अरुण सहगल धन को ऐसे सेते थे जैसे मुर्गी अण्डों को। पैसा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारा था। रिटायर हुए पच्चीस वर्ष हो गए, सरकार पेंशन देते-देते थक गई, चेहरा झुर्रियों से भर गया, दाँत कब के गिर गए, आँतें जवाब दे गई, शरीर काँपने लग गया पर बुड्ढा मरता न था। उसके प्राण माया में अटके थे। मोक्ष यात्रा के मार्ग में माया अवरोध बनकर खड़ी थी, धन की फाँस में बुड्ढे के प्राण फँसे थे। किंवदंती है कि ऊँट सूई के छेद में से निकल सकता है पर कंजूस धनवान स्वर्ग के द्वार में प्रविष्ट नहीं हो सकता। जिसकी पेटी भारी है वह भवसागर कैसे पार उतरेगा ?
अरुण सहगल की हैसियत करोड़पति से कम न थी। खुद के नाम चार मकान थे, सबका किराया वही वसूलता। शहर में यहाँ-वहाँ कितने ही प्लाॅट्स खरीद रखे थे। अल्मीरा में न जाने कितने बाॅण्ड्स, रोकड़ प्रमाण पत्र, सावधि जमाएँ, बैंक एवं पोस्ट ऑफिस की पास बुकें रखी थी। बुड्ढा हर सप्ताह सभी जमा प्रपत्रों को निकालकर देखता, उनका उपार्जित मूूल्य निकालता, सूची चैक करता, अपना कलेजा ठण्डा करता फिर पुनः सभी प्रपत्रों, लाॅकर्स की चाबियों आदि को अल्मीरा में रख देता। अल्मीरा की चाबी वह किसी हालत में अपने बच्चों, यहाँ तक कि अपनी पत्नी तक को नहीं देता। चाबी हर हाल में नित्य तकिये के नीचे रखकर सोता। जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा के बढ़ने के साथ-साथ समुद्र का ज्वार और उछाल लेने लगता है, धन के बढ़ने के साथ-साथ अरुण सहगल की आँखों की चमक बढ़ती जाती। इसी के चलते लक्ष्मी दिन पर दिन बढ़ने लगी। धन का निरादर करने वाले यहाँ तक कि संतोषी व्यक्ति के पास भी लक्ष्मी अधिक समय नहीं ठहरती, पर धन को यूँ पलकों पर रखने वाले के घर को लक्ष्मी कैसे छोड़ सकती है। सम्मान मिलने वाले घर में सभी ठहरना पसंद करते हैं।
अरुण सहगल का परिवार अब वटवृक्ष की तरह फैला था। पत्नी अनुपमा, तीन बेटे-बहू, सात पौत्र एवं पौत्री, दो लड़कियाँ-दामाद एवं पीछे चार नाती-नातिन। बड़ा लड़का अट्ठावन, मँझला पचपन एवं तीसरा पचास वर्ष का, तीनों इसी शहर में नौकरी करते थे। दो अध्यापक थे व एक रेलवे में बाबू था, सभी की आर्थिक स्थिति कामचलाऊ थी। तीनों पुत्रों की बाप के धन पर गिद्धदृष्टि थी। लड़कियाँ लोमड़ियों की तरह पंजे दबाये बैठी थी। वर्षों से बाप का धन हड़पने की योजना बनाते आ रहे थे, एक से एक नई तदबीर बिठाते पर बुड्ढा एक धेला भी नहीं देता था। सभी एक घर में रहते थे, बारी-बारी से घर चलाते, यहाँ तक की माँ-बाप का खर्चा भी वही वहन करते थे। अरुण सहगल एवं बच्चों के बीच धन के बंटवारे को लेकर कई बार देवासुर संग्राम हुए, पर बुड्ढे की रीढ़ में ऋषि दधीचि की हड्डियाँ लगी थी, हर बार उसी की जीत हुई। पत्नी, बच्चे, बहुएँ, बेटियाँ, नाती-पोते सभी ताने मारते पर बुड्ढा अडिग था, किसी को अपना धन न देता था। अंततः सबने सर पीट लिया, थककर हथियार डाल दिए पर बुड्ढा टस से मस नही हुआ।
