पड़ाव

रात अब चढ़ने लगी थी। डाॅ. भारद्वाज ने सोने से पूर्व उड़ती-उड़ती निगाह बैठक की दीवार पर लगी क्लाॅक पर डाली। पौने ग्यारह बजे थे। उन्होंने एक गहरी श्वास ली एवं सीढ़ियाँ चढ़कर प्रथम तल पर स्थित बेडरूम में आ गये। 

बेडरूम में आकर उन्होंने खिड़की खोली तो ठण्डी एवं भीगी हवाओं के झौंकों ने उन्हें सुकून दिया। दिन भर के काम से इंसान थक ही जाता है। डबल बेड पर बैठने के पूर्व उन्होंने सिर के पीछे दो तकिये लगाये, बेड के ऊपर लगे लैंप को ऑन किया एवं एक उपन्यास पढ़ने में तल्लीन हो गये। सोने के पहले पढ़ना उनकी वर्षों पुरानी आदत थी।

खिड़की से बाहर सब कुछ साफ नजर आता था। सितम्बर अभी लगा ही था। वैसे तो ये दिन बारिश के अंतिम दिन होते हैं पर इन दिनों मौसम जाते-जाते फिर रंगत बता रहा था। अभी कुछ समय पहले तेज बारिश होकर थमी थी, लेकिन आसमान अभी भी घने काले मेघों से आच्छादित था। त्रयोदशी का चाँद इन्हीं बादलों के पीछे लुकाछुपी करते कभी-कभी ऐसे प्रगट हो जाता, जैसे कोई शातिर चोर तमाम प्रयासों के बावजूद दृष्टिगोचर हो जाता है। 

डाॅ. भारद्वाज ने दो घंटे पहले ही अपना क्लिनिक बंद किया था। उनका क्लिनिक घर के आगे ही बने एक कमरे में था। वृद्धावस्था में घर के बाहर यहाँ-वहाँ जाना उन्हें नागवार लगता। वे शहर के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक थे पर काॅलोनी में “पागलों के डाक्टर” नाम से विख्यात थे। वैसे वे नित्य आठ बजे तक अपना क्लिनिक बंद कर देते, पर आज मरीज़ इतने ज्यादा थे कि नौ बज गये। मनुष्य ने इतनी वैज्ञानिक प्रगति कर ली, चिकित्सा जगत में चमत्कारिक आयाम छू लिए, लेकिन आज भी रोगी कम नहीं हुए विशेषतः मनोरोगियों की संख्या तो अहर्निश बढ़ती जा रही है। सुख के तमाम साधन जुटाने के बावजूद न जाने क्यों मनुष्य का मन पहले से अधिक क्लांत एवं अवसादग्रस्त है। वह ज्यों-ज्यों भौतिक सुखों के शिखर पर चढ़ता जाता है उसका मानसिक , मनःगत सुख उतनी ही गहरी खाई में गिरता चला जाता है। आश्चर्य है, यह पागल, बदहवास मनुष्य फिर भी बाज नहीं आ रहा। अगले क्षण की खबर नहीं, पर सामान सौ वर्षों का जुटाने में लगा है।

डाॅ. भारद्वाज इन दिनों घर में अकेले थे। पत्नी उर्मिला अमेरिका प्रवास पर बेटी के घर थी। जाना तो वे भी चाहते थे, बिटिया ने आग्रह भी कम नहीं किया था, पर अगले दिनों होने वाली कुछ महत्त्वपूर्ण गोष्ठियों में उन्हें उद्बोधन देना था, अतः टाल गये। मियाँ-बीवी दोनों इस घर में अकेले रहते थे। दिन भर घर एवं क्लिनिक में काम बंटाने हेतु नौकर एवं नर्सेज भी आते, लेकिन रात होते वे भी अपने-अपने घर निकल जाते। भारद्वाज दंपती को नौकरों का घर में रुकना कभी पसंद नहीं आया। मनुष्य के एकाकी क्षण भी तो उतने ही आवश्यक हैं जितना कार्य।

