जाने क्यों एक विचित्र मायूसी इन दिनों जेहन में उतर आई है।
खुदा जाने मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ है ? बस यूं ही बात-बेबात उदास रहता हूँ। जीवन के सभी स्वाद इन दिनों फीके लगते हैं। हर कार्य में टरकाऊ अथवा ‘लेटगो’ की आदत बन गई है। जीवन एक ही ढर्रे पर चलने वाले चरखे जैसा हो गया है। वही सुबह, वही शाम। वही ऑफिस, वही ऑफिस वाले। वही घर, वही बीवी। वही मित्र, वही रिश्तेदार। इन सबको देख-देखकर उकता गया हूँ। कुल मिलाकर मैं यूँ भी कह सकता हूँ कि मैं कंटाल गया हूँं। क्या मैं अवसादग्रस्त हो गया हूँ ?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब जीवन नीरस लगने लगे अथवा जीवन को निराशा घेर ले तो समझो अवसाद धीरे-धीरे अपना साम्राज्य पसार रहा है। वे यह भी कहते हैं कि अवसादग्रस्त व्यक्ति या तो भड़काऊ बन जाता है अथवा स्वयं में सिमट जाता है एवं अगर शीघ्र नियंत्रण न किया जाय तो यही अवसाद यानि डिप्रेशन कभी-कभी पागलपन में रूपांतरित हो जाता है। तो क्या मैं थोड़े समय में पागल हो जाऊंगा ? लोग जब मिलने आऐंगे तो क्या बेवजह हसूँगा अथवा चिल्लाने लगूंगा अथवा क्या मेरे या उनके कपडे़ फाड़ने लग जाऊंगा ? यह भी हो सकता है मैं यह सब न करूँ बस रूठे बच्चे की तरह चुप एक कोने में दुबक जाऊँ ? तब क्या लोग मुझे यह कहकर पुचकारेंगे, ‘बच्चे ! ऐसा न करो। अच्छे बच्चे जिद नहीं किया करते ।’ यूं विनम्र होकर ज़लील करने का मौका उन्हें फिर मिले ना मिले। जिन मित्र-रिश्तेदारों को मैं जरा भी नहीं गांठता या फिर जब-तब अपने पैने तर्कों से उनकी बोलती बंद करता रहता हूँ उनके लिए तो यह स्वर्णिम अवसर होगा। पागल को जो दिल में आए कहो। वह भड़क जाए तो वे इस बात को ढाल बनायेंगे कि पागल है एवं चुप रहे तो इस बात की कि बेचारे पर कैसी बीती है।
मुझे नहीं मालूम इन संगीन परिस्थितियों में मेरा क्या हश्र होगा पर एक बात तो तय है पूजा का बैण्ड बज जायेगा। सारी फूंक निकल जाएगी। दिनभर आये-गयों के लिए सुबक-सुबक कर चाय बनायेगी तब अकल आएगी। तब पता पडे़गा पति की छोटी-मोटी सेवा करना स्वर्ग के सुखों से भी बढ़कर है। आज कल जब देखो ऐंठी-ऐंठी रहती है तिस पर हैकड़ी ऐसी मानो करेले पर नीम चढ़ा हो। यह करो, वह करो, तुम्हारे जैसा मरद किसी ओर को मिलता तो माथा पीट लेती, तुम यह हो, वह हो, कोई काम ढंग से नहीं करते एवं जाने क्या-क्या। यह सब भी मैं सुन लूँ पर सब कुछ उगल कर आँखें ऐसे तरेरती है मानो मैं मनुष्य न होकर अजायबघर से आया जानवर हूँ। शादी के दस वर्ष बाद हर औरत मानो इस धारणा पर ठप्पा लगा लेती है कि यह मरदूद कहीं नहीं जाने वाला। इससे मनमर्जी व्यवहार करो। कबूतरबाज के कबूतर की तरह आयेगा तो कबूतरखाने में ही। घर के अतिरिक्त शरण कौन देगा ? ऐसे में करें तो क्या करें ? बस कुढ़-कुढ़कर घूटर-घू करते रहो। मैं तो कहता हूँ एक अतंराल के पश्चात हर बीवी बासी कढ़ी की तरह बेस्वाद हो जाती है। ढाक के तीन पात की तरह वही खान-पान, वही पहनावा जिसे देखकर कहीं से नवीनता का अहसास नहीं होता। जो मरजी पहनो, खाओ और खिलाओ। पति की इच्छाओं, पति के मूड से इन्हें कैसी दरकार ? इनके माँ-बापों ने दो पैसे दहेज में क्या चढ़ा दिए जैसे किसी