सूर्य उदयाचल से ऊपर उठे एवं धूप दीवारों पर उतरने लगी तब तक मैं नहा धोकर तैयार था। बसंत की सुबह कितनी मनभावन होती है। शीतल सुखदायिनी वायु एवं झूमते वृक्ष हृदय को आनंद से सराबोर कर देते हैं।
मैंने उड़ती-उड़ती निगाह कलाई पर बंधी घड़ी पर डाली। दस बजकर दस मिनट होने को थे। ओह! अब तक तो हमें सुमित्राजी के घर होना चाहिए था। रीतेश नीचे इंतजार कर रहा होगा। मैं आनन-फानन सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आया। रीतेश ड्राईंगरूम में बैठा मेरी ही राह तक रहा था। अन्य दिनों से आज वह अधिक स्मार्ट लग रहा था।
‘गुड मोर्निंग डीयर। आज तो गज़ब ढा रहे हो।’ उसे देखते ही मैंने छेड़ा।
‘थैंक यू अंकल’ उसने मुस्कुराते हुए अभिवादन किया।
‘साॅरी! मैं थोड़ा लेट हो गया।’ देरी की झेंप मिटाते हुए मैंने बात आगे बढ़ाई।
‘इट्स ओके अंकल, थोड़ा लेट तो चलता है।’
‘यू आर राइट! थोड़ा इंतजार करवाऐंगे तभी लड़की वाले वखत समझेंगे।’ मैंने मुस्कुराते हुए उसकी बात पर सहमति जताई।
मैं कुछ और कहता तभी बाथरूम का दरवाजा खुला। गौड़ साहब हाथ में टाॅवल लिये वहां खड़े थे। शायद उन्होंने हमारी वार्ता सुन ली थी। बाहर आते हुए बोले, ‘बिल्कुल नहीं! आदमी को समय का पाबंद होना चाहिए। अब जमाना बदल गया है। बरखुरदार! लड़के-लड़की सब बराबर है वरन् मैं तो कहूंगा अब लड़कियां मुश्किल से मिलती हैं।’
तभी रसोई में खड़ी भाभी बोली, ‘यूं बतियाते ही रहोगे या लड़की वाले के घर भी पहुंचोगे। उन्हें तो एक-एक पल भारी पड़ रहा होगा।’
भाभी की आज्ञा को शिरोधार्य कर हम दोनों बाहर आए। मैंने गाड़ी स्टार्ट की एवं सुमित्राजी के घर की राह ली।
धूप अब तेज होने लगी थी। हां, कार में आते ठण्डी हवा के झौंके अवश्य सुकून देने लगे थे। एक मोड़ पर स्टीयरिंग घुमाते हुए मैंने पास बैठे रीतेश की ओर देखा। व्हाट ए स्मार्ट बाॅय। पच्चीस वर्ष का छरहरा युवक। उसकी आंखों में कितने सपने हैं। किसी भी युवक के लिए यह पल कितने महत्वपूर्ण होते हैं? कैसी होंगी वह ? क्या वह सुंदर है, विद्वान है ? क्या उसके स्वभाव से मेरा एवं मेरे माता-पिता का मेल होगा ? जीवनभर के लिए एक ऐसे साथी से बंधने का निर्णय लेना जिसे हम जानते तक नहीं, कितना दुष्कर कार्य है। एक मीटिंग में हम कितना भर तो समझ पाते हैं ? हर कुंवारे के कितने प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं ? यही वह समय है जब मनुष्य के जीवन में ईश-कृपा एवं भाग्य जैसे सिद्धांतों के अंकुर पैठने लगते हैं।
मैंने मुड़कर फिर रीतेश की ओर देखा। ज्यों-ज्यों हम लड़की के घर की ओर बढ़ रहे थे उसके चेहरे का कौतुहल बढ़ता जा रहा था। उसे देखकर मुझे अपने यौवन की याद हो आई। कभी मैं भी रीतेश की तरह स्मार्ट दिखता था। मेरी देह में भी यौवन हिलौरे लेता था। आकाश के तारों से भी ज्यादा स्वप्न मेरी आंखों में तैरते थे। दुर्भाग्य! सभी धूल-धूसरित हो गए। भाग्य का बवण्डर सारे सपनों को जाने कहा ले उड़ा। प्रारब्ध कितना बलवान है। अब तो पैंतालीस में भी पचास का दिखता हूँ। बिना बीवी के आदमी की यही गत होती है। किसी चिर कुंवारे का किसी नव कुंवारे के साथ लड़की देखने जाना भी अजीब इत्तफ़ाक है। लड़की की माँ सुमित्राजी ने यदि प्रश्न कर लिया कि आप अकेले कैसे, भाभीजी को क्यों नहीं लाये तो बगले झांकने लगूंगा।
