मायातीत

कृष्णसहायजी ने पत्नी भागवंती के शव को कंधा दिया तो उनकी रूह काँप उठी। जीवन का कोई बोझ उन्हें इतना भारी नहीं लगा। जीवन में कठोर संघर्ष कर आज वे उस मुकाम पर थे, जहां उनके पास अकूत धन-संपदा थी। भागवंती उनके सुख-दुख की समभागिनी थी। सारा जीवन कंधा से कंधा मिलाकर उसने कृष्णसहायजी के हर संघर्ष में साथ दिया। दोनों में अनन्य प्रेम एवं गहरी समझ थी। दोनों एक दूसरे पर रीझते थे। शव को कंधा देते समय सारा अतीत चित्रपट की तरह उनकी आँखों के आगे होकर घूम गया। वह मुस्कुराहट जो उनका मन हर लिया करती थी, वह स्नेह सिंचित मधुर वाणी जो उनकी नसों में सनसनाहट पैदा कर देती थी, वह समर्पित रक्तवर्ण नैत्र, अभिमान से भरी चाल, सदर्प चेहरा रह-रह कर याद आता था। यौवन के वो रस भरे दिन, अधेड़ उम्र का संघर्ष और आज की धन-संपदा, वैभव से भरा घर बार। भागवंती इस सबमें बराबर की हिस्सेदार थी। शवयात्रा में उनके पैर लड़खड़ा रहे थे। जीवन के सारे सुखों की कल्पना जिसके साथ की थी, जिसके बिना उन्हें सारे सुख मिट्टी के बराबर लगते थे, उसे ही आज मुखाग्नि देनी होगी ? उनका हृदय गहरे से कांप गया। जीवन की नश्वरता यक्षप्रश्न बनकर उनके सामने खड़ी हो गई।

सिर्फ तीन रोज के लिए कारोबार के एक जरूरी ठेके के संबंध में शहर छोड़कर वह मुम्बई गए थे। जाते वक्त भागवंती को बुखार था, माथा तप रहा था एवं उसका मुंह भी पीला पड़ गया था। जाने को मन नहीं था। वृद्धावस्था में आदमी बहुधा आशंकित होता है। मन में अज्ञात भय उठ रहे थे पर भागवंती ने जब कहा कि बेटा-बहू सम्भाल लेंगे तो प्रवास का विचार बना लिया। सोचा, बुखार ही तो है, उतर जाएगा।

उनका पुत्र शालीन अट्ठाईस वर्ष का हो गया था, पर जिम्मेदारी उसे छू तक नहीं गई थी। जैसे-तैसे उसने बी.काॅम. किया एवं बहुत कहने पर इन दिनों दो -चार घण्टे के लिए पिता के ऑफिस में आता था। श्यामपुर में गत तीस वर्ष से वे कंस्ट्रक्शन कार्य के ठेके ले रहे थे एवं अब तक उनके ऑफिस में अनेक इंजिनियर, ड्राफ्टमैन आदि पचास से ऊपर मुलाजिम थे। शहर की नामी-गिरामी कंपनियों में उनकी कंपनी का नाम था। शालीन को काम सिखाने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया पर उसका मन तो सदैव दोस्तों में ही लगा रहता था। संगति भी कुछ अच्छी नहीं थी, धीरे-धीरे उसको शराब पीने की भी लत लग गई। बड़े-बुर्जुगों ने कृष्णसहायजी को राय दी कि इसकी शादी करवा दो, शालीनजी सम्भल जाएंगे।

कोई चार साल पहले बड़े धूमधाम से उसकी शादी मंजुल के साथ हुई। लड़की सुन्दर एवं बीए पास थी। खूब ठाट से शादी हुई। कृष्णसहायजी ने सारे अरमान निकाल लिए, सबका मुंह मोतियों से भर दिया। स्टाफ को इस मौके पर उन्होंने दो माह का अतिरिक्त बोनस दिया। घर में काम करने वाली महरी तक को सोने की चैन दी। विधाता ने जितनी नेमत उन्हें बख्शी थी, उससे कहीं अधिक दिल दिखाया उन्होंने। भागवंती ने उन्हें टोका भी पर उन्होंने सगर्व कहा, “हमारे किस बात की कमी है भागवंती! ईश्वर का दिया एक ही तो पुत्र है। तुम्हे याद नहीं कितनी नेमतों के बाद हुआ था शालीन।’’