सभी प्रत्यक्ष में तो धन के लोभ से बुड्ढे को आदर देते पर परोक्ष में यमराज से बुड्ढे को उठाने की ही प्रार्थना करते। गत बीस वर्षों में चार-पाँच बार वह मृत्यु के मुख से निकला। पिछली बार तो डाॅक्टरों ने यहां तक कह दिया कि सहगल साहब एक दो रोज के मेहमान है, पर उनके पुराने मित्र हकीम कादर भाई ने जाने कौन सी स्वर्ण-भस्म खिलाई कि बुड्ढे की आँखों में फिर नूर आ गया। आंखे खोलते ही उसने अल्मीरा की तरफ देखा,चेतना फिर स्फूर्त हो गई। बुड्ढे के शरीर में माया ने पुनः प्राण फूँक दिए। थोड़े दिनों में बुड्ढा फिर पहले जैसा स्वस्थ हो गया। अब बच्चों के प्राण सूखने लगे।
अरुण सहगल ने रुपया यूं ही नहीं जोड़ लिया था। चातुर्य एवं जोड़-तोड़ का एक लम्बा इतिहास है इसके पीछे। पैसा यूँ ही थोड़े जुड़ता है। पानी को मथने से घी नहीं निकलता। वह अपने पिता का एकमात्र पुत्र था, पिता के आँख मूंदते ही सारी पैतृक संपत्ति का एकमात्र वारिस बना। हालांकि पिता ने कोई विशेष सम्पत्ति नहीं छोड़ी थी पर उसने सार-संभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। धन को छाती से लगाकर रखता था। शहर के पास ही छोटे से गाँव में पटवारी था, किसानों को ऐसा बेवकूफ बनाता कि सभी कुछ न कुछ नजर करके ही जाते। जो पैसा नहीं दे सकते थे उनसे घी, तेल, अथवा गेहूँ आदि मुफ्त में लेता। कानून की ऐसी पेचीदगियाँ बताता कि काश्तकार का खून सूख जाता। उसके सामने तो सभी हाथ जोड़े खड़े रहते पर पीठ फेरते ही उस पर थूकते। लोभी को यश एवं भिखारी को मान कैसे मिल सकता है ?
बच्चों को भी सारी उम्र सरकारी स्कूल में ही भेजा। वहाँ भी जैसे-तैसे प्रमाण पत्र देकर फीस माफ करवा देता। बच्चे हाथ-खर्ची को तरसते रहते, आज मांगते तो तीसरे दिन तक देता। पूरी सेवा करवाता, बच्चे चक्करघिन्नी की तरह घूमते रहते। पत्नी हमेशा पीहर की साड़ियां ही पहनती रही, पति के उपहारों को तो सारा जीवन तरस गया। खरीददारी की कला में वह पारंगत था। उसका रुपया सवा रुपये में चलता। सब्जी वाले, किराने वाले तक से इतनी बहस करता कि सब कुछ न कुछ भाव कम कर ही देते। सोचते बला टली। एक बुरा ग्राहक दस अच्छे ग्राहकों को खराब करता है। हर चीज दस दुकान घूमकर लाता। वैसे तो उसके मित्र थे ही नहीं पर यदा-कदा परिचित,रिश्तेदारों के साथ भी होता तो जेब को हवा नहीं लगने देता। जेब से पैसा निकालने में वह अप्रतिम धैर्य एवं सूझबूझ का परिचय देता। उसका मन तो सदैव दो दूनी चार में ही लगा रहता।
