दिसम्बर की कंपकंपाती ठण्ड में मावठ के दिन आते ही ठण्ड दूनी हो जाती है। हड्डियों के दर्द के चलते बूढ़े इन दिनों बहुत परेशान हो जाते हैं। बूढ़ी हड्डियों को चलने के लिए सूरज की गर्मी तो चाहिए ही, अहसासों की नमी भी उतनी ही आवश्यक है। इन्हीं दिनों अनेक बार लगता है बादल इकट्ठे होकर बर्फ की तरह जम गए हैं। क्या बादल स्वयमेव खुल जाएंगे ? इसके लिए उन्हें मशक्कत तो करनी होगी। उनकी मशक्कत भी तब कारगर होगी जब पीछे ऊंघता सूरज उन्हें सहयोग करें। हाँ , दोनों ठान लें तो संभव है।
इन्हीं मावठ के दिनों में महेन्द्र भण्डारी को लकवा क्या हुआ उनका जीवन थम गया। जैसे किसी तेज गति से चलती हुई ट्रेन को यकायक किसी ने जंजीर खींचकर रोक दिया हो , यही हालत महेन्द्रजी की थी। अभी उनकी उम्र अधिक तो नहीं थी, महज पचास वर्ष, अच्छे खासे दिखते थे, नित्य सुबह घूमने जाते, योगा करते पर समय किसका सगा है जो उनका होता। लकवा होने के पूर्व कैसे तीखे-बांके दिखते। गोरा रंग, इस उम्र में भी काले बाल, आंखों में ललाई, अच्छी देहयष्टि एवं कद-काठी उनके व्यक्तित्व को एक अलग आयाम देती। दो वर्ष पूर्व पत्नी शांता का निधन हुआ तो उन पर मानो बिजली गिरी लेकिन कारोबारी व्यस्तताओं के चलते इस वज्र दुःख को भी उन्होंने नीलकंठ की तरह गले से नीचे उतार लिया। हाथ-पांव चलते आदमी स्वयं को व्यस्त भी रख ले पर यूँ लाचार हो जाए तो क्या करे ? लकवा शरीर से अधिक मन को मारता है। वैसे तो उनके बड़े बेटे अनिल ने लकवा होने के कुछ दिन बाद ही चौबीस घण्टे का एक नौकर तीमारदारी के लिए रख लिया था पर किसी भी गैरतमंद, स्वाभिमानी, सक्षम व्यक्ति के लिए किसी के अधीन होकर जीना भी इतना सरल नहीं है।
महेन्द्रजी शहर के नामचीं उद्योगपति थे, पैसों की भरमार थी, पत्नी के रहते उन्होंने दोनों बेटों अनिल एवं सुनिल के ब्याह निपटा दिए थे। बहुएँ सुलक्षणा, सेवा में थी, घर में नौकर भी थे लेकिन अपना दुःख तो व्यक्ति को स्वयं ही उठाना पड़ता है। वस्तुतः कुछ दुःखों, कष्टों एवं तकलीफों की व्याख्या भी नहीं हो सकती, उन्हें वही जानता है जो भोगता है। सच ही कहा है व्यक्ति के पास धन-दौलत, कोठी-गाड़ी सब कुछ हो पर वह सुखी न हो तो अनेक बार पैसा उसे काटता तो है ही, चिढ़ाता भी है। इससे अच्छे तो वो लोग हैं जो छप्पर के नीचे चैन से सोते हैं।
