भजनिया बाॅस

कालीगढ़ के ठाकुर बृजेन्द्र सिंह न सिर्फ एक कुशल प्रशासक थे, अपने इलाके में लोकप्रिय भी थे। उनका रुतबा अपने इलाके में ही नहीं, आस-पास के गांवों तक फैला था। चांदी की मूठ लगी लकड़ी हाथ में लिए वे गांव से निकलते तो लोग आंखें नीचे कर अभिवादन की मुद्रा में खड़े हो जाते। उनसे आंख मिलाकर बात करने की हिम्मत तो आज तक किसी में नहीं हुई।

ठाकुर सत्तर के पार थे लेकिन आज भी उनके चेहरे पर सूर्य का तेज बसा था। ऊंचा कद, तीखे नक्श एवं सुर्ख बड़ी-बड़ी आंखें उनके राजपुरूष होने की गवाही देती। तनी हुई ऊपर की ओर जाती घनी सफेद मूछें एवं ठोडी के बीच से दो भाग होकर दोनों गालों पर चढ़ती दाढ़ी उनके रुतबे को और बढ़ाती। पुरुषों की दाढ़ी जाने किस अंग्रेजियत में खो गई लेकिन इस बात से इंकार आज भी नहीं किया जा सकता कि पुरुष वीर तो दाढ़ी में ही लगता है।

आजादी के बाद ठिकाने भले इतिहास में दफ़न हो गए हों लेकिन गांव में उनका भय आज भी जस का तस है।

ठाकुर साहब की लोकप्रियता का एक खास कारण उनकी विनोदप्रियता भी थी। स्वभाव से हंसमुख तो थे ही, रंगीन मिज़ाज़ भी थे। अक्सर उनके यहां नाच-गानों का कार्यक्रम होता रहता। अनेक बार चौपाल के बीच महफ़िल जमाकर वे गांव वालों को अपने पुरखों के शौर्य एवं गौरव की कथाएं सुनाते हुए दिख जाते। कभी-कभी वे लतीफे सुनाते एवं सुनने में भी रस लेते। हां, अंतरंग होने पर भी वे सबको एक दूरी पर रखते, किसी को औकात से बाहर नहीं आने देते। लोग उनकी बातों में जितने चटकारे लेते उतने ही उनसे सहमे रहते। सिर्फ गांव वाले ही नहीं, गांव में रहने वाले नायब, पटवारी, सरकारी अध्यापक एवं अन्य सरकारी कर्मचारी भी उनसे अदब से पेश आते। उन्हें मालूम था गांव में सुख से रहना ठाकुर साहब की कृपा के बिना संभव नहीं है। जल में मगर से बैर मूखर्ता नहीं तो और क्या है। ऐसा दुस्साहस करने वाले अंततः अपनी फजीती ही करवाते हैं।

ठाकुर का स्थानीय राजनीति में भी पूरा दखल था। पास ही शहर से विधायक एवं सांसद तक कई बार उनसे मिलने आते। उन्हें मालूम था ठाकुर की जरा सी नाराजगी उनके वोटों की गणित बिगाड़ सकती थी।

विधाता ने भी उन्हें हर सुख से नवाजा था। रियासतों के दिन भले न रहे हों, गांव की आधी से अधिक जमीन आज भी उनके नाम थी। हवेली में दो-दो जीपें एवं तीन चार मोटर साईकिलें हर समय खड़ी मिलती। गांव के लोग तो यहां तक कहते कि उनके खजाने में सोने की ईंटें एवं बेशकीमती जवाहरात तक रखे हैं। उनकी नजदीकी लोग गांव में गुप-चुप ऐसी बातें करते रहते। ठाकुर साहब भी इन बातों का कभी खण्डन नहीं करते। उन्हें मालूम था उनकी वर्तमान मिलकीयत उनके पुरखों की आधी भी नहीं है पर वे यह भी अच्छी तरह समझते थे कि बंद मुट्ठी लाख की होती है।

