बहुत समय के बाद घर में उमंग और उत्सव के पल आये हैं।
प्रेम किशोर करवा बाहर आँगन में आराम कुर्सी पर बैठे किसी गहरे चिंतन में डूबे थे। भोर की ठण्डी हवा उनके दार्शनिक मन को एक विचित्र फैलाव दे रही थी। वे अभी-अभी मोर्निंग वाॅक से लौटे थे। उनकी लाड़ली बिटिया की शादी में अब मात्र बीस रोज रह गये थे। सारी तैयारियाँ हो चुकी थी। शहर की आलीशान होटल में उन्होंने आगंतुक मेहमानों हेतु यथेष्ट कमरे बुक करवा लिये थे। समारोह में होने वाले भोज, मण्डप, टेण्ट एवं लाइटिंग आदि आदि अन्य कार्य भी उन्होंने केटरर्स को दे दिये थे। एक जमाना था जब ब्याह-शादी में लोग बढ़-चढ़ कर काम करते थे पर अब तो ट्रेंड बदल गया है। अब तो मेहमान मजे मारने आते हैं। सभी मित्र एवं रिश्तेदारों को उन्होंने फोन द्वारा अग्रिम सूचना दे दी थी। कार्ड छपकर तैयार थे, बस बाँटने का काम बाकी था। बिटिया के लिए गहनों-कपड़ों आदि की व्यवस्था उन्होंने बात पक्की होने के कुछ दिनों में ही कर ली थी। अब तो बस मेहमानों का इंतजार था। कुछ समय पूर्व उन्होंने कोठी में रंग-रोगन भी करवा लिया था। वह भी मानो दुल्हन की तरह दामाद के स्वागत में आंखें बिछाये खड़ी थी।
आगंतुक रिश्तेदारों को याद कर करवा साहब फूले न समाते। कितने वर्षों बाद उनकी तीनों बहिने उनके घर आयेगी। वह कह-कह कर थक गये पर जैेसे सारी दुनियाँ अपने कामों में उलझी है। अब भला वे क्या कहकर मना करेंगी ?भतीजी के ब्याह में बुआएँ न आये तो ब्याह का क्या रंग ? करवा साहब तीन बहनों के इकलौते भाई थे। यकायक वे उन दिनों में खो गये जब माँ-बाबूजी के साथ इतने बड़े परिवार में सभी साथ रहते थे। बाबूजी ने एक-एक कर तीनों बहनों की शादी की। जीवन की गाढ़ी कमाई को पानी की तरह बहाया, उन कन्याओं के दान के लिये जिन्हें वे प्राणों से अधिक प्यार करते थे। अपनी तीसरी बेटी को तो विदा करते हुए वे फफक कर रो पड़े। उसके विदा होने के समय उनकी ऐसी हालत थी मानो किसी महाजन ने जीवन भर की पूँजी लुटा दी हो। माँ भी रोते-रोते बुत बन गयी थी।
यही सोचते-सोचते करवा साहब के चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभर आयी। क्या उन्हें भी बेटी को विदा करना होगा ? क्यूँ दूँ मैं उसे किसी को ? इतने नाजों से पाली बेटी को क्या यूँ ही किसी को सौंप दूंगा ? जैसे किसी किसान के कठोर परिश्रम से सींची हुई फसल को लेने महाजन आ जाते हैं, करवा साहब की दशा वैसी ही थी।
दिव्या उनकी इकलौती संतान थी। उन्हें वे क्षण याद आ गये जब दिव्या का जन्म हुआ था। ताजा फूल की पाँखुरी की तरह एक नन्ही-सी बच्ची। तब से अब तक उन्होंने एवं शिखा ने उसके कितने नखरे उठाए हैं। कैसे वर्षों पूर्व जब फैक्ट्री से हारे-थके घर आते, तब वह पापा……पापा….. कहकर दौड़ते हुए आती थी। शिखा ने उसके लिये कितने कपड़े, स्वेटर आदि बनाये थे। कैसे उसे बुखार अथवा कोई अन्य रोग होने पर वह और शिखा बावलों की तरह डाॅक्टरों के घर चले जाते थे। पिछले बीस वर्षों में दिव्या कितनी बड़ी हो गयी है।
