उसे बस इतना याद है कि उसका बाप क्षय रोग से मरा था। एक दिन खाँसते-खाँसते पिता ने माँ का पल्लु खींचकर मुंह में लगाया तो माँ चीख उठी, ‘‘इतना खून!’’ तब उसकी माँ फटे चिथड़ों में पूरे शहर में घूमती-फिरी थी। माँ जब वापस लौटी तब तक उसके बाप की आँखें ऊपर हो चुकी थी। इतनी बड़ी घटना होने पर भी उसने माँ की आँखों में एक भी आँसू नहीं देखा। गरीब आदमी के मात्र दुख का रूप बदलता है, और हर दुख उतना ही कठोर होता है। वह कब-कब कितनी बार आँसू बहाये? गर्मी से सूखे तालाब की तरह उसके भीतर के सारे आर्द्र स्रोतों को दुखों की चिलचिलाती धूप सोख लेती है।
तब पाँच-सात आदमी कंधों पर गमछा डाले घर के भीतर आये। उनकी आँखें भी घर की दीवारों की तरह गहरे धँसी हुई थी। ‘राम नाम सत्य है’ का उद्घोष उसने पहली बार सुना था। आगे सारी उम्र तो उसे इस सत्य का अनुभव करना था। सात साल की एक बच्ची को इससे अधिक और क्या याद रहता? लोग जब उसके बाप की अरथी ले जा रहे थे तो उसकी आँखों में भी कुछ आँसू चमकने लगे थे पर माँ की पथराई आँखें देखकर वे भी इस तरह भीतर चले गये जैसे सजायाफ्ता कैदी शाम होने पर चुपचाप अपनी बैरकों में चले जाते हैं। अच्छे बच्चे भी भला माँ-बाप के व्यवहारों के प्रतिकूल चलते हैं?
इस घटना के एक माह बाद उसने पहली बार बनिये की आँखें लाल होती देखी थी। तब उसे क्या पता था आँखें कितने कारणों से लाल होती है? वह तो बस इतना ही समझ पायी कि माँ किराया नहीं दे सकती थी, अतः घर खाली करना पड़ा।
अब शहर से कुछ दूर एक भग्न मंदिर ही उनका आसरा था। उनकी गरीबी की तरह वह भी वक्त के थपेड़ों को सह-सह कर अधमरा हो गया था। वहीं एक टूटी-फूटी छत के नीचे माँ ने लोहे के चार-पाँच बर्तन एवं कुछ फटे वस्त्र सजाये थे।
दिन भर वह माँ के साथ भीख मांगती एवं शाम इन्हीं भग्नावशेषों में सूखी-बासी खाकर कई बार चाँद से कहती, ‘‘मामा! तुम्हारे अलावा सभी साथ छोड़कर चले गये। तुम तो धोखा नहीं दोगे?’’ तब चाँद चाँदनी के रास्ते नीचे उतरता, उसके सिर पर हाथ फेरकर कहता, “ऐसा क्यों सोचती हो प्यारी बच्ची! जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है।” तब उसे एक बात समझ आयी कि भगवान कोई राक्षस होता है जो उन लोगों के विनाश पर उतर आता है जिनका कोई नहीं होता। ईश्वर की करुणा से अभी उसका साबका नहीं पड़ा था। उसे क्या पता था धरती के बिछौने पर सोकर जिस आसमान की चादर वह तानती है, भगवान ने ही बनाया है। उसे यह भी कहाँ मालूम था जिस नूर से सितारे चमकते हैं, हमारी आँखें चमकती हैं, वह भी उसीसे है? उसने तो बस अपने पिता एवं माँ की गरीबी के धुएँ में छिपी आँखें देखी थी, उस धुएँ के पीछे छिपी चमक वह कैसे देखती?
