आज सुबह से ही घर में सभी काम पर लगे थे, सभी के चेहरों पर एक विशेष उत्साह था। सबको मालूम था, आज लड़के वाले रेखा को देखने आ रहे हैं। उमेश पंखें, फानूस, ट्यूबें चमका रहा था। उर्मिला रसोई में पकवान बनाने में व्यस्त थी। कई काम तो उसने सुबह जल्दी उठकर ही निपटा लिए थे। फूलदान में ताजा गुलाब की कलियाँ महक रही थी, सभी मेजपोश व कुशन कवर बदल दिये गए थे। स्वच्छ कशीदा किये मेजपोश व दीवान पर बिछी नई चादर ड्राईंग-रूम की खूबसूरती दोगुना कर रही थी। कुछ दिन पहले ही रेखा ने कई घण्टे मेहनत कर इस पर फेब्रिक-पेन्ट से सुन्दर फूल उकेरे थे।
रेखा अपने कमरे में खुद को संवारने में लगी थी। कल शाम को ही उर्मिला ने उसे रूप निखारने के सारे नुस्खे समझा दिए थे। नोजपीन हीरे की ही पहननी है, टाॅप्स मोतियों वाले ज्यादा सुन्दर लगेंगे, गले में मोतियों का हार किस तरह पहनना है, कौन-सी साड़ी पहननी है और किस तरह मेहमानों का स्वागत करना है वगैरा वगैरा।
मैं हाथ में सामान की सूची लिये बाजार जाने की तैयारी में था। धूप आंगन में चटकने लगी थी। लड़के वालों के आने में अभी दो घण्टे की देरी थी। उन्होंने सुबह ग्यारह बजे का समय दिया था। एक अजीब-सी आतुरता से मेहमानों के आने का इंतजार था जैसे किसी दफ्तर का बाॅस अपने मुलाजिमों की मूल्यांकन रिपोर्ट लिखने आ रहा हो। सदियाँ बीत गई, कहने को हम कितने ही शिक्षित होकर सभ्य समाज से जुड़ गए पर न जाने क्यों, आज भी लड़की वाला खुद को इतना दयनीय और असहाय समझता है।
समय पंख लगाकर उड़ता है। जीवन की घुड़दौड़ में मीलों के फासले तय हो गए। किसी जमाने में घने काले बालों से ललाट छिप जाता था। नहाकर आता तो उर्मिला गीले टाॅवल से ललाट के बाल ऊपर कर रगड़ती थी। आज सिर पर चाँद चमकती है।
हमारी शादी हुए पच्चीस वर्ष से ऊपर हो गए। रेखा आज तेईस वर्ष की है, शादी के दो वर्ष बाद हुई थी वह। उसके तीन वर्ष बाद उमेश हुआ था। जीवन की आपा-धापी में कब समय गुजर गया, पता ही नहीं चला।
रेखा ने हाल ही एम.ए. (अर्थशास्त्र) में बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण किया है। पढाई के अलावा अन्य गतिविधियों में भी सदैव अव्वल रही है। गत वर्ष इन्टर स्टेट बैडमिंटन एकल प्रतियोगिता भी उसी ने जीती थी। इसके अलावा भी ढेरों प्रमाण-पत्रों की गड्डी जमा कर रखी है। तीखे नाक-नक्श, ऊँचा कद, बड़ी-बड़ी आँखें पर रंग गेहुँआ है। उर्मिला इसी वजह से आशंकित है। रूप का आकर्षण प्रथम आकर्षण होता है। लड़के सबसे पहले रूप ही देखते है और अंत में अक्ल, फिर जीवन भर अपनी अदूरदर्शिता का खामियाजा भुगतते हैं, पर सभी लड़कियाँ तो रूपवती नहीं होती।
मैं अक्सर उर्मिला से कहता था, ‘‘तुम चिंता मत किया करो, तुम्हारी बेटी के इस दुनिया में आने से पहले ही उसके लिए दूल्हा आ गया होगा। अंततः सबकी शादियाँ हो जाती है, कुंवारा कोई नहीं रहता।’’ उर्मिला मेरी बातों से आशान्वित तो होती पर चिंता की रेखा उसके माथे से नहीं मिटती। जवान बेटी की जिम्मेदारी से मुँह कैसे मोड़ा जा सकता है?