पलंग पर लेटे-लेटे उपन्यास पढ़ते हुए डाॅ. भारद्वाज को तकरीबन आधा घंटा व्यतीत हो चुका था। वे तल्लीनता से उपन्यास पढ़े जा रहे थे कि यकायक उन्हें बेडरूम के दरवाजे पर खटपट महसूस हुई। उन्होंने आँख उठाकर उस ओर देखा, कुछ भी नहीं था। शायद हवा के झौंकों से दरवाजा थोड़ा और खुल गया होगा। रोज वे दरवाजे पर चिटकनी लगाते, पर इन दिनों अकेले होने से  ऐसा करना आवश्यक नहीं समझते। वे पुनः उपन्यास पढ़ने में तल्लीन हो गये। कुछ समय पश्चात् उन्होंने उपन्यास पास ही रखी टेबल पर रखा, लैंप ऑफ किया एवं पाँवों में पड़ी चादर को मुँह तक खींच लिया |

सोने के पूर्व उर्मिला की यादें उनकी आँखों में तैरने लगी। जीवन अब उसी के भरोसे तो कट रहा था। उन्हें रिटायर हुए पाँच वर्ष हुए, अब वे पैसंठ वर्ष के थे , उर्मिला साठ के पार।  मनुष्य वृद्धावस्था में अपनों को ज्यादा तकता है। पति बूढ़ा हो जाए पर उसका दर्द तो पत्नी की बाजुओं में ही चैन पाता है। परिवार मनुष्य के सुकून एवं शांति की अहम कड़ी है। अपनों से दूर होकर मनुष्य अपनों के लिए कितना विकल हो उठता है। पास हो तो गांठता नहीं, दूर हो तो मिमियाने लगता है।

बाहर बादल अब भी गड़गड़ा रहे थे। बारिश के दिनों में रातों की नीरवता एवं निस्तब्धता अन्य दिनों से अधिक होती है। झिंगुरों एवं रात के सन्नाटों की सांय-सांय इसे और भयानक बना देती है। घरों के भीतर एवं बाहर एक गहरी खामोशी पसर जाती है। कभी-कभी भौंकने वाले कुत्तों की आवाज ही इस खामोशी को तोड़ती है।

डाॅ. भारद्वाज अब उनींदे होने लगे थे। एक गहरी नींद उनकी आँखों में उतरने लगी थी। उर्मिला होती तो वे अब तक निश्चिंत सो जाते, लेकिन जैसा कि होता है अकेला आदमी आधा सोता एवं आधा जागता है। वैसे आध्यात्मिक स्तर पर तो मनुष्य की यह अवस्था ताउम्र रहती है लेकिन लौकिक एवं दैनिक स्तर पर अकेला व्यक्ति अधिक सजग, अधिक सावधान होता है। मनुष्य के समस्त कपोलकल्पित भय अकेलेपन एवं अंधेरे में ही अपना चेहरा दिखाते हैं। 

इस बार दरवाजे पर आहट हुई तो डाक्टर चौंके। उन्हें लगा जैसे कोई दरवाजा खोलकर भीतर आ रहा है हालांकि अंधेरा होने से आकृति स्पष्ट नहीं थी। यकायक उन्हें लगा वही आकृति दबे पाँव चलकर कोने में रखी अलमारी के पास आकर खड़ी हो गई है। उन्होंने अधखुली आँखों से पुनः देखने का प्रयास किया। उनका शक सही था, कोई तो था जो अलमारी के पास खड़ा था। भय के मारे उन्होंने दोनों आँखें बंद कर ली ताकि कोई हो तो भी उसे यह अहसास न हो कि वह जग रहे हैं। वे बिना हिले-डुले लेटे रहे।

इन दिनों अखबार में अक्सर पढ़ने को मिलता कि रातों में अकेले वृद्ध आदमी के घरों में चोर घुस जाते हैं एवं उन्हें मारकर सामान लूट लेते हैं। इस विचार के आते ही डाॅ. भारद्वाज पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगे। ये कयामत के क्षण थे। अगर वे जग जाते तो मौत तय थी एवं सोते रहे तो चोरी। दो भयानक विकल्पों के बीच उन्होंने चोरी को ही बेहतर समझा। वे जागकर भी आँखें मूंदे पड़े रहे।

