प्रिय बहू,
सदा सुखी रहो !
सर्वप्रथम मैं मेरे पुत्र से तुम्हारी सगाई होने के उपलक्ष में तुम्हें बधाई देता हूँ। हमारे मित्र-रिश्तेदारों से भी हमें इन दिनों निरन्तर बधाइयाँ मिल रही हैं। घर-परिवार सभी के मन इन दिनों उमंग से भरे हैं। बच्चे-बूढ़े सभी अपने-अपने प्रोग्राम सेट करने में लगे हैं। कल ही मेरी बहन यानी तुम्हारी फूफी सास यहां होकर गई थी। कह रही थी, भाई साहब! वर्षों बाद हमारे घर में विवाह हो रहा है, खूब धूम मचेगी। उसके बेटे-पोतों तक सभी ने तीन माह बाद यहां आने की तैयारी कर ली है। मैंने भी सभी मित्र-रिश्तेदारों को आगाह कर दिया है, कोई बहाना नहीं चलेगा, सभी अग्रिम रिजर्वेशन एवं छुट्टियों की व्यवस्था कर लें।
तुम्हारी सगाई होने के बाद एकाएक मुझे लगने लगा है कि मैं अधिक जिम्मेदार हो गया हूँ। मेरा कद कुछ बढ़ गया है। मेरी कुछ आदतों पर भी अंकुश लगाने का प्रयास कर रहा हूँ। कल सुबह दाढ़ी बनाते हुए एक गीत गुनगुना रहा था। आवाज कुछ तेज थी। तभी तुम्हारी सास ने रसोई से आकर टोका, सुधर जाओ, घर में बहू आ रही है। मैंने निबाह लिया लेकिन आगे ऐसा नहीं चलेगा। अब हर कार्य तोल-मोल कर किया करो – क्या बोलना है, क्या पहनना है, कैसे व्यवहार करना है आदि-आदि। अभी से समझ लो तो अच्छा है। खुद की इज्जत खुद के हाथ होती है। फिर बहू सामने बोले तो मुझे न कहना। यकायक मैं सहम गया हूँ। बहू! क्या उसकी बात उचित है? बेटी के होते हुए जब मैंने ऐसा नहीं सोचा तो बहू के आने पर ऐसा क्यों सोचूँ? मुझसे यह बनावटीपन न हो सकेगा। घर में भी क्या आदमी बंद होकर जी सकता है?
तुम्हें पता ही है तुम्हारी ननद का विवाह चार वर्ष पहले हुआ था। वो जब तक यहाँ थी, घर में रौनक थी। सारा दिन चिड़िया की तरह फुदकती रहती थी। मम्मी आज यह बनाना है, वह बनाना है आज यहाँ जाएंगे, वहाँ जाएंगे। भला किसकी जुर्रत थी कि उसे मना करे। मैं उसे कुछ अधिक शह देता था अतः मां को कम गांठती थी। उसकी मां का प्रशासन कुछ कठोर है। कहती है, हर काम परफेक्ट, सिस्टम से होना चाहिए। अनुशासनहीनता उसे जरा भी बर्दाश्त नहीं। लेकिन मैं तुम्हें राज़ की बात बताऊँ वह मात्र ऊपर से कठोर है, भीतर से मक्खन की तरह कोमल है। बस, थोड़ी-सी प्रशंसा कर दो यूं पिघल जाती है। वह अपनी मां की प्रशंसा कर उसे खूब मूर्ख बनाती थी। जब काम करने का मूड नहीं होता तो सिर दुखने का बहाना बना लेती अथवा मम्मी, तुम्हारे हाथ का खाना बहुत अच्छा बनता है आदि-आदि खुशामद भरी बातें कहकर काम से गोत मार लेती। बहू, जिस दिन तुम भी हमारे घर में ऐसी हरकतें करने का सहज साहस बटोर सकोगी, मैं समझूंगा घर में बेटी ही आई है। मैं तुम्हें वे सारे अधिकार, सारी माफ़ियां देना चाहता हूँ जो मैं सहज ही मेरी पुत्री को दे दिया करता था। मुझे उन सासुओं से कोफ्त है जो अपनी बेटियों के तो बड़े से बड़े गुनाह माफ कर