अपने एकमात्र पुत्र कुंवर गजेन्द्रसिंह से ठाकुर बेइंतहा प्रेम रखते। उसे देखते ही उनका कलेजा ठंडा हो जाता। हर एक कार्य में उससे राय मिलाते। वही एक था जिसके आगे ठाकुर साहब को कभी-कभी झुकना पड़ता था। उनके परिवार वाले ही नहीं गांव वाले भी ठाकुर साहब से खास काम निकलवाने अथवा उन्हें प्रसन्न रखने में उसी की मदद लेते। उसका रुप-दर्प भी देखने लायक था। जैसे एक दीपक की लौ से प्रज्ज्वलित होकर दूसरा दीपक भी उतना ही प्रकाश देने लगता है, उसका रूआब भी बाप जैसा ही था। अब वह भी चालीस के पार था।

इन सभी सुखों के बीच ठाकुर साहब को एक दुःख अक्सर सालता। कुंवर के अब तक कोई औलाद नहीं थी। कुंवरानी एवं ठकुराइन सभी कुछ कर निरुपाय हो चुके थे। इसी चिंता को मन में बसाये रात कई बार ठाकुर हवेली की छत पर गंभीर मुद्रा में इधर-उधर घूमते नजर आते। उनकी चिंता स्वाभाविक थी, बिना वंशधर के इस अथाह संपति का क्या होगा? इसी इच्छा को दिल में लिए वे द्वारकाधीश दर्शन की योजना बनाने लगे थे। अपने आराध्य के दर्शन कर वे दिन रात सालती इस गांठ को उसके आगे खोलना चाहते थे।

वाकई कमाल हो गया। सच्चे हृदय से की हुई प्रार्थनाओं को प्रभु ने कब अस्वीकारा है ? ठाकुर जब द्वारिका से लौटे तो उन्हें शुभ संदेश मिला कि कुंवरानी गर्भ से है। ठाकुर इस खबर को सुनकर निहाल हो गये। नौ माह बाद जब गजेन्द्र के पुत्र हुआ तो उन्होंने गांव भर में वर्क लगे मलाई वाले लड्डू बंटवाएं। मन का आखिरी कांटा भी द्वारकाधीश की कृपा से निकल गया। उनका मन-मयूर आज हर्ष के सारे पंख फैलाकर नाचने लगा था।

इस बात को भी तीन माह होने को आये। आज बहू की कुंआपूजा का दिन था। ठाकुर सुबह से ही उत्साहित थे। सुबह से कारिंदों को यह-वह काम करने का निर्देश दे रहे थे। रात भजन संध्या का प्रोग्राम था पर अब तक भजनियों को संदेश ही नहीं गया था। ठाकुर को इसकी किंचित चिंता नहीं थी, वे आश्वस्त थे। उन्हें मालूम था उनके बुलावे भर से भजनिये दौड़े आयेंगे।

गांव में इन भजनियों को लोग ‘भजनिया बाॅस’ कहकर बुलाते। वर्षों पूर्व एक अंग्रेज ने जो शायद ग्राम्य जीवन पर रिसर्च करने आया था, उनके संगीत से मुग्ध होकर ‘ग्रेट बाॅस’ क्या कहा, गांव वाले भी उन्हें ‘भजनिया बाॅस’ कहने लग गए। अन्य भजनिये भी इस अंग्रेजी अलंकरण को लगाकर निहाल हो गए।