डाॅ. भारद्वाज का मुख सूखने लगा। उन्होंने कल्पना भी न की थी कि ऐसी भयानक एवं खौफनाक रात से रू-ब-रू होना पड़ेगा। कमरे में एक भयानक चुप्पी पसर गई थी।

इसी उधेड़बुन में समय बीतता जा रहा था। उर्मिला के बेशकीमती जेवर अलमारी में रखे थे। जाने के कुछ दिन पहले उसने कहा भी था कि इन्हें लाॅकर में रख आयें, पर उन्हें फुर्सत हो तो। डाॅ. भारद्वाज किंकर्त्तव्यविमूढ़ लेटे पडे़ थे। विचारों के बवण्डर ने उनके विवेक को पूर्णतः आवृत कर लिया था। कुछ देर पश्चात् उन्होंने साहस कर एक आँख हल्की-सी खोली तो देखा एक व्यक्ति टार्च हाथ में लिए अलमारी से सामान निकाल रहा था। उसने एक-दो बार क्षण भर के लिए टार्च लगायी तो यह तय हो गया कि चोर सामने खड़ा था। डाक्टर साहब के हाथ-पाँव फूल गये। साँप-छछुंदर की तरह न निगलते बनता था न उगलते।

यकायक कमरे में एक चीख गूंजी……… ओह…. ह…. ह…. एवं सामने खड़ा व्यक्ति धम्म से नीचे गिर पड़ा। अब डाॅ. भारद्वाज के पास कोई विकल्प नहीं था। अत्यधिक भयानक स्थितियों में कई बार मनुष्य का साहस दूना हो जाता है।

डाॅ. भारद्वाज ने हाथ ऊपर कर लैंप लगाया तो सामने का दृश्य देखकर उनकी आँखें फैल गई। एक मोटा-तगड़ा, अधेड़ उम्र का व्यक्ति औंधा गिरा पड़ा था। उसके हाथ में उर्मिला के जेवर थे। वह बार-बार उठकर भागने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हर बार निढाल होकर लुढ़क जाता। उसकी उम्र चालीस के पार ही होगी। मुँह पर खिचड़ी दाढ़ी थी। ऊपर काला बनियान एवं नीचे काली पैण्ट पहने वह भयानक लग रहा था। शायद चोर रातों में काले कपड़े पहनकर इसलिए निकलते हैं ताकि वे नज़र न आएं।

डाॅ. भारद्वाज ने क्षण भर में स्थिति का आकलन कर लिया। निःसंदेह वह व्यक्ति उनके घर में चोरी की नीयत से ही घुसा था, चोरी कर भी ली थी, लेकिन भागने से पहले संभवतः टखना मुड़ने से गिर पड़ा एवं हड्डी में चोट आने से उठ नहीं पा रहा था। 

चोर को कमजोर स्थिति में देखकर डाक्टर का साहस बढ़ने लगा। उन्होंने तीखी आँखों से उसकी ओर देखकर कहा, “मेरे घर में चोरी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मैं अभी पुलिस को बुलाता हूँ।” कहते-कहते वे हांफने लगे। उनकी अवस्था सर चढ़कर बोलने लगी।

डाॅ. साहब ने गीदड़ भभकी देते हुए हाथ मोबाइल की तरफ बढ़ाया ही था कि चोर ने विद्युत गति से बैक पाॅकेट से एक पिस्तौल निकाली एवं डाक्टर की ओर इशारा करते हुए बोला, “जरा भी होशियारी बताई तो गोली खोपड़ी के पार कर दूँगा।” कहते-कहते चोर ने तल्ख आँखों से डाक्टर को देखा तो उनके प्राण सूख गए।