देती हैं लेकिन बहू की छोटी-मोटी गलतियों पर भी टोका-टोकी करती है। ताने मारने वाली सासुएं तो मुझे जरा भी नहीं सुहाती। ऐसी सासुएं खुद अपनी क़ब्र खोदती हैं। वे इतना भी नहीं समझती कि जो बच्ची अपने पिता के घर से मात्र आपके विश्वास का अवलंब लिए सर्वस्व त्याग कर चली आती है, उसके प्रति कितना स्नेहिल व्यवहार होना चाहिए। लेकिन तुम निःसंकोच रहना। हमारे घर में ऐसा हरगिज नहीं होगा। तुम्हें वही स्वायत्तता, सहजता एवं स्वाधीनता मिलेगी जो हमने हमारी पुत्री को दी थी।
मेरी पुत्री तुम्हारे आगमन की आतुरता से प्रतीक्षा कर रही है। इन दिनों जब भी आती है, घण्टों मां से बतियाती है। मम्मी, भाभी के लिए इस डिजाइन का गहना ठीक रहेगा, उस डिजाइन का ठीक रहेगा, वो ड्रेस ठीक रहेगी, वो साड़ियाँ अच्छी लगेंगी और जाने क्या-क्या। अपने भैया को भी बार-बार छेड़ती रहती है, भाभी को हनीमून पर कहां ले जा रहे हो? कम से कम वहां खर्चे में कंजूसी मत करना। कमी पड़े तो मुझसे ले लेना। यह समय बार-बार नहीं आने वाला। उसे क्या पता वह तो पहले से चार कदम आगे है। सगाई के चार रोज बाद ही उसने श्रीनगर के हवाई टिकट बनवा लिए थे। पूरा घाघ है अंत तक अपनी बहन को नहीं बताएगा।
तुम्हारी सास का सारा समय इन दिनों विवाह की तैयारियों में व्यतीत होता है। कल ही कह रही थी लाॅकर खोलकर मेरा सोना ले आओ, उसे तुड़वाकर यह बना लूंगी वह बना लूंगी और जाने क्या-क्या! मैंने जब कहा कि हमारी बहू पढ़ी-लिखी है, उसे गहनों से दरकार नहीं होगी तो पास आकर कहती है, बुद्धू! इस जगत में ऐसी कोई औरत पैदा नहीं हुई जो गहनों से प्यार नहीं करती। जेवर औरत की आंखों की चमक दो गुना कर देते हैं। क्या यह बात सही है ? मैं तो सोचता हूँ बहू खुद गहना है। भला गहने पर कौन-सा गहना फबता है ?
बहू! बेटी के विवाह के पश्चात् इस घर में एक विचित्र खालीपन आ गया है। बड़े बुजुर्ग ठीक ही कह गए हैं कि घर की रौनक तो बेटियों से होती है। अब तो दीवारें भी काटने लगी हैं। सभी मानो बैरी हो गए हैं। सुबह-सुबह अखबार पढ़ता हूँ तो गिलहरी सामने सोफे के ऊपर तक चढ़ आती है। पहले तो अपने दोनों दांत दिखाकर मुझे चिढ़ाती है, फिर रोष में भरकर कहती है, ‘बेटी को ससुराल क्यों भेजा ? अब मैं किसके साथ खेलूँ ? वह थी तो मैं भी फुदकती रहती थी। कितनी बार उसके पाँवों से चढ़कर उसके कंधे पर बैठ जाती थी। तब वह कैसे प्रेम से मुझे रोटी का टुकड़ा देती थी। अब तो रोटी में स्वाद ही नहीं रहा। तुम आदम जात भी कमाल के हो, पहले तो बेटियों से लाड-प्यार करते हो फिर विदा कर देते हो। ऐसा क्या खा लेती थी तुम्हारा? वो थी तो सखी-सहेलियों से घर भरा रहता था। तुम ऑफिस जाते तब सभी यहां तरह-तरह के नृत्य किया करती थी। कितनी चुहलबाजियाँ, कितनी खिलखिलाहटों से घर खनकता रहता था। अब तो तुम्हारा घर मरघट लगता है। तुम्ही बताओ बहू, अब भला मैं इस ताने मारती गिलहरी को क्या जवाब दूं? कैसे समझाऊं कि बेटियां पराया धन होती है! भला किसी बाप का दर्द वह क्या समझे कि वह अपने जिगर का टुकड़ा किसी को सौंपता है। मैं कर ही क्या सकता था, इस निष्ठुर समाज के यही नियम हैं। मैं भीड़ में अकेला तो नहीं खड़ा हो सकता।
