विशालकाय ‘थार’ रेगिस्तान के सिंहद्वार ‘जोधपुर’ शहर के बारे में तो अनेक लोग जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग इस तथ्य को जानते हैं कि यहाँ के लोग जितने बातूनी होते हैं उतने ही पेटू भी। यहाँ के हलवाई उनकी इस मनोवृति का भरपूर फायदा उठाते हैं। वे इतने लज़ीज़ पकवान बनाते हैं कि लोग अंगुलियाँ चाट लें। यहाँ के ‘गुलाबजामुन’ ‘मावे की कचोरियाँ’ एवं ‘बूंदी के लड्डू’ जगतविख्यात हैं एवं इससे भी ज्यादा विख्यात है यहाँ के वाशिंदों का व्यावसायिक कौशल जो मिट्टी से सोना बनाना जानते हैं। दूसरे शहरों में जहाँ रईस हजारों में एक होते हैं, यहाँ रईस खर-पतवारों की तरह मिलते हैं एवं वह भी एक से बढ़कर एक। यही वह शहर है जहाँ गलियाँ साफ करने वाले मेहतरों के गले तक में आप स्वर्णहार देख सकते हैं। इसी के चलते लोगों में रईसी शौक भी मुंह चढ़कर बोलते हैं। कला-साहित्य-संस्कृति यहाँ खूब पल्लवित हुई है एवं यही कारण है कि इस शहर को क्षेत्र की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है।
इसी शहर में परकोटे के भीतर एक बाजार है ‘आडा बाजार’ जो ‘यथा नाम तथा गुण’ के अनुरूप इतना आडा-टेढ़ा है कि हर बीस कदम चलने के बाद सामने से किसी मकान की दीवार आ जाती है एवं इन्हीं मोड़ो के चलते यहाँ सड़क हादसे आम बात है। इसी बाजार में एक मौहल्ला है जो ‘महाजनों का मौहल्ला’ के नाम से प्रसिद्ध है एवं इसी मोहल्ले में वह हवेली है जिसके बारे में यह मौहल्ला ही नहीं शहर के अन्य अनेक वाशिंदे भी जानते हैं कि यहाँ एक ‘पिशाच’ रहता है | वस्तुतः बाजार से चलकर यह मौहल्ला अंग्रेजी के ‘टी’ अक्षर जैसा बन जाता है जिसमें टी की टांग बाजार में लगती है एवं टी के ऊपर के दायें-बायें दोनों छोर छोटे-छोटे पच्चीसों मकानों से होकर अंत मे बंद हो जाते हैं। यहाँ सभी घर महाजनों के हैं एवं यहाँ के महाजन अक्सर अपनी चतुर औरतों को लेकर आशंकित रहते हैं। यह व्यवस्था इसी हेतु की गई है। इसी मोहल्ले यानी टी के बायें छोर पर ठीक कोने से भीतर जाता हुआ दीवारों से घिरा एक बड़ा मैदान है एवं इसी मैदान के ठीक सामने वह हवेली है जो ‘सिंघानियों की हवेली’ के नाम से जानी जाती है एवं जिसके बारे में लोग कहते हैं कि यहाँ पिशाच रहता है। अब यह हवेली पुरानी हो गई है एवं यहाँ कोई नहीं रहता सिवाय उन परिंदों एवं गिलहरियों के जिनके मकान इंसानों के भग्न भवन ही होते हैं। हाँ, इसी हवेली के बाहर मैदान के पश्चिमी कोने में टीन के टूटे छप्पर के नीचे एक फकीर ‘अल्लारखा’ रहते हैं जिनका झुर्रियों भरा चेहरा एवं सन जैसी लंबी दाढ़ी देखकर कोई भी कह सकता है कि वे नब्बे से कम न होंगे। मौहल्ले के अनेक बड़े-बूढ़े तो यहाँ तक कहते हैं कि अल्लारखा सौ पार है। एक पुराना लबादा, कांसा, चिमटा, फटे वस्त्र एवं लाल-पीले पत्थरों की माला यही उनकी कुल संपति है लेकिन आँखों में वह चमक है जो अच्छे-अच्छे रईसों की आँखों में नजर नहीं आती।