डाक्टर भारद्वाज का साहस क्षण भर में ध्वस्त हो गया। उनकी तीव्र बुद्धि ने क्षणभर में समझ लिया कि यहाँ दाल गलने वाली नहीं है। अब उन्होंने कूटनीति के अस्त्र का संधान किया। मुँह में मिश्री घोलकर बोले, “अच्छा यह बताओ, तुम कौन हो एवं यहाँ चोरी के इरादे से क्यूँ आये हो? शक्ल से तो भले घर के लगते हो। क्या तुम्हें पैसों की सख्त आवश्यकता आन पड़ी है?” अंतिम वाक्य पूरा करते-करते शब्द डाक्टर के गले में अटक गये। 

“मैं चोर हूँ एवं चोरी मेरा पेशा है। हम पीढ़ियों से चोरी करते आ रहे हैं।” चोर ने पूरे साहस से उत्तर दिया। 

डाॅ. भारद्वाज उसके साहस को देखते रह गये। उनके माथे पर बल पड़ गये, चेहरे पर परेशानी तैरने लगी। जैसे-तैसे दम भरकर बोले, “ऐसा क्यूँ कहते हो भाई! तुम तो काफी हट्टे-कट्टे हो, मेहनत करकेे भी कमा सकते हो।”

“अपनी सीख अपने पास रखो, डाक्टर! मेहनतकशी एवं ईमानदारी की सीख बडे़ चोरों को दो। उन पर तो तुम्हारा बस चलता नहीं, बस हमें सीख देते हो। आदमी वही बनता है जो हालात उसे बना देते हैं। मनुष्य परिस्थितियों का दास है, भाग्य का खिलौना है। तुम सज्जन इसलिए हो कि तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सज्जनता सिखाई। मैं चोर इसलिए हूँ कि मुझे चोरी सिखाई गई। तुम्हें हर चोरी का दण्ड मिला, मुझे हर चोरी पर पुरस्कार। जब मैंने पहली बार सफलतापूर्वक चोरी की तो मेरे पिता ने जश्न मनाया। उस रात वह माँ से कह रहा था, आज तेरा बेटा कमाऊ पूत हो गया।” कहते-कहते चोर का ध्यान पुनः अपने दर्द की ओर गया। दर्द अब असहनीय होने लगा था। चोट गहरी थी, वह कराहने लगा।

डाॅ. भारद्वाज को चोर की बातों में दम लगा। उसके विलक्षण विचार सुनकर वे सकते में आ गये।

हर पापी के भीतर एक पुण्यात्मा होती है। अनुकूल समय एवं वातावरण  पुण्यात्मा को प्रगट कर देते हैं, प्रतिकूल समय एवं परिस्थितियाँ भीतर बैठे पापी को। यह समय का ही खेल था कि वाल्मीकि जीवन के एक छोर पर डाकू थे एवं दूसरे छोर पर संत। सौभाग्य हमारे सद्गुणों एवं दुर्भाग्य हमारे दुर्गुणों को ऐसे प्रगट करता है जैसे सूर्योदय दिन एवं सूर्यास्त रात्रि को।

क्षणभर के लिए डाॅ. भारद्वाज भूल गये कि उनके सामने बैठा व्यक्ति चोर है एवं उन्हीं का घर लूटने के इरादे से आया है। अब उनके भीतर का डाक्टर उनको पुकारने लगा था। मनुष्यता का दीप जलते ही भय का अंधेरा तिरोहित हो गया। अब सिर्फ आत्मा का आलोक था। उन्होंने साहस बटोर कर कहा, “ठीक है, तुम पिस्तौल अपने हाथ में रखो लेकिन इलाज करने का अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते। मैं वचन देता हूँ कि पुलिस को फोन नहीं करूँगा। मेरा यह वचन खुदागवाह है।” कहते-कहते डाक्टर की आँखों में एक ऐसा प्रकाश चमक उठा, जिसकी आलोक-वर्षा में चोर भी नहा गया।

क्षण भर में मानो दीप से दीप जल उठा। चोर आश्वस्त हुआ, उसने अपना टखना आगे किया। डाॅ. भारद्वाज ने उसका टखना हाथ में लेकर देखा, टखने में गहरी मोच थी, इसी कारण वह कराह रहा था।