इससे पहले भी तीन लड़के रेखा को देख गए हैं। सभी शिक्षा, रूप-गुण आदि में उससे उन्नीस थे पर सभी के जेहन में रूपवती कन्याएँ बसी थी। सभी ने चतुराई से ना कह दिया। हम भी अब तक इस बात को समझ चुके थे कि हमारे माल का मूल्य क्या है। स्नेह से सराबोर परिवार में किसे किसके रूपगुण देखने की फुरसत है। सबको अपनी बेटी संसार की सबसे रूपवती कन्या लगती है। वही नाक-नक्श, रूप एवं अदाएँ है पर माँ-बाप एवं अन्यों की नजर में कितना अंतर हो जाता है।
आज भी हमें कोई विशेष उम्मीद नहीं थी। सफलता मुँह चढ़कर बोलती है, असफलता सर चढ़कर। मेरी चचेरी बहन शंकुतला ने टेलिफोन पर बता दिया था कि लड़का सी.ए. है, स्मार्ट है एवं घर बार से भी संपन्न है। लड़के के पिता उदयपुर शहर के जाने माने उद्योगपति हैं। वहीं उनकी कई फैक्ट्रियाँ एवं शहर की पाॅश काॅलोनी में मकान है।
उनका मकान शंकुतला के मकान के पास ही था। उसी के कहने से प्रभावित होकर वह यहाँ जयपुर लड़की देखने आ रहे थे। ऐसा घर-वर मिलना हम सबके लिए एक स्वप्न ही था। पर बुजुर्गों ने ठीक ही कहा है-‘लड़की आपकर्मी होती है बापकर्मी नहीं।’ वह अपने भाग्य से आगे बढ़ती है, माँ-बाप के भाग्य से नहीं।
ठीक ग्यारह बजे एक कार हमारे दरवाजे पर आकर रुकी। मैं, उमेश व उर्मिला उन्हें रिसीव करने आगे बढ़े।
‘‘आइये अरुणजी, मोस्ट वेलकम! रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं हुई!’’ मैंने औपचारिकतावश मुस्कराते हुए लड़के के पिता से पूछा।
‘‘बिल्कुल नहीं! रास्ता इतना अच्छा था कि हमें सफर का अहसास ही नहीं हुआ।’’ सभी इतने सहज एवं सौम्य थे कि आतुरता से उत्पन्न हमारा सारा तनाव समाप्त हो गया।
अब तक अरुणजी उनकी पत्नी आभा एवं लड़का विनय अंदर दाखिल हो चुके थे। लड़का तो एकदम राजकुमार-सा था। ऊँचा कद, तीखे नाक-नक्श, उन्नत ललाट, बड़ी-बड़ी आँखे एवं शरीर सौष्ठव से परिपूर्ण देह। उसकी शिक्षा फिर सोने पे सुहागा थी। मैं मन ही मन मनौती मांगने लगा।
सभी अंदर आकर सोफे पर बैठ गए। उर्मिला एवं आभाजी आपस में बातचीत करने लगी। औरतों की अपनी बातें होती हैं, उनकी दृष्टि कहीं अधिक दूर तक खोजती है। रहस्य की बातें करने में वो पारंगत होती हैं। मैं अरुणजी के साथ बातों में मशगूल हो गया। बेतकल्लुफ हँसी एवं दबंग आवाज में वो बतिया रहे थे। उनके विशाल उद्योगों की तरह ही उनका विशाल व्यक्तित्व था। मैं हैडमास्टर, उनके आगे स्वयं को बहुत ही दीन महसूस कर रहा था।
