प्रतिनिधि

ज्ञान-वृद्ध सूर्य क्षितिज के उस पार अस्ताचल में उतरने का मन बना ही रहे थे कि सांझ ने छिछोरी चुहिया की तरह बिल से मुँह बाहर निकाला। अवसर मिलते ही वह बाहर आने को यूँ उतावली थी जैसे चिर-समय से अंधकूप में पड़ा अज्ञानी बाहर निकलने को उत्कंठित रहता है।

शाम के छः बजे होंगे।

जेट एयरवेज की बिजनिस क्लास में खिड़की के पास बैठे पूर्णदत्त आँखे मूंदे जाने क्या सोच रहे थे। आकाश के बदलते रंगों की तरह उनके चेहरे पर बदलते भावों को देखकर कहना मुश्किल होगा कि वे भयग्रस्त थे, चिंताग्रस्त अथवा चिंतनग्रस्त? इतने गहन सोच का आखिर कारण क्या था? वे पहली बार हवाई यात्रा कर रहे थे। जीवन में प्रथम बार किए जाने वाले हर कार्य का अनुभव कितना अद्भुत होता है। मनुष्य कितने ही ऊँचे मुकाम पर क्यों न पहुँच जाये, प्रथम प्यार, प्रथम व्यवसाय, प्रथम संतति एवं ऐसी अनेक प्रथमतः प्राप्त होने वाली उपलब्धियाँ कितनी रोमांचक होती हैं। प्रथम हवाई यात्रा भी कम रोमांचक नहीं होती विशेषतः तब, जब उसे करने वाला व्यक्ति वह हो जो यह यात्रा अब से पच्चीस वर्ष पूर्व सरलता से कर सकता था।

निश्चय ही पूर्णदत्त चाहते तो यह यात्रा पच्चीस वर्ष पूर्व कर सकते थे। अब वे पचास पार थे लेकिन उनके उत्साह एवं चेहरे-मोहरे को देखकर लगता जैसे पैंतीस-चालीस वय के युवक हों। आज भी उनके सर पर अधिकांश काले बाल थे। भरे गाल, ऊँचा कद, सुधड़ दंतपंक्ति एवं आँखों पर लगा चश्मा उनके व्यक्तित्व को एक नया आयाम देता। उनके बातचीत करने की अदा एवं पहनावे से रईसी स्पष्ट दृष्टिगत होती। वे कोई नये रईस नहीं थे, अपने कैरियर के प्रारंभिक वर्षाें में ही उन्होंने इतनी धन-संपदा अर्जित कर ली थी कि वे चाहते तो कभी भी हवाईयात्रा कर लेते लेकिन वही बात, वही परमसत्य कि नसीब में जो जब मिलना होता है तभी मिलता है। आज वे ‘चैन ऑफ कंपनीज्’ के मालिक थे, प्रोपट्री डीलिंग व्यवसाय में उनकी पैठ थी लेकिन आश्चर्य! हवाईयात्रा की उनकी इच्छा आज तक पूरी नहीं हो पाई। उनके अनेक कर्मचारी हवाईयात्रा पर जाते तो वे अक्सर कहते, देखो मेरा भाग्य तुमसे भी कमजोर है। मैं सड़क एवं रेलमार्ग से आगे नहीं बढ़ पाया मगर आप लोग हवाईयात्रा सहज ही कर लेते हैं।

वे आठ वर्ष के थे तो जाने किस मरदूद ज्योतिषी ने उनकी माँ को कह दिया कि उसके जीते जी पूरण को हवाईयात्रा से खतरा है। माँ के जीते पुत्र को खतरा? यह भी कोई तर्क हुआ। उनकी माँ को इस विज्ञान में प्रगाढ़ आस्था थी, फिर पूर्णदत्त इकलौते पुत्र थे, उसने पुत्र को हवाईयात्रा की इजाजत नहीं दी। इतना ही नहीं माँ ने उनसे कसम ली कि उसके जीते पूरण हवाईयात्रा नहीं करेगा। वैसे तो पूर्णदत्त पूरे अकडू़ थे पर माँ के प्रति श्रद्धा रखते। उनके पिता बचपन में ही गुजर गए थे, माँ ने उन्हें संघर्ष कर कठिनाइयों से पाला था। यही सोचकर वे माँ का कहा नहीं टालते।

