न जाने बच्चे आजकल इतनी बहस क्यूँ करते हैं ?
ऐसा सबके साथ हो तो मैं मन को मना भी लूँ। हम दुखियारे जीवन को उत्साह देते हैं पर ऐसा है कहाँ ?
मैं रोज देखता हूँ मेरे घर के ठीक सामने नीम की डाली पर बने घौंसले को। कमेड़ी के बच्चे उससे कभी बहस नहीं करते। क्या हमारे बच्चे मूक पक्षियों के बच्चों से भी गये-गुजरे हैं ? गली के पिल्ले भी अपने बड़ों से कभी बहस नहीं करते। क्या मनुष्य की संतानें पशुओं की संतानों से भी कमतर हैं ? यहाँ तक कि नीम के पेड़ के साथ बढ़ता एक छोटा नीम का पौधा भी बड़े पेड़ से कभी बहस नहीं करता। क्या मानव वंशज जड़ प्राणियों से भी बदतर हैं ?
क्या मनुष्य के बच्चे ही उसका सर खपाते हैं ?
अब मेरे बच्चे को ही लो। आधे घण्टे से सर खाये जा रहा है। पहले पता होता तो मैं उसका नाम दीपक की जगह तिमिर रखता।
‘डैडी! अब मैं बीस वर्ष का हो गया हूँ। काॅलेज जाते हुए एक साल होने को आया। पहले तो आप मेरी पाकेट मनी पाँच सौ रूपये से बढ़ाकर एक हजार कर दीजिए। दूसरे इस साल से मैं साईकिल पर जाने वाला नहीं। पैडल मारते-मारते थक जाता हूँ। अब मेहरबानी करके मोटर साईकिल खरीद लें। नया सेशन खुलने तक मुझे मोटर साईकिल चाहिए। जीन्स की पेन्ट्स एवं टी-शर्ट्स मैं खुद ले आऊँगा। आज मैंने पन्द्रह सौ के जूते भी खरीद लिये हैं। आपकी जेब को थोड़ा कष्ट तो होगा पर आप खुद ही तो कहते रहते हो कि संग्रहण पाप है। मित्रों के बीच हर बार जेब झटक कर तो खड़े नहीं हो सकते। मेरे सारे दोस्त मुझे फकीर कहते हैं। क्या सारी कमी हमारे घर में ही आ गई है ? ’ वह सारी बात एक साँस में कह गया। खर्चे की सूची सुनते ही मेरा दिल बैठ गया।
‘पैसे क्या झाड़ पर लटके हैं ? पूरे दिन पसीना बहाते हैं तो लाला तनख्वाह देता है और तनख्वाह भी क्या है, तवे की बूंदों की तरह यूँ गायब हो जाती है। मेरे जमाने में मैं खुद कमाकर अपनी फीस भरता था। खुद अपना सारा खर्च निकालता था। तू तो सुरसा के मुख की तरह हर बार मुँह फाड़कर खड़ा हो जाता है।’
‘‘हर बार अपने दारिद्रय का रोना मत रोओ। दादाजी ने आप छः भाई-बहनों को पाला, आपको तीन में ही नानी याद आ रही है।”
‘‘अरे, हम तो अठारह साल से ही कमाने लग गये थे। तू मुस्टण्डा खजूर के झाड़ की तरह बढ़ गया पर हर बार पैसों के लिए हाथ फैलाता है। फाकामस्ती के अलावा कुछ सूझता भी है तुझे।”
‘नम्बर देखो डैडी मेरे। क्लास में दूसरे स्थान पर हूँ और डाॅक्टरी पढ़ना हँसी खेल नहीं है। जगत में तो ढिंढोरा पीटते रहते हो कि मेरा बेटा डाॅक्टरी कर रहा है और घर में कोसते रहते हो।’
‘पढ़ाई के अलावा काम क्या है तुझे ! मम्मी दीपू-दीपू कहकर रोटियाँ डाल देती हैं, फिर चिंता किस बात की है?’