अभी कुछ दिन पहले दोपहर चार बजे घर में घुसे तो बड़ी बहू उनका चेहरा देखकर घबरा गई। पापा तो हमेशा प्रसन्न मन आते थे लेकिन आज हालत ऐसी थी मानो किसी पेड़ पर बिजली गिर गई हो एवं वह बदरंग हो गया हो। वे चुपचाप आकर डाइनिंग टेबल के पास सर पकड़कर बैठ गए, बड़ी बहू चाय बनाकर लाई एवं टेबल पर रखी ही थी कि महेन्द्रजी फफक पड़े। बहू ने झकझोरा तो बोले, ‘’बहू! आज मैंने जीवन में वह किया जो कभी नहीं किया। अक्ल फिर गई। सब को सट्टा न खेलने की राय देता था पर आज कोई पुराना मित्र मिल गया तो उसके साथ बाजार चला गया, उसके उकसाने पर एक बड़ा सौदा कर लिया, कुछ ही देर में भाव इस कदर गिरे कि मुझे समझ नहीं आया अब क्या करूँ? सिर्फ दो घंटे के अंतराल में मुझे एक करोड़ का घाटा हो गया।” कहते-कहते वे इस तरह विलाप करने लगे मानो कोई महापाप कर बैठे हो। फैक्ट्री में बच्चों को सूचना दी गई, वे दौड़े आए, सुनिल ने स्थिति देखकर पिता को सांत्वना दी , “पापा ! आज हम उस मुकाम पर हैं कि इस हानि को पचा सकते हैं।” यह बात सच भी थी लेकिन थैली की चोट बनिया जाने। व्यक्ति अगर कठोर संघर्ष कर धन कमाता है तो उसका मूल्य भी वहीं जानता है। वे किसी के समझाये न समझे।
मावठ के मौसम में भी महेन्द्रजी के चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आई, मुंह से झाग आने लगे, उठने का प्रयास किया तो लड़खड़ाकर गिर पड़े। घर से कुछ दूर ही अस्पताल था, आनन-फानन वहां ले जाया गया, सूचना मिलते ही स्नायुतंत्र विशेषज्ञ डा. अजय वहां आए, उन्हें देखा और पल भर में समझ गए कि वे किसी सदमे का शिकार हुए हैं एवं उसी सदमे से उन्हें कमर से नीचे लकवा हो गया है। इस लकवे से उनका बांया हाथ भी निश्चेष्ट होकर लटक गया। पूरा इलाज किया गया, वे दस दिन अस्पताल भी रहे , लेकिन रोग जस का तस बना रहा। अंत में डा. अजय ने परिवार वालों को कह दिया कि हमें जो करना था, कर चुके, आप इन्हें घर ले जाएं, दवाइयां मैंने लिख दी है, अब इनका जीवन आपकी सेवाओं एवं फिजियोथेरिपिस्ट पर ही निर्भर है।
घर आते ही उनके कमरे में चौबीस घण्टे नौकर की व्यवस्था की गई, सेवा कहना तो सरल है पर ऐसी तीमारदारी अब किसके बस में है। कसरत करवाने वाले फिजियोथेरिपिस्ट की भी व्यवस्था की गई जो नित्य सुबह-शाम आकर उन्हें एक्सरसाइज करवाता। कल तक चुस्त-दुरस्त दिखने वाले महेन्द्र अब थके-हारे दिखने लगे। फिक्र फाके से भी बुरी है। कई बार विलाप करते ओह, मैंने इतना दुःख क्यों किया, करोड़ों में एक करोड़ चला जाता तो कौनसी लुटिया डूब जाती। मेहनत कर फिर कमा लेता लेकिन चिड़िया खेत चुग जाने के बाद क्या हो सकता है। गांठ से पूंजी भी गई सो तो गई , शरीर भी खराब किया।
इन दिनों एक विचित्र अवसाद के चलते दीवारों को तकते रहते। जब भी उठते , डगमगा जाते, बोलते तो वाणी का संतुलन नहीं रहता। समय बीतने के साथ उनकी याददास्त भी कम होने लगी, अक्सर भ्रांत रहते। दृष्टि कभी सामान्य होती , कभी कहते कम दिख रहा है। कभी अकारण सोते रहते तो कभी नींद नहीं आती, कुल मिलाकर इस रोग के चलते उनका शारीरिक-मानसिक सन्तुलन बिगड़ चुका था। घर में अकारण चिढ़ते रहते। प्रारंभ में बहू-बेटों ने सहा पर धीरे-धीरे सभी ने बाप से मिलना कम कर दिया, बस औपचारिकता भर मिलते। गाड़ी अब नौकरों के आसरे थी।