सुबह कबूतरों को दाना डालने जाता हूँ तो कई कबूतर मेरे पांव पर चोंच मार देते हैं, मानो वे भी पूछ रहे हों, बिटिया को दूर क्यों भेज दिया ? अब भुगतो सज़ा। वह थी तो कितना प्रेम से दाना डालती थी। दाना भी बीनकर लाती थी। तुम तो कुछ भी नहीं देखते। अब तो सावन भी आ गया, बुलाते क्यों नहीं उसे ? तुम्हें याद नहीं आती उसकी ? तब तो बेटी-बेटी कहकर आगे पीछे डोलते रहते थे, अब क्या हो गया ? जल्दी बुलाओ उसे। एक बार फिर हम उसके ऊपर उड़कर हमारे पंखों की हवा देना चाहते हैं। तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि ऐसा करने से बच्चों को नज़र नहीं लगती।
कबूतर ही नहीं घर का कुत्ता टाॅमी भी उसके जाने के बाद पूंछ दबाये चुपचाप कोने में पड़ा रहता है। मैं जब उसकी प्लेट में ब्रेड रखता हूँ तो ऐसे देखता है जैसे फाड़ खाएगा। ब्रेड क्या खाता है मानो मुझ पर एहसान कर रहा हो। और इस गौरी गाय की सुनो। पहले दरवाजे पर रोटी खाने आती तो देर तक खड़ी रहती मानो बिटिया को जी भर देखना चाहती हो। वह भी तो उसकी गर्दन पर हाथ फेर-फेर कर जाने क्या बतियाती रहती थी। इन दिनों गौरी को रोटी देने मैं ही जाता हूँ। पहले तो कई देर तक रोटी ही नहीं लेती, बस गर्दन ऊपर कर खड़ी हो जाती हैं। मैं गर्दन सहलाता हूँ तब रोटी तो खा लेती है पर खाते-खाते अपनी बड़ी-बड़ी आंखों में रोष भर कर ऐसे देखती है मानो कह रही हो, हिम्मत हो तो बाहर आओ, सींग न घुसा दूं तो गौरी मत कहना। एक बिटिया थी उसे भी विदा कर दिया। इतना ही नहीं सुबह बगीचे में पानी देते हुए गुलाब की टहनी भी कई बार कांटो से मेरे वस्त्र पकड़ लेती है मानो वह भी उसकी अनुपस्थिति की शिकायत दर्ज करवाना चाहती हो। पहले बगीचे में पानी भी तो वही देती थी।
बहू! तुम्हें क्या बताऊं! पेड़ पर बैठी कोयल की आवाज भी अब उतनी मीठी नहीं लगती। उसके जैसी मीठी बोलने वाली तो उसे दिखती नहीं। वह किससे प्रतिस्पर्धा करे? बहू! तुम सोच सकती हो जब अबोले जानवरों एवम् जड़ पेड़-पोधों का यह आलम है तो उसके बिना हमारी क्या दशा होगी ? शायद तुम्हारे आने से इन सबका रोष दूर हो जाए।
बहू! तुम्हें एक राज की बात बताऊं! मेरा पुत्र इन दिनों अजीब-सी मनःस्थिति में रहता है। हर समय तुम्हारे ही फोन को तकता रहता है। परसों तुमने उसे फोन क्यों नहीं किया ? मुझ पर चिड़चिड़ा रहा था। यह कैसी बात है फोन तुम न करो और क्रोध मैं झेलूं। दूसरे दिन तुम्हारा फोन आया तो दिनभर चहकता रहा। आजकल वो अक्सर शून्य में ताकता रहता है। इतना दार्शनिक मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा।
