” उत्तर देते हुए बीना के ललाट पर सलवटें उभर आईं।
“सब यूं ही सोचेंगे तो फिर इनका भाग्य कब करवट लेगा ?”
“लेगा जब लेगा। हमने कोई ठेका लिया है। आप राजनेता हो क्या जो इनकी जमात का दुःख अपने पर लो। वे तो वोटों की गणित सिद्ध करते हैं आप कौनसा तीर मार लोगे ?” बीना प्रेक्टिकल थी, मुझे पता था वह यही उत्तर देगी।
“तुम भी बात पकड़ लेती हो। मेरा मतलब हम ऐसा कर सकते हैं तो अवश्य करना चाहिए। सरकार सबको तो नहीं पढ़ा सकती। एक समर्थ परिवार अगर एक बच्चे को पढ़ाकर आगे बढ़ाए तो न सिर्फ अनेक बच्चों की तकदीर बदलेगी, देश का भाग्य भी बदल जाएगा। आर्थिक समरसता कदाचित् आरक्षण की प्रासंगिकता ही समाप्त कर दे।” मैंने दम लगाकर बात पूरी की।
“आपके उत्तर पर ताली बजाने को जी करता है। पीछे घर का काम आप संभाल लोगे, खुद से कुछ होता नहीं और जस-तस और व्यवस्था हुई तो उसे भी मिटाने पर लगे हो।” इस बार उसकी आवाज पहले से कहीं अधिक तीखी एवं तेज थी। वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं पति न होकर कोई जमूरा हूं।
इससे आगे बात बढ़ाने का साहस मुझमें नहीं था।
तभी बीच वाले दरवाजे पर खटपट हुई, शायद नेताराम बाथरूम जाने के लिए उठा होगा। तरुण एवं नेताराम पास वाले कमरे में सोते थे। तरूण पलंग पर सोता था एवं नेताराम पलंग के नीचे दरी बिछा कर सोता था।
कभी-कभी जब नेताराम यूं उठता तो मुझे आशंका होती कहीं वह हमारी बातें तो नहीं सुन रहा ?
रात चढ़ने लगी थी। बीना को अब जम्हाई आने लगी थी, मुझे लगा बात आगे बढ़ाने से और बिगड़ेगी अतः चुप चादर ओढ़ ली हालांकि यह बात बहुत देर तक मेरे दिमाग में तैरती रही। दोनों कब सोए पता ही नहीं चला।
दूसरे दिन से मैंने नेताराम के व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन महसूस किए। वह अब मुझसे अधिक बीना को तवज्जो देने लगा। एक दिन बीना का सिर दुख रहा था, नेताराम ने न सिर्फ उसके सिर पर मालिश की, उसका सिर भी दबाया। उस दिन बीना ने उसके घर-परिवार के बारे में खूब जानकारी ली। मातृविहीन पुत्र हर स्त्री में अपनी मां देखने लगता है। इन दिनों वह मेरे बजाय बीना के पांव दबाने लगा। वह उसके अनेक छोटे-मोटे कार्य निपटा देता, उसकी हर बात मानता। अनेक बार तो बीना की अकारण प्रशंसा कर देता, ’बीवीजी ! आप पर साड़ी क्या खूब फबती है। ‘एक बार तो यह भी कह दिया, ‘ बीवीजी! आप भी कमाल हैं, घर-बाहर दोनों सम्भाल लेती हैं।’ एक बार कह रहा था ’आपने मुझे रसोई का पूरा काम सिखा दिया है, अब मैं आपको छोड़कर जाने वाला नहीं।’ उस दिन बीना ने उसे हृदय से लगा लिया, ’तू जाएगा क्यों रे! मैं तुझे जाने दूंगी तब तो ना।’ कहते-कहते बीना की आंखें आर्द्र हो गई थीं।