ने मोल देकर खरीद लिया हो। मैं तो बाज आया ऐसी लुगाई से। आजकल प्रेम भी ऐसे करती है मानो कोई अहसान कर रही हो। अगरबती की तरह सुलगा देती है, बस सुलगते रहो एवं अपने अरमानो की राख झाड़ते रहो। कई बार तो ब्रह्माजी से कोफ्त हो आती है। कुछ ढंग का नही बना पाये तो लुगाई बना दी एवं मढ़दी मरद के मत्थे यह कहकर कि जैसी-तैसी बनी तूं ही संभाल इसे। प्रभु! आपके पाप हमारे मत्थे क्यों मढ़ते हो। अगड़म-बगड़म आप बनाओ एवं सज़ा हम पाएं | आपका कोई बिगाड़ भी क्या सकता है ? आप तो बस मजे लो तीन मुंह में धंसी छः आँखों से हमारी दुर्गति देख-देखकर। इस पर भी मन न भरे तो लम्बी दाढ़ी सहलाते रहना।
आज सुबह दो घड़ी देर तक क्या सो गया, पलंग के पास चाय रखकर हिदायत दे गई, ‘अब उठ भी जाओ, चाय ठण्डी हो गई तो दोबारा नहीं बनाऊंगी। ’ यह नहीं सोचती दिनभर ऑफिस में कितना पिलते हैं। दो घड़ी सुस्ता लिया तो क्या आसमान गिर जायेगा। आज मैंने भी ठान ली है। पूजा की ऐसी-तैसी। आज मेरी मौज से उठूंगा। मैं चादर तानकर यूँ दुबका मानो कुछ सुना ही नहीं हो। लेकिन मरद की जात लुगाई से जीत सकती है क्या ? कितने शस्त्र है इनके पास। पलभर दुबका ही था कि चादर शरीर से यूँ सरकी जैसे नदी किनारे खडे़ किसी अभागे का धन बह जाता है एवं वह चाहकर भी उसे नहीं रोक पाता। खैर! लंबे अनुभव से मुझे समझ में आ गया कि यह उसकी अंगुलियों का ही जौहर है।
‘अरे बाबा! घड़ी भर सोने भी दो’ मैं उठता-उठता बड़बड़ाया।
‘सूरज चढ़ आया है। सोते ही रहोगे क्या ? बाजार से सामान लाना है। अभि को स्कूल छोड़ना है एवं आते हुए एटीएम से रुपये भी तो निकलवाने है।’ वह एक सांस में सब कुछ उगल गई।
इतना सुनने के बाद किसे नींद आ सकती है ?
मैं उठा तो सामने खड़ी पूजा मुस्कुरा रही थी। इसे मैं सपाट मुस्कुराहट तो नहीं कहूँगा, हाँ यह मुस्कुराने एवं चुप्पी के मध्यांतर जैसा था। यह मध्यांतर मुझे सदैव पहेली लगता था। कभी लगता वह मुझे चुनौती दे रही तो कभी लगता चिढ़ा रही है। मैं सर खुजाने लगा। क्या वह मुझे चिढ़ा रही थी कि बताओ कौन जीता ? मैं मन ही मन बुदबुदाया ‘तेरा बाप जीता ’ एवं चुपचाप उठकर खड़ा हो गया।
अब मैं वहीं खड़े-खड़े चाय पी रहा था। पीते-पीते मैंने पूजा की ओर देखा। वही छींट वाला गाऊन पहने थी जिसे मैंने कल रात बदलने को कहा था। उसने कुछ पल जवाब नहीं दिया तो मैंने सोचा गाऊन बदलने गई होगी। मैं विपरीत करवट लेटा था एवं कल ऑफिस में काम इतना अधिक था कि थक भी गया था। जाने कब नींद आ गई। इसका मतलब उसने सुना भी, बात की पालना भी नहीं की और सुबह-सुबह उसी गाऊन को पहने यूँ खड़ी है मानो ताल ठोक रही हो दम है तो उखाड़ लो। एकबारगी तो सोचा आड़े हाथों लूं पर इस दुस्साहस का अर्थ था नाश्ता मनपंसद नहीं बनेगा एवं जो तीन कामों की सूचि उसने पकड़वाई है, दस में रूपांतरित हो जायेगी। मैंने चुप रहना मुनासिब समझा। यूँ चुप रहते-रहते ही तो इन दिनों उदास रहने लगा हूँ। वे कितने भाग्यशाली है जो सारी भड़ास बीवी पर निकाल लेते हैं।
जाने क्यों इस देश में विवाह एक आमरण बंधन है ? मैं तो कहता हूँ हर पाँच वर्ष बाद वैवाहिक रिश्ते की समीक्षा होनी चाहिए ? वर्ष दर वर्ष पुनर्मूल्यांकन के पैरामीटर्स कठोर होने चाहिए। तभी इन औरतों को अकल आयेगी अन्यथा औरते दस वर्ष बाद स्वयं को उस सरकारी कर्मचारी की तरह समझने लगती है जिसकी नौकरी ख़ुदा भी नहीं उखाड़ सकता।