बहू! तुम्हारे पिता को इन दिनों मैं अक्सर व्यस्त देखता हूँ। क्यों न हो उन्हें तुम्हारा ब्याह जो निपटाना है। तुम उन्हें समझाती क्यों नहीं कि हमें दहेज की जरा भी दरकार नहीं है। वे लोग कितने मूर्ख होते हैं जो दहेज मांगते हैं। मनुष्यता को लज्जित करते हुए क्या उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती। अपने पिता को कहना कि वो तो पहले ही एक महान दान कन्यादान कर रहे हैं। मैं तो उनका याचक हूँ। याचक की आंखें तो वैसे ही नत होती है। वे दहेज देकर हमें और शर्मिंदा न करें।
बहू! एक बात और मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ। मेरी जरा भी इच्छा नहीं है कि तुम्हें ऐसी बातें कहकर तुम्हारे मन में किंचित् संदेह पैदा करूं। लेकिन जमाने की हवा मुझे ऐसा लिखने के लिए विवश कर रही है। बहू, हो सकता है कभी मैं अथवा तुम्हारी सास रोष में तुम्हें कटु शब्द कह दें। घर में रखे दो बर्तन आपस में खटक ही जाते हैं। तब तुम यही सोचकर हमारे शब्दों को बिसरा देना कि कभी-कभी तुम्हारी मां, तुम्हारे पापा अथवा पीहर के प्रियजन भी तो तुम्हें रोष में कुछ कह देते थे। उन्हें भी तो तुम कितने स्नेह से नजरअंदाज करती थी। ऐसा करके तुम दोनों कुलों की कीर्ति अक्षय कर दोगी। हम वादा करते हैं कि हम भी तुम्हारे रोष, कटु शब्द अथवा कभी-कभी हो जाने वाले बुरे मूड को वैसे ही नज़रअंदाज़ करेंगे जैसे हम हमारी बेटी का कर दिया करते थे। बहू! यह थोड़ी-सी अप्रासंगिक बात इसलिए लिख रहा हूँ कि आजकल अनेक घरों में छोटी-छोटी बातों को लेकर, पारिवारिक कलह जड़ पकड़ते जा रहे हैं। हम ऐसे कलह हमारे परिवार में प्रविष्ट ही नहीं होने देंगे। वे घर स्वर्ग हैं जहां सभी घरवाले अपने मत-मतांतरों को मिल बैठकर सुलझा लेते हैं। वे घर उन चहकते हुए घरौंदों की तरह होते हैं जहां पक्षी लड़-झगड़कर शाम पुनः साथ रहने के लिए चले आते हैं।
बहू! मै तुम्हें बताना चाहता हूँ कि रिश्तों को निबाहना भी एक कला है। मैं हमारे ही सद्ग्रंथो का सारगर्भ तुम्हें बताना चाहता हूँ कि अच्छे-बुरे भाव हम सब के भीतर समान रूप में विद्यमान होते हैं। हमारी महानता इसी में है कि हम हमारे एवं अन्यों के भीतर से कौन-सा भाव उकेर पाते हैं। मनुष्य का व्यवहार ही उसका शत्रु एवं मित्र है। कुछ स्त्रियां लगाई-बुझाई में, इधर की बात उधर करने में एवं एक दूसरे को नीचा दिखाने में पारंगत होती है, लेकिन अंततः वे अपना एवं अपने परिवारजनों का ही अनिष्ट करती हैं। ऐसी स्त्रियां प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या एवं डाह से भरी होती हैं। तुम ऐसे विध्वंसक तत्त्वों से सावधान रहना। संसार में हर प्राणी का सृजन एवं विध्वंस मूल्य होता है। तुम अपने सद्व्यवहार से सबके सृजन मूल्य को बलवती करना। इससे स्वयं तुम्हें तो सुख