आषाढ़ क्या लगा जड़-चेतन सभी मस्ती में बौरा गये।
भोर के घोड़ों को रथ में जोतकर सूरज ने उसे हांका ही था कि सामने घूमता हुआ एक आवारा बादल उसके मार्ग में आ गया। नाक भौं चढ़ाकर सूरज उसे छेड़ता हुआ-सा बोला, “अरे लंपट! सुबह-सुबह यूँ आवारों की तरह क्यूँ डोल रहा है?”
“ऐसा क्यूँ कहते हैं, सूर्यदेव! मैं आपको लंपट दिखाई देता हूँ?” बादल ने चिढ़कर उत्तर दिया।
“मैंने क्या गलत कहा! आषाढ़ लगते ही तेरे भाव कुछ ज्यादा ही बढ़ जाते हैं। तू लंपट नहीं तो क्या है? जब देखो भू-कामिनी के शिखर स्तनों को चूम-चूम कर उसे उत्तेजित करता रहता है।” सूर्य ने ऊपर के दाँतों से निचला ओठ काटते हुए शरारत की।
“आप कम हैं क्या! पहले तो आप ही तेज तप कर उसके हरीतिमा वस्त्रों को उतारते हैं। नग्न स्त्रियों को देखने की आपकी पुरानी आदत गयी नहीं। मैं तो उल्टे झीना श्वेत वस्त्र डालकर उसकी नग्नता को आवरण देता हूँ।”
“यह लो! अब शराफत तुम्हीं में रह गयी। तूने मुझे और कब नग्न स्त्रियों को छुप-छुप कर निहारते हुए देखा है?”
“मुँह अंधेरे जब विरहणियाँ अपने प्रवासी प्रेमियों की याद में अस्त-व्यस्त पड़ी उच्छ्वासें भरती हैं, तब क्या मैं किरणों की दूरबीन से उन्हें देखता हूँ? भोर के समय अपने पतियों के आलिंगन में लिपटी निर्वस्त्र नवब्याहताओं को सर्वप्रथम आप ही रोशनदानों से झाँककर देखते हैं।” बादल ने पलटवार किया।
“तू कम है क्या! तू भी तो उपवनों में गीत गाती हुई हिरणाक्षियों पर बूंदें बरसाकर उन्हें भिगोता रहता है। तेरी बूंदों के मारे उनके पतले वस्त्र जब उनके बदन से चिपकते हैं तो क्या तू और तेज बरसकर उनके अंगों को नहीं निहारता? तब तो मैं वहाँ नहीं होता।” सूर्य ने नहले पर दहला दिया।
“यह लो! उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे। मेरे जाने के बाद जब वही हिरणाक्षियाँ पेड़ों की ओट में अपने वस्त्र सुखाती हैं तब क्या आप नेत्र बंद कर लेते हैं? तब आप ही तप-तप कर उन्हें कहते हैं, ‘‘हे कामिनियों ! आराम से अपने वस्त्र सुखा लो। अब आवारा बादल तो गया। उन बेचारियों को क्या पता कि आप जैसे अनुभवी बूढ़े युवा बादलों से भी अधिक लुच्चे होते हैं।” बादल कौनसा रुकने वाला था।
“छोटे मुँह बड़ी बात मत कर! तू जो रात में चाँद के आगे आकर बार-बार चाँदनी का आलिंगन करता है, मैं क्या जानता नहीं ! मैं उस समय वहाँ नहीं होता हूँ तो क्या, सुबह चकोर-चकवे मुझे सारी हकीकत बयाँ कर देते हैं।” बादल के तर्कों से आहत सूरज अब गंभीर होने लगा था।