मुझे याद है दस वर्ष पूर्व हमारा विवाह हुआ तब कैसे छुप-छुपकर मिलते थे। पूजा तब कितनी सुंदर लगती थी। सुंदर तो वह अब भी है लेकिन तब रूप को सहस्त्रगुना निखारती। उसका पहनावा, बोलने का तरीका देखते ही बनता था। आँखों की कोरों में काजल की पतली रेख होती, पलकों पर आई शेडो, कानो में खूबसूरत बूँदे, नाक पर चमकती नोजपीन, गले में हार सभी दिलकश होते। कैसी दिलफरेब अदायें थी। इसी रूप एवं हाव-भाव पर तो मर मिटा था। अब न जाने वो हाव-भाव कहाँ गये ? पहले वह कलकल बहती नदी की तरह निश्चल लगती थी अब तो मानो पानी ठहर गया है। मैं ऑफिस की औरतों से उसकी तुलना करता हूँ तो तिलमिला उठता हूँ। सभी कैसे सज-धज कर सुंदर कपड़ों में आती है। विवाह के कई वर्ष पश्चात भी कितनी युवा लगती हैं। इतना ही नहीं घर जाकर गृहस्थी की कमान भी संभालती है। पूजा को समझाने का प्रयास करता हूँ तो उल्टे पड़ती है। खूब जानती हूँ इन वर्किंग लेडीज को। सबके घर नौकर होते हैं, बच्चे बोर्डिंग में पलते हैं। करना क्या है इनको ? घर पति के वेतन से चल जाता है। इनकी तनख्वाहें तो मेकअप के लिए हैं। बच्चे भले इनके क्रेच में सड़े, उन अबोधों के मुँह पर मक्खियाँ मंडराती रहे अथवा फिर बोटली से दूध आया पी जाय। इनकी बला से। बस सज-धजकर ऑफिस जाना है। और यह महारानियाँ रूप-श्रृंगार निखारे भी क्यों नहीं वहाँ आप जैसे रीझने वाले जो बैठे हैं। औरत देखते ही लार टपकाने वाले।
इन दिनों पूजा कोे एक कहो तो दस उत्तर देती है। जाने क्यों एक विचित्र नकारात्मकता उसकी खोपड़ी में उतर आई है। खैर! मैं भी क्या सोचने लगा। मैं उठकर तैयार हुआ। नित्य की तरह छत पर आकर वर्जिश करने लगा तब तक सूर्य ऊपर उठ आया था। मैंने क्षणभर सूर्य की ओर देखा एवं अकारण कुढ़ गया। अनेक बार मुझे प्रकृति एवं परमात्मा तक से कोफ्त हो आती है। रोज वही लाल-पीला सूरज। मैं तो कहता हूँ सूरज भी नित नये रंग का होना चाहिए। कभी लाल, कभी आसमानी, कभी पीला तो कभी सफेद। तब देखने का मजा आयेगा। सूरज के बदलते रंगो के साथ पेड़-पौधों, वनस्पतियों का भी रंग बदलेगा। इतना ही नहीं आदमी एवं जानवर भी बहुरंगी देखने को मिलेंगे। परमात्मा भी लगता है कोई मोनोटोनस, बोर एवं नीरस तत्त्व है। वर्षों, सदियों एक-सा। आज मौसम में उमस थी, कई दिनों से बारिश होने को थी पर हुई नहीं थी। यह उमस मुझे भी तंग करने लगी थी। मैं नीचे आया तो अभि तैयार था। मैंने मोर्चा संभाला। उसे स्कूल छोड़कर आया, रुपये एवं किराना पूजा को थमाये तब तक नौ बज चुके थे। अब मुझे ऑफिस पहुँचने की चिंता होने लगी। नित्य वहाँ दस बजे पहुँचना होता था। बीस मिनट तो पहुँचते-पहुँचते लग जाते हैं। मैं आनन-फानन तैयार हुआ एवं डाइनिंग टेबल से कुर्सी निकालकर बैठ गया। पूजा ने आकर नाश्ते की प्लेट रखी तो सर पकड़ लिया। सुबह-सुबह मूड उखड़ गया। फिर वही पौहे। पिछले जन्म में इसके पौहों की दुकान होगी ? हमारे यहाँ महीने में पन्द्रह दिन पौहे तय हैं। हजार बार कह चुका हूँ कभी हल्वा कभी सिंवईयाँ, कभी पिज्जा आदि बनाया करो पर सुनता कौन है?
