माटी के दीये

उस जगह को अस्पताल कहना गलत होगा। जिन कमरों से खिड़की खोलते ही कल-कल बहती गंगा मैया के दर्शन होते हैं, दूर तक फैला मैदान, पहाड़ एवं झूमते हुए पेड़ दिखते हों वह अस्पताल क्योंकर होगा। उसे रिसोर्ट कहना लाजमी होता पर थे तो वे अस्पताल के कमरे ही। आयताकार करीब बारह फीट लंबे एवं आठ फीट चौड़े जिनके दायें ओर एक बाथरूम बना हुआ था। हर कमरे में दो पलंग एवं दो लोहे की टेबल रखी थी। कुल दस कमरे थे। इन कमरों में उन रोगियों को रखा जाता जिनका जीवन मृतप्राय होता अथवा जिनके सुधरने की संभावना नगण्य होती। जो बुझते हुए माटी के दीये होते। संभवतः परमात्मा तक पहुँचने के पूर्व वे प्राकृतिक वैभव का दर्शन कर एक नयी आशा का संचरण कर सकें अथवा उस प्रकृति को जान सके जो परमात्मा का सेतु भी है एवं उसकी मूक आवाज भी।

ऋषिकेश की पहाड़ी पर बने एक भव्य अस्पताल के आगे ये कमरे थे जिन्हें वहाँ पर सभी काॅटेज वार्ड कहते।  इन्हीं में से एक कमरा मेरा था। मैं लिवर कैंसर का रोगी था, कैंसर फैल चुका था एवं रोग असाध्य था। मैं जानता था कि मैं छः सात माह से अधिक जीने वाला नहीं। स्वास्थ्य दिन-ब-दिन गिर रहा था। मौत एक मौन पदचाप से शनैः शनैः मेरी ओर बढ़ रही थी। 

वैसे मैं जिया ही कब था, तब और अब में मात्र यंत्रणा का रूप बदला था। पहले मानसिक यंत्रणाओं को झेल रहा था, अब शारीरिक। हाँ, यह बात अवश्य थी कि जीवन जितना रहस्यमय था, मौत उतनी नहीं थी। मृत्यु के पूर्व मृत्यु को जानना एवं जीना एक कष्टकर किन्तु विरल अनुभव था। वैसे तो सभी जानते हैं कि उन्हें एक दिन मरना है, मृत्यु एक अटल सत्य है पर मृत्यु-दिवस की अनिश्चितता जीवन को गति देती है। मनुष्य पूरी चतुराई से मृत्यु के महासत्य को दरकिनार कर उस झूठ को जी लेता है जिसका नाम जीवन है। 

साथ वाले कमरों से हर पन्द्रह-बीस दिन में एक समाचार आ जाता कि अब यह नहीं रहा, वह नहीं रहा। हर समाचार मन को एक विचित्र विषाद से भर देता। हम सब की स्थिति ऐसे थी जैसे तू चल मैं आया। शाम टहलते हुए यदा-कदा किसी रोगी से मिलना भी होता तो मिलन में वह उन्माद न होता। कौन एक और नया मोह पाले। रोगियों के रिश्तेदार जब-तब आँखों में उदासी एवं बेबसी लिये आते दिखते, कई बार यही लोग फूट-फूटकर रोते हुए दिख जातेे। रिश्ते यूँ ही नहीं बनते हैं। मनुष्य इन्हें जिगर का खून देकर पालता है। अपने जब बिछुड़ते हैं तो लगता है कोई प्राण खींच रहा है लेकिन मेरा अपना यहाँ कौन था ? उन्हें तो मैं वर्षों पूर्व छोड़ आया था। छाती का यह बोझ इन दिनों शिराओं में दर्द बनकर बहने लगा था। 