हर अच्छे उत्सव पर भजनिया बाॅस को बुलाना मानो एक प्रथा बन गयी थी। अनेक बड़े-बूढ़े उन्हें नारद का वंशधर बताते। जाने क्या-क्या किम्वदंतियां इनके नाम के साथ जुड़ी थी। कुछ इन्हें अर्धनारीश्वर का अवतार मानते, ऐसा इसलिए कि यह होते तो पुरुष हैं पर चलते समय इनकी चाल में एक विशिष्ट स्त्रैण लोच एवं नज़ाकत परिलक्षित होती है। ये बाल भी स्त्रियों की तरह लंबे रखते हैं, आंखों में काजल एवं स्त्रियों ही की तरह माथे पर सिंदूर की मोटी बिंदी भी लगाते हैं। लाल किनारी की सफेद धोती एवं कुर्ता इनकी खास पोशाक है जो वे अक्सर पहनते हैं। पान खाने के इतने शौकीन होते हैं कि पान भरी चांदी की डिब्बी सदैव इनके साथ रहती है। इनके पट्ठों में एक पीकदान भी पकड़े रहता है। उनकी इन्हीं अदा के कारण गांव के मनचले एवं विनोदप्रिय रसिक कभी-कभी इनका मजाक भी बनाते हैं। अभी परसों ही गांव का किशनाराम सुथार चौपाल पर उदास बैठा था तो किसी ने ताना दिया, ‘बेचारे की बीबी एक माह से पीहर है, दुःखी तो होगा ही।’ तभी एक मनचले ने फिकरा कसा, ‘थोड़े दिन किसी भजनिये को घर क्यों नहीं रख लेते।’ किशना तब उसके पीछे जूते लेकर भागा था।

गांव में मात्र दो संप्रदाय के भजनिये हैं एक राम मतावलंबी एवं एक कृष्ण मतावलंबी। राम मतावलंबी राम के भजन गाते हैं एवं मात्र राम का गुणगान करते हैं। इसके ठीक उलट कृष्ण भजनिये मात्र कृष्ण का गुणगान एवं कीर्तन करते हैं। इन दोनों के सरदार भी अलग-अलग हैं। दोनों अपने-अपने पथ पर कट्टर हैं इसलिए गांव में जहां कहीं भी भजनों का प्रोग्राम होता है तो एक ही पथ का भजनिया जाता है। साथ ही उसकी टीम भी जाती है जिसमें मंजीरे, चिमटा, ढोलक एवं तबला बजाने वाले होते हैं। हारमोनियम मुख्य भजनिये के पास ही होता है जिस पर उसकी अंगुलिया गीत के सुरताल के साथ नाचती रहती है। मजेदार बात यह है कि राम भजनियों एवं कृष्ण भजनियों की आपस में इतनी प्रतिद्वंद्विता है कि दोनों कभी एक प्रोग्राम में साथ नहीं होते। राम भजनिये के साथ बैठना कृष्ण भजनिया अपमान मानता है एवं ठीक ऐसा ही राम भजनियों के साथ है। दोनों में सांप-नेवले का संबंध है इसलिए गांव में दोनों को एक साथ न्यौता कभी नहीं जाता। कोई सौ वर्ष पूर्व दो भजनिये भाइयों में जाने क्या झगड़ा हुआ, दोनों ने दो अलग संप्रदाय बना लिये। झगड़ा आगे इतना बढ़ा कि दोनों के वंशधर तक एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते।

लेकिन ठाकुर साहब से इस बार निमंत्रण देने में जाने कैसे गलती हो गई। सुबह ग्यारह बजे उन्होंने किसी को कृष्ण भजनियों के सरदार को निमंत्रण देने भेजा तो सरदार घर पर नहीं था। बाद में ठाकुर साहब ने किसी अन्य को भेजकर राम भजनिये के सरदार से अनुबंध कर लिया। इसी बीच पहले निमंत्रण देने गये कारिंदे को राह में कृष्ण भजनियों का सरदार दिख गया, उसने उसे भी निमंत्रण दे दिया। राम भजनियों के सरदार को भेजे निमंत्रण की उसे खबर ही नहीं पड़ी। अपने जिम्मे दिये काम को उसने मौका मिलते ही पूरा किया। दिन भर की आपा-धापी में ठाकुर साहब भी उससे पुनः बात नहीं कर सके।

