अरावली की ऊंची, खूबसूरत पहाड़ियों के नीचे पसरे ख्वाज़ा के शहर अजमेर के बारे में तो कई लोग जानते हैं पर कम लोग इसके नज़दीक बसे ब्यावर कस्बे के बारे में जानते हैं जिसकी प्राकृतिक छटा अजमेर से जरा कम नहीं है। यहां की पहाड़ियां अजमेर जितनी ऊंची तो नहीं हैं पर इतनी सुंदर एवं स्वच्छ हैं मानो पर्वत अभी-अभी प्रलय से प्रगट हुए हों। ब्यावर की एक खास मिठाई है यहां की गोल, पतली एवं अत्यंत कोमल तिलपट्टी जिसे एक बार चख लो तो बार-बार खाने को जी करता है। इसके आयुर्वेदिक फायदे भी असंख्य हैं एवं इसी के चलते इसे बनाने वाले कारीगरों की भट्टियों के आगे बहुधा लम्बी कतारें लगी रहती हैं।
ब्यावर से सटा एक गांव है खरवा जो पहले एक रजवाड़ा था एवं अब आधुनिक सुविधाओं के चलते कुछ-कुछ बदल गया है हालांकि इसके गंवई तेवर एवं संस्कृति आज भी जस की तस हैं। यह गांव ब्यावर से कुछ किमी पर है एवं किंवदंती है यहां के ठाकरों ने विभाजन के समय एवं उससे भी पहले आज़ादी के संघर्ष में अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए थे। उनकी शूरता के किस्से आज भी यहां के आंचलिक जनजीवन में प्रचलित हैं एवं इन किस्सों के चलते तत्कालीन ठाकरों के वंशजों का आज भी अच्छा दबदबा है। उनका गांव की राजनीति में भी पूरा दखल है एवं बहुधा पंचायत चुनाव में सरपंच इन्हीं का मोहरा होता है। अभी यहाँ के ठाकुर वीरभद्र सिंह हैं , गांव वाले आज भी उनके आगे अदब से खड़े होते हैं एवं उनकी हर बात एवं राय को पत्थर की लकीर मानकर स्वीकार करते हैं।
इसी गांव में बाहैसियत बैंक मैनेजर मेरी पोस्टिंग तब हुई जब बहुधा सूखा पड़ने वाले इस क्षेत्र में जमकर बारिश हुई एवं इसी के चलते गांव तथा आसपास खूब हरियाली थी, पहाड़ साफ नहाए हुए थे , पोखर-तालाब भरे थे, कुओं में ऊपर तक पानी था एवं अच्छे जमाने के चलते लोग भी प्रसन्न थे। पहाड़ों के बीच तेज धारा में बहता एक झरना था। सवेरे की धूप जब झरने से आंखमिचौली करती तब पूरा नज़ारा इंद्रधनुषी बन जाता। झरने से निकलकर एक नाला गांव के बीच होकर बहता था एवं इसके किनारे दोनों ओर खड़े ऊंचे, सघन वृक्ष, पीछे पसरे खेत गांव की शोभा में चार चांद लगाते। यहां के लोग भी उतने ही जिंदादिल, प्रेमिल एवं आतिथ्य से परिपूर्ण थे जितना पोस्टिंग पूर्व मैंने उनके बारे में सुना था। शहरी लोग बहुधा ग्रामीण पोस्टिंग से कतराते हैं पर मेरे लिए यह तैनाती बीवी-बच्चों से दूर रहते हुए भी ‘ब्लेसिंग इन डिसगाइज ’ की तरह अनूठे अनुभवों की सौगात लेकर आई।