इन्हीं दिनों मेरे पास वाले कमरे में एक बच्ची आई। वह कितने दिनों पहले आई, यह तो नहीं मालूम पर हाँ, कल शाम मैंने उसे पहली बार देखा था। गोरी-चिट्ठी, उम्र करीब दस वर्ष, तीखे नाक-नक्श, साधारण स्वास्थ्य अर्थात् न मोटी न पतली लेकिन कद उसकी उम्र की लड़कियों से अधिक था। मैंने उसे देखा तब वह गुस्से के मारे दाँत किटकिटा रही थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में बचपना कम एवं क्रोध अधिक झलक रहा था। मुझे जाने क्यों लगा कि उससे बात करूँ, मैं उसकी ओर बढ़ा तो वह ऐसे घूरने लगी जैसे कच्चा खा जायेगी। बच्ची है या बला है। मैं चुपचाप भीतर चला आया। रात कई देर तक वह मेरी आँखों के आगे घूमती रही। भला इसे क्या रोग हो गया? मुझे तो वह शारीरिक कम एवं मानसिक रोगी अधिक प्रतीत हो रही थी। कहते हैं मनुष्य को उसके पापों का फल मिलता है पर यह भी कोई उम्र थी पाप काटने की। काश ! मैं अपनी उम्र उसे दे पाता पर मेरे पास भी जीवन कितना भर शेष बचा था।

मेरा अनुमान सही था। रात वार्ड बाॅय भोजन देने आया तो उसने बताया कि वह गंभीर अवसाद की शिकार है। कोई रिश्तेदार उससे मिलने नहीं आता। पहले किसी अन्य वार्ड में भर्ती थी, वहाँ इतना उधम मचाया कि अन्य रोगियों ने तौबा कर ली। मजबूरन उसे इधर शिफ्ट किया गया। शायद अच्छे प्राकृतिक वातावरण में रहकर कुछ बदलाव आ जाये। मैंने वार्ड ब्वाय से उसके रोग के बारे में पूछा तो मुझे बताया गया कि उसके माता-पिता एक वर्ष पूर्व आतंकवादियों की भेंट चढ़ गए थे। दोनों ने मरने के कुछ वर्ष पूर्व एक आतंकवादी को बाजार में बम रखकर भागते हुए देख लिया था। उन्होंने तुरंत पुलिस को फोन किया। सूचना समय पर मिल जाने से न सिर्फ बम निष्क्रिय कर दिया गया, आतंकवादी भी पकड़ा गया।

उस दिन वे इसी बच्ची के साथ शिनाख्त परेड में जा रहे थे कि बीच बाजार में पकड़े गए आतंककारी के एक साथी ने उन्हें गोलियों से भून दिया। यह बच्ची जाने कैसे बच गई। इस दृश्य को देखकर बच्ची इतनी अवसादग्रस्त हुई कि तमाम इलाज करवाने के बाद भी ठीक नहीं हो पाई।

आज सुबह मैं जल्दी उठ गया था। वैसे भी इन दिनों नींद बराबर नहीं आती थी। नहाकर तैयार होते छः बज चुके थे। नित्य पाठ कर मैं खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। अप्रेल का महीना था। सवेरे की शीतल हवाओं का स्पर्श मन को सहलाने लगा था। दूर पहाड़ अपनी गर्वीली चोटियों से मानो आकाश छूने का प्रयास कर रहे थे। नीचे झूमते हुए पेड़, हवा की ताल पर झूमती शाखाएं, खनकती पत्तियाँ, नाचते गाते परिंदे , मंद गति से बहती  गंगा आत्मविभोर करने लगी थी। ओह, कितना सुंदर नजारा था। सूर्यदेव पहाड़ के उस छोर से ऐसे उठ रहे थे जैसे कोई बच्चा धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ता है। उनके प्रकाश में भी लगभग वही उष्णता थी जो बच्चों के भोले स्नेह में होती है। क्या वे भी बचपन से वृद्धावस्था तक चिरयात्रा की तैयारी कर रहे थे- उगते हुए बालसूर्य सर्वत्र लालिमा, आनंद , ऊर्जा बिखरते हुए, फिर युवक सूर्य रोष , तेज को दर्शाते हुए तथा अंततः अधेड़ , वृद्ध सूर्य इस असार संसार के गूढ़ अनुभवों के साथ अनंत अंधेरे में विलीन होते हुए।