इसी मौहल्ले के बीचों बीच हमारा मकान था जहाँ मैं मेरे माता-पिता, चार भाइयों एवं दो बहनों के साथ रहता था। मैं सबसे छोटा था एवं पैदा भी पिताजी की पक्की उम्र में तब हुआ था जब मेरे सबसे बड़े भाई का विवाह हो गया था। अब तो कंडोम एवं बर्थकंट्रोल के अनेक तरीके बूढ़ों की लाज रख लेते हैं पर यह वह जमाना था जब धोती खुलने का अर्थ था एक नई ‘किलकारी’ एवं तब अनेक बार मैंने मौहल्ले के भानजों-भतीजों के मुँह से सुना था कि उनके यहाँ नये मामा अथवा चाचा का जन्म हुआ है। विवश बूढ़ों के पास तब आँख नीची करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। औलादों के आगे उनकी नस दबती तो इसी मुद्दे पर जैसा कि एक बार मैंने मेरे पड़ौसी के सबसे बड़े पुत्र को पिता से झड़पते देखा था। पिता ने उसे जब कहा कि उन्हें पोता चाहिए तो उनके लाडले बोले, ‘पहले आप भैया पैदा करना बंद करें तो मैं पोते की सोचूं’ । मेरे बूढे़ पड़ौसी तब अपना-सा मुँह लेकर रह गए थे।
हमारे मोहल्ले में थे तो सभी महाजन लेकिन यह महाजन शहर के उन रईसों की तरह नहीं थे जिनकी रईसी के किस्से हम अक्सर सुनते एवं जिनके बारे में लोग कहते थे कि वे लंदन से मंगाये कपड़े पहनते हैं, ईरान का महंगा इत्र लगाते हैं एवं अपनी पर उतर आये तो पतुराईनों को सोने का कण्ठा तक उपहार में दे देते हैं। मेरे मौहल्ले के महाजन परचूनिया महाजन थे जो छोटे-मोटे वैसे ही कारोबार करते थे जैसे कि मेरे पिता बाहर बाजार में किराने की दुकान चलाते थे। हमारी दुकान अच्छी चलती थी अतः हम ‘अंधों में काना राजा’ थे। लोग अक्सर मेरे पिता से महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर राय लेने आते। होली की पहली पिचकारी वही छोड़ते , दिवाली का पहला दीया भी वही जलाते। यह उन जमानों के दस्तूर थे। जो आदर ज्ञानियों में अधिक ज्ञानी पाता है वही आदर अन्य महाजनों से हमें मिलता था। महाजनों की सीधी गणित थी, अधिक पैसा यानि अधिक बुद्धिमान।
हमारा मकान मौहल्ले के अन्य मकानों से बड़ा था जिसमें बाहर की ओर खुलते सुंदर झरोखे थे। झरोखों के दोनों ओर की चित्रकारी देखते बनती थी। इन झरोखों से लटकते कंगूरे मकान की शोभा में चार-चांद लगाते। चित्रों के चारों ओर रंग-बिरंगे कांच के टुकड़ों की चौकोर पट्टी लगी होती एवं मुझे याद है इन पट्टियों पर सवेरे सूर्यकी किरणें पड़ती तो मकान शीशमहल की तरह चमक उठता। हमारा आंगन भी अन्यों के आंगन से बड़ा था जहाँ खूबसूरत शीशम के दो बड़े पाट रखे होते। इन पाटों पर मोटे गद्दे जिन पर सफेद चद्दर लगी होती। गद्दो के पीछे दीवार से सटे दो गोल मशक रखे जाते जिनके रेशमी कवर पर फूलों की सुंदर कढ़ाई होती। मौहल्ले के अनेक लोग रात्रि भोजन के पश्चात पिताजी से मिलने आते तो इन्हीं पाटों पर बैठकर गपियाते। भरे पेट बातें भी रसभरी होती। अनेक बार गंभीर मुद्दों पर भी मनन होता एवं इन्हीं मुद्दों में कभी-कभी पिशाच वाली हवेली का मुद्दा भी छिड़ जाता। हवेली का जिक्र आते ही महाजनों को सांप सूंघ जाता। न जाने कितने किस्से, कितनी किंवदंतियाँ, कितनी मनगढ़न्त बातें इस हवेली को लेकर प्रचलित थी। जितने मुँंह उतनी बातें। लोग सोते तब भी हवेली के किस्से जागते।