इस घटना को पूरे दो वर्ष होने को आए, इस दरम्यान दो फिजियोथेरिपिस्ट भी बदले पर उनका स्वास्थ्य जस का तस बना रहा। पहले दोनों फिजियोथेरिपिस्ट युवा थे, दोनों हृष्टपुष्ट पुरुष थे, महेन्द्रजी को संभालना सरल नहीं था, इसी हेतु इनको रखा गया था लेकिन उनके स्वभाव के चलते उन्होंने भी पल्ला झाड़ दिया। महेन्द्रजी का चिड़चिड़ापन दिन-दिन बढ़ता जा रहा था, कभी-कभी तो चिल्लाने लगते पर बीवी होती तो शायद सुन लेती, अन्य कौन सहन करे ? पुनः डा. अजय को नया फिजियोथेरिपिस्ट भेजने को कहा गया , इस बार फिजियोथेरिपिस्ट वीणा चोपड़ा थी। उम्र चालीस वर्ष, ऊंचा कद, चुस्त, भरा बदन, अच्छे नक्श, गहरी पानीदार , सम्मोहक आंखें जिसके किनारों पर नीली झांई थी , बात-बात पर खिलखिलाकर हंसती , यह कार्य करते हुए उसे पन्द्रह वर्ष होने को आए। तीन वर्ष पूर्व दुर्घटना में पति का निधन हो गया , एक बेटा था वही उसका जीवन आसरा था। उसे देखकर जीवन के सारे दुःख भुला लेती। अब वह भी बारह वर्ष से ऊपर का हो चुका था। वीणा वाक्पटु तो थी ही, उसका ड्रेससेंस भी काबिले तारीफ था। वह बहुधा सलवार-कुर्ते में होती, चेहरे पर हल्का मेकअप उसके रूप , व्यक्तित्व को और निखारता। माथे पर बिंदी लगाती एवं लोग अनेक बार कहते भी विधवा होकर बिंदी लगाती है, बन-ठन कर रहती है, बेबात हंसती है तो वह इन बातों को यूं दरकिनार करती जैसे सुना ही न हो। वह विदुषी थी, जानती थी दुःख सबके जीवन का हिस्सा है, सुख वस्तुतः इस दुःख को शिकस्त देने की कला ही है। अपने व्यवहार से उसने अब तक अनेक रोगी ठीक किए थे, उनके विभाग वाले तो यहां तक कहते कि जो किसी से ठीक नहीं होते, वीणा से ठीक हो जाते हैं।
वीणा जब पहली बार महेन्द्रजी से मिली तब वे अपने कमरे में खिड़की के पास व्हील चेयर पर बैठे बाहर बगीचे में झांक रहे थे। सुबह के नौ बजे होंगे। वीणा चलकर उन तक गई, कुर्सी पर रखा उनका निश्चेष्ट बांया हाथ धीरे से दबाया और बोली, “ आज से मैं आपकी नयी थेरेपिस्ट हूं। ’’ यह कहकर वह मुस्कुराई तो उसकी धवल दंतपंक्ति मोतियों-सी बिखर पड़ी। बाहर बगीचे के आगे दीवार पर कुछ पौधे रखे थे जिसमें मौसम के अनुरूप गुलाब , जूही , डहेलिया आदि फूल खिल रहे थे। बगीचे की घास एवं पौधों पर अब भी ओस की बूंदे थी जो यहां-वहां सवेरे की सूर्यकिरणों के संपर्क से चमक उठी थी। वातावरण में ठण्डक थी। नवम्बर के प्रारम्भिक दिन थे। वीणा पुनः बोली , “ओह ! कितने सुंदर फूल हैं। गुलाब कितने ताजा हैं। क्या आप इन्हीं फूलों को देख रहे हैं ?’’