कृष्णसहायजी ने सच ही कहा था। शालीन शादी के दस वर्ष बाद हुआ था। क्या-क्या नहीं किया था भागवंती ने उसे पाने के लिए। अट्ठावन शुक्रवार सिर्फ चने खाकर संतोषी माता के व्रत किए, चौबीस कोसी शहर के मंदिरों की परिक्रमा की, कितने पण्डित-पुजारी, ज्योतिषियों के यहां मत्थे टेके। जिसने जो राय दी उसे पूरा किया। तब कहीं जाकर पुत्र पाने की चिर अभिलाषा पूरी हुई। नाजों से पाला था शालीन को। जैसे कोई जौहरी अपने सबसे कीमती रतन को सम्हालता है, वैसे ही शालीन की परवरिश हुई थी। बहू के आने के बाद कृष्णसहायजी ने सोचा शालीन बदल जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ वरन् बहू भी शालीन के रंग में रंग गईं । देर रात क्लबों में जाना, मौज-मस्ती करना दोनों की आदत हो गई थी, यहां तक कि मंजुल भी यदा-कदा शालीन के साथ शराब पीने लगी थी। एक बार तो दोनों को देर रात लड़खड़ाते हुए भागवंती ने कार से उतरते देखा था, पर कृष्णसहायजी को कुछ नहीं कहा, सोचा उन्हें दुख होगा। शालीन पैसे का मूल्य नहीं जानता था। तपते रेगिस्तान में जिसकी परवरिश होती है वही पानी का मूल्य जानता है। लबालब जलाशय के किनारे रहने वाले व्यक्ति अक्सर उसके मूल्य से बेखबर होते है। जो सहज मिल जाता है उसे इन्सान मिट्टी समझ लेता है। शालीन के आगे तो पकी-पकाई फसल खड़ी थी, वह तो जैसे जीवन भोगने के लिए ही आया था। कृष्णसहायजी को बेटे-बहू की हरकतों का कारिन्दों द्वारा पता भी लगा था पर उन्होंने खुद कहना उचित नहीं समझा। सोचा आँख की शरम भी चली जाएगी। इसी के चलते अपने जनरल मैनेजर शर्माजी को शालीन को समझाने के लिए भेजा था पर इसका भी कोई असर बेटे-बहू पर नही हुआ। वो दोनों तो इस जीवन मधुशाला के मद में चूर थे। कंबल जितना भीगता है, उतना भारी होता जाता है। दोनों अब हठी हो गए थे, किसी की सुनते तक नहीं थे। प्रारब्ध के इस खेल को कृष्णसहायजी चुपचाप देख रहे थे। बात बिगड़ी तो परिवार की ही प्रतिष्ठा को नुकसान होगा, यह सोच कर चुप रहे। सोचा दोनों खुद आग में जलेंगे तो अक्ल आ जाएगी।

भागवंती के निधन का समाचार सुबह मुम्बई में उन्हें, जनरल मैनेजर शर्माजी ने दिया था। समाचार देते-देते शर्माजी टेलीफोन पर ही फूट पड़े थे, “रात माताजी की तबीयत बहुत बिगड़ गई, डाक्टरों ने कहा कि दिल का दौरा पड़ा है। हम उन्हें तुरन्त अस्पताल लाए। शालीन एवं बहूरानी को देर रात तक हम ढूंढते रहे पर नहीं मिले। बाद में पता चला कि रात उन्होंने क्लब में अधिक शराब पी ली थी एवं कहीं अपने मित्र के फार्म हाउस में सोने चले गए। जैसे-तैसे रात तीन बजे उनका पता चला तब तक माताजी चल बसी। मरणांतक उनकी आंखें आपको एवं शालीन को देखने को तरस रही थी।” कृष्णसहायजी एक पल भी नहीं रुके, सीधे हवाई जहाज से श्यामपुर आए।