उगते सूर्य की लालिमा अब फैलने लगी थी। बगीचे के पौधों पर बिखरी ओस की बूँदें उनके सजल हृदय की तरह वातावरण को भी भिगोने लगी थी। इन बूंदों को देखते हुए करवा साहब एक विशिष्ट कल्पना लोक में खो गये। वे सोचने लगे, बेटियाँ क्या होती हैं ? जो सुबह-सुबह आपकी जीवन बगियाँ के पत्तों पर ओस की बूंदों की तरह आती हैं, स्नेह की किरणें पाकर मोतियों की तरह चमकती हैं एवं दिन चढ़ते चुपचाप चली जाती हैं। कब बड़ी होती है, कैसे अपने जीवन की समस्याओं का समाधान करती है, या तो वे ही जानती हैं या भगवान।उन्हें लगा सबको अपनी करनी का फल अवश्य मिलता है। एक दिन वे भी तो दूल्हा बनकर किसी की फूल-सी बेटी ब्याह लाये थे। सोचते-सोचते उनकी आँखें आर्द्र हो गयी।
यकायक वे चौंके। शिखा सामने खड़ी थी। कब भीतर से आयी एवं कब उनके पास आकर खड़ी हो गयी ? मन जब खुली आँखों से विचरने लगता है तन की आँखें अँधी हो जाती हैं। वे चुपचाप उठकर भीतर चले आये। शिखा भी उनके पीछे चली आयी। पत्नी से अधिक पति के मन को कौन पढ़ सकता है ? करवा साहब की आर्द्र आँखों की भाषा वह पल भर में समझ गयी। आँखों की मौन भाषा कितनी वाचाल होती है ? पति-पत्नी दोनों की आँखें मिली एवं देखते-देखते दोनों के कपोलों पर गरम आँसू छलक आये। नेत्रों से उमड़ते हुए आँसू मन का भेद खोल गये।
भाग (2)
शायर के ख्वाबों की तरह हर कुंआरी लड़की के स्वप्न कितने कोमल होते हैं ? दिव्या ने भी विवाह के जाने कितने स्वप्न संजो रखे थे। घण्टों, आँखें मूंदे, सुखभरे स्वप्नों में खोयी रहती। लगता दूर कहीं धुंध से, सफेद घोड़े पर एक राजकुमार चला आ रहा है…..वह धीरे-धीरे और करीब आता है…..वह अधीर एवं आतुर आँखों उसे देखती है।उसके सब्र का बाँध टूटने लगता है। तभी राजकुमार अपने मजबूत हाथों से उठाकर उसे अपने साथ ले जाता है। वह घोड़े को दूर, बहुत दूर ले आता है…..वहाँ सिर्फ वह और राजकुमार है…..वहाँ दुनियाँ का अन्य कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता। वह राजकुमार के साथ घण्टों विचरती है, खिलखिलाती है। स्वप्न की इस दुनियाँ में दुख का चिह्न भी नहीं। उसे लगा वह घण्टों इन्हीं स्वप्नों में खोयी रहे…..ओह! स्वप्न कितने मधुर होते हैं, कितने रमणीय। प्रियतम को पाने से अधिक रसप्रद तो उसे पाने के अरमान होते हैं।
इन दिनों वह अक्सर परचेजिंग में व्यस्त रहती। पापा ने उसे इन दिनों अपने पसंद की हर चीज खरीदने की छूट दे रखी है। कितनी साड़ियाँ, सौन्दर्य प्रसाधन एवं अन्य सामग्री तो उसने खरीद भी ली है। इतना होते हुए भी हर बार यही लगता कि परचेजिंग बाकी है। इन सब की पैकिंग भी तो बाकी है। मम्मी अकेली क्या-क्या करेंगी?