“आप जो नित्य संध्या के लाल गालों को चूमकर उसे अंधेरे बिस्तर पर ले जाते हैं, वह क्या मुझसे छिपा है !” अपने तर्क की तलवार को बुद्धि की सान पर रगड़ते हुए बादल ने उत्तर दिया।
“पहले अपने गिरेबां में झाँक! पावस में चपला दामिनी तेरे आलिंगन से छूटकर भागती है तब कैसे पागलों की तरह शोर मचाता है। अपनी बीवी तो सम्भलती नहीं, दूसरों को उपदेश देता हैं।” सूरज मूँछें तानकर बोला।
“और चाँद जो आपकी संध्यारानी के पीछे लगा रहता है, उसका भान है आपको? अपनी फूटी दिखती नहीं, दूसरों की फूली निहारते रहते हो।” बादल से भी रहा नहीं गया।
क्रोधी भला कब सहिष्णु हुए हैं ! अब सूरज ने आँखें लाल कर कहा, “अरे मूर्ख! रास्ते से हट। अभी तो पूरे दिन तपकर मुझे अपनी यात्रा करनी है, सुबह-सुबह शकुन खराब कर दिये।”
“क्रोध क्यूँ करते हैं दिनकर ! भला मेरी क्या जुर्रत कि आपके रास्ते में व्यवधान उपस्थित करूँ। मैं तो अपने धर्म से बँधा इधर-उधर विचरता रहता हूँ। परमात्मा ने मेरी प्रकृति ही ऐसी बनायी है तो मैं क्या करूँ !” बादल ने प्रत्युत्तर दिया।
दोनों में युद्ध अब परवान चढ़ने लगा था।
“मुझे धर्म एवं बोध सिखाता है ! बावले ! पहले अपने भीतर तो झाँककर देख ! कितना विचित्र चरित्र है तेरा। कभी फैलकर लम्बा हो जाता है तो कभी छोटा। कभी मोटा हो जाता है तो कभी पतला। कभी चींटी की तरह रेंगता है तो कभी हिरण की तरह सरपट भागता है। कभी काला हो जाता है तो कभी नीला। कभी सफेद तो कभी भूरा। कभी टुकड़ों में बंटकर छोटा हो जाता है तो कभी टुकड़ों से जुड़कर विशाल। कभी शेर की तरह दहाड़ता है तो कभी बकरी की तरह मिमियाता है। कभी निराकार की बातें करता है तो कभी तरह-तरह के रूप धरकर साकार हो जाता है। अन्यत्र कहीं भी तेरे जैसा विचित्रवीर्य दिखाई नहीं देता।”
“आप कैसी बातें करते हैं प्रभाकर! जगत में सभी अपने-अपने गुणधर्म से विचरते हैं। सबके सृजन के पीछे प्रभु का कोई न कोई अंतर्निहित उद्देश्य अवश्य होगा। आप भी तो सुबह से शाम सबको तपाते रहते हैं, नित्य आकाश को पार कर इधर से उधर जाते हैं। पृथ्वी वासियों से भी पहले आपकी तपन को हम झेलते हैं, हम तो आपको कुछ नहीं कहते।”
“तू कह भी क्या सकता है! इतनी जुर्रत है तुझमें? मेरे ही तेज से उत्पन्न होकर मुझे ही आँख दिखा रहा है? क्या तुझे इतनी भी समझ नहीं कि बैर और प्रीत बराबरी वालों में होती है?”
