ऑफिस में सारे दिन काम करते-करते कई बार पता ही नहीं चलता कि कब शाम का धुंधलका खिड़कियों एवं रोशनदानों से होकर आंगन में उतर आया है।
अंतिम फाइल को पूरा कर मैंने सामने पड़ी अन्य फाइलों के ऊपर रखा, तब तक सात बज चुके थे। आज बाॅस का स्पष्ट आदेश था कि आप सारा काम निपटाकर ही जाएं, कल से ऑडिट प्रारंभ होने वाली है। वैसे तो टरकाऊ विद्या में क्लर्कों की महारथ होती है पर अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आन पड़ती है कि काम टरकाना मुश्किल हो जाता है। अधिकारियों के पास कुछ ऐसे शहतीर होते हैं जिन्हें लौटाना संभव नहीं होता। काम निपटाने के चक्कर में आज एक घण्टा अधिक बैठना पड़ गया। खैर! इसकी कसर भी कहीं निकालेंगे, यह सोचकर मैंने टेबल के ड्रावर बंद किए, फाइलें चपरासी के हाथों केबिन में बैठे बाॅस के पास भिजवाई एवं पलक झपकते इस चतुराई से चंपत हुआ कि बाॅस को हवा तक नहीं लगी। वह देख लेता तो शायद कुछ और काम अवश्य पकड़वाता। जबान हिलाने में उसके बाप का क्या जाता है, असल पसीना तो काम करने में आता है।
ऑफिस के बाहर आकर मैंने तुरंत स्कूटर उठाया एवं ऐसे छूमंतर हुआ जैसे चूहा बिल्ली को देखकर अथवा बिल्ली कुत्ते को देखकर होती है। मोबाइल मैं रखता नहीं, वरना बाॅस का बस चले तो आधे रास्ते से बुला ले।
अब स्कूटर पर सीधा घर की ओर बढ़ रहा था। स्कूटर चलाते हुए मैंने एक गहरी सांस ली, ओह! ऑफिस से छूटने का वही सुख है जो बचपन में स्कूल से छूटने का होता था। अंतिम घंटे की आवाज कानों में शहद घोल देती थी। मेरा घर ऑफिस से आठ किलोमीटर पर है पर सुबह यह दूरी दूनी एवं शाम आधी लगती है। मैं बेतहाशा स्कूटर पर उड़ रहा था। ठण्डी हवा के झौंके मन-प्राणों को एक अजीब सुकून एवं ठण्डक दे रहे थे। यकायक मेरे स्कूटर की गति थम गई। बीवी का चेहरा आंखों के आगे मंडराने लगा। मैंने स्वयं से ही पूछा आज जब घर में बीवी नहीं है तो यह गति क्यों ? मेरे मस्तिष्क में आए इस विचार ने स्पीड़ ब्रेकर का काम किया। बाकी सारा रास्ता मैंने ऐसे पार किया जैसे शाम का हारा थका किसान बैलगाड़ी से घर लौटता है।
बच्चे भी तो विवाह के पश्चात् अपने-अपने घरों में सिमट गए हैं। वे बिचारे भी क्या करें। दूरस्थ नौकरियों ने उन्हें भी मजबूर कर दिया है। बीवी और वहां चली गई। कोशिश मैंने भी बहुत की पर छुट्टी मिले तो। यकायक मेरे मस्तिष्क में घर जाकर क्या पकाना है एवं अन्य अनेक कार्यों की गणित घूमने लगी।
घर आकर मैंने खाना बनाया, स्नान कर कपड़े बदले, पूजाघर में जोत की एवं चुपचाप आकर ड्राईंगरूम के लम्बे सोफे पर बैठ गया। दो पल विश्राम किया एवं आंखें खोली तो सोफे के ठीक सामने वाले दो छोटे सोफों में एक पर पिताजी को बैठे देख हैरान रह गया। मेरी आँखें विस्मय से फैल गई। ओह! यह कैसे संभव है ? उन्हें मरे तो बीस वर्ष होने को आए ? मैं पसीने से तर-बतर हो गया। कांपते हुए बोला, ‘बाबूजी, आप यहां कैसे ?’ मैं अपने पिता को बाबूजी ही कहता था।