‘‘डैडी ! अब जमाना बदल गया है। आजकल कम्पीटीशन कितना हो गया है। अब वो जमाने गये जब अट्ठारह साल में काम पर लग जाते थे। आजकल दो नावों पर चढ़ने वाले बच्चे छाती फाड़कर रोते हैं। फिर आप ही तो कहते रहते हो, जो दुःख मैंने देखे बच्चों को नहीं देखने दूँगा। डैडी ! समटाइम्स आई एम प्राउड ऑफ यू।”
‘‘यूँ चिलम भरने से तेरी हाथ खर्ची बढ़ने वाली नहीं। मुझे तो मेरी चादर में ही जीना है।”
अब तक मेमसाहब ने डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगा दिया था। माँ सदैव दीपक का साथ देती थी। स्थिति देखकर उसने माँ को पुकारा।
‘‘मम्मी ! आप भी आज साथ नाश्ता करो ना।”
‘‘अभी आती हूँ।”
अब हम तीनों डाइनिंग टेबल पर साथ थे। दोनों बेटियाँ समर वेकेशन में मामा के घर गयी हुई थी। दीपक की मम्मी ने वार्ता जारी रखी।
‘‘क्यूँ इसके पीछे पड़े रहते हो। अरे जब बच्चे के पाँव में बाप के जूते आने लगे तो उसे बच्चा नहीं दोस्त समझना चाहिए। थोड़ी हाथ खर्ची बढ़ा भी दो, दिन-रात तो पिलता रहता है।” मम्मी ने पुत्र की तरफदारी की।
अब स्थिति एक और एक ग्यारह वाली थी।
‘तू खामख्वाह इसका पक्ष लेती है। अभी तो इसने देखा क्या है ? बाप पर पल रहा है। यूँ इसकी माँगे पूरी करता रहा तो एक दिन शेखचिल्ली की तरह चिड़िया का दूध मांगेगा। डाॅक्टरी क्या पढ़ रहा है, सुरखाब के पर लग गए हैं।
‘‘जब देखो इसे कोसते रहते हो। अभी पिछले महीने तो लाला ने तीन हजार का इंक्रीमेंट दिया है। यही समझ लो इसी के भाग्य का मिला है।”
‘‘पूरे वर्ष पसीना बहाकर इंक्रीमेंट लो एवं बढ़ते ही चील झपट्टे के लिए तैयार।”
‘‘डाॅक्टर बनकर तुम्हारा ही तो नाम करेगा। उस दिन तुम ही तन कर चलोगे।”
‘‘यस डैडी, मम्मी इज राइट। पिछले वर्ष मैंने टी.टी. चैंपियनशिप जीती तो लोगों ने यही कहा था, माथुर साहब का बच्चा कितना होनहार है !”