शाम होते-होते नरेश का फोन आता। वह उड़कर रिसीवर पकड़ती। एक त्वरित वार्तालाप होता। वह लपक कर पर्स उठाती एवं पलभर में बाहर होती। दोनों में नित्य समय तय होता, लेकिन वह आधा घण्टा पहले तैयार होती। क्या पता नरेश समय से पहले टपक जाये ? वैसे तो वह गाड़ी घर से सौ कदम दूर रखता था पर अल्हड़ युवकों का क्या भरोसा ? कभी सीधे घर में घुस आये तो ? तब साधारण ड्रेस में खड़ी वह कितनी बेकार लगेंगी? वह ऐसी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। लड़की सजी-सँवरी हो तभी प्रशंसा पाती है अन्यथा मर्दों का क्या है, नजर से उतरते देर नहीं लगती। ऐसे ही कपोलकल्पित, हसीन भय उसके मस्तिष्क में मंडराते रहते। तभी होर्न की आवाज आती और वह तेजी से चलकर गाड़ी तक पहुंच जाती। दोनों एक-दूसरे का दर्शन कर चहक उठते। अब वे दिन गये जब पति, पत्नी का प्रथम दर्शन मधुयामिनी को घूंघट उठाते हुये करता था। समाज अब बहुत ‘परमिसिव’ हो गया है।
दोनों घण्टों झील के किनारे अथवा किसी रेस्टोरेन्ट में होते। नरेश हजारों में एक था। उसके पिता शहर के जाने-माने उद्योगपति थे। वह भी पिता का कारोबार देखता था। नरेश एवं दिव्या माता-पिता की इकलौती सन्तान थे। दिव्या नरेश के बात करने के अंदाज पर मुग्ध थी। इन दिनों अक्सर आईने में चेहरा देखकर भाग्य को सराहती। सोचती, वह कितना भाग्यशाली दिन होगा जब विवाह के बाद सजी-सँवरी वह आईना देख रही होगी एवं नरेश पीछे से आकर उसे बाँहों में भर लेगा। यही तो न कहेगा, ‘दिव्या! तुम्हारा तन-मन कितना सुंदर है…. तुम्हारे लंबे बाल सावन के झुके हुए काले बादलों जैसे लगते हैं, आँखें मदभरे प्यालों जैसी हैं, चेहरा खिले हुए फूल-सा लगता है, मुस्कराहट बिजलियों-सी जानलेवा है….ऊफ! तब मैं तेजी से मुड़कर अपना सर उसके सीने पर रखकर कहूंगी, ‘इन बादलों एवं बिजलियों को आसमान अपने आगोश में क्यों नहीं समेट लेता ?’
पुरुष स्पर्श के सुख को अब वो समझने लगी थी। एक संस्कारी लड़की होने के नाते अपनी सीमाओं से भी खबरदार थी। रात सोने के पूर्व वह एक अद्भुत स्वप्नलोक में खो जाती। कुछ रोज बाद वह एक पुरुष की पत्नी होगी…..एक पूर्ण पुरुष की।कैसा लगेगा एक मजबूत पुरुष को अपनी अदाओं एवं हावभाव से गुलाम बनाना ? हम हनीमून के लिए शिमला जायेंगे। ओह! प्रकृति से परिपूर्ण उस जगह को नरेश के साथ देखना कितना मनमोहक होगा ? किसी पुरुष के आगोश में पूर्णतः निर्वस्त्र होना कैसा रोमांचक अनुभव होगा ? इस ख्याल के आते ही उसका चेहरा लाल हो गया। दोनों हाथों से उसने मुँह ढक लिया। स्वप्न-तरंगों में तैरते-तैरते रात कब बीती, पता ही नहीं चला।
आज शाम वह फिर नरेश के साथ झील पर थी। दोनों एक दूसरे का हाथ, हाथ में लिये किनारे-किनारे टहल रहे थे। देर तक प्रकृति के मौन के साथ वे भी मौन चलते रहे। सूर्य ढल चुका था पर साँझ की लालिमा अब भी शेष थी। ऐसा लग रहा था मानो सूर्यदेव शयन कक्ष में चले गये लेकिन साँझ लाज की मारी अब भी बाहर खड़ी है। किंचित प्रतीक्षा करवाने के पश्चात् उन्होंने साँझ की मनोदशा जान ली। उसे खींचकर वे अपने कक्ष में ले गये। अंधेरा उनकी हरकतों का साक्षी हो गया।
यूं देर तक चलते नरेश एवं दिव्या एक निर्जन स्थान में आ गये। एकाएक नरेश ने दिव्या को पेड़ की ओट में लिया एवं उसके गले में बाहें डाल दी। वह सहमी हुई हरिणी की तरह काँप गयी। एक ऐसा कंपन जिसमें कुंआरे सपनों का कोमल रोमांच था। नरेश की शरारती आँखें एवं फड़कते होठ किसी अकल्पनीय कृत्य को अंजाम देने के इरादे से भरे लगते थे। अंधेरा शह दे रहा था। दिव्या को लगा किसी ने उसके ओठों पर अपने ओठ रख दिये हैं। उसने स्वयं को छुड़ाया एवं कार की ओर भागने लगी। नरेश पीछे दौड़ता हुआ आ रहा था। नजदीक आकर बोला, ‘कब तक बचोगी! आज नहीं तो कल हमारी अमानत हमें सौंपनी होगी।’ दिव्या लजाकर बोली, ‘तब की तब देखेंगेे।’