उसकी आदतें भी वैसी ही बन गई। सारे वर्ष एक दो ड्रेस में काम चला लेता, एक ड्रेस को सप्ताह भर तक पहनता। जूते अंतिम दम तक पहनता, एक जोड़ी दस वर्ष तो चलती ही। सहगल साहब के उपानहु, उम्र कैद की सजा के साथ आते। सिर के बाल भी होली-दिवाली ही कटवाता। उसे देखते ही नाई समझ जाते कोई नया त्यौहार आने वाला है या सहगल साहब के घर कोई उत्सव है। निनानवे का फेर उसकी सांसों में बसा था। यहाँ जमीन खरीदता, वहाँ बेचता। पूरे शहर की बैंकों की ब्याज दरें उसे कण्ठस्थ होती, मजाल है कि कम ब्याज दर पर उसका रुपया विनियोजित हो जाए। लोग ठीक कहते हैं, हर व्यक्ति धन को नहीं भोग सकता। धन के विसर्जन में ताकत चाहिए, जीवन का स्पष्ट दर्शन चाहिए। इसलिए कुछ लोगों के जीवन में सिर्फ धन का योग होता है, भोग नहीं। ऐसे लोग दरिद्र लोगों से भी बदतर होते हैं। संसार में असंख्य ‘धनी दरिद्र’ हैं।
पूरा परिवार अरुण सहगल के इस व्यवहार से परेशान था। विद्रोह अब चरम पर था। विद्रोह का प्रथम बिगुल बड़े पुत्र रामचरण की पत्नी निर्मला ने बजाया। पिता ने तो अच्छा घर देखकर ही ब्याह किया था पर यहां तो मौज-मस्ती में रहना आसमान से दूध दुहने जैसा था। क्या-क्या अरमान और स्वप्न लेकर ससुराल आई थी पर यहां तो सारा यौवन पतझड़ की तरह बीत गया। रोटियाँ बेलते-बेलते एवं आँगन धोते-धोते अंगुलियाँ घिस गई पर मजाल बुड्ढा कोई महरी रख ले। हमेशा एक ही बात की रट लगाये रहता था, काम करोगे तो स्वस्थ रहोगे, दो पैसे बचाओगे तो काम आएंगे। कल की उम्मीद में आज बिखर गया, यौवन पीछे छूट गया। सोना इकट्ठा करने में जीवन सूना हो गया, केश रूपा हो गए।
जवानी जाकर नहीं आती, बुढ़ापा आकर नहीं जाता। का वर्षा जब कृषि सुखाने। उसका मन मर गया। मरे मन पर अमृत के घड़े भी उँडेलो तो क्या फायदा! उसका जीवन तो जैसे-तैसे बीत गया पर अब बच्चे बड़े हो गए थे। दोनों बड़े लड़कों में एक अठाईस पार था, दूसरा उससे दो वर्ष छोटा था। इनकेे पीछे बाईस साल की कुंवारी लड़की खड़ी थी। बच्चे नौकरियों के लिए मारे-मारे फिरते पर नौकरियाँ कहाँ पड़ी थी। बुड्ढा कुछ धन देता तो बच्चों को धंधे लगा देते, धंधे लगे लड़कों के विवाह भी जल्दी हो जाते हैं। बेटी भी बांस की तरह बढ़ रही थी। बुड्ढे सास- श्वसुर का बोझ और ढोओ। एक दिन गुस्से में श्वसुर से झड़प हो गई, रात बहुत रोई। इस बार पति को अंतिम चेतावनी दे दी, ‘‘अब मैं इस घर में नहीं रहूंगी।’’ मास्टर रामचरण तो हुक्म का गुलाम था, दूसरे ही दिन इस घर से दूर एक मकान किराये पर लिया एवं परिवार समेत वहीं चला गया। रिश्ते बोझ बन जाएं तो उनको ढोने की कोई जरूरत नहीं, उन्हें छोड़ देना ही बेहतर है। अपने हाथ में भी विष फैल जाए तो उसे काटना पड़ता है। मंझले भाई शिवचरण एवं तीसरे ओमप्रकाश ने भी रामचरण के पदचिन्हों का अनुगमन किया, वे भी जेल से छूटे। उन्होंने भी अपने-अपने परिवार बसा लिए। पंछी साहस के पंख लगाकर उड़ गए।