मैंने नाश्ता ठूंसा, जल्दी-जल्दी बाहर आया एवं ऑफिस की राह ली। ऑफिस में भी इन दिनों दिल नहीं लगता। अब जो जरूरी काम है उन्हें तो निपटाना ही पड़ता है, हाँ, चलाकर ऐसा कोई प्रयास नहीं करता कि कुछ चैलेंजिंग एवं नये तरीके से करूँ। मैंने काम करके देख लिया कोई तमगा नहीं मिलने वाला वरन कई बार उल्टा हो जाता है यानि जो करता है उस पर लादते चले जाओ का सिद्धांत चलता है। जैसे वह कोई गधा अथवा ऊँट हो। इस देश में काम करने वाले का यही हश्र होता है। सरकारी कार्यालयों में तो योग्यता अनेक बार अयोग्यता बन जाती है। अन्य सभी फिर आपको ऐसे देखते है जैसे आप उनकी राह का रोड़ा हो। यहाँ कोई बैठने-उठने, बात करने का सलीका तक नहीं जानता। चाहे जैसे जवाब दो, चाहे जो पहनकर आओ। जिसकी जो मर्जी है पहनकर चला आता है। मैं तो कहता हूँ हर सरकारी विभाग में ड्रेस कोड होना चाहिए ताकि ऑफिस, ऑफिस लगे अन्यथा कोई पैंट पहनकर आ रहा है तो कोई लूंगी , कोई तिलक-छापा लगाकर आता है तो कोई कैप-पगड़ी में। यह ऑफिस है या ससुराल जहाँ जंवाई की तरह अपनी मौज में रहो। पहले तो मैं सहकर्मियों को इन सब बातों पर टोकता था पर एक बार सभी लामबंद होकर मुझ पर चढ़ गए। तब से मैंने भी मौन धारण कर लिया है। मेरी बला से। खैर पाँच बजना चाहते है। मैंने अपनी ड्रावर बंद की काम समेटा एवं सर्र से बाहर निकल आया।
शाम घर आकर कुछ देर पूजा एवं बबलू के साथ रहा। कुछ देर टीवी देखा तो आठ बज गये। मेरे डिनर लेने का यही समय है। डिनर लेकर मैं इवनिंग वाॅक के लिए बाहर आया। मैं इवनिंग वाॅक माथुर साहब के साथ करता हूँ जो घर से दस कदम दूर तीसरे मकान में रहते है। हमारी काॅलोनी में सभी घरों के सामने एक गोल पार्क है, हम उसी का चक्कर लगाते हैं।
आज पहला चक्कर आधा पूरा किया होगा कि चक्रवती के घर एक नया किरायेदार दिखा। किरायेदार क्या किरायेदारनी थी जो घर में प्रविष्ट हो रही थी। चक्रवर्ती तो यहाँ रहता नहीं। उसकी पोस्टिंग अन्यत्र होती रहती है अतः अक्सर यहाँ नये किरायेदार आते रहते हैं।
माथुर साहब ने मेरी ओर देखा और अर्थपूर्ण अंदाज में मुस्कुराये। उनकी दबी हंसी देखकर मुझे पाँच वर्ष पहले इसी घर में आई एक अन्य किरायेदारनी की याद हो आई। जब-जब भी इस घर में नया किरायेदार आता है मैं ही पहलकर मिलता हूँ। सबको मालूम है श्रीवास्तव सीधा आदमी है, इस कार्य के लिए सही व्यक्ति है। पाँच वर्ष पूर्व आई उस किरायेदारनी से मिलने पहले मैं ही गया था। धीरे-धीरे हमारे रिश्तों में रंगत चढ़ने लगी थी पर माथुर बाजी मार गया। बाद में वह इसकी अंग्रेजी पर ऐसी फिदा हुई कि उसने मुझसे किनारा किया एवं इसकी मित्र बन गई। मैंने भी कम पापड़ नहीं बेले थे। एक दिन गुपचुप श्रीमती माथुर से जाकर शिकायत की तो माथुर की अच्छी परेड हुई। उसकी बीवी ने कमसिन किरायेदारनी को सरे मौहल्ले लताड़ा। कुछ समय पश्चात उसका स्थानांतरण अन्य शहर में हुआ तो वह भी यहाँ से चली गई। माथुर की दुर्गति देखकर मैं मन ही मन प्रमुदित हुआ। डेढ़ होशियार को उसका फल तो मिलना ही चाहिए। भाभी ने भी यह भेद, कि यह बात मैंने उसे बतायी थी पचा लिया वरना माथुर मुझे छोड़ता क्या ?
