न जाने क्यों कुछ मित्र आपकी परेशानी का सबब होते हुए भी आपको प्यारे लगते हैं ? वे आपको वे बातें कहते हैं जो आप सुनना नहीं चाहते फिर भी आप पुनः पुनः उन्हीं बातों को सुनने उनके पास चले जाते हैं। अब विष्णु को ही लो, उसके पास ऐसी-ऐसी रहस्यमयी बातों का खजाना है, भूत-प्रेत, डायन-पिशाचिनों, तंत्र-मंत्र आदि की इतनी कहानियां हैं कि आप तौबा करलें पर जाने उसमें ऐसा कौनसा आकर्षण, सम्मोहन है कि मैं पुनः प्रेरा हुआ सा उसके पास चला आता हूं। मैं भी लगता है कोई उल्टी खोपड़ी का आदमी हूं, डरता भी हूं एवं डरावनी बातों में रस भी लेता हूं। विष्णु मेरी इस कमजोरी को समझता है, तभी तो इसी शहर में पचास पार होने के बाद भी हम अब तक एक दूसरे के मित्र हैं। यूं ऐसा भी नहीं है कि वह मात्र अंड-बंड बातें करता है, विष्णु मेरे बचपन का सहपाठी है, यारों का यार है एवं मेरे ऑटोपर्ट्स के व्यापार में प्रतिस्पर्धी होते हुए भी उसने मुझे अनेक बार संगीन मुसीबतों से निकाला है। इस सबके बीच वह उतना ही रहस्य, रोमांच एवं तिलिस्म से भरा है कि कभी-कभी तो मैं उसकी बातों को सुनकर कांप उठता हूं। इतना ही नहीं, इन सब बातों को सुनकर उन पर इतना सोचता हूं, मंथन करता हूं या यूं कहूं कि उनमें इस कदर डूब जाता हूं कि मेरी खोपड़ी गरमा जाती है। संजना मेरी इस दशा को देखकर तुरंत पहचान जाती है, कहती भी है, विष्णुजी ने कोई और नया प्रेत-पुराण खोपड़ी में घुसेड़ दिया क्या ? तब मेरे पास चुप रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता।
ऐसी ही एक बात विष्णु ने मेरी खोपड़ी में दस दिन पूर्व इस कदर बैठाई कि आज तक उस पर सोच रहा हूं। दरअसल हम दोनों माॅर्निंगवाॅक से लौट रहे थे कि आधे रास्ते पर राम चबूतरा दिखा। यहां नित्य सुबह असंख्य कबूतर एवं अन्य पक्षी चुग्गा चुगने आते हैं। माॅर्निंगवाॅक से लौटते हुए हम अक्सर यहां रुकते थे। हम दोनों कुछ देर वहीं लगी एक लकड़ी की बेंच पर बैठ गए। ओह! पक्षियों को दाना चुगते देख कितना आनंद आता है। कबूतर जब ऊपर से नीचे उतरते हैं अथवा फिर वापस उड़कर लौटते हैं तो उनसे लगने वाली हवा आपको रूहानी आनंद से भर देती है। असंख्य पक्षियों के तृप्त होने का अहसास कहीं आपको भी अबूझ आत्मतृप्ति से सराबोर करता है।
मैं यूं ही बैठा इन दृश्यों को निहार रहा था कि यकायक जाने कहां से एक बूढ़ा, कृशकाय कौआ कांव-कांव करते हुए आया एवं मेरे सिर पर बैठ गया। मैं चौंका, मैंने हाथ ऊपर कर उसे उड़ाया एवं उसके उड़ते ही विष्णु से बोला, “यार ! यहां कौवे कब से आने लग गए ?” विष्णु कुछ देर चुप रहा तो मैं गंभीर हुआ। मैंने पुनः उससे यह प्रश्न किया तो उसकी आंखों में उदासी मिश्रित रहस्य का विचित्र भाव तैर गया। विष्णु का पूरा नाम विष्णुदेव पुरोहित था, वह पंडित था, मैं महाजन बनिया, मुझमे इतना धैर्य कहां था कि इस रहस्य को जाने बिना रह सकूं।
“तूने सुना नहीं ? तू तो ऐसे निराश एवं उदास हो गया है जैसे सिर पर कौआ नहीं बला आकर बैठ गई हो । ’’ यह कहकर मैं उसकी ओर उत्तर के लिए यूं तकने लगा कि पंडित जो कहना है कह, यूं बेवजह मित्र को डराना उचित है क्या ?