‘‘टुक्कड़खोर ! ज्यादा डींग मत मार। प्यादे से फर्जी हो गया है इसीलिए टेढ़ा चल रहा है।”
अब तक सभी नाश्ता कर चुके थे। नाश्ता करके दीपक ने दूध पीया व डकार ली।
मैंने मन ही मन सोचा, बाप के टुक्कड़ खाकर कैसे सांड की तरह डकार ले रहा है। बेटे से तो बेटियाँ भली, अपने डैडी की मजबूरी तो समझती हैं।
रीता अभी भी बात छोड़ने को तैयार नहीं थी।
‘‘अच्छा इस महीने से इसकी हाथ खर्ची एक हजार कर दो। बच्चों को बराबर पाॅकेट मनी नहीं मिलेगी तो इधर-उधर हाथ मारेंगे। उनकी जायज माँगों को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। मोटरसाइकिल मेरे नाम की एफडीआर तुड़वाकर दिलवा दो।”
मुझे लगा मानो किसी ने कलेजे पर अंगारे चिपका दिये हों। दीपक का चेहरा फूलों की तरह खिल गया। आज उसी का चन्द्रमा था, चहक कर बोला,‘‘मम्मी! यू आर ग्रेट ! मेरे लिए आप कितना त्याग करती हैं।”
उसने कृतज्ञ आँखों से माँ की ओर देखा। उसके सर पर हाथ फेरकर वह बोली, ‘‘कैसा बोझ ! क्या गाय को अपने सींग भारी लगते हैं ? क्या पलकों का आँखों पर बोझ होता है ? बच्चे खुश रहें, माँ-बाप को और क्या चाहिए। तुम्हारे डैडी की तो बस जुबान ही खराब है, दिल से तो यह भी यही चाहते हैं कि तुझे कोई तकलीफ न हो।”
अब कहने को क्या बचा था। इसे कहते हैं पलटवार। मैं खिसियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोच रहा था।
यह रोजमर्रा की बातें थी। बातों की भाजी में यूँ तीखे-मीठे छौंक न लगे तो गृहस्थी का मजा ही क्या।
माँ-बेटे दोनों अपने-अपने काम पर लग गए। मैं अभी भी टेबल के पास बैठा अखबार के पन्ने उलट रहा था। अखबार को तो सिर्फ आँखें देख रही थी एवं हाथ उलट रहे थे, मन तो अतीत के पन्ने उलटने में लगा था।
यकायक मुझे उन दिनों की याद हो आई जब मैं काॅलेज में पढ़ता था। उन मधुर स्मृतियों की सुवास आज भी मेरे हृदय में बसी है। यौवन की यादों के हिंडौलों पर झूलना कितना मधुर लगता है। काॅलेज में छः पीरियड्स होते थे पर हम आधों में नदारद होते। कभी कैंटीन में तो कभी कहाँ। नीम के उन बड़े-बड़े दरख्तों के सायों में मित्रों के साथ घण्टों घूमना कितना आनंदप्रद लगता था। क्लास की लड़कियों के बारे में बातचीत करना, जब मूड हो फिल्में देखना जीवन का एक हिस्सा था। पिकनिक की तो बस बात चल जाए। कितने गाने याद थे। ओह ! क्या दिन थे वो। पाॅकेट मनी को लेकर एक बार मेरा भी बाबूजी से झगड़ा हुआ था। तब उन्होंने भी मन मारकर पाॅकेटमनी बढ़ायी थी।
मुझे याद है तब हम घर से यह कहकर जाते थे कि पढ़ने जा रहे हैं, पर अक्सर सिनेमा में होते। एक बार मेटिनी शो देखकर घर आया। उस फिल्म में हीरों ने एक डाकू का किरदार किया था। वह रोल मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया। डाकू का जोश एवं अभिमान मेरे खून में उतर आया। घर आकर भी कई देर तक वह किरदार मेरी आँखों के आगे नाचता रहा। उस दिन मैं घण्टों दर्पण के सामने खड़ा होकर डाकू वाले डायलाॅग बोलता रहा। न जाने कब बाबूजी आए एवं कब उन्होंने मुझे ऐसा करते हुए देख लिया। वे चुपचाप मेरे पीछे आकर खड़े हो गए। दर्पण में बाबूजी की छवि देखते ही मैं मुड़ा। काटो तो खून नहीं। बाबूजी कुछ देर चुप रहे फिर आँखें ऊँची करके बोले,‘आज फिल्म देखकर आया है क्या ?”