हर सुबह वह सूरज के साथ उठती, हवाओं के संग खेलती एवं थक जाती तो पेड़-पौधों-पक्षियों से बतियाती रहती। रात सोते समय हथेलियों को सिर के नीचे रख चांद-तारों को निहारती। कभी नींद नहीं आती तो समीप ही बहती नदी की ओर चली आती जहाँ नदी में चांद की छाया देखकर प्रसन्नता से भर उठती। कुदरत के इन्हीं नज़ारों को देखते हुये जीवन के पन्द्रह बसन्त निकल गये।
एक रात सोते हुए उसने माँ से पूछा, “माँ मेरे नाना कहाँ रहते हैं? नानी कहाँ रहती है? क्या मेरे चाचा भी हैं?” तब माँ ने यही उत्तर दिया था, “सबको यह करमजली नदी लील गयी।” दूसरी सुबह उसने क्रोध में भरकर नदी में बड़े-बड़े पत्थर डाले थे। नदी इन पत्थरों को वैसे ही निगल गयी जैसे उसके नाना-नानी एवं अन्य रिश्तेदारों को वर्षों पहले आयी बाढ़ में निगल लिया था।
एक शाम खाना खाने के बाद उसने देखा आसमान में चारों ओर काले बादल छा गये हैं। बादलों के छाते ही मोर पंख फैलाकर नाचने लगे, कोयल कूकने लगी, पपीहे पीहू-पीहू करने लगे एवं यहाँ-वहाँ पेड़ों की शाखा पर बैठे पक्षी चहकने लगे। बरसात की बूंदे उसके शरीर पर पड़ी तो वह उन्मत्त होकर नाचने लगी। उस दिन वह अपनी माँ को भी खींचकर ले आयी। उसे नाचते देख माँ की आँखें चमक उठी। तब उसने पहली बार माँ को गीत गाकर नाचते हुए देखा था। उस दिन आसमान से पानी नहीं प्रसन्नता की बौछारें पड़ी थीं। पाँव जमीन पर न पड़ते थे। दोनों देर तक एक दूसरे का हाथ पकड़कर गोल-गोल घूमती रही। उस दिन शायद विधाता ने चोर आँखों से दोनों को नाचते हुए देख लिया। उसी रात तेज बारिश में छत की एक पट्टी माँ के सिर पर गिरी एवं वह भी स्वर्ग सिधार गयी। दूसरी सुबह वह चीखने लगी तो पुनः वहीं लोग आये एवं माँ की अरथी बनाकर वैसे ही ले गये जैसे वर्षों पहले पिता को ले गये थे। उसने फिर एक बार वही उद्घोष सुना, “राम नाम सत्य है !”
लोगों ने उसे समझाया कि वह अकेली इस भग्नमंदिर में कैसे रहेगी पर वह नहीं मानी। वह जानती थी इस उम्र में शहर में रहना चूल्हे से निकलकर भट्टी में पड़ने जैसा था। यह जगह शहर के कलुषित जीवन से तो कम भयावह थी।
अब वह सोलह पार थी। रोज सवेरे अकेले ही वह शहर भीख माँगने जाती एवं शाम ढलते पुनः इन भग्नावशेषों में लौट आती। वह डरे भी तो किससे? अंधेरे से उसे जरा भय नहीं लगता। जब जीवन का अंधेरा रातों के अंधेरे से गहरा हो जाये तो डरना कैसा? चाँद-तारों से वह मन की सारी बातें कह देती। रोती-पीटती हवाएं सहचरी की तरह उसके साथ होती। अब तक तो जंगल के पेड़-पौधे एवं पक्षी भी उसके मित्र हो गये थे।
इन्हीं दिनों उसे कुछ ऐसा अहसास हुआ जो कली को चटकते समय होता है। उसने एक ऐसी सुगंध को महसूस किया जो फूल के खिलते वक्त होती है। पहली बार उसने टूटे काँच में अपना लाज से भरा चेहरा देखा। शहर में एक बूढी भिखारिन सेे उसने पूछा तो उसने वह सभी बातें उसे समझायी जो एक माँ अपनी बेटी को समझाती है।
उसके रूप की लौ अब दमकने लगी थी। इन दिनों वह नदी के बहते पानी में घंटों नहाती। टूटे काँच में इधर-उधर मुँह कर अपनी लम्बी चोटी गूँथती। उसकी गहरी काली आँखें, लंबा कद, धवल बत्तीसी उसके लावण्य में चार चाँद लगाते। बसंत आयेगा तो कोंपलें भी फूटेगी। शहर में अनेक बार मनचले फब्तियाँ कसते तो वह जब्त कर जाती।