“बला होती तो मैं टाल देता संजु ! आखिर दोस्त इसी के लिए बने होते हैं। क्या बताऊं ! आज तो तेरे सिर वह बैठ गई जिसे कोई व्यक्ति अपने दोस्त के लिए कह भी नहीं सकता। ’’कहते-कहते उसने मेरा एक हाथ अपने हाथ में ले लिया।
“अब बता भी क्या बैठ गई ? इतनी देर से पहेलियां बुझा रहा है।’’ मैं लगभग चीख पड़ा।
“संजु ! क्या बताऊं अब तेरा-मेरा साथ छूट गया। अब तू और मैं मात्र एक माह के लिए मित्र रहेंगे।’’ कहते-कहते उसकी आंखों में पानी तैरने लगा।
“यह कौनसा अपशकुन हो गया यार और ऐसा हो भी गया तो डरता क्यों है, एक महीने बाद पुनः मित्र हो जाएंगें। किसकी ताकत है जो तुझे मुझसे जुदा करे।’’ मैंने वार्ता का रुख मोड़ने का प्रयास किया।
“संजु ! तू बिल्कुल बेवकूफ है। तुझे समझाना टेढ़ी खीर है। अब कैसे और किस मुंह से कहूं आज तेरे ऊपर साक्षात् मौत बैठकर गई है।’’ कहते हुए वह रुंआसा हो गया। मेरा नाम संजय मणिहार है पर विष्णु मुझे बचपन से संजु कहता आया है।
“अबे क्या बक रहा है ? अभी तो तेरे भतीजे-भतीजी दोनों कुंवारे हैं। उनका ब्याह तू करवायेगा क्या ?’’ मेरा दिल फटने लगा था।
“संजु ! अब क्या बताऊं, सच तो यह है कि जब भी बूढ़ा कौआ अथवा गिद्ध सिर पर आकर बैठ जाए तो समझो आदमी अधिकतम एक माह और जीएगा। बडे़-बुजुर्ग एवं शास्त्र ऐसा ही कहते हैं। मौत आने के एक माह पहले इशारों द्वारा प्रकट कर देती है कि मौत आने वाली है। बस पहचानने वाला चाहिए। ऐसे अनेक संकेत हैं जिससे मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता है।’’ उत्तर देते-देते वह हांफने लगा था।
“वे संकेत कौनसे हैं ?’’ मेरी आंखें आश्चर्य से फैल गई। भला मैं ऐसी बातों में रस क्यों न लेता। यह बातें तो मेरे दिमाग की खुराक थी।
“इसमें प्रथम संकेत तो वही है जो अभी-अभी तेरे साथ हुआ। और भी कुछ संकेत हैं। अगर चांद अथवा सूरज में काली दरार नजर आए अथवा उनके चारों ओर काला घेरा नजर आए तो समझो मृत्यु निकट है। निकट यानि एक महीने के भीतर-भीतर।’’ कहते हुए विष्णु मुझे ऐसे देख रहा था जैसे सिद्ध गुरु अल्पज्ञ चेले की ओर देखता है।
“यह तो तूने गज़ब बात बतायी। मौत के अन्य और चिह्न क्या हैं ?’’ अब तक मेरी आंखों में विस्मय सिमट आया था।
“अगर कानों पर हाथ रखने पर आवाज न सुनाई दे, हाथ की लकीरें टूटने लगे, शीशे में अलग परछाई दिखने लगे, अगर कोई चलते हुए किसी साये को साथ चलता हुआ महसूस करे, चेहरा अचानक पीला पड़ जाए तो समझो मौत करीब है।’’ विष्णु बिना रुके बोल गया।
“बाकी बचे चिह्न भी उगल दे।” मैं भयभीत उसके समीप सरक गया।
“रात घर के बाहर कुत्ते जोर से भौंकने लगे, मुंह के इर्दगिर्द नीली मक्खियां मंडराने लगे, अचानक आंखों के आगे अंधेरी एवं साथ में चक्कर आने लगे, बांया हाथ लगातार दो दिन तक फड़के, बेवजह मुंह एवं कंठ सूख जाए तो समझो यमदूत शीघ्र ही द्वार पर आने वाले हैं।’’ विष्णु एक सांस में शेष सभी चिन्ह् बोल गया।