“तुम्हें तो गहरी चोट आई है। इसका इलाज तो करना ही होगा अन्यथा तुम उठ भी नहीं सकोगे। अगर तुम मुझ पर विश्वास करो तो मैं नीचे क्लिनिक से इंजेक्शन एवं दवाइयाँ ले आऊँ। गरम पानी से सेक भी करना होगा, तभी तुम उठ सकोगे।” यह कहकर डाॅ. भारद्वाज जाने लगे तो चोर आशंकित हो उठा। चोर किसी का भरोसा नहीं करते। उसके विचार संशय के मेघों से आच्छन्न हो गये। कहीं इसने नीचे जाकर फोन कर दिया तो? कमजोर आत्मा स्वभाव से ही आशंकित होती हैं।

“डाक्टर रुको! तुम नीचे जा रहे हो। लेकिन याद रखना पुलिस को हरगिज  फोन नहीं करोगे। मैं एक ऐसा चोर हूँ जो कभी नहीं पकड़ा गया। मुझे पकड़ने वाले की मैं हत्या कर देता हूँ, मैं कोई सबूत नहीं छोड़ता। तुम्हारे नीचे जाने पर शायद मैं तुम्हें न मार पाऊँ लेकिन अगर पुलिस आई तो मैं स्वयं को गोली से उड़ा दूंगा। यह मेरा प्रण है।” कहते-कहते चोर ने डाक्टर की ओर ऐसे देखा मानो उन्हें समझा रहा हो कि मुझे कच्चा नहीं समझना। उसके स्वर में कठोरता एवं आँखों में दृढ़ निश्चय की चमक थी। 

“तुम निश्चिंत रहो, यह मोबाइल मैं तुम्हारे पास ही छोड़े जाता हूँ। यकीन रखो मैं फोन नहीं करूँगा। अब मैं एक अलग धर्म से बंध गया हूँ।” कहते-कहते डाक्टर ने उसके कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा।

डाॅ. भारद्वाज नीचे आए एवं क्लिनिक में आकर पानी गर्म किया। पानी एक पात्र में डालकर उन्होंने काॅटन, इंजेक्शन एवं कुछ दवाइयाँ ली तथा पुनः ऊपर जाने को मुड़े। वे क्षण भर के लिए रूके। एकबारगी उन्हें लगा क्यूं न पुलिस को फोन कर दूँं। आखिर चोर को पकड़ाना मेरा कानूनी धर्म है, मैं अपराधी को प्रश्रय क्यूँ दूँ? ऐसा करने से मैं कितने बड़े नुकसान से बच जाऊँगा? वे पास ही रखे फोन की तरफ बढ़े, लेकिन अगले ही क्षण उनकी आत्मा ने धिक्कारा, क्या तुम ईश्वर की गवाही में किए वचन से मुकर जाओगे? क्या जरा-से लोभ के लिए अपने पेशे को छोटा करोगे? ऐसा सोचते ही फोन करने का विचार धरा रह गया। वे तेज गति से चलकर सीढ़ियों तक आए।

इधर चोर भी उधेडबुन में था। चेहरे से चिंता टपकने लगी थी। कहीं डाॅक्टर ने धोखा दे दिया तो? आदमी का क्या भरोसा? दुनिया जुबान से मुकरने में कितनी देर लगाती है? विचारों का तेज झंझावत उसकी खोपड़ी में नाचने लगा। यह भी हो सकता है इंजेक्शन में बेहोशी की दवा मिला दे? नींद की गोलियाँ भी दे सकता है? मैं कौन-सा पढ़ा लिखा हूँ।

वह सोच ही रहा था कि डाक्टर सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आ गये। चोर आश्वस्त हुआ।

डाक्टर ने गर्म पानी में कपड़ा भिगोया। उसे निचोड़कर उसके टखने पर रखा तो चोर एकबारगी चीख उठा। लेकिन शनैः शनैः पानी के सेक से उसे आराम मिलने लगा, उसका टखना हिलने लगा।

इसी दरम्यान डाॅ. भारद्वाज ने उसे कुछ टेबलेट्स दी एवं पानी से लेने को कहा। अब वे इंजेक्शन तैयार करने में लगे थे। पहले से आशंकित चोर सहम गया एवं डाक्टर की ओर देखकर बोला, ‘‘तुम धोखा तो नहीं करोगे?’’

