राजदर्प

सर्दी में गुनगुनी धूप का सेवन ब्रह्मानन्द से कम नहीं है। 

सचिवालय में उद्योग विभाग के बाहर कुछ उद्योगपति गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे। इन उद्योगपतियों में श्री रामावतार अग्रवाल, श्री जैन, श्री धूत एवं श्री माहेश्वरी काॅरीडोर में इधर-उधर खड़े थे। सभी एक्सप्लोजिव्स (विस्फोटक पदार्थ) के व्यापारी थे। अब तक एक्सप्लोजिव्स विदेशों से आता था। सरकार पहली बार इसके उत्पादन का लाईसेंस कुछ उद्योगपतियों को देना चाहती थी। यह एक तरह की लाॅटरी थी। लाईसेंस जिसे मिलता, उसकी चाँदी थी।

उद्योग विभाग की सचिव मैडम शैफाली, आईएएस अधिकारी थी। उसी की कृपा दृष्टि से इन उद्योगपतियों में से एक का चयन होना था। कहते है ऐसी खूबसूरत अधिकारी सचिवालय में वर्षों से नहीं आयी। साक्षात्कार आज सुबह ग्यारह बजे होना था। सभी उद्योगपतियों ने दस मिनट पहले अपनेे विजिटिंग कार्ड्स उसके पीए को भिजवा दिये थे। 

सभी व्यापारी बारह बजे तक इंतजार करते रहे। मैडम शैफाली अब तक नहीं आई थी। सभी बार-बार कलाई पर बंधी घड़ी देख रहे थे। तभी मैडम के पी.ए. ने बाहर आकर सूचना दी, ‘मैडम को सर्दी लग गयी है, वह एक बजे तक पहुंचेंगी।’

व्यापारियों का चेहरा लटक गया। सभी खड़े-खड़े थक गये थे, चेहरे की कुढ़न देखने लायक थी। समदुखियारे जल्दी करीब आते हैं। समान पाखी साथ-साथ उड़ते हैं। अब तक अलग-अलग खड़े व्यापारी एक दूसरे के नजदीक आने लगे। थोड़ी ही देर में सभी एक झुण्ड में खड़े हो गये। सर्दी में झुण्ड में खड़ा होना मनभावन लगता है। अब सबके जुबान में खुजली चलने लगी। सभी मन की भड़ास निकालने लगे। 

मि. रामावतार: यह आईएएस अधिकारी खुद को समझते क्या हैं? यह जनसेवक है या जन त्रासक। सर्दी क्या इन्हीं पर पड़ती हैं? मैडम चाहती तो एक घण्टा पहले भी सूचना भेज सकती थी कि वो देरी से आयेगी। व्यापारी मरे इनकी बला से। इंतजार करवाना इनकी फितरत में है। व्यापारी इनका बिगाड़ भी तो नहीं सकता। धणी रो कुण धणी। खड़े-खड़े पाँव जवाब दे गये हैं।

मि. जैन: क्या सरकार के पास उद्योगपतियों को बिठाने के लिए चार कुर्सियाँ भी नहीं है? चाय और जलसेवा की तो हम उम्मीद भी नहीं करते। 

मि. जैन ने दरवाजे पर खड़े चपरासी को इशारे से बुलाया। इशारों की भाषा चपरासी से अधिक कोई नहीं समझता। कान में कलम घुमाते हुए चपरासी आगे आया। मि. जैन कुछ कहते उसके पहले खुद ही बोल पड़ा, ‘चाय पीनी है क्या?’ चपरासी का सेवाभाव सराहनीय था। मि. जैन ने उसे सौ रुपये दिये। 

थोड़ी देर बाद सभी चाय का लुत्फ ले रहे थे। चपरासी ने बाकी रुपये मि. जैन को देना मुनासिब नहीं समझा। मि. जैन ने माँंगे तो होठ काटकर बोला, ‘हमारी चाय क्या ऊपर से आती है?’ मि. जैन अपना सा मुँह लेकर रह गये। सभी व्यापारी पुनः बतियाने लगे। अब मि. धूत बोल रहे थे। 

मि. धूत: सरकार औद्योगिक प्रोत्साहन की सिर्फ बातें करती है। काम कैसे होता है, हमारी आत्मा  जानती है। देश के रोजगार का नब्बे प्रतिशत रोजगार हम देते हैं एवं हमारा जनसेवकों की नजरों में यह सम्मान है। 

मि. माहेश्वरी: मैडम को जितनी तनख्वाह मिलती है उससे तीन गुना तनख्वाह मेरे कई मुलाजिम लेते हैं लेकिन यहाँ आकर हम ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे मंदिर के बाहर भक्तजन। जनसेवक ऐसे दर्शन देते हैं जैसे पट खुलने पर देवता। बाबुओं के नाज नखरे इनसे भी ज्यादा हैं। ऐसे बातें करते हैं जैसे देश इनके भरोसे चल रहा है। रिश्वत लेकर काम करते हैं, इतना ही नहीं काम करके ऐसे तरेरते हैं जैसे मैं नहीं होता तो आपका काम असंभव हो जाता, आप बरबाद हो जाते। मैं तो सुबह-सुबह भगवान की आरती के साथ बाबुओं की आरती भी उतार लेता हूँ। देवों के साथ वरन् मैं तो कहूँगा कि देवों से पहले दानवों की आरती जरूरी है। न जाने कब दायें-बायें हो जाये। 