होनी होकर रहती है। शाम ठाकुर साहब पाट पर अपने मित्रों के साथ बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। पास ही मोढों पर गजेन्द्र, ठकुराइन एवं सामने गांव के सैकड़ों लोग बैठे थे। ठण्डी पुरवाई चल रही थी। तभी कुंवरानी बच्चे को लेकर आई एवं उसे ठाकुर साहब के हाथों में दे दिया। पोते को देखकर उनकी आंखें ही नहीं मूंछे तक मुस्कुरा उठी। ठाकुर साहब के बगल में बैठे मित्रों में से एक बोल पड़ा, ‘आपका पोता तो पूरा कान्हा लगता है बस मोरपंखी की कसर है।’ अपने मित्र की बात सुनकर ठाकुर साहब की छाती फूल गई, उनकी आंखों का दर्प दो गुना हो गया। प्रसन्न होकर बोले, ‘तभी तो इसका नाम मदनगोपाल रखा है।’

अब सबको भजनियों का इंतजार था। गांव वालों में घुसर-फुसर होने लगी थी, ‘आज भजनिये कमाल के भजन गायेंगे। ठाकुर साहब के प्रोग्राम में उनका गला नहीं खुला तो कब खुलेगा।’ इसी बीच भीड़ में सेे एक व्यक्ति बोला, ‘गला क्यों नहीं फाड़ेंगे, बख्शीश अच्छे-अच्छों के सुर बदल देती है।’ इस बात को सुनकर भीड़ में बैठे सभी जोर से हंसने लगे तभी कोई दांयी ओर देखकर बोला, ‘लो! राम भजनियों का सरदार तो आ गया।’ तभी एक और व्यक्ति बांयी ओर देखकर बोला, ‘अरे! आज तो कृष्ण भजनियों का सरदार भी चला आ रहा है।’

कमाल हो गया।

वहाँ इकट्ठी भीड़ को ही नहीं, ठाकुर साहब की आंखें भी यह देखकर विस्मय से फैल गई कि दोनों दिशाओं से दोनों भजनिये अर्थात् एक तरफ से राम भजनिया एवं दूसरी ओर से कृष्ण भजनिया अपने-अपने पट्ठों के साथ चला आ रहा है। दोनों को एक साथ निमंत्रण देने की त्रुटि कैसे हुई ? आज बवाल मचना तय था। चतुर ठाकुर ने क्षण भर में स्थिति का जायजा ले लिया। आज उनके प्रशासकीय कौशल की परीक्षा थी।

दोनों भजनियें ठाकुर साहब के सामने आकर खडे़ हो गये। दोनों ने ठाकुर के चरण स्पर्श किये एवं फिर अपने प्रतिद्वंद्वी भजनिये को वहां देखकर एक-दूसरे पर आँखें तरेरने लगे। दोनों एक-दूसरे को ऐसे घूर रहे थे मानो आज उनका ही नहीं उनकी पीढ़ियों का अपमान हो रहा था। दोनो मन ही मन सोच रहे थे ठाकुर ने ऐसा उपहास क्यों किया? बिरादरी में अब क्या जवाब देंगे? दोनो में ठाकुर के यहां से उल्टे पांव लौटने का साहस भी नहीं था, इससे ठाकुर साहब नाराज तो होते ही, बख्शीश भी दांव पर लग जाती।

इसी असमंजस में राम भजनिये का तनाव सर चढ़ बैठा। उससे न रहा गया। आँखें तरेर कर कृष्ण भजनिये से पूछा, ‘जब निमंत्रण हमारे नाम था तो तुम क्यों कर चले आये ? क्या आजकल धंधा-पानी नहीं मिलता या इन दिनों बिना निमंत्रण भी जाने लगे हो’ ? कहते-कहते उसने स्त्रैण मुद्रा में लचकते हुए अपने पट्ठों की ओर देखा। सभी ने उस्ताद से सहमति जताते हुए गर्दन आगे कर अपने होठों पर अंगुलियां इस तरह रखी मानो वे आश्चर्य के अथाह समुद्र में डूब गये हों।