एक शाम वह घर वापस आयी तो उसने देखा एक युवक वहाँ बैठा बोतल से कुछ पी रहा है। वह उसके करीब आयी तो उसने उसको बिस्किट, काजू एवं पहनने के कुछ कपड़े आदि दिये। उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर वह बोला, “मैं भी तुम्हारी तरह तकदीर का मारा हूँं। दूर देश से आया हूँ एवं अब यहीं रहना चाहता हूँ। अब तुम्हारी मजबूरी के दिन समाप्त हुए। मैं तुम्हारे लिए कमाकर लाऊँगा एवं हम दोनों यहाँ साथ रहेंगे।” उसे पहली बार लगा उसके जीवन में एक नया सूर्य उगा है। उसने कल्पना भी न की थी कि इतना खूबसूरत, बाँका जवान उसके जीवन में यूँ चला आयेगा।वह आनन्द से सराबोर हो गयी।वह उसके साथ ही रहने लगी। वह दिन होते ही चला जाता एवं रात होते पुनः लौट आता।
एक बार चाँदनी रात में दोनों नदी के किनारे बैठे थे। उस दिन उसने उसका मुख अपने हाथों के बीच लेकर कहा, “तुम उतनी ही सुन्दर हो जितना ऊपर चमकता हुआ चाँद।” धीरे-धीरे वह अपनी जादुई अंगुलियाँ उसके बालों में घुमाने लगा। जीवन में पहली बार उसने किसी को उसकी प्रशंसा करते हुए सुना, पहली बार यूँ प्यार भरी मनुहार करते हुए देखा। उस रात वह उसके और करीब आया एवं खींचकर अपनी गोद में भर लिया। उसका सारा स्वाभिमान उसके प्रगाढ आलिंगन में पिघल गया। उसने अपने भीतर एक ऐसी विराट क्षुधा को महसूस किया जिसकी पूर्ति शहर में भीख मांगने से नहीं हो सकती थी। किसी की जादुई अंगुलियाँ उसकी देहवीणा से कामराग उठा रही थी। उसके उन्नत वक्ष अब कपड़ों की देहरी लाँघने लगे थे। उस दिन वह आत्मा के असीम अनुराग एवं सम्पूर्ण देहलावण्य के साथ उसे समर्पित हो गयी। अनन्त अनुराग का वह कैसा रात्रि जागरण था? उस दिन पहली बार उसका चेहरा तृप्ति के महाभाव से दीप्त था।
इसके दूसरे दिन से युवक नदारद था। साँझ सूरज डूबता तो वह घण्टों उसका इंतजार करती। उसे क्या पता था पुरुष कितने छलिया होते हैं? बहता पानी, रमता जोगी एवं आवारा युवक भी किसी के रोके रुके हैं? उनके आखेट जाल को कौन स्त्री समझ पाई है? वियोग के अहर्निश अग्निकुण्ड में सुलगने के अतिरिक्त अब उसके पास बचा ही क्या था?
इस बात को भी दो माह बीत गये। इन दिनों उसे पेट में कुछ हरकत महसूस हुई। मन खट्टी वस्तुएं खाने को लपकता। जब-तब जी मितली करने को होता। यह बात उसने बूढ़ी भिखारिन को बतायी तो वह चीख पड़ी,”कहाँ मुँह काला किया है? कौन है वह? अब उसके साथ ही रह, नहीं तो लोग जीना हराम कर देंगे।” बूढ़ी की हिदायत से वह बिल्कुल नहीं हिली। वह उसका पता कैसे बताती? वह तो कहता था मैं तुम्हारे दिल में रहता हूँ। उसने पता बता दिया तो लोग उसका दिल नहीं चीर देंगे।
उसके पेट का बच्चा अब बढ़ने लगा। बूढ़ी भिखारिन की बात मानकर इन दिनों वह शहर के जनाना अस्पताल के बाहर ही पड़ी रहती जहाँ मनचले उस पर फब्तियाँ कसतें, अरे! अपने दूल्हे का नाम बता दे, हम उसे ढूँढ लायेंगे। बड़े-बूढ़े ताने मारते, खाने को कुछ नहीं मिलता पर मजे मारने को सब कुछ मिलता है। वह क्या उत्तर देती?
सरकारी अस्पताल में उसकी बच्ची का जन्म हुआ। रुई जैसी कोमल एवं चाँद जैसी सुन्दर। उसे मानो नवों निधियाँ मिल गयी। उसकी छातियों से दूध यूँ बहने लगा जैसे अपनी संतानों का पालन करने के लिए नदियाँ पहाड़ों से उमड़ पड़ती है। उसे पहली बार लगा कि निर्धन भी कितने धनी होते हैं?