मैं इस गांव में चार वर्ष रहा एवं अब तो गांव छोड़े भी मुझे दो वर्ष से ऊपर होने को आए। न जाने क्यों यह गांव मेरी स्मृति में आज भी बिजली की तरह कौंधता है, इसलिए नहीं कि मैंने यहां खूब काम किया, अनेक ग्रामीणों की तकदीर बदलने के लिए दिन-रात एक किए, साक्षरता की अलख जगाई, पोलियो उन्मूलन पर जागृति बनाई वरन् यह गांव मुझे उस लाश ढोने, अरथी सजाने वाले टीकाराम की वजह से याद रहता है जो नित्य तड़के गांव के बीच मेरे घर के आगे वाली कच्ची सड़क से तुलसी का भजन ‘मन पछतै है अवसर बीतै’ गाते हुए निकलता था। उसकी आवाज़ तेज लेकिन इतनी कर्णप्रिय थी कि गांव के बड़े-बूढ़े, औरतें इस आवाज़ को सुनकर अपने दिन का आगाज़ करते। गांव के ढोर उसकी आवाज़ सुनकर रम्भाने लगते। रातभर भौंककर थके-उनींदे कुत्ते उसे सुनकर एक बार पुनः भौंकते मानो गांव को बताना चाहते हों कि टुक्कड़ खाते हैं तो चौकीदारी भी करते हैं। मैं जब तक वहां रहा बहुधा उसकी आवाज़ सुनकर उठता एवं अनेक बार तो मुझे लगता मुर्गे तक उसे सुनकर बांग देते हैं। मस्जिद से अज़ान एवं मंदिर से घण्टियों की ध्वनि भी मानो इस आवाज़ का अनुसरण करती। अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर मैं कहूँ रास्ते की दीवारें एवं उसमें जड़े पत्थरों तक में उसकी आवाज़ सुनकर एक ऐसी रंगत आ जाती मानो उन्होंने भी टीका की आवाज़ सुन ली हो। लोग यूँ ही नहीं कहते कि दीवारों के कान होते हैं ।
गांव में एक ही मंदिर था जिसे लोग ‘ घनश्याम धणी ’ का मंदिर कहते थे , टीका नित्य सुबह यहां मंगला आरती करवा कर घर लौटता। उसकी दिनचर्या तय थी। मंदिर से लौटता तब बहुधा दो-तीन लोग कांधे पर गमछा डाले उसके ईंटों से बने घर के बाहर खड़े होते जिसका मतलब था आज टीका को अरथी बनाने चलना है। वह कौन मरा है आदि सूचना लेता, क्षणभर नहीं रुकता एवं सीधे गमी वाले घर पर हाज़िर हो जाता। उसे देखते ही लोगों को राहत मिलती कि अब शव को ठिकाने लगाने का काम विधिवत् हो जाएगा। टीका वहां पहुंचकर सामान की एक पर्ची बनाता, इसे घर धणी को देता एवं सामान आते ही अरथी सजाने में लग जाता। बांस, मूंज की रस्सी, लाल-सफेद कपड़ा, सूखी घास, बीच में लगाई जाने वाली पतली लेकिन मजबूत खपचियां, घी, कितनी लकड़ी लगेगी, कितने उपले, कपूर, माचिस, अगरबत्ती आदि सब चीजें उसे जबानी याद थीं वरन् अब तक तो वह पारंगत हो गया था। सामान आते तक वह वहीं खड़े गीता के कुछ श्लोक जो अब तक उसे कंठस्थ थे, लोग-लुगाइयों के आगे ऐसे सुनाता मानो वह महाजन न होकर गांव का पंडित हो। इन श्लोकों को सुनाते-सुनाते उसके चेहरे पर एक अद्भुत तेज सिमट आता….वासांसि जीर्णानि यथाविहाय….अरे ! तुम किसका शोक करते हो , आत्मा न जन्मती है न मरती है , मात्र चोगा बदलती है। उसे सुनकर रोती हुई औरतें क्षणभर को चुप हो जातीं, मर्द उसकी ओर ऐसे देखते जैसे किसी सभा में श्रोता तेजस्वी संत की ओर देखते हैं। अर्थियां बनाते-बनाते वह भी मानो निर्लिप्त, स्थितप्रज्ञ हो गया था।