‘मर्यादा में बात कर! हम तो नौरे खाने पर भी नहीं जाते। लोग चार बार बुलाने आते हैं तो हां करते हैं। खुद ठाकुर साहब के नौकर ने गांव के मुख्य रास्ते पर हमें दावत दी तब आये हैं ? तुम्हारी तरह भुक्कड़ हैं क्या ?’ कृष्ण भजनिये का करारा जवाब सुनकर उसके पट्ठों ने भी अंगुलियां होठों पर रख कर सहमति में गर्दनें हिलाई।

‘निमंत्रण तो हमें मिला है! हम तुम्हारी तरह राह चलते निमंत्रण नहीं लेते, ठाकुर साहब का कारिन्दा गिरधारी खुद हमारे घर कहने आया था, तब आये हैं। पूछ क्यों नहीं लेते गिरधारी से ? हम तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सेवक हैं, जहां जाते हैं मर्यादा, सम्मान एवं स्वाभिमान से जाते हैं। तुम्हारे कान्हा की तरह बिन बुलाये गोपियों के घर जाकर मटकियां नहीं फोड़ते।’

अपने आराध्य कृष्ण की बुराई सुनते ही कृष्ण भजनिया तमतमा गया। आंखों से अंगारे बरसाते हुए बोला, ‘तमीज़ से बात कर मूढ़!’ कहते-कहते कृष्ण भजनिया लगभग चीख पड़ा।

‘यह आंखें किसी ओर को दिखाना। मैंने कुछ गलत कहा है क्या ? कृष्ण माखन नहीं चुराते थे क्या ? क्या ब्याहता राधा को उन्होंने अपने प्रेम में नहीं फंसाया? कुरुक्षेत्र के समरांगण में भी छल के अतिरिक्त किया क्या था उन्होंने ?’

‘तुम्हारे रामजी कम थे क्या ? क्या उन्होंने बाली का छल से वध नहीं किया ? सती सीता की अग्नि परीक्षा नहीं ली ? काने धोबी के लांछन लगाने पर सीता को वनवास नहीं दिया ? कहां चली गई थी मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा उस समय ? अपनी फूटी तो दिखती नहीं दूसरे की फूली निहारते हो ?’ कहते-कहते कृष्ण भजनिया हांफने लगा।

‘अरे रामजी की महिमा तुम क्या जानो। जीते जी भले तुम कृष्ण को जपो मरते समय तो राम नाम सत्य ही कहते हो। रामजी के नाम बिना मोक्ष मिलता है क्या ?’ राम भजनिये ने नेहले पर दहला मारा।

माहौल गरमाने लगा था। दोनों एक दूसरे पर फिकरे कसते चले जा रहे थे। ठाकुर साहब, उनका परिवार, उनके मित्र एवं वहां बैठी जनता भी इन रसिक संवादो का आनंद ले रही थी। यकायक कृष्ण भजनिये के हाथ तुरूप लगी। अंतिम पत्ता फेंकते हुए बोला, ‘अरे कृष्ण की महिमा नहीं होती तो ठाकुर साहब अपने पोते का नाम ‘मदनगोपाल’ रखते क्या ? तुम्हारे तर्क से तो ठाकुर साहब भी गलत हुए।’

इस तर्क का राम भजनिये के पास तोड़ नहीं था। उसने गले से विष घूंट उतार लिए। उसका बस चलता तो वह कृष्ण का गला दबा देता लेकिन आज ठाकुर साहब का प्रोग्राम था इसलिए चुप रहना ही लाजमी था। उससे न उगलते बन रहा था न निगलते। क्षण भर के लिए वह मानो गज भर जमीन में धंस गया।

स्थिति देखकर ठाकुर ने मोर्चा संभाला, ‘अरे भजनियों! झगड़ते क्यों हो ? राम एवं कृष्ण दोनो थे तो विष्णु के ही रूप। अवतार तो दोनों ने धर्म की रक्षा के लिए ही लिया था।’ वे कुछ ओर कहते उसके पहले ही राम भजनिया बोला, ‘लेकिन पहले तो हमारे प्रभु आये थे। रघुनाथ तो त्रेता में ही आ गये थे, यह तो द्वापर में आये हैं। हमसे तो जूनियर हैं।’

कृष्ण भजनिया कौन-सा कम था। तुनक कर बोला, ‘देर से पैदा होना गुनाह है क्या ? अब मदनगोपाल कुंवर के बाद आये है तो कोई कसूर कर दिया है ?’