अस्पताल में एक नर्स बहुत अच्छी थी। उसने बच्ची का नाम ‘मीनाक्षी’ रखा। कहती थी इसकी आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वह चार दिन अस्पताल में रही। इन दिनों उसे खाना, दूध सरकार से मुफ्त मिला।
अगले पन्द्रह दिन तक वह अस्पताल के बाहर प्रांगण में पड़ी रही। वहीं कुछ औरतें दया कर उसे खाने को दे देती। कुछ रोज पश्चात् वह पुनः उसी भग्नमंदिर में आ गयी। बच्ची की ममता में वह इस तरह खोयी जैसे संसार में कोई दुख ही न हो। यहाँ-वहाँ से मांगकर उसने कुछ खिलौने भी जुटा लिये।
पांच वर्ष की होते बच्ची शहर साथ भीख मांगने जाने लगी। एक दुपहर इतनी तेज बारिश हुई की दोनों ऊपर से नीचे तक भीग गये। उस रात उसे वहीं रुकना पड़ा। रात दोनों शहर में ही सो गये। सुबह उठकर उसने बच्ची का सर छुआ तो वह चीख पड़ी। बच्ची का शरीर अंगारों की तरह तप रहा था। वह उसे लेकर अस्पताल भागी। जूनियर डाॅक्टर ने उसे जाँचा, यह एक विशेष प्रकार का दिमागी बुखार था। जूनियर डाॅक्टर ने अधीक्षक से वार्ता की तो उसके माथे की नसें तन गयी। उसने जूनियर डाॅक्टर को समझाया, इसे किसी तरह यहाँ से दफा करो, खामख्वाह सरकारी आँकड़े बिगड़ जायेंगे। मंत्रीजी की विजिट भी दो दिन बाद होने वाली है।बीमारी की खबर फैलते ही शहर में हड़कंप मच जायेगा। जूनियर डाॅक्टर ने बाॅस की आज्ञा शिरोधार्य कर उसे समझाया, यहाँ सब पलंग भरे हुए हैं।इस बीमारी का इलाज भी यहां संभव नहीं है। भयानक छूआछूत की बीमारी है। तू इसे किसी प्राईवेट अस्पताल में बता दे। उसने उसे अस्पताल का नाम भी बताया।
वह बेतहाशा प्राईवेट अस्पताल पहुँची। वहाँ का डाॅक्टर कोई भला आदमी लगता था। उसने तरस खाकर बच्ची को भर्ती तो कर लिया पर कुछ समय बाद उसे एडवान्स जमा करवाने एवं दवाइयाँ लाने का नुस्खा भी थमा दिया। वह रुपये की भीख मांगने दर-दर फिरी पर ऐसी बदचलन को रुपये कौन दे? वह भागी-भागी फिर अस्पताल आयी, वहाँ खड़े डाॅक्टर के पाँव पकड़कर बोली, “मुझे कुछ मोहलत दो, मैं कल शाम तक रुपये चुका दूंगी। कल इसके बाबा आने वाले हैं।” झूठमूठ कहकर उसने जैसे-तैसे डाॅक्टर को मनाया।
देर रात तक वह करवट बदलती रही। बच्ची की पीड़ा उसकी अंतर्वेदना को और हवा देने लगी थी। न जाने क्या संकल्प कर वह उस रात उठी एवं शहर के प्रख्यात देव मंदिर के आगे आकर खड़ी हो गयी। वह अक्सर यहाँ भीख मांगने आती थी। वह मंदिर का चप्पा-चप्पा जानती थी। मंदिर के पिछवाड़े से गर्भ स्थान की ओर एक रास्ता था।यहीं से मंदिर के मुख्य पुजारी एवं सेवक आते-जाते थे। वह चुपचाप उस रास्ते से होती हुई मंदिर के गर्भगृह में पहुँच गयी।