‘तुम इतना डर क्यों रहे हो ? एक जमाना था जब तुम बहुत छोटे थे एवं रातों में अक्सर डरते थे। तब तो तुम मेरे समीप आकर आश्वस्त हो जाते थे। अब क्या हो गया ? क्या जीवित पिता एवं मृत पिता के बीच श्रद्धा, आदर एवं विश्वास में इतना अंतर आ जाता है ? जब तक मैं जीवित था तुम्हारे हर कष्ट, तकलीफों एवं विपत्तियों में तुम्हारे साथ रहा। तब तो तुम मेरे समीप आकर शांति एवं सुकून महसूस करते थे। अब क्यों डर रहे हो ? तब दो रोज भी कहीं जाता तो तुम उदास हो जाते थे, अब बीस वर्षों बाद आया हूँ तो ऐसे तक रहे हो जैसे कभी देखा ही न हो। लगता है तुमने मुझे पूर्णतः विस्मृत कर दिया।’ बाबूजी बिना रुके बोले जा रहे थे। उनके चेहरे एवं चेहरे के पीछे एक अद्भुत प्रभामण्डल दृष्टिगत होने लगा था।
‘आप कैसी बातें कर रहे हैं बाबूजी! क्या मैं आपको भुला सकता हूँ ? मेरा रोम-रोम आपका कर्जदार है।’ मैंने डरते-डरते उत्तर दिया।
‘तुम झूठ बोल रहे हो पुुत्र! वस्तुतः तुमने मेरा कभी स्मरण नहीं किया। तुम खाने-कमाने एवं अपने ऐशो-आराम में इतने मशगूल रहे कि तुम्हें मेरी स्मृति ही नहीं रही। तुम्हारे घर में मेरा कोई चित्र तक नज़र नहीं आता। मेरी बरसी अथवा अन्य किसी दिन क्या तुमने कोई परोपकार का कार्य किया ? जीवन के जिन सिद्धांतों को मैंने तुम्हें तोते की तरह पढ़ाया, क्या तुम उस पर चले ? क्या तुमने ऐसे सत्कर्म संपादित किए जिससे तुम्हारे पितर प्रसन्न हो ?’ बाबूजी की आंखों में अब रोष उभरने लगा था।
‘निश्चय ही मुझे ऐसा करना चाहिए था पर शायद आप नहीं जानते आपके जाने के पश्चात् मैं कैसी मुसीबतों से घिरा रहा। अनेक बार आपकी बहू बीमार पड़ी तो कई बार आपके पोते-नाती अस्वस्थ रहे। अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए मैंने छोटे-मोटे व्यवसाय भी किए पर सभी में असफलता मिली। मैं स्वयं भी अनेक बार जानलेवा बीमारियों का शिकार हुआ। एक-दो बार तो मरते-मरते बचा।’
‘जो बच्चे पितृऋण को नहीं उतारते, वे ऐसी ही विषम परिस्थितियों से जूझते रहते हैं। दुःख उनकी नियति बन जाता है। वे दुःख एवं तकलीफों के चक्रव्यूह में ही पड़े रहते हैं।’ कहते-कहते बाबूजी का चेहरा लाल होने लगा था।
‘यह पितृऋण क्या होता है ?’ मैंने कांपते हुए पूछा।
‘क्या तुम नहीं जानते हर मनुष्य पर चार प्रकार का ऋण होता है। प्रथम देवऋण जो तप, स्वाध्याय एवं त्याग से पूर्ण होता है। द्वितीय ऋषिऋण जो संतों, विद्वद्जनों, बुजुर्गों एवं सत्कार्य में प्रवृत्त लोगों को आदर एवं सहयोग देने से पूरा होता है। इसी ऋण को उतारने के लिए लोग अनुभवी एवं मनस्वीजनों का अभिनंदन एवं समादर करते हैं। तीसरा मनुष्यऋण जो सबके प्रति सुमधुर व्यवहार से उतरता है। दूसरों के प्रति कटुवाणी बोलने वाले सदैव