मेरे कमरे में भी अब सूर्य रश्मियाँ बिखरने लगी थी। कल-कल बहती गंगा पर पड़ती सूर्य किरणें ऐसे लग रही थी मानो प्रकृति कुशल जुलाहे की तरह स्वर्ण-सुख एवं रजत-रंज के ताने-बाने से जीवन के वस्त्र बुनने की तैयारी कर रही हो।

खिड़की से आकर मैं पलंग पर लेटा ही था कि यकायक तेज आवाजें सुनकर चौंक गया। एक बारगी तो भयभीत हो उठा। बीमारी में विःशेषतर रोग अगर मरणांतक हो तो कुछ विचित्र भय सर्प की तरह मन की बांबी में बैठ जाते हैं। अवसर पाते ही ये सर्प अपना फन उठाने लगते हैं। मैं सावधान हुआ, शायद पास वाले कमरे से ही यह आवाजें आ रही थीं। बच्ची ने और कोई नया बखेड़ा तो नहीं खड़ा कर दिया?

मैं बाहर आया तो एक द्दश्य देखकर सहम गया। मेरा संदेह सत्य सिद्ध हुआ। उसके रूममेट के सर से खून निकल रहा था एवं वह जोर-जोर से चिल्ला रहा था, ‘‘शैतान की बच्ची ………. कमीनी…………! अरे कोई इसे सम्हालो।’’ बच्ची के हाथ में एक पत्थर का टुकड़ा था, जिस पर खून लगा था। शायद उसने इसी से रूममेट को घायल कर दिया था। बच्ची भी जोर-जोर से चिल्लाये जा रही थी, ‘‘इसने मेरे पापा को गाली क्यों दी, साले का सर न फोड़ दूँ।’’ दोनों में तेज तकरार हो रही थी। बच्ची की आँखों में खून सवार था। शायद सुबह-सुबह दोनों में किसी बात को लेकर तकरार हुई होगी, जिसकी परिणिति इस घटना में तब्दील हुई।

डाक्टर, नर्स दौडे़-दौड़े आये। उसके बाद कुछ लोग पकड़कर उसे पलंग तक ले गये, इंजेक्शन लगाया, तब जाकर वह शांत हुई। उसका रूममेट जो एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था अब भी चिल्लाये जा रहा था, ‘‘मैं इस आफत की पुड़िया के साथ नहीं रह सकता। जाने कब क्या कर बैठे ? ’’

मैंने करीब आकर उसके कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा, ‘‘जरा धैर्य रखिए। बच्ची ही तो है, कुछ रोज में ठीक हो जायेगी।’’

मैं कुछ और कहता उसके पहले वह बोला, ‘‘आपके उपदेश अपने पास रखिए। किसी घटना पर टिप्पणी करना सरल है, भुगतना अलग बात है। जिस दिन से आई है, आसमान सर पर उठा रखा है। आपको इतनी ही सहानुभूति है तो अपने साथ रख लीजिए, आपका दूसरा बेड भी तो खाली है।’’ कहते-कहते उसकी आँखों से चिंगारियाँ बरसने लगी थी।

डाक्टर, नर्स वहीं खड़े थे। मैंने उसे अपने कमरे में शिफ्ट करने की अनुमति दे दी। उसी शाम वह मेरे कमरे में पड़े खाली बेड पर शिफ्ट कर दी गई। सुबह उसको दिए इंजेक्शन का असर अब भी बाकी था। रात वह बड़बड़ करते सो गई।

रात सोते समय मैं बेचैन हो चला था। उस बच्ची की कथा एवं उसकी वर्तमान स्थिति मुझे निरंतर उद्वेलित कर रही थी। इन दिनों मेरा स्वास्थ्य भी तीव्रगति से गिरता जा रहा था। दो रोज पूर्व से सिर्फ ज्यूस एवं तरल खाना दिया जा रहा था। मैं लेटे-लेटे सोच रहा था कि मनुष्य का समय एवं भाग्य कितना महत्त्वपूर्ण है। वह अपने प्रयासों से नहीं समय एवं भाग्य से ही बली है। हाथ की इन लकीरों को कौन बनाता है? आखिर इस बच्ची का दोष क्या है? कल तक हँसती-चहकती इस बच्ची को मात्र एक वारदात ने असामान्य बना दिया। लोग इसे पागल समझते हैं। असामान्यता की पृष्ठभूमि में कौन जाता है? किसे फुरसत है यह सब सोचने की? सभी ऊँची-ऊँची बातें करते हैं। क्या हम हृदय से भी ऊँचे हैं?