मैं इस काम के लिए हरगिज नहीं जाना चाहता था पर गौड़ साहब ठहरे मकान मालिक, उनके आदेश को कैसे ठुकराता। जब से उदयपुर आया हूं, छोटे भाई की तरह रखा है उन्होंने। उनके एवं भाभी के स्नेह को मैं कैसे भूला सकता हूं। हम जैसे कुंवारों को मकान देता कौन है ? जहां जाओ वही प्रश्नों की बौछार। आप अकेले हैं? आपका परिवार क्या किसी अन्य शहर में रहता है ? आपने अब तक विवाह क्यों नहीं किया ? हम अविवाहितों को मकान किराये पर क्यों दें ? कहां जाये बिचारे अविवाहित? मैं अच्छी तरह जानता हूँ शादीशुदा कुंवारों से अधिक लंपट होते हैं पर बीवियों की आड़ में सब जायज है। समाज की आंख ही ऐसी हो गई है, चरित्रवान है तो बस शादीशुदा। जिनके बीवी है वे क्यूं इधर-उधर मुंह मारेंगे, यह काम तो कुंवारों का है। मकान किराये पर लेने में छड़ों को कितना पसीना आता है, कितना उपहास होता है, कितनी बार आंखें नीची करनी पड़ती है, मैं ही जानता हूं। इस शहर में नया आया तब एक घर के बाहर ‘मकान किराये के लिए खाली है’ की तख्ती देखकर मैंने बेल बजाई। एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला। उसके पीछे उसकी जवान लड़की खड़ी थी। मैंने जब कहा कि मैं अकेला हूं एवं आपके यहां कमरा किराये पर चाहता हूं तो उसने दरवाजा बाद में बंद किया पहले लड़की से कहा, ‘तूं भीतर जा।’ वह मुझे ऐसे देख रही थी जैसे मैं किरायेदार न होकर बलात्कारी हूं। बाद में आंखे तरेरकर उसने जिस तरह दरवाजा बंद किया, तीन दिन तक मकान ढूंढने की हिम्मत नहीं हुई। मेरा साहस क्षणभर में ध्वस्त हो गया।
ऐसे में गौड़ साहब का अहसान मैं कैसे भूल सकता हूँ। हर रविवार की शाम वे मुझे डीनर पर बुलाते हैं। मैं लाख मना करूं पर उनकी जिद के आगे विवश हो जाता हूं। मियां-बीवी दोनों इतने नौरे करते हैं कि ना कहने की गुंजाईश ही नहीं रहती। आज शाम भी उन्हीं के यहां डीनर है। पिछली बार डीनर करते समय मेरे मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘आपके पल्ले भी कैसा मुफ्तखोर पड़ा है।’ तब गौड़ साहब की आंखें सजल हो गई। मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘कैसी बातें करते हो! तुम तो किसी जन्म के भाई लगते हो।’
पिछले सप्ताह रीतेश के लिए लड़की देखने की बात आई तो गौड़ साहब बोले, ‘तुमसे अधिक हमारा विश्वासपात्र कौन है! तुम्हीं इसके साथ जाकर लड़की देख आओ।’ मैं चौंका तो वे बोले, ‘मना मत करना। मेरे लिए एक दुविधा है। अगर लड़की पसंद आ गई तो अच्छा है, अगर नहीं आई तो ना कहना मेरे लिए मुश्किल है। मुझ में इतना साहस नहीं है कि मैं किसी की बेटी को रिजेक्ट कर सकूं। समझ लो यह बंदूक मैं तुम्हारे कंधे पर रखकर चला रहा हूं। अगर तुम्हें एवं रीतेश को लड़की जंच गई तो मैं एवं तुम्हारी भाभी बाद में मिल आएंगे।’