“ये यमदूत क्या होते हैं विष्णु ! क्या यह सच में होते भी हैं ?’’ अब मेरा मुंह सूखने लगा था। लगा जैसे शब्द गले में अटक रहे हैं।
“यमदूत मृत्यु के देवता यम के दूत होते हैं। वे आत्मा को ले जाते समय जीव को पहले तो उसके दुष्कर्मों के लिए फटकारते हैं तत्पश्चात् ऊपर ले जाकर उसे कर्मो के अनुसार दंड देते हैं। ’’ कहते हुए विष्णु ने अपनी आंखें फैलाई तो क्षणभर के लिए वह मुझे काला भसूण्डा यमदूत लगा हालांकि इसके पहले जैसा कि वह था, मुझे सदैव गोरे रंग का तीखा-बांका, लंबा, स्मार्ट बंदा लगा। अनेक लोग तो हमें भाई समझते थे क्योंकि कद-काठी, रूप में मैं भी विष्णु जैसा ही था। पचास पार भी हम दोनों के बाल काले थे एवं चेहरे पर वो सलवटें नही थी जो बहुधा इस उम्र के लोगों में आ जाती हैं।
विष्णु की बातें सुनकर मेरा हृदय भीतर तक कांप गया विशेषतः ऐसा एक अनिष्ट चूंकि पहले ही मेरे साथ घट गया था एवं अब जबकि मेरा गला सूखने लगा था, आंखों के आगे अंधेरी एवं हल्का चक्कर आने लगा था, मृत्यु के अन्य चिन्ह भी स्पष्ट होने लगे थे।
मैंने सर उठाकर ऊपर आसमान की ओर देखा। हे लीलाधर! जीवनभर ठोकते रहे , अब मारने पर उतर आए। सर्दी के दिन थे। दिसम्बर समाप्त होने को था। आसमान में हल्की धुंध छाई थी। कुछ पक्षी इधर से उधर उड़ रहे थे तो कुछ दाना लेने नीचे उड़कर आते एवं तृप्त होकर पुनः उड़ जाते। पूर्वी क्षितिज से सूरज ऊंघता हुआ ऊपर उठ रहा था। मैंने गौर से देखा, आज जाने क्यूं मुझे लगा सूरज को आड़े चीरती हुई एक दरार उसे विभक्त कर रही है। मैं घबरा गया, मैंने पुनः सिर उठाकर सूरज की ओर देखा, उसके चारों ओर आज एक काली झांई थी जो धीरे-धीरे गहरा रही थी। मेरे औसान जाते रहे, दम टूटने लगा। मैं उसी क्षण बेंच से उठकर खड़ा हो गया।
“चलो, अब घर चलते हैं।’’ विष्णु को कहते हुए मैं लगभग चिड़चिड़ा गया। मेरी दशा देखकर विष्णु भी शेष रास्ते कुछ नहीं बोला।
घर पहुंचते-पहुंचते मेरी आधी शक्ति क्षीण हो चुकी थी जैसे किसी ने जिस्म से खून निचोड़ लिया हो। विष्णु की हर बात सच लगने लगी थी। मुझे लगा संजना को विष्णु की बात बताऊं , पर फिर यह सोचकर चुप रह गया कि यह फिर अपना सिर पीटकर वही कहेगी जो अभी दस रोज पहले कहा था, बूढ़े हो गए हो पर आपका दिमाग आज भी कच्ची मिट्टी है। अगर आपको कोई सड़क पर उल्टा चलने को कहे एवं इसके फायदे गिनवाए तो शायद आप थोड़े दिन में उल्टे चलने लगोगे। क्या औंधी खोपड़ी मरद मिला है। कभी सीधा सोचता ही नहीं। मैं चुप्पी मार गया। मुझे मेरी स्वर्गीय मां का स्मरण हो आया जो बहुधा नहाने के बाद मेरी पेशानी चूमकर कहती थी, मेरा राजा बेटा कित्ता बुद्धिमान है।