एक बार मैंने मेरे पिता को पाट पर बैठे अन्य मित्रों के साथ हवेली के बारे में बात करते हुए सुना था। तब मैं दस वर्ष का था एवं मुझमें इतनी समझ आ चुकी थी कि मैं जान पाता कि लोग क्या कह रहे हैं।
उस दिन रात के दस बजे होंगे। मैं पिताजी के पास पाट पर अधमुंदे लेटा था। उस दिन ‘मांगू’ चाचा ने फिर हवेली का ज़िक्र छेड़ दिया। मांगू चाचा धंधे में असफल आदमी थे अतः अन्य महाजन उसे कम गांठते थे। उसका वास्तविक नाम तो लिखमीचंद था पर ओछी पूंजी के चलते जब-तब अन्यों से उधार मांगता रहता। इसी के चलते नाम मांगू चाचा पड़ गया। उसकी बीवी करम ठोकती रहती। सबसे उपेक्षित होने का दर्द उसे अक्सर सालता लेकिन हवेली की चर्चा कर वह सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेता।
हवेली का ज़िक्र छिड़ते ही मैंने आँखें मूंद ली। मैंने आँखें तो बंद कर ली लेकिन कान ध्यानस्थ योगियों की तरह चौकन्ने थे। मैं ध्यान से मांगू चाचा को सुन रहा था। वे पिताजी को कह रहे थे, ‘बद्री! सुना है बीती रात पिशाच ने हवेली में फिर उत्पात मचाया।’ मेरे पिताजी का पूरा नाम बद्रीशंकर था पर उनके हमवय मित्र उन्हें बद्री कहते थे। मांगू की बात सुनकर पिताजी सहम कर बोले, ‘कल क्या हुआ मांगू? जब देखो वहाँ लफड़ा होता रहता है।’ पिताजी की बात सुनकर पाट पर बैठे मोतीलाल, माणकचंद, हीराभाई, चतुर्भुज एवं अन्य महाजन चौकन्ने हो गए। इनमें से एक भी महाजन साहसी नहीं था वरन् मैं तो सफा कहूँगा कि सभी एक से बढ़कर एक बुज़दिल थे। साहसी होते तो हवेली जाकर पता नहीं कर लेते? लेकिन हवेली तक जाना तो दूर सभी मैदान तक से दूर रहते। इन सभी ने हवेली का आतंक इस कदर फैला रखा था कि मौहल्ले की औरतें अपने बच्चों तक को उस ओर नहीं भेजती थी। सांझ ढलने के पश्चात तो हवेली एवं मैदान में उल्लू बोलते।
अपनी बात कहने के पूर्व मांगू चाचा ने थोड़ा-सा झुककर अपनी धोती व्यवस्थित की एवं इस तरह देखा मानो सबसे पूछ रहा हो कि कोई डरेगा तो नहीं। यूँ रहस्यमयी आँखों से देखने से सबका कौतुक सर चढ़ बैठा एवं जब चतुर्भुज ने जोर देकर कहा कि मांगू बात पूरी कर तो मांगू बोला, ‘थै सब तो जाणो इज हो कि मारो घर मैदान उँ सबा पैली आवै’ यानि मेरा घर मैदान से सटकर है। कल रात जब बारिश हो रही थी तो मैं पिशाब के लिए उठा। मुझे पिशाब की बीमारी है अतः रात तीन-चार बार उठना पड़ता है।’ मांगू आगे बढ़ता उसके पहले माणक बोला, ‘धंधो नहीं चाले तो ऐसी बीमारियाँ लग ही जाती है।’ बात में व्यवधान होते ही बाकी सभी ने माणक को घूर कर देखा तो बेचारा अपना-सा मुँह लेकर रह गया। मांगू का हौसला दूना हो गया एवं इस बार आश्वस्त होकर उसने बात आगे बढाई, ‘रात जब मैं पहली बार उठा तब तेज बारिश हो रही थी। यकायक मैं चौंका। हवेली की ओर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही थी। मैं समझ गया यह उसी पिशाच की करतूत है। मैंने धीरे से मैदान की ओर खुलने वाली खिड़की खोली तो देखकर दंग रह गया। हवेली पर बिजलियाँ कड़क रही थी एवं हवेली की छत पर एक छः फुटा आदमी पाँव पटक-पटक कर कह रहा था, सालों! हरामजादो! मेरी बीवी के गहने मुझे वापस दो। मुसीबत में दो पैसा उधार ले लिए तो क्या गहना खा जाओगे। मैं इन मिनखमार ब्याज लेने वालों की चमड़ी उधाड़ दूंगा। पिशाच इतना कहकर अट्टहास करने लगा। उसकी चमकती हुई आँखे एवं तीखे दांत देखकर मैं डर गया। माणक! मैं तुझे क्या बताऊँ उसके नाखून एक फीट लम्बे थे, पेट पर रखे तो अंतड़ियाँ बाहर आ जाय।’ माणक को काटो तो खून नहीं। पिछले माह ही माणक ने मांगू को पांच रुपया सैंकड़ा पर रकम दी थी एवं वह भी गहने रखकर। परचूनियों में कौन किसका सगा है? दूसरों से धंधा नहीं मिले तब अपनो को खाते हैं। यहाँ तो रकम पहले एवं रिश्ता बाद में वाला नाता चलता है।
पिशाच का डर माणक के सर चढ़ बैठा। उसकी रूह कांप गई, डरते-डरते बोला, ‘मांगू, मुझे नहीं चाहिए मेरी रकम पर ब्याज। अडाण पर रखे गहने भी ले जाना। जीऊंगो तो फेर कमा लूंगो। यो पिशाच तो प्राण पीग्यो।’
उस दिन अपनी वाणी का ऐसा प्रभाव देख मांगू के आँखों की चमक बढ़ गई। अब तक बारह बज चुके थे एवं सभी जानते थे कि यह समय बात बढ़ाने का नहीं है। सभी एक-एक कर पाट से उठे एवं अपने-अपने घरों की राह ली। रात पिताजी माँ से कह रहे थे यह पिशाच किसी ऐसे भटके हुए महाजन की आत्मा लगती है जिसे मुसीबत में अपनों ने ही मार खाया।
दूसरे दिन माँ ने अपनी सखियों को एवं मैंने मेरे बाल-मित्रों को यह बात चटकारा लेकर सुनाई। माँ ने सखियों का एवं मैंने अपने मित्रों का ध्यान उसी एकाग्रता से खींचे रखा जैसा मांगू ने पिताजी एवं अन्यों के संग किया था। कुछ समय पश्चात यह घटना भी पुरानी हुई जब मौहल्ले के एक व्यक्ति ने नयी बात कही कि यह पिशाच तो किसी चिर-कुंवारे की आत्मा है जो स्त्री-सुख के बिना ही मर गया। फिर कुछ दिन बाद किसी ने कहा कि यह ऐसे पुरुष की अतृप्त रूह है जो धन-संग्रह नहीं कर पाया। महाजनों में कहावत है कि बनिया दरिद्र मरे तो उसकी रूह चिर-काल तक भटकती है। किसी ने कहा कि यह ऐसे व्यक्ति की रूह है जिसके बच्चे नहीं हुए इसलिए मुक्ति के लिए छटपटा रहा है। एक व्यक्ति एक दिन उड़ती-उड़ती खबर लाया कि इसकी बीवी किसी अन्य से प्रेम करती थी अतः इसने आत्म-हत्या कर ली। अब वही आत्मा पिशाच बनकर भटक रही है। एक औरत जिसके कोई बच्चा नहीं था एक बार कह रही थी कि