रह-रह कर मैं शिष्टतावश आभाजी से भी बात करता। उनका सौम्य, मृदु व्यवहार वाकई काबिलेतारीफ था। न जाने मुझे एकाएक क्यों लगा कि मैंने उन्हें कहीं काफी नजदीक से देखा है। मैंने दिमाग पर जोर डाला पर कुछ भी याद नहीं आया। यह तो तय था कि मैं उनसे पहले मिल चुका हूं पर मौके की नजाकत देखकर मैं चुप ही रहा कि न जाने किस बात को खोदने में क्या बात निकल आए। शायद उन्हें भी ऐसा लगा पर वह भी चुप कर गई। तमाम प्रयासों के बाद भी मेरा असमंजस बरकरार था कि हो न हो मैंने इन्हें अवश्य कहीं देखा है।
इसी उधेड़बुन में रेखा ने ड्राईंग रूम में प्रवेश किया। समय का पहिया जैसे तेजी से पीछे घूम गया। एकबारगी तो मुझे लगा जैसे उर्मिला ही खड़ी हो, साक्षात् उर्मिला के यौवन की प्रतिकृति। वहीं रूपरंग, नैननक्श, मधुर मनोहारी मुस्कान, वही सौम्य विनम्र व्यवहार, वही मोहिनी चाल, कांतियुक्त सदर्प चेहरा।
मैं उन दिनों में खो गया जब मैं उर्मिला को देखने गया था। कोई चार लड़कियाँ देखने के बाद उर्मिला पंसद आई थी। जवानी में मैं भी चंद खूबसूरत लड़कों में था, नौकरी भी जल्दी लग गई थी एवं मेरी शादी के भी कई रिश्ते आए थे। एक-दो लड़कियां तो मैंने अकारण ही रिजेक्ट कर दी थी। उन्हें रिजेक्ट करते वक्त मैंने जरा भी नहीं सोचा कि उन अबोध बालाओं पर क्या गुजरेगी। मित्र आपस में बातें करते तो मैं इन बातों को ऐसे सुनाता जैसे यह मेरी उपलब्धियाँ हो। यौवन में अहंकार एवं उन्माद सर चढ़कर बोलता है। एक बार तो उर्मिला के लिए भी मैंने ना कर दी थी, पर माँ बाबूजी की जिद के आगे झुकना पड़ा। बाद में हमेशा मैं मन ही मन माँ बाबूजी को उनकी जिद के लिए धन्यवाद देता था, सचमुच ऐसी सौम्य एवं विनम्र पत्नी पाकर मैं स्वयं को बहुत खुशकिस्मत समझता था।
आज मैं एक नये युग में खड़ा था। जब पहली बार रेखा को किसी ने रिजेक्ट किया तब मुझे समझ में आया कि लड़की को रिजेक्ट करने का दर्द माँ-बाप के हृदय में कैसा होता है। आगे जब दो बार फिर ना आया तो मेरा आत्म विश्वास ही टूट गया। रात में सोता तब सोचता, हो न हो ये मेरे पूर्व कर्मों का ही दोष है। जो मैंने किया वही पाया। मैं यौवन की अपरिपक्वता एवं अल्हड़पन को धिक्कारने लगता।
मेहमान एवं हम सभी अब नाश्ता कर रहे थे। थोड़ी देर में अरुणजी बेतकल्लुफी से बोले, ‘‘भई! शादी हमें थोड़े ही करनी है, लड़के-लड़की को अलग से भी बात करने दो। कल को यह नहीं कह दें कि माँ-बाप ने एक दूसरे को परखने का मौका ही नहीं दिया।’’
‘‘वाई नाॅट?’’ मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलाई और रेखा सेे विनय को ऊपर अपना कमरा दिखाने को कहा। ऊपर जाकर दोनों बातों में मशगूल हो गए। इधर हम सभी चाय की चुस्कियाँ लेते रहे। मैं रह-रह कर आभाजी को देखता तो हर बार यही लगता जैसे मैंने उन्हें पहले कहीं देखा है, पर तमाम प्रयासों के बावजूद स्मृति उभर नहीं रही थी।