भाग (3)
घर में शादी की तैयारियाँ परवान चढ़ी थी। अब तक सभी रिश्तेदार आ चुके थे। कभी बहनें चुहल करती तो कभी मामा हँसी-मजाक करते। करवा साहब की बड़ी बहन हेमलता, शिखा को करवा साहब के बचपन की बातें बता रही थी। सभी उन्हीं बातों का लुत्फ़ ले रहे थे। बचपन में इसने मेरे मिट्टी के गुल्लक में नीचे छेद कर दिया था। मैं ऊपर से पैसे डालती, यह नीचे से निकाल लेता। एक बार प्रेस करते हुए इसने मेरी स्कूल ड्रेस जला दी तब बाबूजी से बहुत पिटा था। बाबूजी पर तो बस चला नहीं, बाद में मुझ पर घूंसे लेकर पिल गया। तभी जाने कहां से बाबूजी आ गये और यह चूहे की तरह ऊपर कमरे में भागा। तभी मामा बोले, ‘चिंता क्यों करती हो हेमा! अब सूद समेत वसूल लेना। सभी लोटपोट हुए जा रहे थे। बचपन की मधुर स्मृतियां अधेड़ उम्र के कितने विषादों को हर लेती है। वह मुट्ठी बंद कर चिज्जी दिखाने का सुख दुनियाँ की कोई दौलत नहीं खरीद सकती। जीवन के अनमोल सुख तो ईश्वर ने हमें निःशुल्क दिये हैं। करवा साहब रिश्तों की ऊष्माहट के ब्रह्मानंद में गोते लगाने लगे थे।
अब शादी में मात्र सात दिन शेष थे।घर के बाहर बंदनवार लग गयी थी। नित्य विनायक पूजा होती, मंगल गीत गाये जाते एवं फिर सभी डाइनिंग टेबल पर एक साथ भोजन कर रहे होते। अपनों के साथ भोजन करो तो भूख भी बढ़ जाती है, यूँ दो रोटी खाने का भी जी नहीं करता। स्नेह का सामीप्य पाकर आँतें भी फूल जाती हैं।
शादी के एक रात पूर्व हुई संगीत संध्या में सभी जी भरकर नाचे। सभी अपनेे प्रोग्राम बनाकर लाये थे। मुँह पर मूछें लगाकर हेमलता जीजी ने अन्य बहनों के साथ एक नाटक प्रस्तुत किया जिसमें एक ऐसे समय की कल्पना थी जब पति पत्नियों के गुलाम होंगे। नाटक की प्रस्तुति एवं हेमलता का अभिनय इतना जीवन्त था कि हँसी के मारे सबके पेेट में बल पड़ गये। प्रोग्राम के अन्त में सभी थक गये थे पर उत्साह कम न होता था। मन थिरकता है तो तन भी थिरकता है। मन की थिरकन को तो थकान नहीं होती पर तन की अपनी सीमाएँ है। उस रोज सभी कुंभकरण की नींद सोयें।
प्रतीक्षा की घड़िया समाप्त हुई। रिश्तों की चहल-पहल के मध्य समय हिरण की तरह चौकड़िया भरता चला गया। चिरप्रतिक्षित शादी की साँझ भी आ गयी। पण्डाल की खूबसूरती देखते बनती थी। चमकते हुये पाण्डाल के बाहर, दामादों एवं रिश्तेदारों के साथ पगड़ी बांधे करवा साहब ऐसे लग रहे थे मानो ग्रह-नक्षत्रों से घिरा साँझ का तारा चन्द्रमा के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो। बारात का जोरदार स्वागत हुआ।अन्य सभी कार्य भी सानंद सम्पन्न हुए।
दिव्या को विदा करते समय सबकी आँखों में आँसू थे। करवा साहब का तो मानो कलेजा बाहर आ रहा था। शिखा बेटी से गले मिलकर बिलख रही थी। आँखों में आँसू भरे सभी रिश्तेदार दिव्या को विदा होते देख रहे थे। निष्ठुर दूल्हा उसे ले जाने पर आमदा था। सच कहा है, बेटियाँ पराया धन होती हैं। माँ-बाप तो मात्र कुछ समय के लिये उस धन की, परायी अमानत की रखवाली करते हैं।
शादी के दस दिन पश्चात् दोनों हनीमून से लौटे तो दिव्या कुछ समय के लिये पीहर आयी। शिखा ने अलग कमरे में ले जाकर उससे घण्टों बातें की। उसका सिर गोदी में रखे वह पूछ रही थी, ‘कैसा है तेरा दूल्हा ? उसका स्वभाव तो अच्छा है ? क्रोधी तो नहीं है ? दिव्या ने लजाकर उत्तर दिया, ‘एकदम ‘परफेक्ट है, मम्मी !’ रात करवा साहब ने शिखा से बेटी के बारे में जानकर चैन की सांस ली। बच्चे खुश रहे, माँ-बाप को और क्या चाहिये ?