हवेली वाला पिशाच वास्तव में बाल-पिशाच है जिसकी मौत बचपन में ही हो गई। एक और व्यक्ति यह कहते सुना गया कि यह किसी ऐसे महाजन की रूह है जो अपना रुपया वसूल नहीं कर पाया। अब उसकी रूह वसूली के लिए निकलती है। महाजन मरकर भी देनदार को नहीं छोड़ते। कोई कहता यह ऐसे महाजन की रूह है जिसका सारा धन राजा हड़प गया। कोई यह कहता कि यह ऐसे आदमी की रूह है जिसने अमानत में खयानत की है। पूरा मौहल्ला इस पिशाच को लेकर जाने क्या-क्या कहता था। कुल मिलाकर मौहल्ले में जितने मकान थे उतनी ही इस पिशाच को लेकर किम्वदंतियां थी।
यह प्रकृति की अद्भुत संरचना है कि बाल-मन जितना भीरू होता है उतना जिज्ञासु भी होता है। इन सभी किम्वदंतियों ने मेरे बाल-मन में अनेक प्रश्न खड़े कर दिए। मैं रात घण्टों सोचता रहता। क्या भूत-पिशाच होते हैं ? हमारे मौहल्ले का यह पिशाच कौन है? कैसा है? क्या मांगू चाचा ने सचमुच उसे देखा? क्या अन्य लोग उसके बारे में जो कुछ कहते हैं वह सच है या झूठ? माँ एव पिताजी से मैंने इस बारे में अनेक बार पूछा पर दोनों ने पल्ला झाड़ दिया। एक बार तो पिताजी झल्ला पडे़, ‘खबरदार! आगे से पिशाच के बारे में पूछा तो?’ मैं चुप होकर रह गया।
अब मैंने उस पिशाच के बारे में जानने की ठान ली। मुझे इस पहेली का ताला खोलना ही था एवं इसकी कुंजी थी फकीर बाबा।
दूसरे दिन दोपहर चार बजे के बाद, जब मौहल्ले के मरद दुकानों एवं औरतें घरों में व्यस्त थी, मैंने माँ से आँख चुराकर कटोरदान से ढेर सारे परांठें बटोरे, एक पुरानी थैली में ठूंसे एवं दबे पाँव मैदान में घुस गया। उस दिन वातावरण में उमस थी एवं आसमान पर बादल छाये थे। मेरी जिज्ञासा ने मेरे संकल्प एवं हौसले को इतना दृढ़ कर दिया था कि मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। मैंने जब परांठें फकीरबाबा के कांसे में रखे तो वे चौंके। उनका चौंकना वाजिब था। जिधर कोई नहीं आता उधर एक बच्चा क्योंकर चला आया? मैं फकीर बाबा के आगे ऐसे खड़ा हो गया जैसे एक शार्गिद अपने उस्ताद के आगे खड़ा होता है। मैंने जब बताया कि मैं बद्रीशंकरजी का बेटा हूँ एवं इस हवेली के पिशाच की कहानी जानने आया हूँ तो वे गंभीर हुए। मेरे माता-पिता की सज्जनता एवं उदारता का वह कायल था। माँ-पिताजी उसे समय-समय पर कपडे़, कंबल, खाना देते रहते थे।
मेरा प्रश्न सुनकर वे बोले, ‘जरा ठहर! कल से कुछ नहीं खाया। पेट में चूहे कूद रहे हैं। पहले खाना खा लूँ फिर तुझे इस पिशाच के बारे में बताऊँगा। मैं अकेला ही हूँ जो इस पिशाच की सच्ची कहानी जानता हूँ बाकि सब बकवास करते हैं।