“जी, हां ! कभी सुबह मैं स्वयं बागवानी करता था, तब बगीचा फूलों से भरा होता, सर्दी आने के दो माह पहले ही कलमें दुरस्त कर लेता, खाद-पानी का ध्यान भी मैं ही रखता, लेकिन अब देखो गमले कैसे बेतरतीब पड़े हैं , मैं तो इन पर रंग भी करता था, अब यह रंग कितने फीके पड़ गए हैं !’’ कहते-कहते वे हांफने लगे। ठीक से न बोलने एवं अनायास आये इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे सकपका गए।’
“ वो समय शीघ्र वापस आने वाला है। फूल फिर वैसे ही महकेंगे जैसे पहले खिलते थे। आप जो सोचते हैं, कुदरत एक दिन स्वयं उसे आपके हाथों में रख देती है। लगता है आपकी इच्छाशक्ति बहुत प्रबल है। ’’ कहते-कहते वीणा बेबात खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसकी दूधिया बत्तीसी से मानो जूही के फूल झरने लगे थे। पौधे में खिले जूही के फूल मानो उसके मुंह में आ गए थे।
“चलिये! अब कसरत करते हैं। आप पुनः बागवानी करें इसके लिए यह जरूरी है। ’’ वीणा मुस्कुराई फिर कुर्सी मोड़कर उन्हें पलंग तक लाई एवं सहारा देकर लिटाया।
महेन्द्रजी में क्षणभर के लिए उर्जा का संचरण हुआ।
कुछ ही देर में उनकी कसरत प्रारंभ हुई। वीणा कसरत करवाते हुए उन्हें गौर से देख रही थी। उसे समझ आ गया कि महेन्द्रजी एक ऐसे रोगी हैं जिनके भीतर जीवन की अनंत संभावनाएं हैं पर वे जीने की आशा , उमंग एवं उन्माद खो बैठे हैं। इसी निराशा के चलते असहाय बार-बार चिढ़़ते हैं। घर वाले उन्हें दरकिनार कर चुके हैं, पत्नी का कुछ वर्ष पूर्व निधन हो चुका है, मित्र अब देखने आते नहीं , फैक्ट्री जाते नहीं फिर जीवन को गति कैसे मिले ? लकवे में तो वैसे भी मस्तिष्क को उत्साह देने वाले केमिकल्स कम हो जाते हैं , जीवन को फिर संतुलन , आनंद, उत्साह से कैसे भरा जाए ?
कुछ लोग अपना कार्य ऐसे करते हैं मानो वे तपस्या, साधना कर रहे हो। उनका ध्यान आठ पहर चौसठ घड़ी लक्ष्य पर होता है। कौशल से संयुक्त होकर श्रम अप्रत्याशित परिणाम भी देता है। साधना तब इबादत बन जाती है।
वीणा कुछ दिन इसी प्रकार आती रही। महेन्द्रजी में भी कुछ परिवर्तन आए, वे इन दिनों कम चिढ़ते एवं वीणा को वांछित सहयोग भी करते। सुर मिलने से ही कार्य गति पकड़ता है।
ठण्ड अब बढने लगी थी । आज वीणा आई तो अन्य दिनों से भिन्न लग रही थी। वह नित्य सलवार-कुर्ता पहनती पर आज हल्के हरे रंग की सिल्क की साड़ी के ऊपर स्वेटर पहने खिल रही थी। साड़ी में उसका कद और ऊँचा लग रहा था। आंखों पर चमकती पलकें जिस पर आईशेड़ो लगी थी, आँखों की कोरों में हल्का काजल, कानों में मोती के बूंदें पहने वह गज़ब ढा रही थी।
“ ओह , आज तो आप बहुत सुंदर लग रही हो।’’ कहते हुए महेन्द्रजी जाने किस लोक में खो गए। शायद उन्हें पत्नी की याद हो आई थी।