बाबूजी के सामने हाँ भरकर तो मैं रसातल में चला जाता। इतना साहस मुझमें नहीं था। मैंने पेट की दाढ़ी को जरा भी नहीं हिलने दिया। पिताजी पेट में तो घुसने से रहे। मैं सकपका कर बोला,‘‘नहीं बाबूजी।‘‘
‘‘नहीं क्या, तेरी लाल आँखें बता रही हैं कि फिल्म देखकर आया है।”
चोरी पकड़ी जाते ही मैं बिफर पड़ा।
‘‘पता नहीं आप मुझ पर विश्वास क्यूं नहीं करते। मैं तो मित्र के घर पढ़ने गया था।”
पिताजी ने मेरी ओर घूर कर देखा। मेरा कान पकड़ा और बोले,‘‘बरखुरदार ! तुम जिस विद्यालय में पढ़ते हो हम कभी वहाँ के प्रिंसिपल हुआ करते थे। हमारी बिल्ली हम ही से म्याऊँ।”
यह कहते-कहते उन्होंने अपनी जेब से सिनेमा का आधा टिकट निकाला और मेरे हाथ में रखकर बाहर चले गए। कलई खुलने से मुँह टका-सा हो गया। धर्म भी छूटा और तुम्बा भी फूटा। सर पर घड़ों पानी पड़ गया, पिण्डलियाँ हिलने लगी। उस दिन कोई मेरा हृदय भी चीरता तो रक्त की एक बूंद न निकलती। मुँह पर जैसे किसी ने झाडू फेर दिया हो। आखिर पिताजी के पास यह टिकट आया कहाँ से ? मैं तुरन्त पर्स की ओर लपका, उसमें से आधा टिकट गायब था। इसी प्रकार बाबूजी ने एक बार मुझे होटल में एक लड़की के साथ डोसा खाते हुए पकड़ा था।
उस दिन मैं रीता के साथ ‘न्यू काॅफी हाऊस‘ में बैठा था। यकायक मेरी पलकों ने झपकना बन्द कर दिया। पिताजी कैफे का दरवाजा खोलकर अंदर घुस रहे थे। मेरा कलेजा मुँह को आने लगा। श्वासों का वेग एवं हृदय की धड़कन दो गुनी हो गई। मेरा सौभाग्य ! वे दरवाजे के पास वाली सीट पर ही बैठे, चाय पी एवं भुगतान करके चले गए। मैंने राहत की साँस ली। अच्छा हुआ बाबूजी ने हमें नहीं देखा। देखते तो यूँ चुप रह जाते क्या? किसी तरह प्लेट में रखा डोसा मैंने गले से उतारा एवं वेटर को बिल लाने को कहा। मुझे काटो तो खून नहीं जब वेटर ने बताया कि बाबूजी हमारा भी भुगतान कर गए हैं। लगा जैसे किसी ने जाजम खींच ली हो। कम्युनिकेशन का कितना प्रभावी तरीका था उनके पास।
उस रात पिताजी घर आते उसके पहले ही मैं चादर मैं दुबक गया। पिताजी कमरे में आए तो मैं लाश की तरह बिना हिले ऐसे लेटा रहा मानो गहरी नींद में हूँ। उस दिन देह की दोनों आँखों बंद थी, पर मन की आठों आँखें खुली थी। रात पिताजी माँ से कह रहे थे,‘‘ तेरा बैटा जवान हो गया है, अब नाक में नकेल डालनी होगी।”
बाद में उन्होंने ही रीता के पिता से मिलकर मेरा विवाह रीता से करवाया था।
विवाह के बाद जब मैंने एवं रीता ने उनके चरण छुए तो वे मुस्करा कर बोले, ‘‘अब तुम शौक से काॅफी हाउस जाओ। अब तुम्हारा भुगतान मैं नहीं करूँगा।‘‘ तब मन ही मन मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया, प्रभु! हर जन्म में मुझे ऐसे ही बाबूजी मिले। मेरी छाती गर्व से दूनी हो गई। माँ की ममता पर असंख्य ग्रंथ लिखे जा चुके हैं, पर आज मुझे समझ में आया पिता पर इतना साहित्य क्यों नहीं लिखा गया-शायद पिता की महानता एवं ऊँचाई को शब्दों में समेटने की शक्ति साहित्य में नहीं है। आसमान की ऊँचाई तक साहित्य के ऊँट की गरदन भला कैसे पहुँचेगी?