चर्चा अब गरम होने लगी थी।

मि. रामावतार: मैं तो कहता हूँ अंग्रेेजों का राज्य इससे अच्छा था। उस जमाने में संभ्रांत वर्ग का आदर तो था। आजादी ने शेर और सियारों को एक घाट पर खड़ा कर दिया है। रावले घोड़ों पर बावले सवार आ गये हैं। हम स्वतंत्र नहीं हुए है, गुलामी का रूप बदला है।

मि. धूत: बिल्कुल सही कहते हो रामावतार जी। पहले एक राजा की चाकरी करने से काम चल जाता था। अब जने-जने राजा हो गये हैं। 

मि. धूत संवेदनशील व्यक्ति थे। बात करते-करते उनकी आँखें लाल होने लगी। स्थिति भाँपकर मि. माहेश्वरी ने बात को चलते से पकड़ा। 

मि. माहेश्वरी: यह हमारी गलती है कि हमने इनको सर चढ़ाया है। हम व्यापारी मिल जाये तो इनको नानी याद आ जाये पर व्यापारी कभी मिल नहीं सकता। संगठित होने के गुण बनियों में हैं ही नहीं। हम इनका घर भरते हैं फिर भी इनके आगे खड़े रहते हैं। उद्योगपति की इस देश में कोई इज्ज़त नहीं। जोखिम हम लें, रिश्वत हम दें, रोजगार हम दें, ब्याज हम भरें, मजदूरों को हम फेस करें और चोर भी हम कहलावें। सरकार क्या जानती नहीं असली चोर कौन है पर सब एक दूसरे को ठेल रहे हैं। अन्त में व्यापारी ही गरीब की जोरू दिखती है। सब उसी के चीरहरण में लग जाते हैं। सबके दोषों का ठीकरा हम पर फूटता है। चुनाव में चंदा लेते वक्त तो राजनीतिज्ञ ऐसे आते हैं जैसे इन-सा विनम्र कोई नहीं और चुनाव होते ही ऐसे नदारद होते हैं जैसे गधे के सर से सींग। छुपने की कला कोई भारतीय राजनीतिज्ञों से सीखे। जब तक हम असंगठित है, हमारी दुर्दशा ही होगी। अमेरिका में उद्योगपतियों के घर जन सेवक जाते हैं, यहाँ गंगा उल्टी बह रही है। 

मि. माहेश्वरी के विचारों ने सबकी रगों में जोश भर दिया। एक बजने को थे। आज सभी ने मिलकर तय किया कि हम मैडम का संयुक्त रूप से विरोध करेंगे। उनके आते ही उन्हें आगाह करेंगे कि यह कोई तरीका है आने का? अगर व्यापारियों को आपकी कृपा की जरूरत है तो आप भी व्यापारियों के बिना क्या कर लेंगी? आखिर हमारा भी कोई सम्मान है। चार मिलकर एक औरत को ठिकाने नहीं लगा सकते तो कैसी मर्दानगी? 

तभी बाहर दरवाजे पर एंबेसेडर कार रुकी। उस पर लाल बत्ती लगी थी। आगे से एक गनमैन निकला। उसने कदम ठोक कर मैडम का दरवाजा खोला। शैफाली गाड़ी से बाहर निकली। उम्र पैंतीस वर्ष, ऊँचा कद, तीखे नक्ष, रक्तवर्ण एवं तेजस्वी काली आँखें। हाफ स्लीव ब्लाउज पर साटिन की साड़ी पहने  वह ऐसी लग रही थी मानो कोई राजस्त्री चल रही हो। चेहरे पर ऐसा तेज बसा था मानो सूर्य कोहरा फाड़कर निकला हो। मैडम का दर्प देखकर सभी व्यापारी हतप्रभ रह गये। सबके चेहरे निस्तेज हो गये। जैसे सूर्य पर थूकने वाले जुगनू सूर्य उदय होते ही पस्त हो जाते हैं, सभी बनियों का शौर्य धरा रह गया। संगठन रुई की तरह उड़ गया। अपनी ऊँची छातियों को मंद-मंद उछालते हुये सिंहनी की चाल से वह रूपगर्विता आगे बढ रही थी। 

मि. माहेश्वरी दौड़कर आगे आये एवं गर्दन नत कर बोले, ‘गुडमोर्निंग मैडम!’

मि. धूत ने आगे बढ़कर उनका ब्रीफकेस पकड़ा। 

मि. रामावतार पीछे कैसे रहते ? वाणी में शहद घोलकर बोले, ‘मैडम! आज सर्दी बहुत तेज है। आपकी तबीयत तो ठीक है ना।’

मि. जैन भला यह सुअवसर कैसे छोड़ते। मुँह में मिठास घोलकर बोले, ‘मैडम! मुझे चिंता हो चली थी। आज तबीयत ठीक नहीं थी तो आप अवकाश ले लेती। हम कल आ जाते।’ मैडम ने तीखी आँखों से सबकी ओर देखा, आगे बढ़ते हुए हल्की-सी मुस्कराई एवं कैबिन के भीतर चली गयी। 

उसके केबिन में जाते ही मि. माहेश्वरी बुदबुदाये, ‘लुगाई की जात सबके मुँह पर झाड़ू फेर गयी।’

बाकी सब ने सुर में सुर मिलाया।

मि. धूत: ‘बनियों की भी कभी यूनियन बनी है?’ 

मि. जैन: ‘सत्ता का सूर्य उदय होने पर कौन-सा तारा टिकता है भैया।’

मि. रामावतार: ‘लुगाई की जात को हजार हाथों से नमस्कार है।अरे! जब घर में ही हमारी नहीं चलती तो बाहर क्या खाकर दम भरेंगे?’ 

सूर्य अब चढ़ आया था। सभी उद्योगपतियों के माथे पर पसीने के बूँदें चमकने लगी थी।

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24.11.2005

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