अब जबकि माँ के निधन को तीन माह हुए वे प्लेन में पहली बार सफर कर रहे थे।

पूर्णदत्त की व्यावसायिक उपलब्धियों पर लोग दांतो तले अंगुली दबाते। एक युवक जिसे पिता से नगण्य संपति मिली हो उसका इस मुकाम पर आना निश्चय ही किसी आश्चर्य से कम नहीं था। यौवन से ही उन्होंने व्यावसायिक प्लाॅट्स के विक्रय का कार्य किया एवं चंद समय में ही उनके पौ बारह हो गए। जमीनों के बढ़ते दामों के चलते वे अल्प समय में ही श्रीपति बन गए। विजया से विवाह के पश्चात तो उनके कैरियर की जय-दुदुंभी बज गई। उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वे पचासों कंपनियों के मालिक थे। हजारों कर्मचारियों का कैरियर उनकी कृपा पर अवलंबित था। देशभर में यत्र-तत्र अनेक व्यावसायिक शाखाएँ थी। अब तक उनके दोनों पुत्र भी युवा थे एवं काम में हाथ बंटाने लगे थे।

पूर्णदत्त में वैसे तो उनेक गुण थे पर अभिमान सर चढ़कर बोलता। पैसा अगर इस रफ्तार से मिले तो अच्छे-अच्छों की आँखों में चर्बी चढ़ जाती है। उपलब्धियाँ किसे मोहचित्त नहीं करती। वे तनिक-सी बात पर तुनक जाते। दोपहर के ग्रीष्म-सूर्य की तरह सभी उनके ताप से संतप्त रहते। कर्मचारी उन्हें आग का पुतला कहते। वे स्वयं के आगे किसी को कुछ नहीं मानते। बात बेबात कर्मचारियों को आँख दिखाते रहते। ‘तेरी औकात क्या है’ जैसा वाक्य तो उनका तकियाकलाम था। कड़वी-रूखी बातें उनकी जुबान पर होती। अक्सर जी हजूरियों से घिरे होते जो जब-तब उनके अहंकार को हवा देते रहते। जैसे देव वैसे पुजारी यत्र-तत्र मिल ही जाते हैं। ड्राइवर, चपरासी तो उन्हें ‘जी मालिक’ जैसे संबोधन से ही वार्ता करते। उनके आतंक का औसान ऐसा था कि सभी एक पांव पर खडे़ रहते। सरकार के मंत्री, अधिकारी तक चंदा उगाहने उनकी चौखट पर आते। उन्हें उपकृत कर वे जब-तब अपने दबदबे का इस्तेमाल करते। ऐसे में उन्हें कौन समझायें? सूर्य को कौन आँख दिखा सकता है?

लेकिन आज की हवाईयात्रा से उनके मन में खलबली मच गईं। हवाईपट्टी से उड़कर प्लेन ऊपर उठकर सीधा हुआ तो उन्होंने खिड़की से नीचे देखा। वे यह देखकर दंग रह गए कि उनका शहर कितना छोटा है एवं इसमें उनकी कंपनियाँ, जमीन तो न के बराबर है। उन्हें जीवन में पहली बार लघु होने का अहसास हुआ। धीरे-धीरे यह दृश्य भी विलुप्त होने लगा तो वे एक विचित्र सोच में पड़ गए। यह चिंतन धीरे-धीरे इतना सघन हुआ कि वे पड़ौसी मुसाफ़िर को कहे बिना नहीं रह सके, ‘दुनिया ऊपर से कितनी छोटी लगती है।’ भावातिरेक मन रीता होने का माध्यम ढूंढ ही लेता है।

‘क्या आप प्रथम बार हवाईयात्रा कर रहे हैं?’ उनके पड़ौस में बैठे प्रोफेसर शर्मा ने उनकी तरफ देखकर पूछा। प्रो. शर्मा उन्हीं के शहर में एस्ट्रानोमी यानि खगोल विज्ञान के प्रोफेसर थे। उन्हें पता था पूर्णदत्त शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी है। इसीलिए प्रश्न करते हुए उनकी आँखें आश्चर्य से फैल गई। शर्माजी पूर्णदत्त को अच्छी तरह जानते थे। शहर के अखबारों में अक्सर उनके विज्ञापन होते।

‘जी हाँ मैं यह यात्रा प्रथम बार ही कर रहा हूँ’ यह कहते हुए उन्होंने शर्माजी को अब तक हवाईयात्रा न करने की कथा बताई तो प्रो. शर्मा का कौतुहल शांत हुआ।

बात करते-करते शाम का धुंधलका कब रात्रि में तब्दील हुआ पता ही नहीं चला। अब आकाश में पूर्णमासी का चांद चमक रहा था। नीचे जाते हुए शहर ऐसे लग रहे थे मानो दीये कुछ क्षण टिमटिमाकर विलुप्त हो रहे हो।