राम भजनिये की गोटियाँ फिर पिट गई। चतुर ठाकुर दोनो को हिलते-ललकारते देख असमंजस में थे, आंख के इशारे से उन्होंने दोनो को बैठने का कहा।

दोनों जाजम पर बैठ गये। ठाकुर साहब ने कुछ देर चुप रहकर हुक्का गुड़गुड़ाया फिर जाने क्या सोचकर मुस्कुरा उठे। सोचते-सोचते उनकी रंगीनियत एवं विनोदप्रियता चांद पर चढ़ बैठी। कृष्ण भजनिये की ओर देखकर बोले, ‘आज तुम दोनों की परीक्षा है। ऐसा करो तुम कृष्ण का भजन सुनाओ’, इतना कहकर वे राम भजनिये की ओर मुड़े, उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘यह जो भी गाता है तुम उसकी काट करो। आज हम भी देखते हैं कौन अधिक काव्यमर्मज्ञ है।’

चौपाल पर आती ठण्डी हवाएं सबके मन को आनन्द एवं उन्माद से भर रही थी। आसमान का मुस्कुराता पूर्ण चन्द्र भी आज कुछ ठहर कर इन क्षणों का आनन्द लेना चाहता था। भीड़ कौतुक से दोनों भजनियों को देख रही थी तभी कृष्ण भजनिये ने हारमोनियम लिया, सुर छोड़े एवं मधुर सुरों में भजन का मुखड़ा सुनाना प्रारंभ किया…………

छोटी-छोटी गैया छोटे-छोटे ग्वाल
छोटो सो मेरो मदन गोपाल…………..

इन्हीं पंक्तियों को एक बार उसने पुनः ऊंचे स्वर में दोहराया तो उसके पट्ठे जोर-जोर से मंजीरे, चिमटे एवं ढोलक बजाने लगे। सम पर जब वह थमा तो कृष्ण भजनिये की आंखें शरारत से सराबोर थी मानो रामभजनिये को कह रहा हो, कर बुराई मदनगोपाल की! ठाकुर के लट्ठ पड़ेंगे तब समझ में आयेगी।

अब राम भजनिया गंभीर हो गया। आज रघुनाथ की इज्जत दांव पर थी। सम से पकड़कर उसने भी गाना प्रारंभ किया। उसे मालूम था मदनगोपाल की बुराई भारी पड़ सकती है। ठाकुर पोते के नाम की बुराई कभी बरदाश्त नहीं करेगा। इतनी जोखिम लेना ठीक नहीं है, फिर जाने क्या युक्ति उसके दिमाग में कौंधी, मदनगोपाल की ना सही उसके ग्वाल-बाल और गायों की तो दुर्गत कर सकता हूँ। बाकी को तो ठिकाने लगा ही सकता हूँ। उसने भी हारमोनियम पर सुर साधकर गाना प्रारंभ किया………

‘खोटी तेरी गैया खोटे तेरे ग्वाल………. फिर इसी पंक्ति को दोहराते हुए ठाकुर के पोते की ओर इशारा करते हुए आगे बढ़ा, ‘बीच में सोहे मेरो मदनगोपाल’ कहकर मुखड़ा समाप्त किया।

उसके पट्ठों ने भी मंजीरे एवं ढोलकी की थापों से अपने बाॅस का हौसला बुलंद किया।
कृष्ण भजनिये के अंतस में राम भजनिये की चतुराई विष-तीर सी लगी। सम पर जब पुनः अंतरा उसके हाथ में आया तो उसने अपनी सारी शक्ति लगाकर पंचम स्वर में गाना प्रारंभ किया ………….