कितने महान विचार थे गौड़ साहब के। सौभाग्य उदय हो तभी ऐसे शख्स जीवन में आते हैं। उन्होंने मुझे यह भी बता दिया था कि लड़की की मां तलाकशुदा है। मैं चौंका तो वे बोले, ‘बरखुरदार! जायज कारणों से भी तलाक हो सकते हैं। हम यह सोचने का पाप क्यूं करें कि लड़की में उसकी मां के दोष आएंगे ही। परिस्थितिजन्य वह अधिक गुणी भी हो सकती है। मनुष्य के सद्गुण प्रतिकूल एवं विपरीत परिस्थितियों में अधिक मुखर होते हैं।’ गौड़ साहब के विचार सुनकर मेरी गर्दन नत हो गई थी।
हम लड़की के घर पहुंचे तो कार की आवाज सुनकर सुमित्राजी दरवाजे तक आई। कार से उतरकर हम दोनों दरवाजे तक आए तो केतकी को देखकर मैं हैरान रह गया। आश्चर्य! केतकी सुमित्रा कैसे हो गई ? मैंने वहीं खड़े नेमप्लेट की ओर देखा, नाम सुमित्रा ही लिखा था। मैंने पुनः केतकी की ओर देखा। वही ललाट, वही गहरी आंखे, वही रूप-रंग, हां बाल कुछ अवश्य पक गए थे। पहले आंखों के नीचे ललाई नजर आती थी, अब हल्का कालापन दिखाई देने लगा था। वही बात करने का, वही मुस्कुराने का अंदाज। कहीं मैं गलत घर पर तो नहीं आ गया ? मैं सोच ही रहा था कि केतकी ने कहा, ‘आप जरा लेट हो गए। हम इतंजार ही कर रहे थे’ तो बात तय हो गई कि हम निर्दिष्ट स्थान पर खड़े हैं। मेरा शेष संशय भी तब दूर हो गया जब केतकी ने मेरा नाम लेकर भीतर आने को कहा।
ड्राईंगरूम में बैठे तब क्षणभर में मेरी टेप रिवाईंड हो गई। स्मृतियों के सांप अतीत की बांबी से बाहर निकल आये। मन में उथल-पुथल मच गई। केतकी मेरे साथ ही जयपुर काॅलेज में पढ़ती थी। मैं उसे मन ही मन चाहता भी था। उसकी आंखों से आते मूक संदेश एवं हावभावों से मुझे लगा जैसे वह भी मुझे हृदय से चाहती है। लड़कियां अक्सर पहल करने का साहस नहीं जुटा पाती। मैंने पहल कर मेरे मित्र बिरजू के हाथों मेरा प्रणय संदेश उसे भेजा। बिरजू ने जब मुझे बताया कि केतकी उसका संदेश पाकर आहत हुई है तो मेरे तोते उड़ गए। इतना ही नहीं बिरजू ने जब बताया कि केतकी ने यहां तक कहा है कि ऐसा संदेश भेजने की मेरी जुर्रत कैसे हुई तो मैं अपना सा मुुंह लेकर रह गया। इस घटना के पश्चात् दस दिन तो मैं क्लास में ही नहीं गया एवं बाद में जब भी गया केतकी से आंखें चुराता रहा। एक-दो बार मुझे लगा भी कि वह मुझसे कुछ कहना चाहती है पर मैं यह सोचकर उसके पास नहीं गया कि वह और गत न बनाये। मनुष्य की नियति है कि वह स्वयं पर हावी विचारों का दास बन जाता है।
इस घटना के पश्चात् स्त्री की छवि मेरी आंखों से उतर गई। मन में यह बात बैठ गई कि केतकी नहीं तो और कोई नहीं। मैंने अविवाहित रहने का निर्णय ले लिया
लेकिन केतकी के साथ यह क्या हो गया ? उसका तलाक क्योंकर हो गया ? सुना था उसे तो एक समृद्ध परिवार का लड़का मिला था। उसे भी हैंकड़ी बताई होगी?