इस ऋण से ग्रस्त होकर त्रस्त रहते हैं। वे नहीं जानते कि कटुवाणी मुंह में बंधी पिशाचिनी है जो दिन-दिन मनुष्य के पुण्य का क्षय करती है। चतुर्थ ऋण पितृऋण है जो शुभकर्मों के संपादन एवं अपनी आय का एक हिस्सा जरूरतमंदों को दान करने से मिलता है। ऐसे करने से शाश्वत लोकों में रहने वाले तुम्हारे पितर एवं पूर्वज अक्षय सुख एवं तृप्ति का अहसास करते हैं। ऐसा न करने पर वे बार-बार तुम्हें कष्ट देकर तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य का एहसास करवाते हैं पर माया के दलदल में फंसा मनुष्य इस ऋण से उऋण होने का विचार ही नहीं करता। काश! तुम ऐसा करते अथवा किंचित् इस ओर ध्यान देते तो हम तुम्हारा दिन-दिन अभ्युदय करते पर तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया। दुःख इसीलिए तुम्हारा विधान हो गया। सत्कर्मों के देवगुह्य रहस्य को न समझने के कारण तुम्हारा जीवन तो व्यर्थ हुआ ही, तुम्हारे पितर भी अतृप्त रहकर तुम्हें दिन-रात कोसते रहे।’ कहते-कहते बाबूजी मुझे रोष से देखने लगे।
उनकी आंखों में ऐसा सम्मोहन था कि भय के मारे मेरी आंखें मुंद गई। आंखें खोली तो बाबूजी अकेले नहीं थे, उनके इर्दगिर्द सात-आठ अन्य लोग भी खड़े थे। ये सभी मेरे वे रिश्तेदार थे जो गत अनेक वर्षों में गुजर चुके थे। मेरी माँ जिसका निधन दस वर्ष पूर्व हुआ, सबसे बड़े भाई जिनका स्वर्गवास तीन वर्ष पूर्व हुआ तथा मेरे दादा-दादी, चाचा-चाची एवं अन्य निकट रिश्तेदार जिनका निधन मेरे बचपन में समय-समय पर हुआ था। इन सबकी आंखों से आंसू बह रहे थे। यह आंसू मानो मुझसे प्रश्न कर रहे थे, ‘क्या तुमने पितृऋण का विधिवत् विमोचन किया ? अधम! तुम्हारे ऐसा न करने से हम तो अतृप्त रहे ही, तुम भी सुखी नहीं हो सके।’
उन्हें इस अवस्था में देख मैं दण्ड की तरह उनके चरणों में गिर पड़ा। मैं चीख-चीख कर कहने लगा, ‘आप विश्वास रखें, मैं यह पितृऋण अवश्य उतारूंगा।’
‘अब तुम यह पितृऋण नहीं उतार सकते क्योंकि अब तुम स्वयं हममें से एक हो। देखो सोफे पर तुम्हारा मृत शरीर पड़ा है। यह वार्तालाप तो हम तुम्हारी सनातन आत्मा से कर रहे थे। तुम्हारा समय पूरा हुआ, हम तुम्हें लेने आए हैं। शायद हमारी आगत संतति इस ऋण का विमोचन कर हमें तृप्त कर सके!’
‘मुझे कुछ मोहलत दीजिए बाबूजी! जीवन भर मैं अतृप्त रहा, अब अक्षय लोकों में जाकर अतृप्त नहीं रहना चाहता। बिना पितृऋण चुकाये मैं आप सभी के मध्य अपमानित एवं निर्लज्ज होकर नहीं रह सकता।’ कहते-कहते मेरी आवाज और तेज हो गई।
‘मृत्यु मोहलत नहीं देती पुत्र! मोहलत तो जीवन ही देता है। इंसान इस रहस्य को समझता कहां है!’ बाबूजी ने अपनी बात समाप्त की तब तक मैं अन्य मृतात्माओं के साथ एक अज्ञातलोक की ओर अग्रसर हो रहा था।
आपके पास तो अभी मोहलत है !
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03-09-2010