अगले दस रोज हालांकि मैं पूर्व दिनचर्या की तरह नित्य विष्णु के साथ माॅर्निंगवाॅक पर जाता, धीरे-धीरे सूखने लगा। मुझे वे सभी चिह्न, संकेत जो विष्णु ने बताए थे, मेरे जीवन में घटते हुए नजर आए। एक दोपहर सड़क पर चलते हुए मैंने ध्यान से पीछे मुड़कर दूर तक देखा, हालांकि मुड़ते हुए मैंने पूरा ध्यान रखा कि लोग मुझे मूर्ख न समझें, मुझे मेरा साया नहीं दिखाई दिया। मैं कांप गया। उसी रात कमरे में जाते हुए मुझे लगा कोई मेरे साथ चल रहा है। मैं बालकनी में आया। बाहर दो कुत्ते चांद की ओर देखकर भौंक रहे थे। मैं डर गया। भीतर आकर हनुमान चालीसा का पारायण किया, तब जाकर मेरा भय दूर हुआ। सुबह योगा करते हुए मैंने नित्य की तरह कान दबाकर ओम् का उच्चारण करने वाला प्राणायाम किया लेकिन मुझे उतनी ही आवाज सुनाई दी जितनी किसी बहरे को सुनाई देती है। अबसे पहले मुझे यह आवाज स्पष्ट सुनायी देती थी। मैं एक कपोलकल्पित भय से घिर गया , हथेलियां पसीने से भीग गई। मैंनें वर्षों बाद मेरी हथेलियों को ध्यान से देखा, अरे ! मेरी इतनी रेखाएँ टूट कैसे गई ? पहले तो ऐसा नहीं था। मैं डरकर शीशे की ओर भागा। शीशे में मैं नहीं मानो भूत खड़ा था। मैं सहम गया। बेडरूम में आकर पलंग पर लेटा तो यकायक बांया बाजू फड़कने लगा। अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी। इन दिनों रात या तो नींद नहीं आती अथवा आती तो ऐसे स्वप्न आते जिसमें मेरे वे रिश्तेदार चुप खड़े दिखाई देते जो वर्षों पहले मर चुके थे। भूख प्यास सब मर गयी। मुंह बैरी हो गया। अब बात पक्की हो गई। मृत्यु मौन पदचाप से मेरी ओर इस तरह आ रही थी जैसे कोई भूखी शेरनी मेमने की ओर बढ़ती है। अगर मृत्यु का एक संकेत मृत्यु की संभावना बता देता है तो मुझमें घटित होते हुए इतने सारे संकेत यह बताने के लिए पर्याप्त थे कि मेरी मृत्यु समीप खड़ी है। मैं भीतर ही भीतर सिमट गया। लगा जैसे किसी ने मेरे दिल पर मन भर की सिल रखदी हो।
विष्णु ने जो कुछ कहा उस बात को अब दस रोज हो चुके थे। इन दिनों मैं अक्सर चुप रहता। भीतर रुदन मचा था , किससे कहता ? मौत असमय आ जाए तो कोई बात नहीं लेकिन यूं कहकर , डरा-डराकर आए तो इसकी व्यथा वही जानता है जो भुगतता है।
आज लेकिन एक ऐसी घटना घटी जिससे मुझे किंचित् राहत मिली। माॅर्निंगवाॅक से लौटते हुए मैं एवं विष्णु नित्य की तरह राम चबूतरा के पास बेंच पर बैठे थे तभी वही बूढ़ा, कृश कौआ कांव-कांव करते आया , कुछ पल तो मेरे ऊपर उड़ता रहा फिर मुझे छोड़कर विष्णु के सिर पर बैठ गया। मुझे मानो प्राणवायु मिली। मुझे पहली बार लगा हम दुखियारे कितना सुकून देते हैं। विष्णु ने कातर आंखों से आंख ऊंची कर इस दृश्य को देखा, उसका चेहरा लटक गया। मैंने हाथ ऊपर कर कौवे को उड़ाया।
“लगता है हम दोनों पर कोई भारी विपत्ति आने वाली है। हो सकता है किसी दुर्घटना में हम दोनों साथ मर जाएं।’’ कहते-कहते विष्णु की आंखे फैल गयी।
“अब क्या करें विष्णु ?’’ मैैंने भी सहमे-सहमे विष्णु से पूछा। वह न जाने क्यों अब गहरी-गहरी सांस ले रहा था।