पूर्णदत्त अब पूर्ण चन्द्र को एकटक देख रहे थे। पूर्णिमा के महासागर की तरह आज उनका चिंतन भी क्षुब्ध हो उठा था। संयत हुए तो पुनः प्रो. शर्मा की ओर मुड़कर बोले, ‘हवाईयात्रा करके ही मुझे पता चला हम कितने छोटे हैं।’

प्रो. शर्मा ने अब उनकी ओर यूँ देखा जैसे एक अनुभवी गुरु अपने नये शिष्य की ओर देखता है। उन्होंने पूर्णदत्त के मन की अपूर्णता को भाँप लिया। ज्ञान बघारने का इससे अच्छा अवसर फिर कब मिलता। पूर्णदत्त की ओर मुड़कर बोले, ‘आप सामने उगते हुए पूर्णमासी के चन्द्रमा को देखें। क्या आप जानते हैं यह पृथ्वी का आधा भी नहीं है?’

‘मैं तो इन चांद-तारों के बारे में कुछ नहीं जानता। मेरी उम्र तो व्यवसाय लगाने एवं बढ़ाने में ही गुजर गई’ पूर्णदत्त बोले।

प्रो. शर्मा की बांछे खिल गई। ज्ञानी के सानिध्य में बैठा निपट अज्ञानी कितना सुखकर होता है, इस तथ्य को उन्होंने आज शिद्दत से महसूस किया। उनका आत्मविश्वास पूर्ण चन्द्र की तरह उत्कर्ष छूने लगा। आँखों की चमक दूनी हो गई। पूर्णदत्तजी से पुनः मुख़ातिब होकर बोले, ‘आप यह जानकर हैरान रह जायेंगे कि जैसे चन्द्रमा पृथ्वी से छोटा है, पृथ्वी वृहस्पति एवं शनि जैसे ग्रहों के आगे आधी भी नहीं है।’

‘अच्छा! सचमुच क्या ऐसा ही है। मैंने तो यह पहली बार आप ही से जाना है।’ पूर्णदत्तजी के आँखों में कौतुक उतर आया।

‘बिल्कुल ऐसा ही है। इससे आगे बढे़ं तो सूर्य वृहस्पति एवं शनि से भी कई गुना बड़ा है।’ प्रो. शर्मा को मानो आज एक सुपात्र शिष्य मिल गया था।

‘ओह! क्या सूर्य इतना बड़ा है?’ आश्चर्यमुग्ध पूर्णदत्त बोले।

‘आप यूँ समझिये कि सूरज को अगर क्रिकेट की गेंद के आकार का माना जाय तो पृथ्वी कंचे के बराबर है।’ कहते-कहते प्रो. शर्मा ने उनकी ओर यूँ देखा मानो कह रहे हों कि धंधे में भले आप उस्तादों के उस्ताद हो यहाँ तो शार्गिद ही बने रहो। पूर्णदत्त की आँखे आश्चर्य से लबालब थी। उनके चेहरे के आश्चर्य को देख प्रो. शर्मा ने अपने व्याख्यान को यूँ गति दी जैसे एक कुशल ड्राइवर खाली सड़क मिलते ही गाड़ी प्रथम से द्वितीय एवं अन्य आगे के गियर में डालता है।

‘यह तो कुछ नहीं है पूर्णदत्तजी! इस ब्रह्माण्ड में ऐसे अनेक तारे हैं जिन्हें गेंद के आकार का माना जाए तो सूर्य कंचे के बराबर हो जायेगा एवं तुलनात्मक रूप में तब आपकी पृथ्वी बिन्दु बराबर दृष्टिगत होगी। इससे और आगे बढ़े तो ऐसे तारे भी हैं जिनके आगे सूर्य बिन्दु बराबर दिखेगा एवं वहाँ पर आपकी पृथ्वी दृष्टिगत भी नहीं होगी।’ प्रो. शर्मा का व्याख्यान निर्बाध जारी था।

‘अरे बाप रे! मैं तो इस तथ्य से अब तक अनभिज्ञ था। आपको सुनकर तो मेरी जिज्ञासा की आग भड़क गई है।’ पूर्णदत्त बोले।