खैर! इस बार यह गलती नहीं दोहराने वाला। मुझे मालूम है माथुर पहलकर उससे मिलेगा नहीं। इतना दम कहाँ है उसमें। उसे तो पकी खिचड़ी चाहिए। बस पटर-पटर अंग्रेजी बुलवालो। यह कार्य तो इस बार भी मुझे ही करना होगा लेकिन इस बार तय है कि बीज मैंने बोये तो फल भी मैं ही चखूंगा। माथुर को मिलेगाा ठेंगा। मै प्रारंभ से ही ऐसी पाल बांधूगा कि बगले झांकते फिरेगा। वैसे भी इन दिनों पूजा ने परेशान कर रखा है। मैं स्वयं चाहता हूँ पहलकर महिलामित्र बनाऊं जिसे मन की बात कह संकू। बस अन्य स्त्रियों से मेरा इतना भर प्रयोजन है। इससे आगे मैं बढ़ने वाला नहीं। पूजा का भरोसा थोड़ा ही है, हो सकता है अपने माँ-बाप अथवा मेरे पापा-मम्मी को शिकायत कर दे। यह भी हो सकता है कि वह थाने में प्रताड़ना का केस दर्ज करवा दें। इस बात की भी पूरी संभावना है कि आत्महत्या का प्रयास करे। मेरे ऑफिस में शिकायत भी कर सकती है। पूजा कुछ भी कर सकती है, उसकी खोपड़ी बिगड़ती है तो आगा-पीछा कुछ नहीं सोचती। इन दिनों उसके तेवर देखकर सोचता हूँ उसे सबक अवश्य मिलना चाहिए।
दूसरे दिन इवनिंग वाक के लिए मैं थोड़ा देरी से निकला। माथुर के यहाँ आवाज दी तो भाभी बाहर आकर बोली इन्हें वायरल फीवर है, तीन-चार दिन वाॅक नहीं कर सकेंगे। मेरे मन में अंगूर के दाने बिखर गए। मन ही मन दुआ की कि दस दिन ऐसे ही पड़ा रह। तब तक मैं मोर्चा मार लूंगा।
मैंने आधा सर्कल पूरा ही किया था कि नई किरायेदारनी दिखाई दी। बाहर बगीचे में खड़ी पौधों को पानी पिला रही थी। ओह! वह कितनी सुंदर थी। लंबा कद, सुंदर आँखें, गोरा रंग तिसपर सुंदर दंत पक्ति। वह तकरीबन पैंतीस की होगी। मैंने उसे एक बार पुनः गौर से देखा। हमवय सुंदर स्त्री को देखना कितना अच्छा लगता है। लगा जैसे काॅलोनी के आकाश पर चांद उग आया हो। मैं रुका एवं पहलकर वार्ता प्रारंभ की।
‘आप इस काॅलोनी में नयी आई हैं ?’