“संजु ! यकायक मुझे एक विचित्र गंध आने लगी है। इस गंध का बयां करना मुश्किल है। इसे सिर्फ वही सूंघ सकता है जो मरने वाला हो। यह मृत्युगंध है। लगता है तेरी-मेरी मित्रता को नजर लग गई है। अब तांत्रिकों, भोपों की शरण में जाना ही होगा, मैं तुझे भी फोन कर बताऊंगा। फिलहाल हम विदा लेते हैं। अब हम दोनों आज के एक माह बाद ही मिलेंगें। दुर्घटना से टलने का यही उपाय है।’’ इतना कहकर विष्णु उठा, मुझसे हाथ मिलाया एवं हम दोनों अपनी राह पर चल पड़े।
अब सोचने-सुनने को क्या बचा था।
घर पहुंचा तब तक मुझे पूरा यकीन हो गया मैं मात्र चंद दिनों का मेहमान हूं। रात करवटें पर करवटें ले रहा था। आंखें नींद से बोझिल थी पर पलकें बंद होने से इंकार कर रही थी तभी मुझे एक विचित्र गंध का अहसास हुआ जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की। मेरा कलेजा बैठ गया। रातभर बैडरूम से बालकनी में आता-जाता रहा। सुबह न जाने कैसे संजना ने यह बात ताड़ ली कि मेरे साथ कुछ लफड़ा हो गया है। उसने मुझे पूछा तो पहले मैं टाल गया पर जब उसने आंखें तरेरकर पुनः प्रश्न दोहराया कि सच-सच बताओ क्या हुआ है तो मैंने पिछले दस दिन से हृदय में छुपाया सारा भेद उगल दिया। मेरी बात सुनकर पहले तो वह सहमी फिर क्षणभर में सामान्य होकर बोली, “हम आज ही डाॅ त्रिवेदी के घर चलेंगे। वे अच्छे मनोचिकित्सक होने के साथ प्रख्यात अध्यात्मविद् भी हैं। उनके पास हर समस्या का समाधान है। वे मेरे पापा के अच्छे मित्र भी हैं, मैं अभी पापा से बात करती हूं। और खबरदार जो विष्णुजी से इन दिनों मिले अथवा फोन पर बात की। बेवजह अपने साथ आपको भी भोपों में फंसा देंगे।’’
शाम पांच बजे मैं डाॅ त्रिवेदी के घर ड्राईंगरूम में उनके सामने बैठा था। संजना को उन्होंनें पहले ही कह दिया था कि वे मुझसे अकेले में बात करेंगे। मुझे पता था संजना ने उन्हें पहले ही मेरे भूत-प्रेत, डायन-पिशाचों के ज्ञान के बारे में बता दिया होगा। मुझे यह भी पता था वह स्पष्ट कह देगी कि यह दिन-रात हाॅरर बुक्स पढ़ते हैं एवं फिर रात सपनों में डरते हैं। क्यों न कहे अभी तीन दिन पहले ही तो पसीने से तरबतर उठकर मैंनें संजना को पुकारा था।
“हेलो संजयजी, कैसे हैं ?’’ डाॅ त्रिवेदी की आवाज सुनकर मैं इस तरह चौंका जैसे किसी ने मुझे नींद से जगा दिया हो।
“जी , ठीक हूं। ’’ मैं ठीक नहीं था पर मुझे यही उत्तर सूझा।
“फिर चेहरे पर यह हवाइयां क्यूं उड़ रही हैं ?’’ कहते हुए वे जोर से हंस पडे़। मुझे एकबारगी लगा वे मेरा उपहास कर रहे हैं पर यह बात सच भी तो थी। उनसे कुछ भी छुपाना दाई से पेट छुपाने जैसा था। मैंनें उन्हें सारा घटनाक्रम उतनी ही सत्यता से बता दिया जैसे संजना को बताया था। दिल का गुबार निकालने के बाद लगा जैसे सिर पर रखा आधा बोझ नीचे रख दिया हो। आज मुझे पहली बार लगा, अनेक दुःख हम यूं ही ढोते हैं, अगर उन्हें किसी को कह दें अथवा बांट लें तो दुःख वैसे ही काफूर हो जाता है जैसे दीया जलाने पर अंधेरा। लेकिन ऐसा विश्वासपात्र व्यक्ति मिलता कहां है ?