सोचते-सोचते मेरा अतीत मन के आकाश पर पक्षी की तरह मंडराने लगा। बारह वर्ष पूर्व मेरा जीवन भी कितना सुंदर, कितनी असीम संभावनाओं से भरा था। कितने उत्साह से मैंने व्यापार प्रारंभ किया लेकिन तात्कालिक मंदी की वजह से सब कुछ खो बैठा। उसके बाद कितने व्यापार बदले, लेकिन हर बार दुर्भाग्य का दानव मेरे सपनों को चूर-चूर करता रहा। मैं यह भी सहन कर लेता लेकिन कलहप्रिय पत्नी के ताने नहीं सहन कर पाया। उस दिन तो उसने हद कर दी। वह लगभग चीख रही थी, ‘‘आपने तो मुझे बर्बाद कर दिया। कोई काम ढंग से नहीं करते। पता नहीं और कितना विनाश करोगे ? तुमसे ब्याह करने की बजाय कुँआरी रहती तो अच्छा होता, आपने तो सारे अरमानों को फाँसी लगा दी।’’

मेरी एक वर्ष की बच्ची तब वहीं खड़ी थी। व्यापार से लगने वाली लगातार हानियों से मैं वैसे ही कुण्ठित था, पत्नी के तानों ने कुसमय की आग में घी का काम किया। भीतर विरक्ति का प्रबल भाव उठा और मैं सबकुछ छोड़कर ऋषिकेश चला आया। चलने के पूर्व किसी को कुछ नहीं बताया। कुछ समय ऋषिकेश रहा फिर यहीं समीप के एक गाँव में बस गया। धन से तो विरक्ति पहले ही हो चुकी थी, जीवनयापन के लिए जो कुछ कमाता, ग्रामीणों की सेवा में खर्च कर देता।

इस घटना को भी दस वर्ष होने को आये। जाने कहाँ होगी अब पत्नी मालती एवं शालू। मेरी बेटी का नाम शालिनी था पर मैं उसे प्यार से शालू कहता था। हो सकता है अब तक मालती ने पुनर्विवाह कर लिया हो। शालू भी अब तक बड़ी हो गई होगी ? इस बच्ची जितनी ही। सोचते-सोचते मैंने उस बच्ची की ओर देखा। वह निशादेवी की गोद में निश्चिंत सो रही थी। कंबल उसके पांव पर पड़ा था, वह गठरी बनी सो रही थी। मैं चुपचाप उठा एवं उसके पलंग तक आया। उसके गले तक कंबल ओढ़ाकर जाने लगा तो एकाएक शिराओं में एक विचित्र प्रवाह हुआ। मुझे शालू की याद हो आई। मेरा मन पिंजरे में बंद पंछी की तरह फड़फड़ाने लगा। मैंने आगे बढ़कर उसका माथा चूमा। जाने कहाँ से दो आँसू मेरे शुष्क हृदय सरोवर से आँखों में उतर आए एवं कपोलों से होते हुए चुपचाप बच्ची पर टपक पडे़। 

हम सभी माटी के दीये ही तो हैं। जितने मजबूत उतने कमजोर, जितने तेज उतने  क्षीण, जितने परमार्थी उतने ही स्वार्थी । अंतर मात्र इस बात का है कि कब कौन-सी वृति हावी होती है। क्षण भर में मेरा वर्षों का दबा पितृत्व सर उठाकर खड़ा हो गया। एक नवप्रकाश ने यकायक मेरी आत्मा के चिर अंधेरे को आलोकित कर दिया। मैं बुझता हुआ दिया हूँ तो क्या किसी अन्य टिमटिमाते हुए दीये में तो अपने स्नेह का तेल भर सकता हूँ, उसकी क्षीण ज्योति को तो प्रज्वलित कर सकता हूँ।