सामान आते ही वह अरथी बनाने में लग जाता, बनाता क्या वह अरथी में प्राण फूंक देता। मुर्दे को नहलाकर जाने कौनसे लेप लगाता कि मुर्दा चमक उठता। अगर जीते जी मुर्दा दाढ़ी वाला होता तो वह दाढ़ी रखता, नाई से उसकी तरतीब से कंटाई-छंटाई करवाता एवं दाढ़ी नहीं रखता तो उस्तरे से दाढ़ी उतरवाता, भले दो-तीन दिन की भी क्यों न हो। चश्मा लगाने वाले को वह चश्मा लगाता, टोपी पहनने वाले को टोपी, पगड़ी वाले को हूबहू वही पगड़ी पहनाता। शरीर पर चंदन का लेप करता, तत्पश्चात् कपड़े पहनाता वह भी उसकी सबसे अच्छी ड्रेस मंगवाता । उसे अजीब सी सनक थी। एक बार किसी ने टोका तो टीका बोला, “यह अंतिम यात्रा है, आत्मा के परमात्मा से मिलन का महोत्सव, यह देह आज नहीं सजेगी तो कब सजेगी ?” उत्तर इतना सटीक था कि टोकने वाला अपना-सा मुंह लेकर रह गया। मुर्दा तैयार होते ही लोग शाल ओढ़ाने, परिक्रमा देने में मशगूल हो जाते, अनेक लोग मालाएं पहनाते तो मुर्दा खिल उठता। ओह , यह दुनिया भी विचित्र है , जीवित व्यक्ति को एक माला तक पहनाने से कतराती है लेकिन मुर्दे पर दसों मालाएं डाल देती है। मुर्दा जिंदा होता तो अवश्य सोचता इतनी मालाएं जीते-जी पड़ जातीं तो चंद वर्ष और जी लेता।
गत तीस वर्षों से वह अकेला ही था जो अरथी सजाने एवं दाह-संस्कार की वैदिक परंपरा से खबरदार था। बीच बरसों में दो-तीन और लोगों ने यह कार्य सीखने का प्रयास किया पर नौसिखिए सिद्ध हुए। उनकी असफलता के बाद तो टीका की धाक जम गई। कभी-कभी गांव के लोग इस बात से आशंकित हो उठते कि कदाचित् टीका न रहा तो यह काम कौन करेगा पर परिवार की गमी में यह विचार बुदबुदे की तरह बैठ जाता। मुर्दा तैयार होते ही लोग उसे उठाने की फिराक में होते। यहां से निजात मिले तो काम पर लगें। सबसे पहले शव के मुख की ओर आकर अरथी भी टीका ही उठाता , उसके ‘राम नाम सत्य है’ बोलते ही कंधा देने वालों की कतार लग जाती। उसका उद्घोष इतना दमदार होता मानो ये शब्द उसकी जीभ से न निकल कर अंतस्थल से प्रगट हो रहे हों। उसे सुनकर कुछ लोग सिहर उठते तो कुछ यह भी कहते टीका मुर्दा ढोते-ढोते महाज्ञानी हो गया है।
टीका का कार्य यहीं पूरा नहीं होता। श्मशान में दाह-संस्कार की प्रक्रिया भी वही पूरी करता। अब तक बच्चे, बूढ़े, मर्द-लुगाइयों के कई मुर्दे वह फूंक चुका था। लकड़ियां लगाना, कहां बड़े लट्ठे लगाने हैं कहाँ छोटी लकड़ियां, कहां उपले लगाने हैं कहां घास-पूस, अरथी का मुख किस ओर होगा, मुखाग्नि कौन देगा, कपालक्रिया कब होगी, कब विदा देनी है आदि सभी बातें टीका अच्छी तरह जानता था अतः उसे सबको विदा कर ही श्मशान छोड़ना होता था। अनेक बार कुछ खास कार्यों को लेकर किसी खास व्यक्ति पर भरोसा बन जाता है , यही बात टीका पर सटीक सिद्ध होती।