यही रीता आज मेरी दो बेटियों एवं दीपक की माँ थी। बच्चे उसे मम्मी और मैं ‘मेम साहब’ कहता था।
आज मैं पिता की भूमिका में था। रोल्स वर रिवर्स्ड। हर युग के पिता की तरह अक्खड़ एवं पुत्र पर नजर रखने वाला।
आज शाम ऑफिस से घर आया तो घर में शोर मचा था। तेज बीट्स एवं पाश्चात्य धुन की आवाज आ रही थी। आवाजें ऊपर के कमरे से आ रही थी। मैंने रीता के हाथ में बैग थमाया, वह कुछ कहती उसके पहले मैं तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया। दरवाजा खोला तो दंग रह गया। दीपक व उसके तीन मित्र पाश्चात्य धुन पर नृत्य कर रहे थे। हर लड़के के सामने एक लड़की थिरक रही थी। पलभर के लिए मुझे लगा मानो एक सैलाब मेरे पुराने संस्कारों को बहा ले जा रहा है। यकायक दीपक ने मुझे देखा एवं सभी से मेरा परिचय करवाया, ‘‘ही इज माई ग्रेट डैडी।” वह जरा भी नहीं सकपकाया न ही अन्य किसी के चेहरे पर कोई ग्लानि थी। मैं चुपचाप नीचे चला आया। नृत्य फिर प्रारम्भ हो गए।
एक बार मैंने दीपक को मोटरसाइकिल पर एक लड़की के साथ जाते हुए देखा। लड़की जीन्स की पैण्ट पहने दीपक से चिपक कर बैठी हुई थी। उस दिन मैंने एक कड़वा घूँट गले के नीचे उतारा।
मैं अक्सर रीता को उसे टोकने के लिए कहता पर वह सदैव उसका पक्ष लेती। उल्टे मुझे ही समझाती, जमाने के साथ चलो। हवा के विरूद्ध नाव खेओगे तो मंजिल से तो भटकोगे ही, पाल भी फट जाएगा।
मैंने रीता की राय नकार दी। मेरे भीतर का पिता हर बार डंडा लेकर खड़ा हो जाता।
दोनों बेटियों को मामा के यहाँ गए पाँच रोज होने के आए। कल शाम जिद करके रीता व दीपक भी वहीं चले गए।
इन दिनों मैं अकेला था। एक शाम इवनिंग वाॅक कर घर लौट रहा था। पहाड़ी के उस पार निर्जन क्षेत्र में इवनिंग वाॅक करना मुझे बेहद रास आता था। झूमते हुए पेड़ मन को उल्लास से भर देते। पक्षियों का गुंजन मन के तार झंकृत कर देता। हाँ, रास्ते में श्मशान पड़ता था अतः कभी-कभी आशंकित हो जाता। हर हाल में रात होने के पहले घर पहुँच जाता। इन दिनों अकेला था अतः आराम से घर पहुंचता था।
पहाड़ी का चक्कर लगाकर मैं मुड़ा ही था कि आसमान काले बादलों से भर गया। देखते ही देखते टपाटप बूंदें गिरने लगी। मैं आधा भीग गया। थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि बरगद के तले एक बूढ़े बाबा को खड़े देखा। बड़ा तेजस्वी रूप था उनका। शुभ्र वस्त्र, पेट तक जाती हुई लम्बी सफेद दाढ़ी, तेजस्वी आँखें, तांबे जैसा रंग, तीक्ष्ण नाक एवं थाल की तरह भव्य मस्तक जिस पर विष्णु तिलक लगा था। सौम्य एवं विलक्षण मुखाकृति थी उनकी। उन्होंने मुझे देखते ही पुकारा, ‘‘ आप इधर आ जाइये, बारिश बहुत तेज हो गई है।”
उनकी आँखों में ऐसा सम्मोहन था कि मैं जल्दी में होते हुए भी ना नहीं कह सका। उनके पास आते-आते मैं पूरा भीग गया। अद्भुत भद्रपुरूष थे वह। उन्होंने कंधे से दुपट्टा उतारा एवं कहा, ‘‘भीग गए हो ! शरीर पोंछ लो।”
शायद उन्होंने मेरी आँखों के संकोच को पढ़ लिया। कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘‘ले भी लो बेटा!”
