उसे मैं ‘चिड़ोकला’ कहूँ ‘चिड़कड़ा’ कहूँ ‘चिड़ची’ कहूँ अथवा अन्य कोई संबोधन दूँ, विशेषण कोई हो पर इससे वह नग्न सत्य नहीं बदलने वाला कि वह चिड़चिड़ा था। यह मिलते-झुलते, तरह-तरह के विशेषण तो ऑफिस में इसलिए प्रचलन में थे कि हमारे यहाँ कई प्रदेशो के लोग कार्य करते थे। यह विभिन्न संबोधन उनके अपने प्रदेशों में चिड़चिड़े लोगों के लिए प्रचलन में थे। अकारण मत-मतान्तर न हो जाये अतः हम सभी ने ‘चिड़ोकला’ शब्द पर सहमति बना ली। अन्य विशेषणों की तुलना में इस विशेषण में जान थी, इसे बोलते हुए लगता मानो खड़ूसपन एवं बात-बात पर उखड़ने वाले किसी व्यक्ति का संपूर्ण चरित्र इसमें सिमट आया हो। कालांतर में यह विशेषण इतना लोकप्रिय हुआ कि सबकी जबान पर चढ़ गया।
हम इतने बुरे भी नहीं थे कि उसे अकारण ऐसा कहते। वैसे मैं इस निर्विवाद सत्य पर मोहर लगाता हूँ कि बाबुओं की जुबान में हड्डी नहीं होती एवं वे कुछ भी कह सकते हैं। फजीती करने में उन्हें असीम आनन्द मिलता है पर इस संदर्भ में बात ऐसी भी नहीं थी। उसका चेहरा-मोहरा, हरकतें कुछ ऐसी थी कि हम उसे ऐसा कहने को बाध्य हो गये थे। उसके स्वभाव से ही नहीं, उसके रूप-रंग, हाव-भाव पर भी यह उपमा सटीक बैठती। वह तकरीबन पैंतीस वर्ष का होगा। उसका कद ऊँचा, चेहरा लम्बा एवं शरीर पतला था। धंसी आँखें, सूखे होठ एवं किसी अज्ञात क्रोध में खुले नथुने उसके मन की दास्तां बयां करते। उससे बात करते हुए यह नथुने कभी-कभी इतने गहरा जाते कि लगता कोई अदृश्य लावा बह निकलेगा। वह एक विशिष्ट तरह की चिंता में घुला लगता। उसकी आँखें एक गहरी उदासी में डूबी होती एवं ललाट के मध्य तीन सीधी रेखाएँ जो बहुधा तनावग्रस्त चेहरों पर दृष्टिगत होती हैं, उभरी होती। लगता जैसे कोई घोर दुःख काँटे की तरह उसके कलेजे में अटका है पर कोई न बताये तो पता भी कैसे चले। अनेक बार बात करते-करते वह अकारण बिखर जाता। उसके जबड़े चटकने लगते एवं दोनों कनपटियों पर गड्ढे पड़ जाते। कभी छठे चौमासे वह प्रसन्न भी दिख जाता तो इस बात की पूरी आशंका होती कि वह कब बिगड़ जाये। उसकी स्थिति उस बुझे कोयले की तरह होती जो बाहर शांत लेकिन भीतर आग लिए होता है। इसी व्यवहार के चलते उसे हम चिड़ोकला कहते तो कहाँ गलत थे? भूराराम चौधरी था ही ऐसा कि हम उसे इस संबोधन से पुकारें। वह हमारे यहाँ न होकर अन्य किसी ऑफिस में होता तो भी लोग ऐसा ही कहते। ऐसी उल्टी खोपड़ी को और कहा ही क्या जा सकता है?