“बड़ा तो वही है जो अपने से छोटों को उचित सम्मान एवं आदर दे। यह तो वही बात हुई कि मेरी नाक पर मक्खी कैसे बैठ गई। आप राजा होते तो छींकने पर नाक कटवा देते। खैर, मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता। आप अपने रास्ते जाइये, मैं मेरे जाता हूँ।” बादल ने यह कहते हुए सीधे-सीधे पंगा ले लिया।
“रे दुष्ट! घुमंतू ! जगत्साले ! तुझमें इतना साहस कहाँ से आ गया। आज तुझे बताता हूँ, तेरी औकात क्या है। घुमक्कड़ की जात! अभी तुझे तपाकर तेरा अस्तित्व समाप्त करता हूँ।”
अपने आत्मसम्मान पर ऐसा कटु प्रहार बादल सहन नहीं कर सका। जाति अवमानना क्षुद्रतम जीव भी सहन नहीं करते।
सूर्य की नीयत जानकर बादल ने तुरन्त मोर्चा सम्भाला। अपनी बहन हवा से मदद लेकर उसने तुरन्त यत्र-तत्र बिखरे अन्य भाइयों को सूर्य की चुनौती बतायी। अपने अस्तित्व एवं जाति अभिमान के लिये सभी एक जुट हो गये। सभी के आपस में मिलने से वहाँ एक विशाल मेघ बन गया। इस विशाल मेघ ने सूर्य को पूर्णतः आवृत्त कर लिया।
क्षुद्र बादल की इतनी हिम्मत। सूर्य ने अपना तेज और प्रखर किया। देखते ही देखते वह अंगारे ऊगलने लगा पर घनीभूत मेघ की सत्ता पर उसका कोई असर नहीं हुआ वरन् अब उसने सूर्य के साथ-साथ चलना प्रारंभ कर दिया। सूर्य ने और तपकर बादल को छिन्न-भिन्न करने का प्रयत्न किया पर उसकी दाल नहीं गली। बादल ने आज उसे जमात की करामात बता दी। सूरज उसका बाल बाँका भी न कर पाया।
कुछ दिन यूँ ही युद्ध चला तो धरती पर त्राहिमाम् मच गया। बारिश के बाद किसानों ने अभी-अभी बीज बोये थे। वे याचक आँखों से आसमान की ओर देखने लगे।
सूर्य किरणों के बिना बीज अपने अंतर्घट को फोड़कर कैसे अंकुरित होते? धरती पर सर्वत्र आर्द्रता फैल गई। लोगों के कपड़े तक नहीं सूख पाए। जहाँ-जहाँ पानी बहता, वहाँ-वहाँ कीचड़ फैल जाता।
लोग रपट-रपट कर गिरने लगे। सर्वत्र अव्यवस्था फैल गई। पृथ्वीवासी आर्त होकर ब्रह्मा को पुकारने लगे।
ब्रह्मा ने अंतर्ध्यान से वस्तुस्थिति का पता लगाया। सूर्य और बादल के युद्ध को जानकर वे हँस पड़े। उन्होंने दोनों को उनके सम्मुख उपस्थित होने का आदेश दिया।
सूर्य ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, “प्रभु! यह क्षुद्र बादल जब देखो मेरे मार्ग में पड़कर मेरे कार्य में व्यवधान डालता है। मेरे ही तेज से उत्पन्न होकर यह मुझे ही चुनौती देने लगा है।”
“बादल ने अपने पक्ष की पुरजोर वकालत करते हुए कहा, “प्रभु! मैं तो अपने गुणधर्म से बँधा इधर-उधर विचरता हूँ, यह अकारण हमें कोसते हैं। धुआँ होने से राजा की आँख जले तो क्या शहर में लोग रसोई नहीं बनायेंगे।”
दोनों का पक्ष सुनकर ब्रह्मा मुस्कराकर बोले,”तुम दोनों अकारण एक दूसरे से लड़ रहे हो। तुम दोनों एक दूसरे से अलग नहीं, एक दूसरे के पूरक हो। अगर सूर्य नहीं तपेगा तो बादल कैसे बनेंगे? बादल नहीं बनेंगे तो वर्षा कैसे होगी? वर्षा नहीं होगी तो किसान खेत कैसे जोतेगा? खेत जोतने के बाद धूप नहीं पहुँचेगी तो अंकुरण कैसे होंगे? यही नहीं छाया का अर्थ मनुष्य तभी तो न समझेगा जब वह तपन भोगेगा। तुम दोनों अपरिहार्य हो। तुम दोनों की महत्ता एक दूसरे से है, दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हो। सूर्य का यह अहंकार की वह अधिक बली है, सर्वथा निरर्थक है। वस्तुतः तुम दोनों एक दूसरे को बल देते हो। तुम्हीं नहीं संसार के सभी जड़-चेतन प्राणियों का अस्तित्व एक दूसरे से है। स्वयं को अपरिहार्य समझने वाले अंततः संसार के कोपभाजक बनकर विनष्ट हो जाते हैं। जीओ और जीने दो की भावना ही सर्वकल्याणकारी है।
शाम गहरी होती जा रही थी। सूर्य को आज बोध मिल गया था। अंधेरा पश्चिमी छोर पर उसे निगलने मुँह फाड़े खड़ा था।
बादल भी अब विच्छिन्न होने लगे थे।
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20.07.2006