शमशान में सुहासिनी नदी के किनारे भागवंती की चिता धधक रही थी, लेकिन उससे भी गहरी लपट कृष्णसहायजी के हृदय में उठ रही थी। इतने वैभव के बीच भागवंती का यूँ अंत होगा इसकी तो उन्होंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। हृदय अपमान से संकुचित एवं शर्म से झुका था। ऐसे लग रहा था जैसे सारा जगत उन पर हंस रहा हो। बहू-बेटे उनके साथ ऐसा व्यवहार करेंगे ? क्या इन्सान अपनी माँ के कर्ज को भी भुला सकता है ? जिस भागवंती ने अपना रक्त देकर इस उपवन को सींचा था, क्या उसे अपने खून से ही यूं जलील होना पड़ेगा ? जीवन का इतना संघर्ष क्यों और किसके लिए ? विरक्ति का ऐसा अंकुर उनके अन्दर फूटा जो चिता की आँच से अधिक दाह से भरा था। जीवन की नश्वरता एवं रिश्तो की निरर्थकता का बोध कहीं गहरे उनकी आत्मा को बेध चुका था।

दाह संस्कार के बाद एक-एक कर सभी विदा हुए। शालीन पास में ही खड़ा था, आँख मिलाने की भी हिम्मत नहीं थी उसमें। कृष्णसहायजी ने एक तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से शालीन को निहारा एवं शेष लोगों के साथ घर की राह ली।

रात उनकी आँखों में नींद कहाँ थी। देर रात भागवंती का चेहरा उनके आगे घूम रहा था। जेठ के दिन थे। खुली खिड़की से तारों भरा आसमान साफ नजर आ रहा था। वे उस तारे को ढूंढ रहे थे जो अनन्त में विलीन हो चुका था। भोर होने के पूर्व कुछ पल के लिए आँखें उनींदी हुई, घडीभर को नींद आई। नींद में उन्हें दूर स्वप्न में धवल साड़ी पहने भागवंती दिखी। उसकी आँखों में झर-झर आँसू बह रहे थे। कह रही थी मेरी सद्गति करो, मरते वक्त शराबी बेटे-बहू के भरोसे छोड़ दूर क्यों गए ? तुम्हारा सारा धन मेरे क्या काम आया? तपस्या एवं पुण्य की आँच में सारे धन को पवित्र करो, यही मेरी अन्तिम कामना है। वे बच्चे की तरह भागवंती को पकड़ने दौड़े लेकिन तब तक उनका स्वप्न टूट चुका था। सामने अब जीवन का यथार्थ था। आगे के जीवन की सारी योजना उन्होंने पल भर में बना ली। वे अत्यन्त भावुक थे पर अब उनके भीतर मोह का पानी सूख चुका था ।

आज भागवंती के अवसान को एक माह हो चुका था। नियत समय पर वकीलों को ऑफिस पहुँचने के निर्देश शर्माजी को उन्होंने गत रात ही दे दिए थे। वे खुद भी ठीक समय पर पहुँच गए थे। वकीलों को उन्होंने अपनी ‘विल’ लिखने के लिए बुलाया था। कृष्णसहायजी की ‘अन्तिम इच्छा’ सुनकर सभी हतप्रभ रह गए। उन्हेांने अपनी सारी सम्पति एक ‘निराश्रित गृह’ बनाने में दान कर दी, एक ऐसा ‘निराश्रित गृह’ जहाँ ऐसे वृद्ध रह सकें, जिन्हें उनकी संतानों ने नकार दिया हो। बहू-बेटे को उन्होंने पूर्णतः संपत्ति से बेदखल कर दिया एवं खुद ने तीर्थ की राह ली। उनके चेहरे पर एक अजीब दर्प था। आज वे ‘मायातीत’ हो चुके थे।

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28 – 06 – 2002

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