हमारे ऑफिस में वह गत सात वर्ष से था। उसके स्वभाव के चलते किसी से उसके निकट संबंध नहीं थे। जहाँ तक बन पड़ती वह अकेला रहना पसंद करता। हम यानि हम सभी बाबू साथ लंच करते पर वह कभी हमें ज्वाइन नहीं करता। एक बार साहस कर भण्डारी ने उससे कहा भी पर उत्तर सुनकर उसकी हिम्मत जाती रही। भण्डारी के कहते ही भूराराम ने पहले तो उसे तीखी आँखों से ऐसे घूरा मानो कच्चा चबा जायेगा फिर तेज आवाज में बोला ‘साथ लंच लेना जरूरी है क्या? अपनी-अपनी इच्छा है कोई कैसे ले ?’ भण्डारी को साँप सूंघ गया। होम करते हाथ जल गए। अपना-सा मुँह लेकर लंच पर आया तो उसकी दशा ऐसी थी मानो किसी फूल पर पाला गिर गया हो। इतना भारी दुःख वह उगले बिना कैसे रहता। मुझसे मुखातिब होकर बोला ‘मुरलीधर! कैसा बकवास बंदा है यह। इसका नाम भूराराम न होकर घूराराम होना चाहिए। जरा-सा लंच साथ लेने का क्या कह दिया, कुत्ते की तरह एडियां पकड़ ली। क्या स्वभाव है? ऐसा रूखा-कठोर आदमी तो कहीं नहीं देखा। निहायत चिड़चिड़ा।’ अपने मन की व्यथा उगलकर उसने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे कोई अकारण पिटा व्यक्ति अपने हितैषी की ओर सहयोग की आकांक्षा से देखता है।
मैं चुप रहा। जब भी कोई दूसरे पर प्रतिकूल कमेंट करता मैं अक्सर शांत रहता हालांकि यह ऐसी परिस्थिति नहीं थी। भण्डारी की प्रतिक्रिया सर्वथा जायज थी। अपने दीर्घ अनुभव से मैंने यह बात गांठ बांध ली थी कि अकारण पचड़े में पड़ना ही नहीं। इसी स्वभाव के चलते मेरा कोई शत्रु नहीं था।
‘मुरली! तुझे तो राजनीति में होना चाहिए। एक-एक शब्द चबाकर बोलता है।’ मेरे तटस्थ भाव को देख भण्डारी बिफर पड़ा।
मैं कुछ कहता उसके पहले मोदी बीच में कूद पड़ा ’तू ठीक कहता है भण्डारी! भूराराम अजीब बंदा है। इससे बात करना साँप की बांबी में हाथ डालने जैसा है। जब देखो काम में घुसा रहता है। अभी दो माह पहले मुझसे भी उलझ पड़ा। मुझे मेरी स्टेपलर नहीं मिली तो मैंने उससे देने को कहा। बस इतनी सी बात पर भूरा उलझ पड़ा, अपनी चीजे संभालकर क्यों नहीं रखते और जाने क्या-क्या। मैंने कहा इतनी-सी बात पर बिगड़ते क्यों हो तो आँखें तरेर कर बोला, ‘माइंड यूवर बिजनिस। डोंट डिस्टर्ब मी।’ मेरी बला से। बुरे स्वभाव की भी सीमा होती है। यह तो सरकारी कार्यालय है एवं वह भी आयकर कार्यालय जहाँ अक्सर ग्राहक फंसा आता है, प्राईवेट नौकरी होती तो पुंगी बज जाती। अपनी व्यथा कहते-कहते मोदी उस दिन हांफने लगा था।
स्टाफ सदस्यों से ही नहीं ग्राहकों से भी भूराराम के झगड़े होते रहते। एक बार तो बेबात एक ग्राहक पर चढ़ गया। बेचारे ने इतना-सा क्या कह दिया कि वह छोटे से कार्य के लिए दो बार आ चुका है भूरा चीख पड़ा, ‘मेरे पास फाईल आयेगी तभी तो सैटल करूंगा। आप कमीश्नर को मेरी शिकायत कर दें।’ ग्राहक का मुँह लटक गया। अपने काम में फंसा करदाता कहे भी तो क्या ? धीरे-धीरे स्टाफ सदस्य, ग्राहक यहाँ तक कि हमारा इंचार्ज भी उसे चिड़ोकला कहने लग गए। सभी उससे एक निश्चित दूरी बनाकर चलते। कीचड़ में पत्थर मारकर कपड़े खराब करना किसे अच्छा लगता है।