“हरगिज नहीं। अब तुम चोर नहीं रहे। अब तुम्हारे एवं मेरे बीच एक नया रिश्ता बन गया है। मरीज और डाक्टर का रिश्ता। इससे भी आगे अब तुम मेरे अतिथि हो। तुम चाहो तो मुझे गोली मार दो, लेकिन मैं मेरे धर्म से नहीं डिगूंगा। कदाचित तुम्हें संदेह हो गया है कि मैं तुम्हें गलत दवाई अथवा बेहोशी का इंजेक्शन दे दूँगा। तुम्हारा शक लाजमी है।” इतना कहते-कहते उन्होंने अपनी हथेली में रखी चार गोलियों में से एक गोली पास ही रखे ग्लास से गले के नीचे उतार ली। चोर के देखते ही देखते उन्होंने आधा इंजेक्शन अपने बाजू में घुसेड़कर खाली कर दिया। “अब तो तुम्हें यकीन आ गया होगा कि मेरी नीयत में खोट नहीं है।” डाॅक्टर मुस्कुराते हुए बोला।

चोर विस्मय से ठगा रह गया। उसकी आँखें अब गीली होने लगी थी। पास ही रखे ग्लास से पानी लेकर उसने टेबलेट्स निगली, डाॅ. भारद्वाज ने उसके बाजू पर बाकी बचा इंजेक्शन लगाया।

दवाई के असर करते ही कुछ समय पश्चात् चोर उठ खड़ा हुआ। उसकी उपकृत आँखों में डाक्टर का अहसान समाता न था। वह पास ही पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। दोनों अब ऐसे बतिया रहे थे जैसे दो मित्र हो। पहले बात डाॅक्टर ने छेड़ी।

“तुम कहाँ रहते हो?”

“हम लोग कभी एक जगह नहीं ठहरते। हर चोरी के बाद जगह बदल लेते हैं। मैं घर पहुँचूंगा तब तक मेरी पत्नी सारा सामान बांधकर बैठी होगी। वैसे हमारे पास होता ही कितना भर है, रोजमर्रा के सामान से अधिक सामान हम नहीं रखते।” चोर अब सहज होने लगा था।

“तुम्हारे परिवार में और कौन-कौन हैं?” डाॅ. भारद्वाज वार्ता को आगे बढ़ाते हुए बोले।

“मेरा परिवार बहुत बड़ा है। कुल ग्यारह लोग हैं।”

“क्या तुम्हारे इतने बच्चे हैं?”

“नहीं मेरे चार बच्चे हैं। मेरे भाई की पत्नी एवं उसके चार बच्चे भी मेरे साथ रहते हैं।”

“ऐसा क्यों? तुम्हारा भाई कहाँ रहता है?”

“वह अब नहीं रहा। गत वर्ष मैं और मेरा बड़ा भाई साथ-साथ चोरी करने गये। उस रात उसे हल्का बुखार था। दुर्भाग्य से मकान मालिक जाग गया। मैं तो आनन-फानन भाग निकला, लेकिन बड़ा भाई पकड़ा गया। लोगों ने उसे पीट-पीट कर मार डाला। उस दिन तो हमने कोई चोरी भी नहीं की। बस घर में घुसे ही थे।” कहते-कहते चोर की आँखें भीग गई। उसकी आवाज काँपने लगी।

“तुम्हारे माँ-बाप कहाँ रहते हैं?”