‘यह ब्रह्माण्ड अनंत रहस्यों से भरा है पूर्णदत्तजी! यह अरबों-खरबों वर्ष पुराना है। इस ब्रह्माण्ड में सूर्य से अनंतगुना असंख्य तारे, नेबुला, पुच्छलतारे एवं जाने क्या-क्या हैं। यहाँ ऐसे-ऐसे ब्लेक हाॅल हैं जिसमें असंख्य पृथ्वियाँ समा सकती हैं। यह तारे अनवरत् बनते-टूटते जा रहे हैं। कहते तो यहाँ तक है कि इन ब्रह्माण्डों से परे भी अनेक ब्रह्माण्ड हैं जिन्हें मनुष्य आज तक नहीं खोज पाया।’ प्रो. शर्मा का ज्ञान आज भरे घड़े की तरह छलक रहा था।

वे कुछ ओर कहते तभी पूर्णदत्तजी बोले, ‘शर्माजी! अब विराम दें। इससे आगे मैं पचा नहीं पाऊँगा।’

प्रो. शर्मा की आँखों में जीत का नशा छा गया। एक सब कुछ जानकर भी वह नहीं जान पाया जिसे कुछ न जानने वाले ने सहज ही जान लिया।

पूर्णदत्त अब गंभीर हो चले थे। सीट पर सर टिकाकर उन्होंने आँखें मूंद ली। उनके चेहरे पर महायोगियों से भाव उभर आए। जगत का संपूर्ण दर्शन विस्तार लेकर उनके आगे खड़ा हो गया। वे मन ही मन सोचने लगे, इस वृहद् अस्तित्व में हमारी पृथ्वी का क्या अस्तित्व है? कितना क्षुद्र? कितना लघु? इस अस्तित्व में भी कितने अस्तित्व सर उठाकर खडे़ हैं? कितनी संस्कृतियाँ, कितने शहर, कितनी अट्टालिकाएँ, बड़ी-बड़ी नदियाँ, महान पर्वत, कितने धर्म, कितनी जातियाँ, कितने युद्ध, कितनी समस्याएँ, कितनी महानताएँ, कितनी मजबूरियाँ, कितनी सरकारें-देश-विचारधारा एवं इन सबके बीच एक वलवले-सा मनुष्य। इन सबका रचयिता ईश्वर कितना महान है। महान होकर भी कितना मौन। उसे कोई दंभ नहीं, लेकिन मनुष्य ख़ाक का पुतला होकर भी कितने दंभ से भरा है। इस महान अस्तित्व में मेरी क्या औकात है एवं मैं जड़मूर्ख सबको कहता रहा कि तुम्हारी क्या औकात है ? उस बड़ी लकीर के आगे सभी लकीरें कितनी छोटी है। उस विराट के आगे सभी कितने बौने हैं। हमारा अस्तित्व इतना क्षीण है तो हमारी समस्याएँ, रिश्ते-नाते, मित्र, धन-दौलत जिनका हम दम भरते हैं, क्या वजूद है? छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर हम कितने तनावों में रहते हैं? जरा-सा प्राप्त कर कितने प्रमादग्रस्त हो जाते हैं? अकारण कितनों की अवहेलना कर देते हैं? अणुमात्र होकर कितनी समस्याओं एवं कितने विशाल गर्व को जन्म दे देते हैं? काश! हमें इस विराट अस्तित्व में हमारे क्षुद्र अस्तित्व का बोध होता तो हमारी समस्याएँ, हमारे विरोधाभास, हमारे दंभ कपूर की तरह उड़ जाते। हम अनन्य भाव से ईश्वर के शरणागत होते।

सोचते-सोचते पूर्णदत्त के चेहरे पर उपलब्ध ज्ञानियों-सी शांति फैल गई। उनके चिरसंचित प्रश्नों का मानो आज एक साथ जवाब मिल गया। यकायक वे चौंके। प्लेन अब नीचे उतर रहा था।

वे प्लेन से उतरकर बाहर आये। इस शहर की शाखा का एक कारिंदा बाहर उनका इंतजार कर रहा था।

पूर्णदत्तजी के स्वभाव से वह परिचित था। उन्हें देखकर आगे बढ़ा एवं उनके हाथ में पकड़ा ब्रीफकेस उनसे लेने का प्रयास किया। पूर्णदत्तजी ने हाथ पीछे खींच लिया।

कारिंदे के चेहरे पर भय उभर आया। उनकी ओर देखकर बोला, ‘मालिक! रास्ते में कोई तक़लीफ़ तो नहीं हुई।’ उसे पता था पूर्णदत्तजी को चापलूसी भरे शब्द बेहद पसंद है।

‘मालिक नहीं, मैं तो मात्र प्रतिनिधि हूँ।’ यह कहकर पूर्णदत्तजी ने क्षणभर के लिए ऊपर आसमान की ओर देखा फिर वहीं खड़ी गाड़ी की ओर बढ़ गए।

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29-10-2011

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