अन्यों से तुलना करूँ तो अपेक्षाकृत उसकी मुझसे अधिक बनती थी। मेरा डिफेंसिव एप्रोच यहाँ भी कारगर सिद्ध हुआ। मेरे कम बोलने की आदत एवं तटस्थ स्वभाव के चलते वह कभी-कभी मुझे रिस्पांड तो करता लेकिन मुझे भी आशंका बनी रहती कि ऊँट अन्य करवट न बैठ जाय। हम दोनों के बीच यह इंटरऐक्शन ऑफिस कार्य अथवा जैसे कभी-कभी दो सहकर्मी आपस में चीजें देते-लेते हैं उतना ही था। मैं उससे एक विशिष्ट परिधि में ही बात करता। ‘नथिंग एट द कास्ट ऑफ सेल्फ रेस्पेक्ट’ मेरे स्वभाव का हिस्सा था।
इत्तफाक से इस बार डयूटी लिस्ट बदली तो मेरी सीट उसके ठीक बगल वाली थी। अब हम दोनों की टेबलें सटी होती। स्क्रूटिनि की सभी फाईलें हमारी टेबलों से होकर आगे बढ़ती। इसी सामीप्य के चलते मुझे उसे करीब से समझने का अवसर मिला। मैंने देखा काम करते-करते वह अनेक बार बिगड़ जाता। वही पुराना चिड़-चिड़ स्वभाव। वह मुझे तो कुछ नहीं कहता पर अपनी भड़ास ग्राहकों पर अथवा अधिकारियों पर निकालता। कभी वह काम में ऐसा निमग्न होता कि उसे यह तक ध्यान नहीं रहता कि पास कौन खड़ा है तो कभी अपलक दीवारों को देखता रहता। मैं अवसर नहीं देता अन्यथा इस बात की पूरी संभावना थी कि वह मुझसे भी लड़ पड़े। अनेक बार गुस्से में अकारण उसके जबड़े यूँ भिच जाते मानो कोई चिरसंचित व्यथा उसके भीतर से बहने को बेताब है। कुल मिलाकर यह तय था कि वह किसी ऐसी अरेचित वेदना से दग्ध था जो जब-तब उसे विचलित करती रहती थी। अनियंत्रित वह ऐसा करने को बाध्य था। प्रारंभ में मुझे लगा मैं अपना कार्य बदलवा लूं पर इससे दूसरे सहकर्मी का फंसना तय था। मुझे उस पर गुस्सा भी आता एवं रहम भी। आखिर वह ऐसा क्यों करता है? उसकी वेदना क्या है? वह क्यों अपना मन किसी के साथ नहीं बांटता? यह भी हो सकता है उसका वैयक्तिक दुःख प्रगट होते ही उसका आत्म-सम्मान खतरे में पड़ जाय? तो क्या हम किसी की पीड़ा को गोपनीय रखकर उसकी समस्या का समाधान नहीं कर सकते? भूराराम मेरे लिए पहेली बन गया। मैं इस गांठ को खोलने का जितना प्रयास करता वह और उलझ जाती। मुझे अनेक बार इस बात से भी कोफ्त होती कि हम हमारे विष्वास का स्तर इतना ऊँचा क्यों नहीं उठाते कि कोई हम में विश्वास कर मन की गिरह खाले सके? हम हमारी सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख क्यों हो जाते हैं? भूराराम मेरा सहकर्मी है एवं अगर मैं मेरे पड़ौसी का दुःख दूर नहीं कर सकता तो लानत है मेरे विवेक, बुद्धि एवं सोच पर। हम इतने तटस्थ एवं संवेदनहीन क्यों बन जाते हैं?
मैंने मन ही मन निर्णय लिया कि मैं भूराराम की व्यथा जानकर रहूंगा। इतना ही नहीं जानने के बाद न सिर्फ इसे गोपनीय रखूंगा, उसके समाधान का भी प्रयास करूंगा। अगर उसका आत्म-सम्मान सुरक्षित रहा तो फिर वह क्यों मुझसे दुःख नहीं बांटेगा? आखिर वह भी तो किसी व्यथा से निरंतर जल रहा है। सुख मानवी अभीप्सा है। यहाँ कौन सुखी होना नहीं चाहता?