‘हाँ कल ही तो आई हूँ।’ कहते-कहते उसकी श्वेत दंतपक्ति मोतियों-सी बिखर गई।
‘मैं सामने वाले मकान में रहता हूँ। मेरा नाम मनन श्रीवास्तव है, मेरे लायक कार्य हो तो अवश्य बतायें।’
‘ओह स्योर! लेकिन आप बाहर क्यों खडे़ हैं। आईए भी! आपके साथ चाय पीते हैं।’ मैं फ़िराक़ में था, ऐसे भीतर आया कि कहीं वह विचार न बदल ले।
‘आप आज जल्दी आ गई ? कल तो आप इस समय ऑफिस से आई थीं।’ कहते-कहते मेरे मुँह में मिश्री घुल गई।
‘हाँ! आज मेरा कार्य जल्दी समाप्त हो गया अतः जल्दी चली आई। कभी-कभी ऑफिस से समय पूर्व आने का अलग आनंद है।’ इतना कहकर वह खुलकर हंसी तो मैं समझ गया मरदों से वार्ता करने में उसे कोई झिझक नहीं है।
हम दोनों अब ड्राईंग रूम में चाय पी रहे थे। बातों ही बातों में उसने बताया कि उसका नाम मंजुरी है एवं वह एक चिरकुंवारी है। कुछ पारिवारिक कारणों से उसने अविवाहित रहने का निर्णय लिया है। उसने यह भी बताया कि वह स्थानीय काॅलेज के मनोविभाग में मनोवैज्ञानिक है। उसने काॅलोनी के बारे में एवं काॅलोनी वालों के बारे में भी मुझसे संक्षिप्त परिचय लिया। मैंने सबके लिए अच्छा ही कहा पर जब उसने पूछा कि कल आप किसके साथ घूम रहे थे तो मैंने कहा कि वह मेरा पड़ौसी माथुर है। वैसे इंसान तो अच्छा है पर कुछ लफाड़ी किस्म का है।
‘ओह! मैं ऐसे लोगो को जूती पर रखती हूँ। कम से कम उन्हें मुझसे दूर ही रखें।’ मंजुरी का उत्तर सुनकर मैं मन ही मन ढोल बजाने लगा।
धीरे-धीरे हमारा परिचय मित्रता में तब्दील हो गया। उसने अपनी सीमा रेखाओं से मुझे प्रथम दिन ही अवगत करवा दिया था। मैं उसके अनेक छोटे-मोटे कार्य भी करने लगा। पूजा ने एक-दो बार मुझे कहा भी कि आजकल सामने वाली किरायेदारनी के यहाँ बहुत जाते हो। जी मैं तो आया उसे जवाब दूँ-जाँऊ नही तो क्या कंरू, तूने जीने लायक रखा है क्या पर उसका स्वभाव जानकर चुप्पी मार गया। मेरी चुप्पी से उसका संदेह गहरा गया। मुझे मालूम है औरतों में ईर्ष्या गहरे से पैठी होती है। शायद इसी बहाने उसे अकल आ जाये।
आज रोज मैं पुनः मंजुरी के साथ था। अब तक हम दोनों बेतकल्लुफ़ थे। आज जैसा कि इन दिनों चल रहा था, मेरा मूड उखड़ा-उखड़ा था। मुझे यूँ देखकर मंजूरी बोली, क्या बात है ? मैं देखती हूँ कभी-कभी आप एक विचित्र उदासी में खो जाते हो। मेरे बिना कहे ही मेरे मन का भेद उसे प्रकट हो गया। आज मैंने साहस कर अपनी उदासी का कारण उसे कह ही दिया कि मैं पूजा के व्यवहार से बहुत दुःखी हूँ। हर बात पर जवाब देती है। पहले तो ऐसा नहीं था। मेरी बात सुनकर मंजुरी ने यूँ अट्टहास किया मानो सब कुछ समझ गई हो।
‘आपकी शादी को कितने वर्ष हो गए ?’ उसने एक कुशल मनोविद् की तरह प्रश्न दागा।
‘दस वर्ष! लेकिन इन दिनों पूजा सर चढ़ गई है। न बात करने का सलीका न ढंग का पहनावा, न ही कोई रूप-शृंगार। देखती ऐसे है मानो मैं पति न होकर जंग लगा लोहा हूँ। वह बदलने को तैयार ही नहीं है। आप मनोवैज्ञानिक हैं, आप ही बताएं मैं क्या करूं ?’