घास खाये गैया
दूध पीये ग्वाल……….. फिर इसी को आरोह देते हुए बोला…..
बंशी बजाए मेरो मदन गोपाल।
गाते-गाते उसने राम भजनिये की ओर ऐसे देखा मानो कह रहा हो इसका तोड़ तो तेरी सात पुश्तें भी नहीं ला सकती।

सम पर जब पुनः राम भजनिये ने सुर संभाले तो उसने ऊपर देखकर रघुनाथ का स्मरण किया फिर उन्हीं की दुहाई लेकर स्वरों को शिखर पर चढ़ा दिया। कुछ क्षण पश्चात् वह एकाएक थमा एवं हारमोनियम अपने पास ही बैठे पट्ठे को संभलाकर खड़ा हो गया। दांये कान पर हाथ रखकर उसने जब स्वर तीखे किए तो भीड़ अचंभित रह गई…..

लात खाये गैया
जूत खाये ग्वाल
इन्हीं पंक्तियों को उसने एक बार पुनः दोहराया फिर ठाकुर साहब के पौत्र को हाथ में लेते हुए बोला……लट्ठ मचकावे मेरो मदनगोपाल।

उसके इतना बोलते ही ढोलकी एवं मंजीरे इतनी तेजी से बजे की कृष्ण भजनिया देखता रह गया। गांव वालों एवं ठाकुर दोनो को अंतिम पंक्ति इतनी भाई कि सभी एक स्वर में बोल उठे……लट्ठ मचकावे मेरो मदनगोपाल।

परवान चढ़े युद्ध में अंतिम अंतरा धरा रह गया।
भीड़ का उत्साह देखते बनता था। बिना मदनगोपाल की प्रतिष्ठा आहत किये आज राम भजनिये ने जंग जीत ली । कृष्ण भजनिया मन मसोस कर रह गया।

बख्शीश देने का समय आया तो ठाकुर ने दोनों को एक हजार रुपये दिए। अपने अपमान से आहत कृष्ण भजनिया किसी शहतीर को खोज रहा था। यकायक उसके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा। एक हजार रुपये ठाकुर के चरणों में रखते हुए बोला, ‘हम कृष्ण भजनिये हैं, भिखारी नहीं। मदनगोपाल के जन्मोत्सव में हम बख्शीश नहीं लेंगे। हमारे लिए तो इनके दर्शन ही काफी है।’

अपने वाक्चातुर्य से कृष्ण भजनिये ने ठाकुर का दिल जीत लिया। अब राम भजनिये की बारी थी। वह कौनसा कम था, उसने वे हजार रुपये भी उठा लिए, ठाकुर के चरण स्पर्श करते हुए बोला, ‘हम राम भजनिये हैं, यह बख्शीश भी हम रख लेते हैं। आगे जब ठाकुरजी की कृपा से आपके एक और पौत्र होगा तो उसका नाम रघुनाथ रखेंगे। तब हम बख्शीश नहीं लेंगे।’

कृष्ण भजनिया जलकर राख हो गया। उखड़ कर बोला, ‘राम कृष्ण के बाद कैसे पैदा होंगे ?’
‘त्रेता की गलती अब नहीं दोहरायेंगे। ठाकुर साहब के एक और पोता हो तो हम जूनियर ही भले।’ कहते-कहते उसने कृष्ण भजनिये की ओर ऐसे देखा मानो उसे कच्चा खा जायेगा।

सामने खड़े ठाकुर जाने क्या सोच कर खिलखिलाकर हंस पड़े। उन्हें हंसते देख कृष्ण भजनिया चुपके से पट्ठों के साथ सरक लिया। हंसी थमी तो राम भजनिये के कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘भई आज तो आनन्द आ गया। तुमने भी मदनगोपाल से क्या खूब लट्ठ मचकवाये।’

अब सारी भीड़ में हंसी के ठहाके गूंज रहे थे। अपनी विजय से उन्मत राम भजनिये के भीतर फुलझ़ड़िया फूट रही थी। भागते हुए कृष्ण भजनिये को देख उसके जुबान की खुजली और बढ़ गई। तेज गति से चलकर वह कृष्ण भजनिये के समीप आया। पिटे हुए शत्रु को देखने भर से कलेजा ठण्डा हो जाता है। उसके निकट आकर पहले उसने कजरारी आंखे घुमाई फिर उसकी ओर देखकर बोला, ‘कहो कैसी रही ?’