अब घर में सिर्फ अरुण सहगल एवं पत्नी अनुपमा रह गए। अनुपमा अत्यंत संवेदनशील थी। पुत्र-पौत्रों एवं बहुओं के वियोग में मुरझा गई। बेटियाँ एवं दामादों का व्यवहार भी अब दो खेमों में बटा हुआ लगता। दामाद भी अब दाँत दिखाने लगे थे। धीरे-धीरे अनुपमा भी टूट गई। अंतिम दम तक पति की सेवा की पर बूढ़ी गाय कब तक दूध देती? एक सुबह अरुण सहगल उठे तो देखा अनुपमा दम तोड़ चुकी थी। आशा का आखिरी पंछी भी उड़ गया। अंतिम संस्कार के कुछ रोज तक तो बेटे बहू साथ रहे पर बाद में सबने अपने-अपने घर की राह ली। बुड्ढे पर किसी को रहम नहीं आया।
अरुण सहगल अब घर में अकेले थे। उम्र के इस मुकाम पर भी कोई सेवा करने वाला नहीं था। कल तक चहकता घर खण्डहर हो गया, तिनका-तिनका बिखर गया। रात की नीरवता अकेलेपन में और भयानक हो जाती। जिस घर में कोई निवास नहीं करता, वहां सन्नाटे आकर बस जाते हैं। उजड़े हुए घर में उल्लू बसेरा कर लेते हैं, चमगादड़ें चीत्कार करती हैं। शीघ्र ही बुड्ढे की मिट्टी बिगड़ गई, अब वो अधिकतर बीमार रहने लगा। रात चीत्कारता रहता पर कोई सुनने वाला नहीं था। आवाज दीवारों से टकराकर लौट आती। कठोर पत्थर कुछ भी नहीं सुनते।
जिस माया की शक्ति पर बुड्ढा गर्व करता था वही जी का जंजाल बन गई। वह इधर-उधर के लोगों की दया का पात्र बन गया। वे ही उसे कभी-कभी खाना दे जाते, कभी-कभी देख जाते। अधिकतर फल-फूल, दूध पर ही गुजारा होता। धन की फाँस, फाँसी बन गई। समस्त वैभव के बीच में भी वह दरिद्र था, सागर के मध्य में प्यासा था। रह रहकर बेटे-पोतों की याद आती पर अब वो कहां थे। बुड्ढे का मन तड़फ उठा। आखिर ये संपदा किसके लिए? जिनके लिए बनाई जब वे ही छोड़ गए तो अब इसका क्या प्रयोजन? ज्ञान का नया प्रकाश उसकी आत्मा को बेध गया। माया के फंदे से मायापति ही छुड़ाता है। जो माया चराचर जगत को वश में रखती है, प्रभु की दासी है।
अगले दिन अरुण सहगल ने अपने पूरे परिवार को बुलाया। बेटे-बहू, बेटियाँ-दामाद, नाती-पोते सभी उपस्थित थे। एक वकील एवं दो गवाहों की उपस्थिति में उसने अपनी ‘अंतिम इच्छा प्रपत्र’ लिखवाया एवं समस्त सम्पत्ति अपने बच्चों में बाँट दी। सबका मुँह मोतियों से भर गया। अब सबको अपने स्वप्न फलित होते नजर आ रहे थे। सबकी आंखें एक नये प्रकाश से चमक रही थी। कौड़ी कौड़ी को दांतों से पकड़ने वाले ने एक कौड़ी भी अपने लिए नहीं रखी। बच्चों के हाथों में चाबियाँ सौंपने के बाद वह भार-विहीन हो गया। इतना खुश वह पहले कभी नहीं दिखा। पिंजरे के बाहर आकर पंछी अब अनंत आसमान में उड़ने के लिए तैयार था।
अगली सुबह ही बुड्ढे ने आँखें मूंद ली। माया की ‘फाँस’ को काटकर पंछी अनंत की ऊंचाइयों में उड़ गया।
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08.10.2002