अब एक नया संकल्प मेरी आत्मा के रथ पर आरूढ़ हो चुका था।

अगले दिन चाहकर भी मैंने उसे कुछ नहीं कहा। पता नहीं कैसे रिएक्ट कर जाये। उस दिन वह सारे समय छत को घूरती रही। कभी-कभी जाने क्या याद कर उसकी सिसकियाँ बंध जाती। कभी बिना कारण मुस्कराती तो कभी क्रोध के मारे मुट्ठियाँ भींच लेती। शाम होने तक मैं सोचता रहा उससे कैसे बात प्रारंभ की जाये ? अब मैंने कमर कस ली, उसकी ओर देखकर बोला, ‘‘जरा पानी की ग्लास तो देना।’’ मुझे पानी की दरकार नहीं थी पर परमार्थ का शहद पाने के लिए कई बार छत्ते में हाथ डालना पड़ता है। मैंने सोचा वही हुआ। मैं कुछ और कहता उसके पहले वह तुनककर बोली, ‘‘तुम्हारी नौकर हूँ क्या? परेशान किया तो तुम्हारा सर फोड़ दूंगी।’’

मैंने अब मोर्चा सम्भाल लिया।

‘‘नहीं-नहीं तुम ऐसा नहीं करोगी। तुम बहुत प्यारी बच्ची हो।’’ यह कहकर मैं उठा एवं चुपचाप उसकी टेबल से ग्लास उठा लिया। पानी पीकर मैंने उसे ‘थैंक्स’’ कहा तो वह बिफर पड़ी, ‘‘मेरे ग्लास से पानी क्यों पिया?’’ कुछ क्षण के लिए मैं निरुत्तर हो गया लेकिन तुरन्त सम्भलकर बोला, ‘‘मेरे पास ग्लास नहीं था, मुझे तेज प्यास लगी थी। साॅरी! अच्छा यह बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’ मैंने बात बढ़ाने की मंशा से बेवजह प्रश्न किया।

‘‘शालिनी! पापा मुझे शालू कहते थे। लेकिन तुम्हें क्या मतलब ?’’

‘शालू’ नाम सुनते ही मेरी नसों में बिजली दौड़ गई। वर्षों पहले छोड़ आई बच्ची यकायक मेरे सामने बड़ी होकर उपस्थित हो गई। वह मानो मुझसे प्रश्न करने लगी, ‘‘पापा! आप कैसे हो?’’ मैं भीतर तक भीग गया।

‘‘ओह कितना प्यारा नाम है। क्या तुम स्कूल में पढ़ती हो?’’ मैंने पुनः बात आगे बढ़ाई।

‘‘तुम्हें इससे क्या?’’ कहते-कहते जाने क्या हुआ, उसने टेबल पर रखा कांच का ग्लास उठाया एवं जोर से मेरे सर पर दे मारा।

सर मुण्डाते ही ओले पड़ गये। मेरे माथे से खून बहने लगा। वह चीखकर बोली, ‘‘बुलाओ डाक्टर को! देखती हूँ मेरा क्या बिगाड़ लोगे?’’ वह वहीं खड़ी जोर से काँपने लगी।

मैं अपने पलंग पर चला आया। पास ही रखी रूई में टिंचर लगाकर माथे पर रखा एवं चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद वार्ड ब्वाय को बुलाया। वह कुछ कहता उसके पहले ही मैंने उसकी शंका का समाधान कर दिया, ‘‘दीवार से टकरा गया था, जरा बैंडेज कर दो।’’ वार्ड ब्वाय बैंडेज करके चला गया।

आज इस चोट से मेरे शरीर को तो पीड़ा हो रही थी लेकिन अंतर आनंदित हो रहा था, ठीक उस छोटे बच्चे  की  हल्की  थप्पड़  की  तरह जो कभी-कभी अबोधता में, प्यार में वह बड़ों को मार देता है।