अब मैंने उसके स्वभाव को चुनौती की तरह लिया। अंधेरा दीया जलाने से दूर होता है।
मैंने कमर कस ली। इन दिनों मैं बढ़-चढ़कर उसके कार्य में मदद करता यहाँ तक कि उसकी अनेक फाईलें मैं ही निपटा देता। ऐसा करने में मुझे एकाध घण्टा अतिरिक्त बैठना पड़ता पर मैं इससे अप्रभावित होता। अब मेरा ध्येय भिन्न था। मैं जब-तब उसे देखता रहता एवं उसकी हर छोटी-छोटी जरूरतें जैसे पेन, पैंसिल, फाईल रिफरेंस बुक्स आदि की जरूरत पड़ती तो पहल कर उसे उपलब्ध करवाता। पहले हम दोनों की चाय अलग-अलग कप में आती, अब मैं डबल चाय मंगवाकर उससे आधी बांटता। इतना ही नहीं मेरे घर कोई स्पेशल डिश बनती अथवा कहीं से मिठाई आती तो मैं चलाकर ऑफिस लाता एवं कोई न कोई बहाना कर इस स्वाद का सुःख उसके साथ बांटता। ऑफिस में लंच तो अन्य स्टाफ सदस्यों के साथ लेता पर इस बात का पूरा ध्यान रखता कि भूल से भी उसकी बुराई न करूँ। अन्य स्टाफ सदस्य प्रतिकूल टिप्पणी करते तो मैं प्रतिकार करता। मेरे बदले हुए व्यवहार से सभी आश्चर्यचकित थे लेकिन इसका अनुकूल परिणाम यह हुआ कि भूराराम का विश्वास मेरे प्रति दृढ़ होने लगा। मेरे लगातार सकारात्मक व्यवहारों से भूराराम टूट गया। एक दिन किसी कार्य को लेकर वह फंस गया तो मैं उसके साथ दो घण्टे अतिरिक्त बैठा रहा। उसकी समस्या के समाधान होने के पश्चात ही मैं अपनी सीट से उठा। उस दिन मैंने भूराराम की आँखों में आंसू तैरते देखे। अब लोहा गरम था। दूसरे दिन इतवार था, मैंने उसे रात्रिभोज हेतु आमंत्रित किया तो वह सहर्ष मान गया। इतना ही नहीं मेरे कंघे पर हाथ रखकर बोला, ‘व्यासजी! आपको कौन मना कर सकता है?’ मैं भीतर तक भीग गया।
अगली शाम वह अपनी पत्नी माया के साथ घर आया तो मैंने एवं सुधा ने खुले दिल से उनका स्वागत किया। सुधा को मैंने कल ही सोने के पूर्व भूराराम के स्वभाव के बारे में बता दिया था। मैं स्वभावतः हर बात पत्नी के साथ बांटता था।
कुछ देर हम सभी ड्राईंगरूम में बेतकल्लुफ बातें करते रहे। मैंने देखा कि माया भी जब-तब बात करते हुए उखड़ जाती। एक विचित्र विषाद उसकी आँखों में उतर आता। बात करते-करते वह ऐसे वाक्यों का प्रयोग करती जो किसी चिरसंचित अवसाद का आभास देते। भाईसाहब सब भाग्य की बातें हैं, जो लिखा है मिटाया नहीं जा सकता, जोडे़ तो ऊपर से आते हैं,हम कर ही क्या सकते हैं आदि वाक्यों का वह निरंतर प्रयोग कर रही थी। माया गोरी-चिट्टी थी, नाक-नक्श भी सुंदर थे पर आँखों के नीचे बने गड्ढे एवं कोशों का कालापन उसकी व्यथा का बयान कर रहे थे। मुझे लगा विवाह के सात वर्ष पश्चात भी वे निःसंतान है शायद इसीलिए माया उदास दिखती है। इन दिनों हमारे दोनों बच्चें भी समर वेकेशन के चलते ननिहाल गए हुए थे अतः आज हम दोनों ही थे।
भोजन पर हम ऑफिस की एवं इधर-उधर की बातें करते रहे। सुधा भी माया से जब-तब बतियाती रही। कुल मिलाकर हमारी आज की मुलाकात अच्छी रही। जाते हुए उसने भी हमें अगले इतवार को आमंत्रित किया एवं धीरे-धीरे यह क्रम हो गया। अंतराल भी सात से तीन दिन के बन गये। अब हम अक्सर मिलने लगे।
एक शाम वह फिर हमारे यहाँ आमंत्रित थे। अब मेरी नजर मेरे ध्येय पर थी। आज भोजन के पश्चात् सुधा माया को लेकर ऊपर कमरे में चली गई। हम दोनों ड्राईंगरूम में बतियाते रहे। दोनों नीचे आये तो माया का चेहरा आंसुओं से तर था। मैं चौंका तो सुधा ने इशारे से चुप रहने को कहा। मौके की नज़ाकत देख मैंने कुरेदना उचित नहीं समझा। आश्चर्य! भूराराम भी इस दरम्यान शांत रहा।