“उन्हें मरे दस वर्ष होने को आये।”

चोर की बातें सुनकर कुछ क्षण के लिए डाॅ. भारद्वाज भी विह्वल हो गये। अपनी भावनाओं को दबाते हुए बोले, “तुम चोरी छोड़ क्यों नहीं देते। कब तक खुद को धोखा देते रहोगे। समाज में इज्जत से जीना क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगता? तुम चाहो तो अपने परिवार को एक नयी रोशनी दे सकते हो, एक ऐसी रोशनी जिसमें तुम्हारे बच्चे समाज में सर उठाकर जी सकें।” डाॅ. भारद्वाज उसे समझाते हुए बोले।

“आप किस समाज की बात करते हैं डाक्टर बाबू! हमसे अधिक इस समाज को कौन जानता है? समाज के असली भेद हमारे ही सामने उघड़ते हैं। कितनी अजीबोगरीब, हैरतअंगेज एवं घृणित कहानियाँ हमारे दिलों में कैद हैं। समाज का नंगा एवं वीभत्स रूप हमसे ज्यादा किसने देखा है? मैं आपको किस-किस की कथा सुनाऊँ। मेरे अनुभव सुनोगे तो इस इज्जतदार समाज से घृणा हो जाएगी।” कहते-कहते चोर का चेहरा आक्रोश से लाल हो उठा।

“ऐसे क्या अनुभव है तुम्हारे पास? मुझे तो लगता है यह मात्र तुम्हारे मन का कलुषित भाव है।” डाॅ. भारद्वाज उसकी ओर देखकर बोले।

“नहीं डाक्टर बाबू! यह मेरे मन का कलुषित भाव नहीं वरन् सच्चा अनुभव है। मेरी कहानियाँ कानों सुनी नहीं, आँखों देखी हैं। छुपे हुए कैमरों की तरह हम क्या-क्या नहीं देखते।”

“समाज में अच्छे एवं इज्जतदार लोग भी तो हैं।”

 “जो दिन के उजाले में अच्छे एवं इज्जतदार होने का ढोंग करते हैं, वे रातों के अंधेरे में बेनकाब होते हैं। पकड़ में न आने तक सभी चोर साहूकार हैं। आप नहीं जानते राष्ट्र के सिरमौर कहे जाने वाले अनेक नेता रातों के अंधेरे में क्या-क्या कारगुजारियाँ करते हैं? अनेक सती स्त्रियों को व्यभिचार करते हुए इन्हीं आँखों ने देखा है। अनेक श्रवणकुमार रातों के अंधेरे में अपने माता-पिता पर अमानुषिक जुल्म करते हैं। दिन में समाजसेवा का दंभ भरने वाले कितने ही समाज सेवी रात में अपनी पुत्रवधुओं को दहेज न लाने के लिए प्रताड़ित करते हैं। दिन में जनसेवा का ढोंग करने वाले सरकारी मुलाजिम रातों में ही अपनी रिश्वत का लेखा-जोखा करते हैं। आपसे अधिक पागलों से हम रूबरू होते हैं। डाॅक्टर बाबू, यह वह समाज है जहाँ अपराधी इंसाफ करते हैं एवं काफ़िर ईमान की दुहाई देते हैं।”

“यह कहकर तुम क्या सिद्ध करना चाहते हो? क्या चोरी करना सही है? क्या चोरी के लिए कोई दण्ड नहीं होना चाहिए?” डाॅ. भारद्वाज गंभीर होकर बोले।

“अवश्य होना चाहिए। लेकिन उन लोगों को आप एवं आपका समाज क्या दण्ड देगा जो मुखौटों में छिपे हुए असली चोर एवं ठग हैं, जिन्होंने इंसानियत को नंगा कर दिया है? जो दिन में मंचों से माला पहनते हैं एवं रातों में व्यभिचार का खुला खेल खेलते हैं? एक छोटी-सी चोरी के लिए मेरे भाई को पीट-पीट कर मार डाला गया। क्या इनका हश्र उससे भी बुरा नहीं होना चाहिए? ये लोग तो डाकू एवं लुटेरे होते हुए भी सुख के झूलों पर झूलते हैं, हम परिवार का पेट पालने के लिए चोरी करते हैं फिर भी दिन-रात भय में जीते हैं।” कहते-कहते चोर फूट-फूट कर रो पड़ा।