मेरे इस अप्रत्याशित व्यवहार से वह हैरान रह गई। रात सोते वक्त मैं वही लोरी गुनगुनाने लगा था जो कभी शालू को सुनाता था। …… मेरी गुडिया राजदुलारी, सबसे प्यारी सबसे न्यारी ……। गाते-गाते जब-तब मैं उसकी ओर देख लेता। धीरे धीरे मैंने देखा वह सुबक-सुबक कर रोने लगी है।

मैं उठकर उसके पलंग तक आया तो वह मुझसे कसकर लिपट गई। मैं कई देर तक उसके सर पर हाथ फेरता रहा। वह शांत हुई तो मैंने उसे पूरी लोरी सुनाई। सुनते-सुनते वह जाने किस लोक में खो गई। लोरी समाप्त हुई तो वह उठी एवं आकर खिड़की के पास खड़ी हो गई।

चाँद अब आसमान में चढ़ने लगा था। आसमान पर यत्र-तत्र बिखरे तारों के साथ वह ऐसे आगे बढ़ रहा था जैसे घर का मुखिया अपने बिखरे परिवार को साथ लेकर चलने का प्रयास करता है। नदी पर किरणें ऐसे चमक रही थी मानो चन्द्रमा उसे चांदी का दान कर रहा हो।

कई देर तक वह इस दृश्य को देखती रही, फिर सामने उगे दो तारों को देखकर बोली, ‘‘अंकल वे दो तारे क्या हैं?’’ मैंने ऊपर देखा। सामने मिथुन राशि आँखों के ठीक सामने थी।

‘‘वह एक जोड़ा है बेटा! आदमी और औरत का।’’ एकाएक मुझे यही उत्तर सूझा।

‘‘तो क्या वे मेरे मम्मी-पापा है?’’ कहते-कहते उसकी आँखें चमकने लगी थी।

‘‘हाँ, मुझे भी ऐसा ही लगता है।’’ मैंने उसकी बात से सहमति जताई।

‘‘तो वे इतने दूर क्यों चले गये?’’ इस प्रश्न के साथ वह पुनः रोष में भरने लगी थी।

‘‘भगवान अच्छे लोगों को अपने पास बुला लेता है फिर वे आसमान में तारे बनकर चमकते हैं।’’ मैंने उसे समझाने का प्रयास किया।

‘‘वो उन्हें वापस क्यों नहीं भेजता?’’ अब एक गंभीर उदासी उसके चेहरे पर छाने लगी थी।

‘‘परमात्मा उनके बिना नहीं रह पाता। वह उन्हें अपने साथ रखता है।’’

‘‘तो क्या वे अब कभी नहीं आएंगे ? ’’

‘‘वे हमसे दूर कहाँ है, अपनी किरणों द्वारा बातें तो कर रहे हैं।’’

मैंने देखा शालू के भीतर कुछ पिघलने लगा था। वह मेरे समीप आई एवं चुपचाप मेरा हाथ पकड़कर खड़ी हो गईं, कुछ देेर बाद बोली, ‘‘अंकल, आप कितने अच्छे हो!’’

‘‘लेकिन तुम तो सबसे अच्छी हो!’’ कहते-कहते मैंने उसे गले से लगा लिया।

दूसरे दिन से मानो वह मेरी बेटी ही बन गई। हम दोनों खुलकर बतियाते। मैं यदा-कदा वार्ड ब्वाय से चाकलेट, गुब्बारे आदि मंगवाता रहता।

वह दिन पर दिन सुधरती रही। उसको मेरे कमरे में आये तीन माह बीत गए। यकायक मानो उसे समाधान मिल गया। मेरे जीवन से भी मानो एक मकसद निकलने लगा था, लेकिन मेरा स्वास्थ्य अब जबाब देने लगा था।

शालू अब सामान्य हो चुकी थी। उसमें आये अप्रत्याशित परिवर्तन को देख हर कोई हैरान था।

आज सुबह डाक्टर देखने आया तो मुझे तेज श्वास चढ़ी थी। रक्तचाप लेने के पश्चात् वह गंभीर हुआ, कुछ रुककर बोला, ‘‘अब अपने रिश्तेदारों को बुला लो।’’