मैंने अपना शरीर पोंछा।
सामने अब भी झमाझम पानी बरस रहा था। देखते ही देखते रास्ता पानी से पट गया। काले स्याह बादलों ने आसमान को आवृत कर लिया था। बिजलियाँ चुडै़लों एवं डाकिनियों की तरह उधम मचा रही थी। अंधेरा गहराने लगा था। टिव टिव करते पक्षियों का शोर थम चुका था। ऊष्मा से तृप्त धरती अघाती ही न थी।
औपचारिक परिचय हेतु मैंने वार्ता प्रारम्भ की।
‘‘आप यहीं रहते हैं ? मैंने पहले तो आपको यहाँ नहीं देखा।”
‘‘मुझे तो यहाँ रहते वर्षो हो गए। हाँ, इधर पहली बार आया हूँ।”
बातों में बात चली।
‘‘आपके कितने बच्चे हैं ? क्या वे भी यहीं रहते हैं ?”
‘‘एक ही बच्चा था, वह भी रूठ कर चला गया। वर्षाे पहले किसी बात को लेकर उससे तनाव हुआ, आवेश में वह घर छोड़कर चला गया। वह मेरी आँख का तारा था, जरा सी नासमझी के कारण आकाश से टूटे तारे की तरह हमेशा के लिए बिछुड़ गया।”
‘‘आजकल बच्चों को कुछ भी कहना आफत मोल लेना है। कोई बात समझते ही नहीं बस आजाद पंछी की तरह उड़ना चाहते हैं। हमारे जमाने में हम पिताजी की आँखें देखकर डर जाते थे।”
वृद्ध का माथा सिलवटों से भर गया। आँखों में मानो इतिहास सिमट आया हो। उनकी आवाज रुंधने लगी थी जैसे कोई पुराना घाव हरिया गया हो।
कुछ देर चुप रहकर बोले, ‘‘वस्तुतः हमसे ही कोई भूल हो गई है। हर नयी पीढ़ी एक नये मुकाम पर खड़ी होती हैं। उसका अपना एक परिवेश होता है, उसकी अपनी चुनौतियाँ होती हैं। हर युग की एक लय है, ताल है, रिदम है। हर युग के स्वातन्त्र्य की अपनी परिभाषा है, अपने अर्थ हैं। एक निरन्तर प्रवाह है यह। हमें उस प्रवाह में साथ बहना होगा, समय के सुर-ताल समझने होंगे अन्यथा गृहस्थी का आर्केस्ट्रा बेसुरा हो जाएगा। कभी औरत का चार हाथ घूंघट निकालना स्वातन्त्र्य की परिधि में आता था तो कभी घर की चौखट लक्ष्मण रेखा होती थी। आज स्थिति भिन्न है। हम कल की नींव पर आज की इमारत खड़ी नहीं कर सकते। कल, कल था और आज आज। हर पिता को ऐसा लगता है कि नयी पीढ़ी लगाम से बाहर जा रही है। हर पिता के संस्कार हर युग में उसे डण्डा लेकर खड़ा कर देते हैं। बूढ़ों के लिए अतीत से सुन्दर, वर्तमान से बुरा एवं भविष्य से विकट कोई समय नहीं होता। पीढ़ियों का यह अन्तराल हर युग की समस्या है। हर युग के शराब की अपनी मस्ती है पर हर बूढ़ा पुरानी शराब को याद करता है। क्यों? क्योंकि तब वह जवान था। उसमें उत्साह था, उन्माद था, जीने की ललक थी, स्वाद था। बुढ़ापे में यह बातें नहीं रहेगी तो वह स्वाद भी कैसे आएगा? सम्पूर्ण अनर्थों का बीजभूत है मात्र अपने दृष्टिकोण