मिलेगा ही वे भी अंततः सुखी होकर तुम्हारी प्रशंसा करेंगे क्योंकि यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि दुनिया में अधिसंख्य लोग इसलिए दुःखी हैं कि उनको सुख के समीकरणों का ज्ञान नहीं होता। वे दुःखी इसलिए होते हैं कि उनका सुख से परिचय नहीं होता। ऐसा करने में तुम्हें भी असीम धैर्य का परिचय देना होगा क्योंकि ऐसे लोग सन्मार्ग पर आने के पूर्व अनेक व्यवधान उपस्थित करते हैं। लेकिन तुम इससे किंचित् विचलित नहीं होना क्योंकि संसार के सत्पुरुष उस चन्द्रमा की तरह होते हैं जो ग्रहण लगाने वाले राहू को भी अमृतदान ही करते हैं।
बहू! दुनिया मे ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जो दूसरों के घर में सरफुटव्वल करवाने में माहिर होते हैं। वे इसी में अपने जीवन की इति समझते हैं। तुम ऐसे लोगों से दूर रहना क्योंकि असामंजस्य की एक चिंगारी घर के सम्पूर्ण सुख को दावानल की तरह जला देती है। इस बात को सदैव याद रखना कि स्त्रियां धरती होती हैं। क्षमा, सहनशीलता एवं सहिष्णुता के गुण उनमें सहज रूप से विद्यमान होते हैं। स्त्रियों में इसी गुण की प्रचुरता के कारण विद्वद्जनों ने नारी को नारायणी नाम दिया है। तुम बिखरे तिनकों को समेटने की कोशिश करना। तुम्हें वह कहावत तो याद ही होगी कि ‘बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो फिर खाक की।’ तुम्हारी दादी सास इस कहावत को इस प्रकार कहती थी- बंधी बुहारी लाख की, खुल्ली बिखर जाय। बहू! इन कहावतों में जीवन के गूढ़ अनुभव एवं सारगर्भित अर्थ छिपे हैं।
बहू! हो सकता हैं कभी-कभी तुम्हारा मेरे पुत्र से भी मत-मतांतर हो जाए। ऐसा होना स्वाभाविक है। वे पति-पत्नी ही क्या जिनमें कभी मनमुटाव न हो। जैसे कोई भी भाजी छौंक से ही अच्छी बनती हैं, रिश्ते भी अंततः नोक-झोंक की छौंक से ही मधुर बनते हैं। समय के अंतराल में यह बातें वैसे ही समाप्त हो जाती हैं जैसे हवा बादलों को उड़ा ले जाती हैं। सद्भाव एवं आपसी विश्वास दाम्पत्य संबंधों का प्राण है। किसी भी रिश्ते को पूर्णता से गाह्य करने के लिए उस रिश्ते को समग्रता में जीना होता है। एक दूसरे के गुणों से प्रभावित होकर अगर हम पति-पत्नी बनते हैं फिर एक दूसरे की कमजोरियों के प्रति भी हम ग्राह्यता क्यों न पैदा करें। गुलाब पाने के लिए हमें उसके कांटों की चुभन भी झेलनी होगी। बहू! विनम्रता मनुष्य का सर्वोपरि गुण है। कहते हैं फल से लदी डाली नीचे की ओर झुकती है।
बहू! अनेक स्त्रियों को मैंने व्यंग्यपूर्ण वार्तालाप कर आग लगाते हुए भी देखा है। महाभारत का भीषण युद्व द्रौपदी द्वारा दुर्योधन को कहे कटुवचनों की ही परिणति था। कहते हैं तलवार के घाव भर जाते हैं पर दुर्वचनों के घाव नहीं भरते। इंसान को सर्वथा तोल-मोल कर बोलना चाहिए। अनेक बार हंसी की खसी हो जाती है। मीठी वाणी रिश्तों में शहद का कार्य करती है। अगर कोई ऐसी परिस्थिति आ जाए जहां बोलने से विघ्न उपस्थित होने की संभावना बनती हो, वहां मौन का आश्रय लेना। तुम तो जानती हो एक चुप सौ को हराता है।