श्मशान से टीका सीधा घर आता एवं नहा-धोकर अपनी घड़ियों की दुकान पर पहुंच जाता। वह घड़ीसाज था एवं नई-पुरानी घड़ियां भी बेचता। आसपास की सौ छोटी ढाणियां उस गांव में लगतीं अतः इतनी मजदूरी तो बन जाती कि घर-परिवार का पेट पल जाता। बाजार में सस्ती नई घड़ियां आने से इन दिनों घड़ियों की मरम्मत का काम बहुत कम होता , इससे उसकी आमदनी भी प्रभावित हुई पर टीका इन सबसे निष्प्रभावित, यही सोचता समय किसका सगा है जो मेरा होगा। सेठ-बड़े ठाकुर सब खाली हाथ जाते हैं तो मैं कौनसा साथ लेकर मरूंगा। उलटे कम बोझ वाला व्यक्ति सोरा जाता है। जीवन के इस तत्वदर्शन ने उसे परम संतोषी बना दिया था। हमारा दर्शन बहुधा हमारी अभिरुचियों से मेल खाने लगता है।
टीका अब पचास पार लेकिन आज भी चुस्त-दुरुस्त था। उसका शरीर सौष्ठव इस उम्र में भी दर्शनीय था। गठीला बदन , सांवला रंग, चौड़ा माथा, चमकती दार्शनिक आंखें, खिचड़ी दाढ़ी, मध्यम कद, ऊंचा सीना, किंचित् मोटा नाक एवं स्वच्छ बैल जैसे दांत उसे एक अलग पहचान देते। ऊपर के दांत बड़े होने से कुछ भी बोलता तो मुस्कराते हुए लगता। उसके बाजू घुटनों को छूते, माथे के बाल गर्दन तक आते। यही बाल तेज चाल के साथ हवा में उड़ते। तन की फुर्ती देखते बनती। सदैव सफेद चोगा-धोती पहनता , नीचे चमड़े की जूतियां होतीं। अरथी बनाते , दुकान पर अथवा अन्यत्र कार्य करते हुए उसकी ड्रेस बहुधा गन्दी हो जाती, जिसे वह स्वयं धोता एवं इस्त्री भी खुद करता। घरवाली के लाख कहने पर उससे नहीं धुलवाता। अपना काम खुद करना, उसकी आदत में शुमार था। उसकी बीवी रेशमा उससे दो वर्ष छोटी थी पर उसका रंग गोरा , नक्श अच्छे एवं दांत टीका की तरह मोती जैसे थे। बोलती तो मोती झरते, गालों में गड्ढा पड़ता। लोग उन्हें कृष्ण-राधा की जोड़ी कहते। दोनों लेकिन निःसंतान थे एवं यह टीस कभी-कभी उसकी बीवी अपनी सखी-सहेलियों से कहती भी थी। टीका लेकिन इससे निष्प्रभावित यही कहता सातों सुख तो रामजी के पास भी नहीं थे, मुझे कैसे मिलेंगे ? जो मिला वही मुकद्दर है एवं इंसान को उसी में खुश रहना चाहिए।
सप्ताह में एक-दो बार वह बैंक पैसे निकलवाने अथवा जमा कराने भी आता। मेरी उससे खूब पटती, उम्र में भी वह लगभग मेरे बराबर था, अतः मैं उसे जी न लगाकर टीका कहता हालांकि मेरे मना करने पर भी वह मुझे साहब, बाबूजी अथवा जी लगाकर बात करता। छोटे गांवों में बहुधा पद के अनुरूप संबोधन तय हो जाते हैं। वह बहुधा मेरी टेबल के आगे वाली कुर्सी पर बैठता, उसके पास गांव-शहर की ही नहीं शास्त्रों की भी अनेक बातें होतीं पर वह चला कर कभी बात नहीं छेड़ता। एक बार मैंने जब कहा कि टीका मैं नित्य तुम्हारी आवाज़ सुनकर उठता हूँ तो उसने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, “मैनेजर साहेब! आपके यहाँ इतने व्यापारी आते हैं, पर आपने ऐसा धंधा करने वाला नहीं देखा होगा जो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है।” मैंने विस्मय से उसकी ओर देखा तो उसने बात पूरी की , “आप मेरी आवाज से नहीं उठते तो उठने के लिए मेरी दुकान से एक घड़ी अवश्य खरीदते।” इस बार बात पूरी करते हुए वह ठठाकर हंस पड़ा। हंसते हुए उसका चेहरा ऐसा था मानो उसे कोई दुःख ही नहीं हो एवं वह मात्र सुख बांटने अथवा कष्ट दूर करने के लिए ही जन्मा हो।