“जी, धन्यवाद। आज बहुत दिनों बाद साड़ी पहनने का दिल हो आया। जीवन में बदलाव न आए तो जीवन नीरस हो जाता है।” कहते हुए वीणा ने साड़ी का पल्लू अपनी कमर में ठोंसा तो महेन्द्रजी की नजर उस ओर गई। मन ही मन सोचा, ओह ! यह कितनी कमसिन है। झक दुधिया कमर, नख-शिख ऐसे दिखती है मानो हुस्नपरी हो। यही सोचते महेन्द्रजी की आंखों में एक विचित्र चमक उभर आई, एक ऐसी चमक जिसमें उगते सूर्य की लालिमा का हल्का प्रकाश था। उन्हें लगा जैसे बगीचे में यकायक एक नई कली चटकी हो।
वीणा ने गहराई से महेन्द्रजी की आंखों में देखा, आशा एवं उत्साह से भरी आंखें , यकायक उसे एक विचार कौंधा, यह एक अद्भुत नवीन प्रयोग था।
दूसरे दिन से कसरत के बाद वह हमेशा दस मिनट रुककर उनसे बतियाती, उन्हें उनके अच्छे दिनों की याद दिलाती, अनेक बार तो इतना सटकर बैठ जाती कि महेन्द्रजी भौंचक्के रह जाते। उसका सामीप्य, बिंदास हंसी एवं सम्मोहक व्यक्तित्व उनमें अजीब-सी स्फूर्ति भर देते। कुछ ही महिनों में वे वीणा से ऐसे बात करने लगे मानो वो उनकी अंतरंग सखी हो। धीरे-धीरे वह उनकी ऐसी विश्वासपात्र हो गई कि वे उसे अपने मन की वो बातें भी कहने लगे जो वे अपने परिवार वालों तक को नहीं कहते। बात करते हुए वे अनेक बार हकला जाते एवं उनके मुंह के कोने से लार गिरने लगती।
आज वीणा कमरे में आई तो बहुत खिली लग रही थी। वह नित्य दरवाजा बंद कर पलंग के पास खड़ी होकर कसरत करवाती लेकिन आज सीधे पलंग पर आकर बैठ गई। अब वो अपने संकल्प को मूर्तरूप देने का सोचने लगी थी। यकायक उसने महेन्द्रजी के सर पर हाथ रखा एवं धीरे-धीरे अपनी अंगुलियां उनके बालों में घुमाने लगी। अंगुलियां घुमाते हुए बोली , “आपके बाल आज भी कितने घने, काले एवं रेशम जैसे कोमल हैं। इस उम्र में तो अच्छे-अच्छों के बाल सफेद हो जाते हैं। आप आज भी कितने रोमांटिक , युवा दिखते हैं। चलो ! आज हम कोई कसरत नहीं करेंगे। आज कसरत की छुट्टी, आज बस बतियाएंगे।’’ कहते हुए उसने अपने हाथ महेन्द्रजी के दोनों गालों पर रखे एवं उन्हें इस तरह देखा जिस तरह देखने को मर्द प्रेम कहते हैं। यह एक अप्रत्याशित व्यवहार था। महेन्द्रजी के मस्तिष्क में मानो बिजली कौंधी, उन्होंने गौर से देखा, वीणा की आंखों में लाल डोरे तैर रहे थे। उस रात महेन्द्रजी की नींद उड़ गई। वीणा की आंखों , कोमल अंगुलियों एवं बेबाक हंसी का जादू उनके सर चढकर बोलने लगा। वे अनुभवी, पके चावल थे, उन्हें क्षणभर में समझ आ गया कि वीणा उन्हें मन ही मन चाहती है। ऐसी विद्वान्, रूपसी एवं बिंदास स्त्री को प्रेम की पींगे बढ़ाते देख वे निहाल हो गए।
धीरे-धीरे महेन्द्रजी में आश्चर्यजनक परिवर्तन होने लगे। वे एक नये विश्वास, संकल्प एवं उत्साह से भर गए। वीणा नित्य आती, उनसे बतियाती, कुछ कसरत करवाती एवं जाते हुए ऐसी लजाई आंखों से देखती कि महेन्द्रजी का रोम-रोम खिल जाता। वे दिन-रात उसी की कल्पनाओं में खोये रहते। मन ही मन सोचते वीणा के रूप में सौभाग्य ने उनके द्वार पर दस्तक दी है, क्या ही अच्छा हो वे ठीक हो जाएं एवं आगे बढकर वीणा को विवाह का प्रस्ताव दें। अब तो जमाना बदल गया है। ऐसे रिश्तों को परिवार भी अनुमत करने लगे हैं। इन्हीं हसीन कल्पनाओं के बीच उन्होंने अपनी टांगों की ओर देखा जो निश्चेष्ट पड़ी थी। लेकिन यह क्या ! आज उनकी टांगें हिलने लगी, उनका निश्चेष्ट हाथ भी यंत्रचालित-सा उनकी टांगों तक जा पहुंचा। यह एक हिमखण्ड पिघलने जैसी बात थी।