“तुम्हें किसने कह दिया तुम मर जाओगे ? मृत्यु तुम्हे मार ही नहीं सकती।’’ डाॅ त्रिवेदी अब मेरा चार्ज लेने लगे थे।
“वह कैसे ?’’ मुझे मानो इन्हीं शब्दों की तलाश थी।
“मृत्यु तुम्हें नहीं मारती, उसे मारती है जो तुम नहीं हो। मृत्यु देह को मारती है लेकिन तुम देह कहां हो ? देह तो नश्वर है। ऐसी देह तो जन्म-जन्मांतर में अनेक बार तुम प्राप्त कर चुके हो। वे सभी देह विनष्ट हो गयी तो क्या तुम विनष्ट हो गए ? तुम आज भी तो हो। क्यों ? ऐसा इसलिए कि तुम एक शक्तिशाली, ज्योतिपुंज आत्मा हो जो कभी नष्ट नहीं होती। अगर तुम्हारी आत्मा अनश्वर, ऊर्जा से परिपूर्ण, जीवंत है तो फिर किसके नष्ट होने का दुःख लिए तुम भयभीत हो रहे हो ?’’ डाॅ त्रिवेदी का दार्शनिक भाव अब उनके चिकित्सकीय भाव के साथ प्रकट होने लगा था।
“ओह ! आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। यह बात मैंने भी गीता एवं अन्य पुस्तकों में पढ़ी है पर संकट के समय ज्ञान जाने किस कंदरा में जाकर छुप जाता है।’’ मैंनें बात आगे बढ़ाई।
“ऐसा इसलिए कि तुम्हारा मन उन सब बातों को शह देता है जो तुम बलात् अपने विचारों में बसा लेते हो। तुम उससे बाहर आना ही नहीं चाहते। तुम्हारी बुद्धि तुम्हारे हर दुश्चिंतन के लिए तर्क जुटा लेती है जैसे कि तुमने जुटा लिए हैं। यह ‘ओबसेशन ’ अर्थात् बाध्यता नाम का रोग है। इस रोग को हम ही क्रियेट करते हैं एवं हम ही हमारे सत्चिंतन, आत्मविश्वास से बाहर आ सकते हैं। रोग तुमने बनाया है तो मिटाओगे भी तुम्हीं। उसे तांत्रिक, भोपे कैसे मिटा सकते हैं ?’’ डाॅ त्रिवेदी का चिकित्सा भाव अब दर्शन भाव को लांघने लगा था।
“इस ओबसेशन से मुक्त होने का क्या उपाय है ?’’ मैं धीरे-धीरे उनके चिकित्सकीय शरण में जाने लगा था। उनके आंखों में ऐसा सम्मोहन था जो मुझे वह सोचने को विवश कर रहा था जो वह चाहते थे एवं जो जगत् का अंतिम सत्य भी था।
“मैं तुम्हें तीन-चार थैरेपी सैशन में बुलाऊंगा , कुछ दवाइयां भी दूंगा जिससे तुम कुछ समय के लिए शांत रहोगे। हो सकता है तुम्हें नींद अधिक आए। उसके पश्चात् तुम एक माह के लिए किसी हिलस्टेशन पर घूमकर आओ। जिंदगी के प्रति सकारात्मक नजरिया पैदा करो। अपनी ऊर्जा, प्राणों को फालतू बातों में खपाने के बजाय ध्यान, आध्यात्मिक, प्रेरक पुस्तकों आदि को पढ़ने में लगाओ। ऐसी बातों में रस न लो जो तुम्हें भयाक्रान्त करती है।’’ डाॅ त्रिवेदी ने यकायक मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था।
“ओह ! सचमुच मैं भटक गया था अंकल ! एक बात लेकिन समझ नहीं आई कि वह मृत्युगंध क्या थी ?’’ मैंने न चाहते हुए भी मेरा संशय प्रकट कर दिया।
“मृत्युगंध और कुछ नहीं जीवन का उत्साह, उमंग और उल्लास से दूर होना है। मृत्युगंध उचित जीवनदर्शन का अभाव है। यह गंध उन्हें ही आती है जिनका आत्मविश्वास, जीवट मर गया है। जो परिस्थितियों का मुकाबला करना नहीं जानते। जो मुर्दादिल हैं। जिंदादिल, साहसी लोगों को तो सदैव जीवनगंध ही आती है। वे हर पल, हर घड़ी जीते हैं। उन्हें मृत्युगंध कभी नहीं आती। ’’ डाॅ त्रिवेदी की बातें सुनकर मेरे आंखों की चमक बढ़ गई।
उनके क्लिनिक से बाहर आते-आते मेरी मुट्ठियां तन गई। किसी ने मेरे भीतर एक नये विश्वास का शंखनाद कर दिया था। हां मैं ऐसा कर सकता हूं, हां मैं ऐसा ही करूंगा।
भीतर दीपक जल जाए तो वहां अंधेरा कैसे रहेगा ?
हम हिलस्टेशन से लौटकर आए तो मुझे किसी अन्य मित्र से यह दुःखद सूचना मिली, “कल देर रात तुम्हारे मित्र विष्णु का स्वर्गवास हो गया है।’’
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दिनांक: 26 दिसम्बर, 2018