कुछ दिन बाद वह फिर बैंक आया तो मैं इत्मीनान से बैठा था। आज अमावस होने से अपेक्षाकृत कम काम था क्योंकि गांव के कामगार, खेतीहर बहुधा इस दिन विश्राम करते हैं। उनके लिए यही इतवार है। आज मैंने चपरासी को भेजकर दो चाय मंगवाई एवं उसके साथ बातों में मशगूल हो गया। वैसे तो उससे पहले भी बात हुई थी पर बातों का सिलसिला नहीं बना था। उसने आज गांव में विकास कार्य बढ़ाने, खेतिहरों को फसली ऋण आदि समय पर देने, साक्षरता एवं अन्य अभियानों में हिस्सा लेने के लिए मेरी जी भर कर तारीफ की। उसके एक-एक शब्द नपे-तुले थे,’ मैनेजर साहेब ! अधिकतर यहां आए मैनेजरों के लिए ग्रामीण पोस्टिंग सजा थी, वे फकत समय निकालते, पर आपने तो गांव का कायाकल्प कर दिया है। ये गांव सदैव आपका ऋणी रहेगा ’ उसकी प्रशंसा का लहज़ा ऐसा था कि मैं गद्गद् हो गया पर मनोभाव छिपाते हुए बोला-
“टीका मैं तो वेतन लेकर कार्य करता हूँ पर तुम तो मात्र सेवा के भाव से कार्य करते हो।” मैं अब तक उसके अनेक सेवा कार्यों से खबरदार था।
“धन्यवाद सर ! आपकी प्रशंसा किसी इनाम से कम नहीं है।” इस बार उत्तर देते हुए उसकी आंखें यूँ नीची हो गई मानों उसकी पलकें प्रशंसा का भार नहीं उठा पाई हो। आज मुझे टीका से बहुत-सी बातें करनी थीं अतः मैंने बात आगे बढ़ाई।
“टीका ! बुरा न मानो तो मैं जानना चाहता हूँ यह अरथी सजाने, ढोने आदि के कार्य तुम कब से करते हो ? इस कार्य की प्रेरणा तुम्हें कहां से मिली ?” मन खुलता है तो घोंसले से बाहर आने वाले नन्हें पाखियों की तरह जाने कितने प्रश्न जहन से निकलने लगते हैं।
“मैनेजर साहेब ! आपका प्रश्न वाजिब है। इस कार्य को करते हुए मुझे बरसों हुए। वस्तुतः मैं जहां भी जाता हूँ लोगों के चेहरे पर एक अजीब-सी मुर्दनी देखता हूँ। ईश्वर ने इतना कुछ दिया पर लोग हंसने-मुस्कराने की बजाय सदैव अपने दुःखों का रोना रोते हैं। वे मरने के पहले हजार मौत मरते हैं। अरे भाई, मर कर मर लेना, जीते जी क्यों मरते हो? सच कहूँ असल मुर्दे तो इस जीवित समाज में हैं। मैं इसलिए अरथी सजाता हूँ कि लोगों को सीख मिले कि अगर मुर्दा सजकर निखर सकता है तो वे भी ज़िंदा होकर प्रसन्न रह सकते हैं। लोगों का दिल धड़कना चाहिए। आनंद में रहने एवं इसे बांटने के लिए हमारे पास कितना कम समय है। लोग रोज उठने वाले मुर्दों को देखकर भी अक्ल नहीं लेते।” कहते-कहते उसकी आँखें शून्य में गड़ गई। उसका उत्तर एवं जीवन दर्शन जान मैं अभिभूत हो गया। मुझे लगा मैं भी बैंक की किसी योजना के तहत उसका कुछ भला करूं । इसी मन्तव्य से मैंने बात का रुख मोड़ा।
“टीका ! इन दिनों बैंक में एक ऐसी योजना आई है जिसके तहत तुम अत्यंत कम ब्याज पर ऋण ले सकते हो। यह तुम्हारे व्यापार बढ़ाने का स्वर्णिम अवसर बन सकता है।” मुझे लगा टीका मेरी बात सुनकर तुरंत हामी भर देगा पर उसका उत्तर सुनकर मैं दंग रह गया।