खाना खाकर उन्होंने पास पड़ी टूटी सुराही से पानी पीया एक बार पुनः मेरी ओर देखा। अपने गले में पड़ी माला पर धीरे-धीरे हाथ फरेते हुए बोले, ‘यह हवेली किसी जमाने में सिंघानिया परिवार की हवेली थी। तब मैं जवान था। इस हवेली में दो भाई रहते थे। उनका एक दूसरे पर अनन्य प्रेम था। दोनों एक दूसरे पर जान देते थे। दोनों की पत्नियों में भी अटूट स्नेह था। दोनों के एक-एक पुत्र था। अच्छी समझ के चलते दोनों में प्रेम की निर्झर धारा बहती थी। यह घर स्वर्ग था। भाइयों की माँ बचपन में चल बसी थी एवं दोनों अपने पिता के प्रति उतनी ही श्रद्धा रखते थे जितना भक्त भगवान के प्रति रखता है। एक बार बड़े भाई को बुखार क्या हुआ छोटे ने तीमारदारी में दिन-रात एक कर दिए। दिन देखा न रात। प्राण नखों में समा गए। बड़ा भाई ठीक हुआ तो छोटे को गले लगा लिया। उसका कंधा थपथपाकर बोला, ‘तेरे जैसे भाई भाग्य से मिलते हैं।’
दोनों भाइयों का कारोबार बहुत अच्छा तो नहीं पर इतना भर चल जाता था कि उनके परिवार सुख से पल सके। दोनों भाई मेहनतकश थे एवं उनका शरीर सौष्ठव भी दर्शनीय था। ऐसे ही प्रेमपूर्ण वातावरण में रहते कुछ वर्ष बीत गए। इसी दरम्यान उनके पिता का स्वर्गवास हुआ एवं इस बात को भी कुछ माह बीत गए।
‘बाबा! मैं पिशाच की कहानी सुनने आया हूँ, दोनों भाइयों की नहीं।’ मेरा जिज्ञासु मन अन्य कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था।
‘बताता हूँ! बताता हूँ!’ इस बार उन्होंने अपनी छाती पर हाथ रखा जिसके नीचे वे दसों पैबंद लगा गहरे काले रंग का चोला पहने थे।
अपनी बात बढ़ाते हुए बाबा बोले, ‘कहते हैं इस हवेली के ऊपर वाले कमरे में एक पिशाच रहता था। इसी के चलते घर के बड़े-बुजुर्ग कहते आये थे कि छत वाले कमरे में जाना मना है एवं इसी पुश्तैनी आज्ञा के चलते छत पर कोई नहीं जाता था। पिता की मृत्यु के पश्चात दोनों भाइयों को जाने क्या जंची कि दोनों छत पर गए, साहस कर दरवाजा खोला एवं देखकर हैरान रह गए कि वहाँ कोने में लकड़ी की एक पेटी रखी है जिस पर लोहे का पुराना ताला जड़ा था। बड़े भाई ने कमरे में इधर-उधर देखा तो कमरे के दांये कोने में आले के भीतर एक लंबी चाबी दिखी। यह चाबी इसी ताले की थी। ताला खुला तो पेटी में रखा माल देखकर दोनों भाई दंग रह गए। खरे सोने की पच्चास ईंटे!!! दोनों की आँखे फटी रह गई।
दोनों बाहर आए एवं गुपचुप मंत्रणा कर तय किया कि यह बात गोपनीय रखी जाय। खबर राजा तक पहुँच गई तो राजा धन हड़प सकता है अतः उचित होगा कि वे औरतों को कुछ न कहें एवं चुपचाप देशाटन पर निकल जाए। बाहर से इन स्वर्णईंटों के बदले मुद्राएं लाकर लोगों को कह देंगे कि वे कमाकर लाए हैं। दोनों भाई देशाटन पर ऊँटों से निकले एवं नगर आते ही अपनी योजना को अंजाम देने हेतु वहाँ एक धर्मशाला में जाकर रुक गए। धर्मशाला में उन्होंने झूठे नामों से प्रविष्टि दर्ज करवाई ताकि भविष्य में यह पता न चल सके कि यहाँ कौन आया था।