प्रेम की गरमी एवं अहसासों की नमी से मनुष्य तो क्या पत्थर भी पिघल जाते हैं।
मावठ फिर आया। बादल फिर जम गए, लेकिन इस बार सूरज तन गया। सूरज ने ताप दिखाया तो बादल बिखरकर कर जाने कहां लुप्त हो गए।
एक अकल्पनीय आश्चर्य घटित हुआ एवं कुछ दिनों के अंतराल में महेन्द्रजी पहले की तरह स्वस्थ हो गए। उनके लिए ही नहीं पूरे परिवार के लिए यह घोर अचरज की बात थी।
आज वीणा कमरे में आई तो महेन्द्रजी ने उठकर उसका अभिवादन किया। उसे पलंग के किनारे पर बिठाकर बोले , “ वीणा ! तुमने मेरा जीवन बदल दिया है। तुमने असंभव संभव कर दिखाया है। मैं हृदय से तुम्हारा कृतज्ञ हूं , समझ नहीं आता इस अहसान का मूल्य कैसे चुकाऊं ? ’’ इतना कहते हुए वे वीणा से लिपट गए , आंखों से भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। उनके कपोलों पर बहते आंसू उनकी मनोदशा का बयान कर रहे थे।
थोड़ी देर में संयत हुए तो बोले , “वीणा ! प्रेम की ताकत असीम है। प्रेम गूंगे को वाचाल एवं अपंग को भी अपूर्व शक्ति से भर देता है। तुमने यह सिद्ध कर दिखाया है। ’ यह कहते हुए उन्होंने मन की आखिरी गिरह भी खोल दी, “वीणा ! मैं तुम्हें मन ही मन चाहने लगा हूं। आज मैं मेरे परिवार के आगे तुमसे विवाह का प्रस्ताव रखना चाहता हूं।’’ महेन्द्रजी जानते थे वीणा इस प्रस्ताव पर कभी मना नहीं करेगी। उसके कठोर हालात , वैधव्य की पीड़ा अब उनसे छुपी नहीं थी।
लेकिन यह क्या ! देखते ही देखते वीणा की आंखों से गंगा-जमुना बह निकली। महेन्द्रजी की ओर देखकर बोली, “महेन्द्रजी ! ऐसा तो मैं कभी सोच भी नहीं सकती। मि. चोपड़ा आज भी मेरे रोम-रोम में बसते हैं। वे इतने अच्छे, प्रेमिल पुरुष थे कि कोई अन्य मेरे जीवन में हो, यह कल्पना भी मेरे लिए असंभव है। प्रेम और कर्तव्य के लिए सर्वस्व त्याग का भाव मैंने उन्हीं से सीखा है। उनका प्रेम पल-पल मेरी सांसों में महकता है। मेरे हृदय-मंदिर में उसी देवता की मूरत है , मैं आज भी नित्य भाव-पुष्पों से उनकी पूजा करती हूं।” फिर कुछ रुककर बोली, “ मि. महेन्द्र ! आप बहुत जिंदादिल इंसान हैं। मुझे पूरा विश्वास है आप मेरी मजबूरी समझेंगे। मुझे यह भी भरोसा है कि अब से आप पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। मन में आशा, सकारात्मकता एवं स्थितियां बदलने का उत्कट भाव हो तो असंभव भी संभव बन जाता है। आपसे विदा चाहती हूं , अब मैं यहां नहीं आ सकूंगी, मेरा कार्य पूर्ण हो गया है।’’
इतना कहकर वह सर्र से कमरे से निकल गई।
आश्चर्यचकित महेन्द्रजी ने सामने लगी पत्नी की तस्वीर की ओर देखा और नजरें नीची कर ली।
दिनांक: 21/12/2017
……………………………………..