“बाबूजी ! मैं कभी ऋण नहीं लेता वरन् सौ ढाणियों में अकेला साहूकार हूँ जो हर मुसीबतज़दा को बिना ब्याज रकम देता है।” इस बार उत्तर देते हुए उसके चेहरे पर निर्लिप्त योगियों से भाव उभर आए।
“यह तो तुम कमाल करते हो।” मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या उत्तर दूं।
“इसमें कमाल क्या है बाबूजी! इसी गांव में पला-बढ़ा हूँ , इन्हीं लोगों से कमाया है फिर इन्हें वापस लौटाने में हर्ज क्या है ? सभी उभाणा पांव जाते हैं , धन-दौलत यही रह जाती है। पैसा छोड़ कर मरने की बजाय बेहतर है जीते जी इनकी दुआएं लूं।” इस बार उसके उत्तर में अद्भुत सूफियाना दर्शन था। यह मेरी कल्पना से परे था कि गांव में ऐसे रोशनख़्याल आदमी भी होते हैं। भावातिरेक मैं कुर्सी में धंस गया , लगा जब जीवित देवता हमारे आसपास हों तो हम मंदिर क्यों जाते हैं ? अब बात बढ़ाना मेरे बूते में नहीं था। मैंने किसी कार्य का बहाना किया, मोटरसाइकिल उठाई एवं बैंक से दूर निकल पड़ा।
गांव में तैनाती को अब मुझे तीन वर्ष बीत चुके थे। अब कभी भी मेरा स्थानांतरण हो सकता था पर इन्हीं दिनों गांव में कोरोना की दस्तक हुई तो स्थितियां ऐसी उलटी मानो हंसते-खेलते गांव में प्रेत आ बसे हों। सर्वत्र त्राहिमाम हो गया। सभी घरों में सिमट गए , प्रशासन चौकन्ना हो गया। मास्क लगाना, सोशल डिस्टेंसिंग आदि के चलते फिजाओं में अजीब भय एवं उदासी पसर गई। हुक्मरान कठोर दर कठोर होते चले गए। बाज़ार , सड़कें ऐसे वीरान हुए मानो इन्हें भी कोरोना के भय ने जकड़ लिया हो। ऐसा लगता मानो गांव की खुशियों को पाला मार गया हो। कोरोना का प्रारंभिक दौर सर्वाधिक जानलेवा था। गांव में नित्य चार-पांच लोग मरने लगे। अस्पताल स्टाफ एवं हरिजनों तक ने भय के मारे लाशें उठाने से इंकार कर दिया।
यह टीका के इम्तिहान की घड़ी थी। वह अजीब कशमकश में आ गया। क्या टीका के होते गांव के मुर्दों की मिट्टी बिगड़ेगी ? आज तक उसने मुर्दा उठाने में कोताही नहीं की, अब अगर उसने मुंह मोड़ लिया तो क्या उसका भरोसा नहीं टूट जाएगा? क्या यह पलायन नहीं होगा ? वह तो गमी वाले घरों में गीता के श्लोक सुनाता था…कर्मण्येवाधिकारस्ते….तुम्हें सिर्फ कर्म करना है….आगे क्या होगा यह तुम्हारे हाथ में नहीं है। बिना कोरोना भी उसने अनेक जवान अर्थियां उठाई हैं, ज़िंदगी वश में होती तो क्या वे अल्पवय में मरते? टीका ने फिर कौनसी अमरत्व की औषधि ली है। बड़े-बुजर्ग ठीक ही कह गए हैं , सदा न जग में जीवणो सदा न काला केश। ऐसा सोचते ही वह एक अद्भुत कर्तव्य बोध से भर गया, उसकी मुट्ठियां तन गईं। टीका के होते गांव में लावारिस लाशें पड़ी हों तो धिक्कार है टीका को। इससे बुरी गत अब टीका के लिए क्या होगी? ऐसे विकट समय में जब गांव पर बलाएं गिर रही हों, टीका घर में कैसे बैठ सकता है ?