‘वैवाहिक जीवन में एक अंतराल के पश्चात ऐसा होता है। आप उसके भीतर प्रतिस्पर्धा पैदा करें, ईर्ष्या जगायें। उसे कभी-कभी अहसास करवाएं कि आप फिसल सकते हैं, वह अपरिहार्य नहीं है।’
‘मतलब!’ मैं अधीर होकर बोला।
इस बार मंजुरी चुप रही। कुछ क्षण बाद वह पुनः मुस्कुराई एवं बोली आप निश्चिन्त रहें, इसका इलाज मैं कर दूंगी, आप दोनों में पुनः पहले जैसा वरन् इससे भी अधिक प्रेम होगा। उसके बाद उसने मेरे कान के समीप आकर अपनी योजना समझाई।
‘तो क्या आप सचमुच कल हमारे घर आ रही है।’ आश्चर्य पुलकित मैंने मंजुरी की ओर देखा।
‘बिल्कुल! अपनी बीवी से नहीं मिलाओगे ?’ वह मुस्कुराई।
‘जरूर!’ मैंने निमंत्रण देते हुए कहा।
दूसरे दिन वह हमारे घर आई। मैंने बेतकल्लुफ़ आगे आकर उससे हाथ मिलाया। इतना ही नहीं मैं लपककर बढ़ा एवं उसे बाहों में भर लिया। मैं एक मिनट उसका हाथ पकडे़ यूँ खड़ा रहा मानो वह मेरी अंतरंग सखी हो। हम दोनों में पहले से साँठ-गाँठ तो थी ही।
मैंने पूजा से उसका परिचय करवाया। लेकिन वह सुन कहाँ रही थी। उसे तो साँप सूंघ गया था। जब तक मंजुरी घर में रही वह हाँ-हूँ करती रही।
रात मैंने जमकर मंजूरी की तारीफ की। पूजा का चेहरा ऐसा था जैसे किसी हरे पेड़ पर बिजली गिर गयी हो। आश्चर्य! दूसरे दिन से उसके व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हुए। मंजुरी की योजना रामबाण सिद्ध हुई। अब उसका व्यवहार मृदु दर मृदु होने लगा। वह अच्छे कपडे़ पहनने लगी। इतना ही नहीं जब-तब रूप निखारने का प्रयास करती रहती। अब मेरी पंसद की डिशेस भी बनने लगी। वह एकाएक सजग हो गई। रूप में कजरा-गजरा सब जुड़ गए। खोने के भय ने पाने के समस्त समीकरण पुनर्जीवित कर दिए। मैं भी उसके लिए नित नये उपहार लाने लगा। लेकिन अब वह मंजुरी से न मिलने का दबाव भी डालने लगी यहाँ तक कि एक बार तो धमकी दे डाली कि आगे अगर मैं उससे मिला तो वह पीहर चली जायेगी। मुझे उसका यूँ कहना बहुत भला लगा। मैंने उसे छेड़ते हुए-से कहा ‘भले तुम नाराज हो जाओ, मंजुरी तो मंजुरी है।’ मेरे इतना कहते ही आग लग गई। मैंने देखा वह एकाएक आशंकित हो गई है।
इन दिनों कई दिनों से मैं मंजुरी के यहाँ नहीं गया तो पूजा आश्वस्त रही।
आज सुबह-सुबह मंजुरी हमारे घर आई तो मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने बढ़कर उसे गले लगाया। पूजा ने उसे ऐसे देखा जैसे कच्चा खा जायेगी। मंजुरी ने अपना पर्स टेबल पर रखा एवं कुछ वस्तुऐं निकालने लगी। मैंने गौर से देखा, अरे! यह तो राखी थी। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वह बोली, ‘श्रीवास्तव साहब! मेरे कोई भाई नहीं है एवं सच माने इस दुनिया को देखकर कभी भाई बनाने की इच्छा भी नहीं हुई। लेकिन आपने मेरा दिल जीत लिया है। क्या मैं आपके राखी बांध सकती हूँ ?’
मेरे कौनसी बहन थी। बचपन से अन्यों की कलाई में राखियाँ देखता तो मन में एक विचित्र टीस उठती।
मैंने अपनी कलाई बढ़ाई। राखी बंधवाते हुए हम दोनों की आँखें गीली थी।
मेरी पेशानी चूमते हुए हर्षगद्गद् मंजुरी बोली ‘मेरे चंदा।’
मैंने पूजा की ओर देखा।
हमसे अधिक प्रेमाश्रु अब उसकी आँखों से बह रहे थे।
उसे आज एक प्यारी-सी ननदी जो मिली थी।
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20-08-2011