मेरे असमंजस को आभाजी ने विराम दिया। उन्होंने स्वयं ही पहल कर कहा, ‘‘लगता है आपको याद नहीं आ रहा आपने मुझे कहां देखा है, पर मुझे सब कुछ अच्छी तरह से याद है। आप अपने विवाह के पहले जिन लड़कियों को देख रहे थे मैं उन्हीं में से एक हूँ। शायद आपको मैं पसंद नहीं आई थी।’’ मैं अवाक् रह गया। आभाजी इस बात को इस मौके पर इतनी सहजता एवं साहस से कह देगी मैं सोच ही नहीं पाया।
अरुणजी ने स्थिति समझकर पैंतरा बदला, ‘‘भई प्रिंसीपल साहब, बहुत-बहुत धन्यवाद, वरना हमारी तो लुटिया डूब जाती। हमें ऐसी शानदार बीवी और कहां मिलती।’’ उन्होंने उन्मुक्त अट्ठहास से वातावरण का रुख बदल दिया। कुछ रुक कर फिर शायराना अन्दाज में बोले, ‘‘मंजिल वही है प्यार की, राही बदल गए।’’ उन्होंने अपने वाक्चातुर्य से वातावरण को पूर्णतः सहज बना दिया।
बातों ही बातों में आभाजी ने मुझे एक मर्मस्पर्शी बात याद दिलाई ‘‘प्रिंसीपल साहब, आपको लेकर मेरे दिल में आज तक एक दंश है। लड़की पसंद आना या न आना एक सामान्य स्वाभाविक बात है पर आपका एवं आपके साथ आई आपकी भाभी का एक दुर्व्यवहार मुझे आज भी याद है।’’ राख में दबी चिंगारी की तरह उनके चेहरे से हल्का आवेश फूटने लगा था। आपने मेरा चश्मा उतरवाकर मेरी आँखें देखी थी एवं मेरे चश्मे का नम्बर पूछा था। यह बात मैं आज तक नहीं भूल पाई। पुरुष इतनेे दंभी क्यों होते हैं? यही व्यवहार मैं आपके साथ करती तो आपको कैसा लगता ? चश्मा तो तब आप भी पहनते थे वरन् आपके चश्मे का नम्बर मेरे नम्बर से कहीं ज्यादा था। कहते-कहते उनकी आँखें सजल हो उठी। मुझसे कुछ भी कहते नहीं बन रहा था, मेरी ऐसी घिग्गी बंधी कि मैं उन्हें ‘साॅरी’ भी नहीं कह सका। मेरा चेहरा खेद एवं शर्म से झुक गया। मुँह में जबान ही नहीं रही। सारी क्रियाशक्ति ही जैसे लुप्त हो गई।
उर्मिला ने स्थिति समझकर बात को संभाला, ‘‘तब इनमें अक्ल नहीं थी, तभी तो आप जैसी गुणवंती को छोड़कर हमें पंसद कर लिया। आप तो आज भी साक्षात् लक्ष्मी का अवतार हो।’’
शायद यह बात आभाजी को ठीक नहीं लगी। यह अरुणजी ने महसूस किया तो उन्होंने अपने विनोदी स्वभाव से बातों का रुख पुनः मोड़ा, ‘‘भई कल की बातें छोड़ो, फिलहाल तो उर्मिलाजी हमें वह ‘गुलाब हलवा’ खिलाइए, सुना है जयपुर में बहुत शानदार मिलता है।’’
बातों में यों ही वक्त निकल गया। मेरे चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थी। अब तक विनय एवं रेखा नीचे आ चुके थे। दोनों प्रसन्न नजर आ रहे थे पर उन्हें क्या पता था नीचे क्या बातें हुई हैं ? मेरी पीड़ा से बेखबर वो दोनों तो अपने स्वप्न संसार का सृजन कर रहे थे।