उसकी आँखें एक अभिनव संकल्प से चमक उठीं। मन के तालाब से भय की काई हट गई। टीका मर सकता है पर भरोसा नहीं तोड़ सकता। आज उसे कोई नहीं रोक सकता था।
वह घर के बाहर आया, दरवाजे के बाहर पड़े ट्रैक्टर में ट्राली लगाई, मुंह को कपड़े से बांधा एवं सीधे दवाखाने आ गया। उसे देखते ही सब की आशा बंध गई। उसने एक-एक कर शव कंधे पर उठाए एवं ट्राली में रख दिए। एक भारी शव को उसने स्ट्रेचर से बांधा एवं कड़ी मशक्कत कर ट्राली में चढ़ा दिया। प्रशासन, गांव सभी अचरज में पड़ गए। पूरे एक वर्ष उसने ये कार्य किया एवं आश्चर्य उसे कुछ नहीं हुआ।
एक वर्ष बाद फिज़ा बदली। दवाइयों के सेवन , परहेज एवं वैक्सीनेशन लगने से कोरोना केसेज् दिन पर दिन गिरते गए यहां तक कि एक ऐसा समय भी आया जब शून्य हो गए। कोरोना का आतंक एवं सियासत की सख़्ती लेकिन आज भी बरकरार थी। ठीक इसी समय टीका जाने कैसे कोरोना की चपेट में आ गया। उसे दो रोज खांसी हुई, फिर तेज बुखार के साथ उसकी सांस फूलने लगी एवं अंततः इसी बीमारी से जूझते हुए उसने दम तोड़ दिया। गांव में एक बार फिर कोरोना का आतंक पसर गया।
अब टीका की लाश कौन उठाए ? प्रशासन ने उसकी पत्नी तक को दवाखाने आने से रोक दिया। दो घण्टे बीते, चार बीते, रात बीती लेकिन कोई नहीं आया। दवाखाने का स्टाफ फिर ख़ौफ में आ गया। सब को कंधा देने वाला खुद लावारिस बन गया।
अगले दिन सूरज ज्यों ही ऊपर उठा लोग यह देखकर दंग रह गए कि सत्तर पार ठाकुर वीरभद्र सिंह स्वयं अपना ट्रेक्टर फूलों से सजाए दवाखाने की तरफ आ रहे हैं। उनके आते ही लोग अदब से खड़े हो गए। उनके चेहरे पर आज पीढ़ियों की आन सिमट आई थी। उन्होंने टीका की लाश एक चादर पर रखी एवं अकेले उठाने लगे तो डरते-डरते हरिजन ने सहारा दिया। वहां खड़े डॉक्टर को मानो काठ मार गया , वह लगभग चीख पड़ा, “अन्नदाता ! आप !” तो ठाकुर बोले – हाँ मैं टीका की लाश उठाऊंगा एवं मैं स्वयं इसका दाह-संस्कार भी करूंगा। हर गांव का एक ज़मीर होता है। गांव का पूरा जीवन उस ज़मीर में धड़कता है। आज अगर मैं मौत के डर से गढ़ में बैठ गया तो पीढ़ियों का इतिहास कलंकित हो जाएगा। कल फिर यहां लाश कौन उठाएगा ? कौन हमें ठाकुर कहेगा ? टीका इस भीषण महामारी में भी सबकी लाशें उठाता रहा, आज क्या उसका मुर्दा लावारिस बन जाएगा ? कदापि नहीं।’ ठाकुर का उत्तर सुन वहां उपस्थित सबकी आंखें आश्चर्य से टँग गई।
श्मशान में ठाकुर ने टीका की लाश पर फूल चढ़ाए, अरथी बनाई एवं दाह-संस्कार तक अकेले बैठे रहे। टीका की कपालक्रिया करने के बाद उन्होंने एक बार पुनः चिता की ओर देखा, हाथ ऊपर कर उसे सेल्यूट किया फिर मन ही मन बोले, “टीका ! इस गांव के आसमां के नीचे अब तक कई आए कई गए पर मसीहा बनकर तू ही आया। जीते जी तू तो किसी ऋणी नहीं बना पर गांव को सदैव के लिए अपना कर्ज़दार बना गया।”
मेरा स्थानांतरण हुए अब दो वर्ष होने को आए। सुना है कोरोना समाप्त होने के बाद गांव के बीचों बीच टीका की मूर्ति लगाई गई। आज भी गांव से कोई लाश निकलती है तो उसे श्मशान जाते हुए दो मिनट मूर्ति के नीचे बने प्लेटफॉर्म पर रखा जाता है।
भला टीका की अनुमति बिना कोई लाश श्मशान कैसे पहुंच सकती है ?
पहले वह अवधूत था पर अब तो पंचभौतिक तत्वों से परे महाभूत बन गया होगा।
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25.12.2022