से सोचना। हर नये युग को पुरातन विचारों के इतिहास को कंधे से उतारना होगा। संस्कारों के फंदे काटने होंगे। आज के बच्चों को आज के दाँवपेंच सीखने होेंगे। उन्हें आज की प्रतिस्पर्धा में जीना है तो उसी के अनुकूल बनना होगा। इस छोटी-सी बात को नहीं समझने की मुझे कितनी बड़ी सजा मिली। मैं इस आग में जल चुका हूँ, तुम इस आग में मत जलो।’
वृद्ध की आँखें आर्द्र होने लगी थी। मैं मन ही मन सोचने लगा आखिर इस व्यक्ति के साथ ऐसा क्या हुआ ? मेरी आँखों में उमड़ते प्रश्न को शायद उन्होंने पढ़ लिया। संयत होकर बोले, ‘ कभी मैं भी इस शहर का माना हुआ रईस था। घर क्या था, स्वर्ग था। व्यापार में अशर्फियाँ बरसती थी। बस, एक छोटी सी बात ने मेरा जीवन खराब कर दिया। मेरे पुत्र को हमारे यहाँ काम करने वाली हरिजन की कन्या से प्रेम हो गया। मेरे लाख मना करने पर भी वह नहीं माना। उसने उसी से विवाह किया। उस विवाह में मात्र वे दोनों ही थे। विवाह उपरान्त भी मैंने उसे घर में नहीं घुसने दिया। वह अलग घर लेकर रहने लगा। मैंने अहंकारवश उस पर अमानुषिक जुल्म ढाये। उसकी पत्नी को एक बार गुण्डों तक से पिटवाया। अपने पति की दुर्दशा वह महान स्त्री नहीं देख सकी । एक दिन उसने जहर पीकर इहलीला समाप्त कर ली। उसी के गम में कुछ रोज बाद मेरा पुत्र भी चल बसा। तब मेरी आँखें खुली। लेकिन तब तक चिड़ियाँ खेत चुग चुकी थी।’
वृद्ध की आँखों से बहते हुए आँसू उनकी लम्बी दाढ़ी को भिगोते हुए जमीन पर गिरने लगे थे। कुछ देर बाद संयत होकर बोले, ‘ मेरी सारी कमाई इस पेड़ के नीचे एक घड़े में रखी है। घड़ा मोहरों, नगीनों एवं बहुमूल्य चीजों से भरा हुआ है। बस, उसे तुम्हें मेरे पुत्र तक पहुँचाना होगा। तभी मुझे मुक्ति मिलेगी।‘ इतना कहकर फावड़े से जमीन खोदकर उन्होंने घड़ा बाहर निकाला।
मैं फटी आँखों से देख रहा था। हिम्मत बटोर कर बोला, ‘लेकिन अब यह घड़ा आपके पुत्र तक पहुँचेगा कैसे ? अभी तो आपने बताया कि उसका निधन हो चुका है।’
‘मेरी कहानी को तो दो सौ वर्ष से ऊपर हुए! मेरा पुत्र वर्षों पितृलोक में रहने के बाद तुम्हारे घर जन्मा है। दीपक नाम है उसका। तुम उसे बहुत प्यार करना, उसे समझने की कोशिश करना अन्यथा मेरी तरह मरने के वर्षो बाद तक भटकते रहोगे। लाठी मारने से पानी अलग नहीं होता। लकीर के फकीर बनने से जीवन नहीं चलता।’
डर के मारे मेरी आँखें बंद हो गई। आँखें खुली तो घड़ा सामने रखा था। भद्रपुरूष गायब थे।
क्या आप भी भूत बनकर भटकना चाहेंगे ?
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24.03.2005