पीछे जाती माला के एक-एक मनके की तरह इस बात को भी बारह मास बीत गये। दिव्या इन दिनों पीहर थी। नरेश कारोबारी कार्य से बाहर गया हुआ था। करवा साहब ड्राईंग रूम में बैठे पुस्तक पढ़ रहे थे। तभी सामने खड़ी दिव्या की आवाज सुनायी दी, ‘पापा, चाय!’ प्याला हाथ में लेते हुए करवा साहब ने दिव्या की और गंभीरता से देखा। उन्हें जाने क्यों लगा कि दिव्या खुश नहीं है ? आँखों के नीचे उभरते हुए काले गड्ढे कुछ संकेत दे रहे थे। जितना खुलकर वह पहले खिलखिलाती थी, उतनी सहज अब नहीं थी। फूल फूल है फिर भी सुबह और शाम के फूलों में अंतर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने दिव्या को उनके साथ बैठकर चाय पीने को कहा।
दोनों धीरे-धीरे चाय की चुसकियाँ ले रहे थे। शिखा बाजार गयी हुई थी। कभी-कभी पिता माँ बन जाता है। करवा साहब ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘दिव्यू! खुश तो हो ?’ उनके कहने भर की देर थी कि दिव्या के आँसू उबल पड़े। करवा साहब स्तब्ध रह गये। लगा जैसे उनके अंतःकरण की नंगी पीठ पर कोई कोड़े बरसा रहा हो ?बच्ची ने अब तक कुछ नहीं कहा ? आखिर क्या समस्या हो सकती है ? पल भर में उनके जेह़न में प्रश्नों का अंबार लग गया। उन्होंने दिव्या के कन्धों पर दोनों हाथ रखे, समीप आकर उसका माथा सूंघा फिर गहरी श्वास लेकर बोले, ‘बेटी! क्या बात है ? क्या हम इतने कम समय में पराये हो गये ?’ दिव्या फूट-फूट कर रो पड़ी।
आँसू थमने के बाद दिव्या ने बताया कि नरेश ‘यौन उदासीनता’ का शिकार है। गत एक वर्ष से वे विशेषज्ञ डाॅक्टरों के पास जा रहे हैं। अब डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया है कि उसकी नपुंसकता का इलाज संभव नहीं है। करवा साहब पर गाज गिरी। यह फूल-सी बच्ची किस तरह मन की व्यथा छिपाती रही ? इतने दुख में भी सदैव इसलिये खुश रही कि माँ-बाप को दुख न हो। शायद कुछ समय में इलाज हो जायेगा। भस्म में छुपी आग की तरह अकेले जलती रही। हम भी कैसे माँ-बाप हैं जिन्होंने बच्ची को इतना विश्वास भी नहीं दिया कि वह निर्भय होकर अपने मन की बात कह सके ? माँ-बाप एवं समाज का भय किस तरह से बच्चों के अरमान कोल्हू में पीस डालता है।
अब तलाक के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। करवा साहब की सात पीढ़ियों में भी तलाक नहीं हुआ था। आज वे वक्त के ऐतिहासिक मोड़ पर खड़े थे। वे सोचने लगे कि जायज कारणों के होते हुए भी समाज में तलाक के प्रति कितना नकारात्मक सोच है ? समाज ऐसी लड़कियों में दोष ही ढूंढता है। घुट-घुटकर मर जाने वाली उन औरतों की क्या मनोदशा रही होगी जिन्होंने परिवार की प्रतिष्ठा के लिए अपने कलेजों को खाक कर डाला ? जीने की स्वायत्तता हर एक को क्यों न मिले ? वह सुबह कब होगी जब तलाकशुदा बेटियों के प्रति समाज में सम्मान की स्थिति बनेगी ? कब इन साहसी वारांगनाओं को समाज आदर देना सीखेगा ? करवा