डाॅ. भारद्वाज चोर की गूढ़ बातें सुनकर दंग रह गये। कुछ क्षण चुप रहे फिर बोले, “तुम्हें भ्रम है  वो सुख से जीते हैं। वस्तुतः वे सुखी नहीं हैं। उनकी अंतरात्मा उन्हें पल-पल कचोटती है। रातों सो नहीं पाते। पाप उनके सर चढ़कर बोलता है। ऐसे अनेक लोगों का मैं इलाज कर चुका हूँ। तुम जिन्हें ऊँचे लोग कहते हो, उन्हें देखकर तो मुझे रहम आता है।”

अब तक आधी रात बीत चुकी थी। काले बादलों को हवा उड़ाकर जाने कहाँ ले गई थी। आसमान की छाती पर चमकता हुआ चाँद ऐसा लग रहा था मानो अभी-अभी नहाकर बाहर आया हो।

चोर जेवर छोड़कर जाने लगा तो डाॅ. भारद्वाज मुस्कराकर बोले, “क्या इन गहनों को लेकर नहीं जाओगे?”

“फिलहाल तो मैंने आपके उपकार के गहने पहन लिए हैं।” कहते-कहते चोर का गला रुंध आया।

“मीठी-मीठी बातों से काम नहीं चलेगा, फीस तो तुम्हें देनी होगी।” डाक्टर के मस्तिष्क में अब एक नया विचार मूर्तरूप लेने लगा था।

“कहिए, आप क्या चाहते हैं?”

“पहले कौल करो अपनी बात पर कायम रहोगे?”

“कौल करता हूँ।”

“वादा करो कि अब कभी चोरी नहीं करोगे। अपने परिवार को इज्जत की रोटी खिलाओगे, वही रोटी जिसका आटा तुम्हारे पसीने से गूंधा गया हो।”

“वचन देता हूँ डाक्टर साहब! और हाँ, यह चोर का वचन है। चोर मरकर भी वचन नहीं तोडते।”

कभी-कभी कृतज्ञता इंसान से वह सब करवा लेती है, जिसे वह वर्षों प्रयास करके भी नहीं कर पाता।

चोर जाने लगा तो डाक्टर भारद्वाज ने उसे रोका, अपनी अलमारी खोली एवं उसमें रखे पतलून की जेब में हाथ डालकर एक लाख रुपये निकाले। चोर के हाथ में देते हुए बोले, “तुम कच्चे चोर हो। इस रकम को देखने से चूक गये। लेकिन अब तुम इसके सच्चे हकदार हो। मुझे अपना बड़ा भाई समझकर रख लो। यह रकम तुम्हें नई जिंदगी जीने में मदद करेगी।”

चोर कुछ देर और रुकता तो शायद फूट-फूट कर रो पड़ता। पूरे दो माह बाद आज वो चोरी करने निकला था, उसे क्या पता था आज चोरी छोड़नी पड़ जायेगी।

रकम लेकर वह चुपचाप चला गया।  

आज वह कितना प्रसन्न, कितना हल्का महसूस कर रहा था। वर्षों सिर पर रखी पाप की गठरी जो उतर गई थी। आज उसकी चाल में एक नया अंदाज, नयी लोच, नयी मस्ती थी। हृदय में आशा का  ऐसा सूर्य उग रहा था जिसके उजाले में अतीत का समस्त अंधकार विलीन हो चुका था।

वह घर पहुँचा तो उसकी पत्नी मानो इंतजार ही कर रही थी। पूरा परिवार उसके पास ही खड़ा था। गठरियों में बंधा सामान भी वहीं पड़ा था। 

चोर चुपचाप आकर एक ऊँचे पत्थर पर बैठ गया। उसकी पत्नी पास आकर बोली, “क्या माल हाथ लगा है?”

“आज जितना माल तो पहले कभी हाथ नहीं लगा।’’ कहते-कहते उसने रुपये निकालकर पत्नी के हाथ में दिये। 

“आगे कहाँ जाना है?” वह चहककर बोली।

“कहीं नहीं। यह अंतिम पड़ाव है!” चोर ने उत्तर दिया।

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01.04.2007

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