बहू! आजकल नई पीढ़ी पैसे की तरफ बेतहाशा भाग रही है। सभी रातों-रात धनपति बनना चाहते हैं। युवक हथेली पर सरसों उगाना चाहते हैं। तुम मेरे पुत्र को समझाना कि लोभ पाप का मूल है। सबका अंत होता है लेकिन इच्छाओं का अंत नहीं होता। संतों ने ठीक ही कहा है कि समस्त प्रकार की धन-सम्पदा मिलने के पश्चात् भी अगर संतोषरूपी धन न मिलें तो सारा धन धूल के समान व्यर्थ है। हम अर्थार्जन करते हुए उन जीवन मूल्यों से समझौता न करें जो हमारी थाती है। हम धैर्य रखें अंततः सबको अपने हिस्से का धन मिल जाता है। सब्र की डाल पर मेवा लगता है। धर्नाजन करते हुए हम उन लक्ष्मण रेखाओं का अवश्य ध्यान रखें जो हमारी सभ्यताओं, संस्कृतियों एवं समाज ने समय-समय पर खींची है। पाप की कमाई से घर नहीं भरता। कहते हैं पाप का घड़ा अवश्य फूटता है। बदी का सर भला कब ऊंचा हुआ है? हमारे सद्विचार कस्तूरी की गंध की तरह स्वयं को तो सुख देते ही हैं दूसरों को भी सुगंध से आप्लावित कर देते हैं।
बहू! जीवन में ऐसे दिन भी आते हैं जब मनुष्य पूर्णतः असहाय हो जाता है। ऐसे समय में कोई रास्ता नहीं दिखाई देता, सर्वत्र अंधकार ही दृष्टिगत होता है। लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि दुःख परमात्मा की टेस्ट-मशीन है। दुःख की भट्टी में तपाकर ही वह हमें निखारता है। मनुष्य के ज्ञान, विज्ञान एवं अनुभव की तलवार दुःख की सान पर ही तेज होती है। ऐसे दुर्दिनों में हिम्मत, हौसला एवं प्रभुनाम का अवलम्ब बनाये रखना। अपने अनुभवों के आधार पर मैं निश्चय ही कहता हूँ कि सुःख दुःख के पीछे खड़ा होता है। उजाला अंधेरे के गर्भ से ही प्रकट होता है। तुम किंचित् विचलित नहीं होना क्योंकि घने काले बादलों से बाहर आने वाला सूर्य अधिक प्रकाशमान होता है।
बहू! ‘अतिथि देवो भव’ हमारा पुरातन उद्घोष है। कहते हैं जिस घर से अतिथि रूठकर चला जाता है वहां से सुख एवं लक्ष्मी भी प्रयाण कर लेती है। अतिथि ही नहीं हमारे वेदवाक्यों ने तो पड़ोसी की व्यथा को भी अपनी व्यथा कहा है। जो पड़ोसी के घर मे लगी आग को तमाशबीनों की तरह देखते हैं, उन्हीं लपटों से एक दिन उनका घर जलना भी तय है।
श्रम, संगति एवं सद्साहित्य के पठन एवं मनन आदि दिव्य गुणों का महत्त्व मैं तुम्हें बताना न भूल जाऊँ। कर्म का सि़द्धांत हमारा प्राण है। अनवरत एवं कठोर परिश्रम से असाध्य कार्य भी सिद्व होते हैं। कहते हैं परमात्मा उनकी मदद करते हैं जो स्वयं अपनी मदद करते हैं। बिना कष्ट उठाये देव भी सहाय नहीं होते। स्मरण रखना कि परिश्रम की सूखी रोटी बेईमानी की चुपड़ी रोटी से सौ गुना सुखकर है।