दूसरे दिन दोनों भाइयों में तय हुआ कि बड़ा स्वर्णईंटों को लेकर बाजार जाये एवं छोटा धर्मशाला में ही रुके ताकि कोई विपत्ति आन पड़े तो वह संभाल सके। योजनानुसार बड़े भाई ने बाजार जाकर स्वर्णईंटों के बदले सहस्रों मुद्राएं प्राप्त कर ली। प्रसन्न मन वह लौट ही रहा था कि उसके दिमाग में एक अजीब फितूर चढ़ बैठा। क्या ही अच्छा हो कि यह सभी मुद्राएं मेरी हो जाय? छोटा मुझ पर बेहद विश्वास करता है लेकिन इसके लिए उसे रास्ते से हटाना होगा। इस कुत्सित भाव के आते ही उसने रुककर बाजार से एक कटार खरीदी एवं मन ही मन यह सोचते हुए धर्मशाला की ओर बढ़ा कि छोटे को मारकर पिछवाडे़ नाले में डाल दूंगा। किसे पता चलेगा कि यह कार्य मैंने किया है? इस तरह यह सारी मुद्राएं मेरी हो जायेंगी।
इधर छोटे भाई ने भोजन करने के पश्चात बड़े के लिए खाना एक ओर रक्खा तो उसके मन में भी विचारों का ऐसा ही खमीर उठा। उसने भी वही सोचा जो बड़े भाई ने सोचा कि एक को रास्ते से हटाकर सारे माल को हड़प लिया जाय। वह बाजार गया एवं वहाँ से जहर लाकर बचे खाने में मिला दिया। सोचा, बड़े भाई खाना खाते ही लुढ़क जाएंगे एवं मैं सब कुछ लेकर चंपत हो जाऊंगा।
बड़ा भाई धर्मशाला पहुँचा, कमरे में आकर दरवाजा बंद किया एवं इसके पहले कि छोटा कुछ कहता उसने कटार सीने में घोंप दी। छोटा खून से नहा गया। वह चिल्लाता उसके पहले उसका मुंह कपड़े से बंद कर दिया। इस दुष्कृत्य को अंजाम देने के पश्चात उसने वहीं रखा भोजन देखा तो सोचा जाने से पहले क्यों न खाना खा लिया जाय। भरे पेट यात्रा सुगम होगी। खाना खाकर बड़ा भी वहीं ढेर हो गया। नगर के सैनिकों ने लावारिस लाशों को ठिकाने लगाया एवं मुद्राओं का वारिस न देख सारी संपति राजकोष में जमा कर दी।
दोनों भाई कई दिनों तक नहीं आए तो एक की पत्नी पागल हो गई एवं दूसरी इसी गम में काल कवलित हो गई। बाद में न जाने एक अबूझ महामारी में पागल पत्नी एवं दोनों बच्चों का निधन हो गया। एक अच्छा, सुखी घर कब्र में तब्दील हो गया।
‘आपने अभी तक पिशाच की बात बताई नहीं बाबा! हवेली के ऊपर छत वाले कमरे में कौन पिशाच था?’ मैं अधीर हुआ जा रहा था।
‘तुम अब भी नहीं समझे। ‘माया’ एवं माया का ‘लोभ’ पिशाच ही तो है पुत्र! यह जिन घरों में रहता है वहाँ हरे-भरे गुलशन को तब्दील कर मरघट बना देता है। कभी यह छुपी माया के रूप में दृष्टिगत होता है तो कभी अन्य वीभत्स रूपों में। नफाखोरी, रिश्वतखोरी, दहेज, अमानत में खयानत उसी के रूप हैं। इन्हीं में से किसी एक रूप में यह अच्छे घरों में सेंध लगाता है एवं वहाँ सर्वस्व नष्ट कर अन्यत्र प्रयाण कर जाता है। पुत्र! इस हवेली में तो मैंने पिशाच कभी नहीं देखा। रात चढ़ते मैं नित्य इसी के भीतर जाकर विश्राम करता हूँ।’ कहते-कहते बाबा के चेहरे पर सूफियों से भाव उतर आये।
सांझ गहराने लगी थी। हवेली के पास खडे़ पीपल के पेड़ पर बैठे पक्षियों का शोर भी थम चुका था। इतने महान दर्शन से सराबोर करने के लिए मैंने बाबा के चरण छुए एवं चुपचाप घर लौट आया।
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15-01-2013