केतकी की लड़की अर्चिता एवं रीतेश में अब बातचीत होने लगी थी। दोनों खुलकर बात करने का प्रयास कर रहे थे पर हम दोनों की उपस्थिति से वार्ता संकोच एवं औपचारिकताओं की परिधि में सिमट गई थी। मैं कुछ कहता उसके पहले ही रीतेश ने कुछ समय अलग से बातचीत करने की इच्छा जाहिर की। सुमित्राजी ने इशारे से सहमति दी तो अर्चिता उसे लेकर ऊपर अपने कमरे मे चली गई।
अब मैं और केतकी ड्राईंगरूम में अकेले थे। मुझे अनायास ही उससे रूबरू होने का अवसर मिल गया। मैं पूर्व अवसाद से ग्रसित था फिर भी साहस कर बात छेड़ी।
‘केतकी कैसी हो ? मैंने सोचा भी नहीं था हम दोनों पुनः इस प्रकार मिल जाएंगे।’
‘मैं ठीक हूं। तुम्हारे क्या हाल है ? तुम उदयपुर कैसे ? रीतेश को कैसे जानते हो ?’ कहते-कहते उसकी आंखें आश्चर्य में डूब गई। वह मानो अनेक प्रश्नों का उत्तर एक साथ चाहती थी।
‘मैं ठीक हूं। मेरा एक वर्ष पूर्व यहां पदस्थापन हुआ था। मैं रीतेश के यहां किराये पर रहता हूं। रीतेश का परिवार एक आदर्श परिवार है। रीतेश एवं ऐसे परिवार को पाकर अर्चिता बहुत सुखी रहेगी।’
मेरे मन की गांठ धीरे-धीरे खुलने लगी थी।
‘रीतेश के परिवार के बारे तुमसे जानकर मुझे राहत मिली है।’ उसने बात को आगे बढ़ाया।
‘तुम्हारा नाम सुमित्रा कैसे हो गया ?’ मैंने मेरे मन में तैरते अंतिम प्रश्न को बाहर फेंका।
‘मेरे विवाह के पश्चात् मेरे पति की मां ने मुझे यह नाम दिया था। तब से मैंने यही नाम रख लिया। शायद तुम्हें नहीं मालूम विवाह के दो वर्ष पश्चात् ही मेरा तलाक हो गया। मेरा पति मानसिक रूप से रूग्ण था। अपनी रूग्णता को सुधारने की बजाय वह मुझ पर भांति-भांति के दोषारोपण करने लगा।
वह न सिर्फ बात-बात में शक करता था, शराबी, जुंआरी एवं व्यभिचारी भी था। मारपीट करना उसकी आदत थी। मेरे पास तलाक के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहा। तब से अकेलेपन के इस अरण्य को भोग रही हूँ। अर्चिता की सौगात मुझे उसी से मिली है। अब तो यही जीने का एकमात्र सहारा है। मैंने हृदय का खून देकर इसे पाला है। यह न होती तो मैं कब की मर जाती।’ कहते-कहते केतकी की आंखों में आसुओं की लड़ी लग गई। कुछ क्षण पश्चात् संयत हुई तो बोली, ‘सुना है तुमने विवाह नहीं किया ? ऐसा क्यों?’