कृष्ण भजनिये ने ज़ख्मी आंखों से राम भजनिये की ओर देखा। वह पहले से ही भरा था, राम भजनिये की शरारतों ने उसे भीतर तक जला दिया। आंखों से अंगारे बरसाते हुए बोला, ‘धर्म बेचकर जीतना भी कोई जीतना है। दुहाई तो रामजी की देते हो एवं प्रशंसा मदनगोपाल की करके खाते हो।’
‘अरे! भाड़ में जाये तेरो मदनगोपाल ? वहां तो ठाकुर साहब के पोते के सम्मान के कारण हम चुप रह गये थे।’

‘पूरे गिरगिट हो। मतलब के लिए हजार रंग बदल लेते हो। एक हमें देखो हमारा लड़का आज एक सौ तीन डिग्री बुखार में पड़ा मर रहा है लेकिन प्रभु के नाम पर बख्शीश तक नहीं ली।’ कहते-कहते आज की हार एवं पुत्र व्यथा से विकल कृष्ण भजनिये की आंखों में आंसू तैरने लगे।

उसकी आर्द्र आंखे देख रामभजनिया भी कुछ क्षण के लिए मौन हो गया। मन ही मन सोचने लगा, इसे नीचा दिखाकर आज मुझे क्या मिला ? ठाकुर साहब ने शायद ठीक ही कहा था-राम हो अथवा कृष्ण दोनों थे तो विष्णु के अवतार ही। आये तो दोनों तारणहार बनकर ही। जाने किस बात पर पुरखे सौ वर्ष पहले लड़े, पीढ़ियों तक में बैर हो गया। फिर आज मैंने इसका हिस्सा क्यों खाया?

इसका बच्चा भी तो कहीं हमारा ही वंशधर है।

करुणा विद्युत से भी अधिक तीव्रगामी होती है।

सोचते-सोचते क्षणभर में रामभजनिये का हृदय करूणा की आंच में पिघल गया। कृष्ण भजनिये के कांधे पर हाथ रखते हुए बोला, ‘मुन्ना बीमार है क्या! पहले क्यों नहीं बताया ? क्या हम इतने गिर गये हैं कि अपने बच्चों की पीड़ा भी नहीं समझ सके?’ कहते-कहते राम भजनिये ने दो हजार रुपये कृष्ण भजनिये के हाथों में रख दिये। कृष्ण भजनिया उसे लौटाता उसके पहले ही उसके हाथों की मुट्ठी कसते हुए बोला, ‘अब पीढ़ियों का बैर यहीं समाप्त करो कृष्णे! आगे से हम सदैव साथ-साथ गायेंगे।’ कहते-कहते उसने आगे बढ़कर कृष्ण भजनिये को गले से लगा लिया। दोनों की आंखों से गंगा-जमुना बह निकली।

दोनो संयत हुए तो रामभजनिये ने पास खड़े शिष्य के गले से पट्टा लगा हारमोनियम लिया, उसे गले में लटकाते हुए सुर साधे फिर आह्लादित आवाज को गूंजायमान करते हुए गाना प्रारंभ किया ………….
जग में सुंदर हैं दो नाम
चाहे राम कहो या श्याम।
विव्हल कृष्ण भजनिये ने मुखड़ा आगे बढ़ाया, ‘बोलो राम राम राम……।’
भाव अतिरेक से आर्द्र रामभजनिया ने बांये हाथ को कान पर लगाया फिर दायां हाथ ऊपर उठाकर सुर मिलाये, ‘बोलो श्याम श्याम श्याम……।’
दोनो के पट्ठे अब दुगने उत्साह से एक साथ ढोलक, मंजीरे एवं चिमटे बजा रहे थे।

………………………………….

30.05.2008

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