थोड़ी देर में अरुणजी ने बताया कि उन्हें वापस उदयपुर जाना होगा, क्योंकि कल उनके यहां कुछ मेहमान आने वाले हैं। हमने उन्हें औपचारिक विदाई दी। गाड़ी में बैठते हुए भी आभाजी अपना चश्मा रुमाल से साफ कर रही थी जैसे मुझे मेरी हरकतों की याद दिला रही हो।
उनके जाने के बाद मैं ड्राईंगरूम में आकर धम से बैठ गया। मुझे पूरी उम्मीद थी कि आभाजी बदला जरूर लेगी। स्त्री के मन में बदले की भावना बहुत गहरी होती है। लोग ठीक कहते हैं सांप एवं स्त्री किसी को नहीं छोड़ते। का न करे अबला प्रबल, को जग काल न खाय।
मैंने उर्मिला को स्पष्ट कह दिया, ‘‘अब यहां रिश्ता संभव नहीं है। सारा बना-बनाया काम बिगड़ गया। हमारी नियति में भी न जाने और कितना परेशान होना लिखा है……..।’’ तनाव में मैं न जाने क्या-क्या कह गया। मेरा विवेक जैसे लुप्त हो चुका था जिससे बेसुध सा होकर स्वयं को दोषी मानता पछतावे से भर उठा।
रेखा की आँखों में आंसुओं की लड़ी लग गई। उर्मिला चुपचाप उसे लेकर ऊपर कमरे में चली गई। मैं इसे एक हादसा समझकर भुलाने की कोशिश करने लगा। लड़के वाले ना ही करेंगे, यही सोच कर न तो मैंने उन्हें फोन किया और न ही शंकुतला से बात करने की जुर्रत की। विधाता ही विमुख हो तो हर कोई विमुख नजर आते हैं। रस्सी साँप के समान एवं हितैषी यमदूत लगते हैं। भाग्य के प्रतिकूल होने पर बनता काम भी बिगड़ जाता है।
आभाजी के विद्रोही तेवर अब भी मुझे झकझोर रहे थे। मैंने सोचा भी नहीं था कि ऐसी किरकिरी होगी। मेरी जिल्लत एवं बेकसी बयान नहीं की जा सकती। मेरी उम्मीद के चंद्रमा को मेरे ही दुष्कर्मों के राहू ने ग्रस लिया। मेरे खिन्न मन में शूल उभरने लगे थे । काश! ये निर्दयी आकाश मुझ पर गिर जाता।
अब किसी अच्छे जवाब की उम्मीद करना मूर्खता थी। संदेह के सर्प मेरे हृदय में रेंगने लगे थे। वैचारिक समुद्र में कुतर्क की लहरें उठने लगी थीं। मेरा दम घुटने लगा।
दूसरे दिन इसे आई-गई घटना समझकर स्कूल जाने के लिए निकल ही रहा था कि फोन की घंटी बजी। उधर से आभाजी फोन पर कह रही थी, ‘‘प्रिंसीपल साहब ! हमें आपकी लड़की बहुत पसंद आई है। आप शुभ घड़ी एवं शुभ योग दिखवा कर शहनाई बजवाने का मुहूर्त निकलवाएं। बस, विनय के पापा की एक ही इच्छा आप को इस शादी में पूरी करनी होगी, उन्हें दहेज से सख्त नफरत है, आप ऐसे किसी व्यवहार से उन्हें आहत न करें।’’
सारी आशंकाएँ निर्मूल सिद्ध हुई। मेरी आँखें भीग गई। शरीर शिथिल हो गया। जबान से आवाज ही नहीं निकल पाई। मेरा रोम-रोम आभाजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहा था।
युगान्तर के एक नये मोड़ पर मैं खड़ा था।
मैंने रिसीवर तुरन्त उर्मिला के हाथ में दे दिया।
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20.09.2002