इस बार मैंने जब नेताराम को पढ़ाने की बात छेड़ी तो आश्चर्य ! बीना तुरंत मान गई। ओह, सेवा एवं प्रशंसा की आंच में तो पत्थर भी पिघल जाते हैं, मनुष्य की तो बिसात ही क्या है, तिस पर औरतजात के लिए तो प्रशंसा अमृततुल्य है। बीना चाहती थी कि इसका एडमिशन तरुण की क्लास यानि छठी में तरुण के साथ हो जाए, मैं इसका पुराना कवरअप कर लूंगी एवं कुछ समय में यह भी तरुण के समकक्ष हो जाएगा। यह एक अद्भुत विचार था, विद्यालय प्रशासन से मिलकर मैंने इसे अमलीजामा पहनाया। नेताराम कुशाग्र था, अक्षरज्ञान उसे पहले से था, वह तीव्रता से आगे बढ़ा, बीना एवं तरुण ने उसे सहयोग दिया। गाड़ी शीघ्र पटरी पर आ गई। छठी में वह जस-तस पास हुआ लेकिन सातवी वार्षिक परीक्षा में उसने मोर्चा मार लिया। वह क्लास के अन्य कई विद्यार्थियों से यहां तक कि तरुण से भी अच्छे नंबर लाया। मैंने जब तरुण को कहा, देखो! नेताराम घर का कार्य भी करता है एवं तुमसे अधिक नंबर लाया हैं तो वह गंभीर हुआ। उसे मानो एक चुनौती मिल गई।
तरुण अब एकाग्र होकर पढ़ाई में जुट गया। जहां मैं एवं बीना उसे कह-कहकर हार जाते, अब वह स्वयं अपना होमवर्क करने लगा। चुनौती ने उसके दिमाग की समस्त खिड़कियां एवं हृदय के पट खोल दिए। सवाल-जवाब खुद से उपजने लगे। विवेक जाग्रत हो गया। अति प्यार ने जहां उसे आलसी बना दिया था, स्पर्धा ने सोते से जगा दिया। वह मानो यकायक चौकन्ना हो उठा। इन दिनों बीना को भी बहुत आराम मिला क्योंकि दोनों मिल-जुल कर होमवर्क कर लेते।
यह तो घर बैठे गंगा आने जैसी बात हो गई। हमारे सद्चिंतन का ऐसा सुंदर परिणाम निकलेगा, यह तो हमारी कल्पना से परे थे। ओह! अच्छाई किस तरह अच्छाई को आकर्षित करती है। बोर्ड परीक्षा में तरुण पूरे जिले में अव्वल रहा। नेताराम भी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ। अब तो तरुण एवं नेताराम मित्रवत् हो गए। दोनों एक-दूसरे की बुद्धि की सान पर अपनी-अपनी प्रतिभा तराशने लगे। हमारे लिए भी नेताराम पुत्रवत् हो गया क्योंकि उसने अप्रत्यक्ष, अंजाने ही सही, एक असंभव कार्य सिद्ध कर दिखाया।
दिन, महीनों एवं वर्षों की चौकड़ियां भरते समय का हिरन जाने कितनी दूर निकल आया। सिविल सेवाओं में दोनों ने साथ तैयारी की एवं हमें पता था रिजर्वेशन के चलते नेताराम निकल जाएगा पर तरुण को लेकर हम आशंकित थे हालांकि तरुण भी इसमें उत्तीर्ण होने के लिए जी जान से जुटा था। उसे मानो सफलता की कुंजी मिल गई थी। लगातार सफलताओं ने उसका आत्म-विश्वास , हौसला दूना कर दिया था।
दोनों की कड़ी मेहनत रंग लाई एवं सौभाग्य से दोनों एक ही बैच में उत्तीर्ण हुए। मुझे मानो कारू का खजाना मिल गया। अंधा क्या चाहे दो आंखें। हर्ष गद्गद् बीना के आंसू बह गए। अनायास किया एक प्रयोग पूरे देश के लिए नज़ीर बन गया।
रात बीना के साथ लेटे मैं सोच रहा था काश! हर समर्थ यदि एक निर्धन बच्चे को पढ़ाए तो देश-समाज का कायाकल्प हो जाए। अंधेरा कोसने से नहीं जाएगा, हम बस एक दीप जलाएं। दीप से दीप फिर स्वतः जल उठेंगे। रोशनी फिर दूर तो नहीं।
………………………………………..
30.05.2020