साहब के मस्तिष्क में भावनाओं का तेज ज्वार उमड़ रहा था। कड़े दिल से उन्होंने दिव्या के तलाक का निर्णय लिया। तभी शिखा हाथ में सामान लिये घर में प्रविष्ट हुयी। माँ को देखकर दिव्या वहाँ से चली गयी। करवा साहब ने पत्नी को माजरा समझाया। क्षणभर के लिये शिखा के हाथ-पाँव सुन्न हो गये। लगा कोई क्रूर दानव तेजी से उसकी सारी शक्तियां सोख रहा है। उसने करवा साहब को कुछ कहने का प्रयास किया पर शब्द गले में अटक गये। मन बधिर हो तो जिह्वा निसंवाद हो जाती है।
अब माँ-बेटी कमरे में स्तब्ध बैठे थे। कमरे में कुछ पल के लिये सन्नाटे तैर गये थे। नियति कितनी निष्ठुर है, भावी कितनी प्रबल है। क्या ललाट पर लिखी रेखाओं को कोई नहीं मिटा सकता ?
रात दिव्या कमरे में अकेली थी। हृदय सुलग रहा था। भाग्य के बवण्डर ने उसके जीवन में खुशियों का एक पर्ण भी नहीं छोड़ा था। हृदय के पुष्पों से जिस देवता की पूजा की, उसी ने दुख के अग्निकुण्ड में डाल दिया। विचारों के वर्तुल उसे चक्रव्यूह की तरह घेरकर खड़े हो गये। क्या मेरे जीवन की यही नियति है ? जीवन का क्या केवल यही नियम है कि दुःख तो इंसान पल-पल भोगे पर सुख का मृगमरीचिका की तरह मात्र भ्रम हो ? कितने अरमानों से पापा-मम्मी ने मेरा विवाह किया ? अब तलाक के बाद उनकी मनोदशा क्या होगी ? समाज में जितने मुँह उतनी बातें हैं ? क्या समाज इस सच्चाई को गले उतार लेगा ? नरेश एवं उसके पिता समाज के प्रतिष्ठित उद्यमी हैं, क्या वे अपने डिफेन्स में अन्य कुतर्क नहीं जुटायेंगे ? क्या मैं और मेरा परिवार उन लांछनों से बच पायेगा ? लोग पापा-मम्मी पर छींटाकशी करेंगे, उन पर क्या गुजरेगी ? मेरेे निर्दोष माता-पिता के पास तब क्या उत्तर होगा ? तलाक क्या सरल है ? प्रतिपक्ष ठान ले तो तलाक लेने में जूतियाँ घिस जाती हैं। वकील और जज किस तरह से जिरह करते हैं ? कदाचित मिल भी गया तो पुनर्विवाह में कितनी तकलीफें होंगी ? हर व्यक्ति तलाक का कारण अवश्य जानना चाहेगा ? उन कारणों को बताते समय उसकी क्या मनोदशा होगी ? कितनी जग हंसाई होगी। मेरी शादी के खर्च की रकम जोड़ने के लिये पापा-मम्मी पिछले पाँच साल से लगे हुए थे। तब तो उनके मन में उत्साह था पर अब निरुत्साह वे पुनः रकम कैसे जुटायेंगे ? मुझ अभागी की वजह से क्या निर्दोष माता-पिता को इतना कष्ट उठाना होगा ? नहीं! मैं अपने माता-पिता को इस नरक में नहीं धकेलूंगी ?
वह भादो की अमावस्या थी। दुनियाँ में मचे अंधेर की तरह बाहर अंधेरे का साम्राज्य था। आसमान में काली घटाएं उमड़ी थी। बिजलियाँ रह-रहकर कौंध जाती थी। ऐसा लगता था मानो यमराज नियति का दण्ड हाथ में लिये क्रूर अट्टहास कर रहा हो।
अगली सुबह करवा साहब के घर शोक का ताण्डव मचा था।
रात दिव्या ने नींद की गोलियाँ खाकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी।
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05.09.2003