‘तुमने मना जो कर दिया। बाद में तुम्हारे जैसी लड़की ही नहीं मिली।’ अनायास आए इस प्रश्न का मुझे यही उत्तर सूझा।
‘मैंने मना कर दिया ? मैंने तो बिरजू के हाथ तुम्हें संदेश भिजवाया था कि मैं तुम्हें चाहती हूं।’ कहते-कहते उसकी आंखें फैल गई।
‘कमाल है! यह संदेश तो मैंने बिरजू के हाथ तुम्हें भिजवाया था। क्या बिरजू ने तुम्हें नहीं बताया ?’
‘नहीं! वरन् उसने तो मेरे संदेश का यह प्रत्युत्तर दिया कि तुम मुझे पंसद नहीं करते।’
‘क्या तुम सत्य कह रही हो ?’ मेरा विस्मय सर चढ़कर बोलने लगा।
‘मैं सोलह आने सत्य कह रही हूं। उसने मुझे यहां तक कहा कि तुम किसी अन्य लड़की को चाहते हो। इतना ही नहीं कुछ दिन बाद वह मेरी ओर प्रेम की पींगे बढ़ाने लगा। उसके व्यवहार से मैं चिढ़ गई, मैंने उसे लताड़कर भगा दिया।’ कहते-कहते केतकी की सांस फूलने लगी।
‘इसका मतलब उसने हम दोनों को धोखा दिया। दोस्ती के नाम पर दुश्मनी की। जिसे मैंने प्रतिनिधि बनाकर भेजा वह तो प्रतिद्वंदी निकला।’ कहते-कहते मैं असंयत हो गया।
संसार कितनी विपरीत स्थितियों से भरा है। सज्जनों के लिए जो बातें दुर्घटनाएं बन जाती है, दुष्टों एवं दुरात्माओं के लिए वे मात्र कलाबाजियां होती हैं। बड़े-बुजुर्ग ठीक ही कह गए हैं कि दुर्जनों का प्रादुर्भाव जगत को दुःख देने के लिए ही होता है।
‘अर्चिता का कार्य अब तुम्हारी ही जिम्मेदारी है।’ केतकी की बात सुनकर मैं पुनः संयत हुआ।
‘तुम चिंता न करो। यह कार्य मेरे बांये हाथ का खेल है। रीतेश के पिता मुझे छोटा भाई मानते हैं। यह रिश्ता पक्का समझो।’
‘मैं तुम्हारी आभारी हूं……….। आगे जाने कैसे जीवन व्यतीत होगा ?’ कहते-कहते वह सुबक पड़ी।
‘क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?’ मैंने एक अप्रत्याशित प्रश्न दागा।
‘सचमुच क्या तुम मुझसे शादी करोगे ?’ मेरी बात सुनकर उसके नैत्र आश्चर्य एवं हर्ष से खिल उठे।
‘निश्चय ही करूंगा। जिस गलत प्रतिनिधि को भेजने की गलती मैंने पहले की, उसकी पुनरावृति नहीं करूंगा। मेरा प्रतिनिधि अब मैं स्वयं हूं।’ मैं बेझिझक बोलता गया।
‘मैं तुम्हें क्या उत्तर दूं ? आज तुमने मेरा मुंह मोतियों से भर दिया है। जाने आज किधर से सूर्य उगा है।’
कुछ और कहते-कहते वह अनायास रुक गई। रीतेश एवं अर्चिता ड्राईंगरूम में प्रवेश कर रहे थे। दोनों के प्रफ्फुलित चेहरे उनकी मूक सहमति का बयान कर रहे थे। मैंने रीतेश को एवं केतकी ने अर्चिता को अलग लेकर पूछा तो दोनों ने इस परिणय प्रस्ताव पर सहमति जताई।
घर पहुंचकर मैंने गौड़ साहब को सारी बात बताई तो वे खिलखिलाकर हंस पड़े। भाभी चहकती हुई रसोई से बाहर आई तो वे बोले, ‘यह तो सचमुच मुफ्तखोर निकला। पसंद तो हमारी बहू करने गया एवं बोनस में उसकी मां भी ले आया।’
घर में अब हंसी के फव्वारे फूट रहे थे।
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04-07-2010