रात सुधा ने मुझे जो कुछ बताया वह सुनकर मैं हैरान रह गया। मुझे कोफ्त भी हुआ एवं गर्व भी। कोफ्त इस बात पर कि लोग पिसते चले जाते हैं लेकिन अपनी व्यथा-व्याधियाँ मित्र-रिश्तेदारों के साथ नहीं बांटते एवं गर्व इसलिए कि सचमुच भारतीय स्त्री कितनी महान है। उसकी महानता, उसके संघर्ष-पथ, उसके धैर्य एवं सहनशीलता को शब्दों में बद्ध नहीं किया जा सकता। उसकी ऊँचाई के आगे पुरुष कितना बौना है? सुधा ने माया से जब कहा कि तुमने यह बात अपने घर वालों को क्यों नहीं कही तो उसका जवाब था कि ऐसा करने से यह अपनी आँखों में गिर जाते। मैं इस स्थिति में हूँ तो यह मेरे पूर्वजन्म का ही दोष होगा।
सुधा के बयान ने मेरी अंतरात्मा को झकझोर दिया। ओह! हम अकारण ही भूराराम को गलत समझते रहे। उसकी व्यथा कितनी भयावह थी।
अकर्मण्य पुरुष को सिद्धि नहीं मिलती। अब मैंने इस समस्या का बीड़ा उठाया। मैंने भूराराम से इस संदर्भ में खुली बात की एवं उसे साईकोथेरिपी यानि मनोचिकित्सा करवाने की सलाह दी। पहले तो वह हिचकिचाया पर मेरे दृढ़-आग्रह के चलते इंकार नहीं कर सका। मैंने जब बताया कि शहर के प्रख्यात मनोचिकित्सक डाॅ. भूषण मेरे निकटस्थ मित्र है तो वह मान गया। उसकी साईकोथेरेपी के दरम्यां एक ऐसा लोमहर्षक हादसा उजागर हुआ जिसे सुनकर किसी की भी रूह कांप जाय। बचपन में भूराराम ने अपनी बहन का बलात्कार होते देखा था एवं यह बलात्कार स्वयं उसके चाचा ने किया था। उस समय वह मात्र सात वर्ष का था। उसकी बहन चिल्लाती रही पर वह कुछ न कर सका। चाचा का घर में दबदबा था एवं उसकी धमकी के चलते यह रहस्य अप्रगट ही रहा। इस घटना से भूराराम के औसान जाते रहे। वह एक ऐसे मानसिक हादसे को शिकार हो गया जिसका जिक्र अत्यंत दुःखदायी है।
साईकोथेरेपी के पश्चात भूराराम के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हुए। अब वह खिला-खिला रहने लगा। एक दिन स्वयं चलकर लंच के समय हमारे बीच आया एवं कहने लगा आज से वह भी सबके साथ लंच लेगा। सभी स्टाफ सदस्य आश्चर्यमुग्ध थे।
इस बात को भी एक वर्ष बीत गया। आज लंच में भूराराम टिफिन के साथ मिठाई का पैकेट लेकर आया तो ऑफिस में प्रसन्नता का सोता बह गया। हालांकि मैं इस भेद को जानता था पर मैं चाहता था कि इस सूचना को देने का प्रथम सुख भूराराम को मिले। मैं स्वयं उसकी प्रतिक्रिया देखकर आनंदमग्न होना चाहता था। उसने जब कहा कि उसके यहाँ सात वर्ष बाद पुत्र जन्म की किलकारी गूंजी है तो सभी के हर्ष का पारावार न रहा। यह सूचना देते हुए भूराराम की आँखों से आंसू बह निकले। उसकी दशा ऐसी थी मानो कोई हिमखण्ड पिघलकर कल-कल बहती सरिता में जा मिला हो। सभी जब उसे बधाई दे रहे थे मैं चुपचाप अपनी सीट पर चला आया।
आज मैं कितना प्रफुल्लित था। मेरे हृदय से असंख्य हाथ निकलकर ईश्वर का आभार प्रगट करने लगे थे। आज मैंने जाना दूसरों की व्यथा दूर कर उन्हें सुख से सराबोर करने में कैसा प्रगल्भ, अनिर्वचनीय सुख मिलता है।
यह तथ्य भी पूरे ऑफिस में मैं ही जानता था कि भूराराम गत वर्ष तक मानसिक नुपंसकता का शिकार था। एक ऐसी नपुंसकता जिसने उसे एवं माया को पूरे सात वर्ष तक वैवाहिक सुख से वंचित रखा। मन ही मन इन महायोगियों को नमन कर मैं अपने कार्य में मशगूल हो गया।
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14-09-2011