बहू! सत्संगति सुःख एवं सौभाग्य की जड़ है। बुरी सोहबत हमारे सारे यश को धूमिल कर देती है। आजकल नशाखोरी, रिश्वतखोरी, यौनिक दुराचार आदि आदतें आम हो रही हैं। तुम अपने पति एवं संतति को इन आदतों एवं ऐसे लोगों की संगति से सर्वथा बचाये रखना। संगति मनुष्य को सर्वाधिक प्रभावित करती है। रास्ते की धूल भी पवन की उच्चतर संगति लेकर आसमान तक चढ़ जाती है लेकिन वही धूल नीचे पड़े पानी की संगति लेकर कीचड़ बनती है। बहू! सत्संगति को साधने में सत्साहित्य का पठन एवं मनन अहम् भूमिका अदा करता है। साहित्य सभ्य समाज की आत्मा है। अगर हमें हमारी आत्मा को बल देना है तो पुस्तकों से अच्छा कोई मित्र नहीं हो सकता।
बहू! जीवन मे बचत का भी परम महत्व हैं। तुम बुरे दिनों के लिए भी कुछ बचाकर अवश्य रखना क्योंकि नीति-निपुण लोग कह गए हैं कि बुरे दिनों में धन निकटस्थ मित्र होता है। तंगी में कोई संगी नहीं होता। अगर सौभाग्य एवं प्रभुकृपा से धन विपुल मात्रा मे आ जाए तो परोपकार एवं लोकोपयोगी कार्यो में भी उसका अवश्य विसर्जन करना क्योंकि तिजोरियों मे रखा धन उस घट-दीप की तरह होता है जिसका प्रकाश सर्वत्र नहीं फैलता। बहू! यह सब मेरे अनुभवों का निचोड़ है जिसे तुम्हें बताना मैं अपना परम धर्म समझता हूँ।
बहू! वृद्वावस्था में इंसान अक्सर लौटने लगता है। इसीलिए विद्वद्जन इसे बचपन की पुनरावृति कहते हैं। मेरे मन में भी इन दिनों अजीब-सी भावनाएं अंकुरित होने लगी हैं। सोचता हूँ कुछ समय पश्चात् हमारे पोते-पोती हो जाएंगे। कितना आनंद आएगा जब वे मेरी पीठ पर सवारी कर वही शब्द दोहराएंगे जो कभी मैं अपने दादा की पीठ पर सवारी कर कहता था…..चल मेरे घोड़े टिक्-टिक्-टिक्…..। तब तुम उन्हें जरा भी नहीं टोकना क्योंकि वृद्धों के लिए यह सुख स्वर्ग से भी बढ़कर होते हैं।
बहू! तुम्हारी सास भी अब बूढ़ी हो चली है। वह भी अब थकने लगी है। तुम्हें चाबियाँ सौंपकर मुक्त होना चाहती है। इस अवस्था में मनुष्य का भक्ति-भाव शिखर पर होता है। अब तक तो उसने नहीं कहा, कहती भी कैसे, गृहस्थी के जंजाल में उसे समय ही कब मिला, पर हाँ, इन दिनों अक्सर कहने लगी है – बहू के हनीमून से लौटने के बाद हम तीर्थाटन पर चलेंगे। शायद उसे कुछ मन्नतें मांगनी हैं।
अब और क्या लिखूँ एवं क्या कहूँ? बस, चली आओ बहू कि इन बूढ़ी हड्डियों से अब गृहस्थी का बोझ नहीं उठता। चली आओ कि तुम्हारी सास तीर्थाटन पर जाने को विकल है। मेरे पुत्र की विरहाग्नि बुझाने के लिए सावन की फुहार बनकर चली आओ। चली आओ कि घर-मोहल्ले के अबोले पशु-पक्षी-पौधे तुम्हारी वाट देख रहे हैं। सोन चिरैया! तुम्हारे इंतजार में सबकी नजरें बिछी हैं। बरखा रानी की तरह छम-छम करती, लक्ष्मी की तरह कुंकुम-पांव भरती, मेरे घर-आंगन में खुशियों की बहार बिखेरती अब चली ही आओ!
शुभाशीष।
पितृवत
तुम्हारा श्वसुर
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03.11.2008