मैं किसे बुलाता ? अब यह कैसे संभव था ? कितना दूर चला आया था मैं। अतीत की यादें बवण्डर बनकर मेरे विचार-व्योम पर उठने लगी थी। भीतर कोई मुझसे प्रश्न- प्रतिप्रश्न करने लगा था, मालती एवं शालू जाने किस हाल में होंगी? क्या मैं उनसे मिले बिना ही संसार से कूच कर जाऊँगा? काश! मैं कुछ धैर्य रखता, बिना कुछ सोचे समझे उन्हें छोड़ आया। क्या मालती मुझे माफ कर देंगी? क्या शालू बड़ी होकर मुझे नहीं कोसेगी? मुझे उन्हें बुलाना ही होगा। 

भीतर कुछ टूटने लगा था। मेरे बाद इस बच्ची का भी क्या होगा?

वर्षों बाद दूसरे दिन मैंने एक पुराने मित्र रमेश को फोन किया।

हम दोनों मेरे शहर में बचपन से साथ-साथ पले थे। सौभाग्य से उसका नम्बर वही था , फोन पर ही उसने बताया कि मालती मेरे बिना एक वियोगिनी का जीवन जी रही है। मेरे जाने के बाद उसी ने व्यापार सम्भाला एवं अब व्यापार बहुत बढ़ गया है। जो तुम नहीं कर पाये,  मालती ने कर दिखाया। काश! तुम थोड़ा इंतजार करते।

मेरा मन अब शालू के लिये विह्वल हो उठा, मैंने रुंधे गले से पूछा, ‘‘शालू कैसी है?’’

दूसरी ओर से कोई जबाब नहीं आया।

‘‘कहो न क्या हुआ?’’

उधर से फिर कोई उत्तर नहीं आया। वे क्षण कयामत के क्षण बन गये। मैंने लगभग रोते हुए पूछा, ‘‘बताते क्यों नहीं, शालू कैसी है?’’

रमेश के उत्तर के साथ ही मानो मुझ पर वज्रपात हुआ।

‘‘क्षमा करना मित्र,  तुम्हारे  जाने  के एक वर्ष बाद उसका एक दुर्घटना में निधन हो गया। मालती तुम्हारे घर में अकेली रहती है। मैं आज ही उसे सूचित करता हूँ।’’

उस रात मैं करवटें बदलता रहा। मालती की यादें मुझे चहुँओर से बींधने लगी। ओह, मैं कितना कायर था, मैं उसे क्यों छोड़ आया ? मेरी और शालू की विदाई को उसने कैसे सहा होगा ? क्या वह मेरी गलतियों को भुला देगी? कदाचित वह भुला भी दे तो क्या मैं स्वयं को माफ कर सकूँगा?

दूसरे दिन मालती एवं रमेश दोनों मेरे सामने थे।

मालती के आधे से अधिक बाल सफेद हो चुके थे। आँखों के नीचे काले गड्ढे दिखने लगे थे, मानो किसी चिर वियोग की कथा कह रहे हो। मुझे देखते ही बिफर पड़ी, ‘‘ऐसा भी क्या कह दिया था मैंने आपको ? इतनी-सी बात की इतनी कड़ी सज़ा? नाखून चुभ जाए तो क्या उन्हें अंगुलियों से जुदा कर दिया जाता है? तुमने ऐसा क्यों किया? अब मिले भी हो तो फिर बिछुडने के लिए?’’ कहते-कहते उसकी घिग्घी बंध गई।

कमरे में सन्नाटे तैरने लगे थे।  मेरे पास इन प्रश्नों के उत्तर होते तो देता।

मेरी श्वास अब रुकने लगी थी। मालती पास आकर बैठ गई, उसके आँसू थम नहीं रहे थे। मेरा हाथ पकड़कर बोली, ‘‘शालू भी नहीं रही और अब आप भी चले जाओगे तो किसके सहारे रहूँगी?’’

‘‘तुम अकेली नहीं रहोगी। हमारी शालू हमें मिल गई है।’’ कहते-कहते मैंने पास ही खड़ी शालू का हाथ उसके हाथ में दे दिया।

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26.01.2008

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