बाहर पुजारी एवं सेवक गहरी निद्रा में लीन थे। प्रभु के मस्तक पर हीरों जड़ा मुकुट तथा गले में स्वर्णहार, मालायें लटकी थी। कानों में कुण्डल चमक रहे थे। वे पीताम्बर धारण किए हुये थे। उस दिन वह बहुत आक्रोश में थी। उसने आँखों में आँसू भरकर पहली बार प्रभु से पूछा, ‘‘प्रभु ! आखिर वह सत्य क्या है जिसकी तुम और तुम्हारा संसार दुहाई देता है? क्या देह का धर्म सत्य नहीं है? अगर हां, तो मैं बदचलन क्यों? क्या ममता सत्य नहीं है? अगर हाँ तो एक माँ इतनी मजबूर क्यों? क्या तड़पती हुई एक मासूम बच्ची सत्य नहीं है? अगर हाँ तो वह बेइलाज क्यों? क्या निर्धनता सत्य नहीं है? अगर हाँ तो वह इतनी विकराल क्यों? यह सत्य तुम्हारे नाम के सत्य से भी ऊपर है जिसे तुम्हारी पृथ्वी पर वही समझता है जिसने उसे भोगा है। तुम्हारा सत्य तो आज धनपतियों, शक्तिसम्पन्न राजनेताओं, अफसरों एवं गुण्डों-बदमाशों के मुखौटों में खो गया है। इन्हें क्यों नहीं कहते कि मुझे इन स्वर्णहारों, रत्नजड़ित मुकुट एवं दमकते कुण्डलों की आवश्यकता नहीं है? पहनाना है तो मुझे अपने विश्वास के गहने पहनाओ? छिड़कना है तो अपनी आत्मा पर त्याग का पानी छिड़को? इन मूर्तियों की बजाय मुझे अपनी अंतर आत्मा में प्रतिष्ठित करो? इन देव मंदिरों में नित्य दर्शन करने की बजाय मजबूरों, मोहताजों, मेहनतकशों, अपाहिजों एवं दीन-दुखियारों में मुझे एवं मेरे सत्य को खोजो।लेकिन तुम्हें क्या! तुमने पहले किसकी सुनी है जो अब मेरी सुनोगे। असंख्य दीन दुखी तुम्हारी चौखट पर सर फोड़कर चले गये पर तुम कुछ न बोले। सत्य की डोर थामने वाले हर शख्स को तुमने कड़ी आजमाइश पर रखा। ऐसे निकृष्ट, नकारा प्रभु को यूँ सज-धजकर खड़े होने का क्या अधिकार है?’’
उसने चुपचाप भगवान के गले से सोने की एक माला उतारी एवं बाहर आ गयी। बारिश के दिन थे। आसमान काले बादलों से ढका हुआ था। चारों और गहरा सन्नाटा था। बाहर कुछ कुत्ते सर ऊपर कर भौंक रहे थे मानो वे भी प्रभु से मुँह फाड़कर कह रहे हो कि प्रभु तुम्हारा सत्य आज वैसे ही खो गया है जैसे बादलों में चन्द्र। युग बीत गये, आवरण के यह बादल हटते ही नहीं?
दूसरे दिन वह चोरी की हुई माला बेचने गयी तो बाजार में हड़कम्प मच गया। देव मंदिर में चोरी? सुनार ने उसे तुरन्त पुलिस के हवाले किया। थाने जाते-जाते लोगों ने उसे अधमरा कर दिया।
अगली सुबह जब पुलिस उसे कोर्ट ले जा रही थी तो उसने देखा कुछ लोग कंधे पर गमछा डाले शमशान की तरफ जा रहे हैं। सबसे आगे एक व्यक्ति अपने दोनों हाथों में एक बच्चे की मृत देह को लिये चल रहा था। बच्चा सफेद चादर में लिपटा था। उसे देखकर सभी क्षणभर के लिए वहीं रुक गये। भीड़ में कानाफूसी होने लगी। एक वृद्ध ने चादर हटाकर उसे मृत देह का चेहरा दिखाया तो वह स्तब्ध रह गयी। अगर कोई उसका कलेजा चीरता तो रक्त की एक बूंद न निकलती। यह उसकी ममता का अवसान था। बच्ची ने कल रात अस्पताल में दम तोड़ दिया था। उसकी अरथी कुछ समाजसेवी श्मशान की ओर ले जा रहे थे।
इस बार वह खूब जोर से चिल्लायी, ‘राम नाम सत्य है’ एवं वहीं ढेर हो गयी।
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22.06.2006