मुझे खुद नहीं मालूम मैं उस म्यूजियम में कब एवं कैसे बंद हो गया ? आश्चर्य! जाते-जाते किसी ने कोई आवाज़ भी नहीं दी कि जो अंदर हैं, बाहर चले आएं। इतना तो उनका भी फर्ज़ बनता है कि कोई बेल बजाए, आवाज़ दे अथवा फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं म्यूज़ियम के इस सेक्शन में मूर्तियां देखने में ऐसे मशगूल हुआ कि मुझे कोई आवाज ही सुनाई नहीं दी।
मैं एक अज्ञात भय से सिहर उठा। म्यूजियम सात बजे बंद होता था हालांकि दिसंबर की सर्दियों में सात बजते-बजते रात हो जाती है। मैंने नज़रें घुमाई , मूर्ति वाले सेक्शन में पांच वाट का मर्करी बल्ब जल रहा था जिसकी धीमी रोशनी म्यूजियम में चांदनी रात की मानिंद फैली हुई थी। तकरीबन ऐसे ही कुछ अन्य बल्ब यहां-वहां कुछ दूरी पर जल रहे थे। मैंने दूसरे स्विच ऑन किए पर बत्ती नहीं लगी। शायद ये बल्ब जो जल रहे थे बैटरी ऑपरेटेड होंगे जो मैन स्विच बंद करते ही जल जाते होंगे।
मैंने जेब में हाथ डाला, मोबाइल नहीं था। मैंने सर पीटा, अरे! मोबाइल ठीक करवाने ही तो दोपहर चार बजे घर से निकला था। रास्ते में मोबाइल शॉपी पर इसे बताया तो दुकानदार ने कहा इसे ठीक करने में दो-ढाई घण्टे लगेंगे। अब दो घण्टे कैसे पास हों ? यहां से आगे एक कि.मी. तक सूना था। इसके बाद शहर का म्यूजियम था जिसके आधे हिस्से में वाचनालय एवं बाकी आधे हिस्से में म्यूजियम था। यकायक मेरे दिल में म्यूजियम देखने का ख्याल आया। मैं यहां आया, टिकट लिया एवं भीतर आ गया। मैनेजर ने मुझे कहा भी कि आज मैं अकेला हूँ , अर्दली एवं दोनों क्लर्क छुट्टी पर हैं, आप यथासमय आ जाना । मैं नहीं भी पहुंचा तो क्या उसने इतना भी पता नहीं किया कि भीतर कोई रह तो नहीं गया है। वैसे भी आधा बावला लग रहा था , बड़ी बात नहीं चढ़ा भी रखी हो।
मेरी छाती फटने लगी। बदहवास मैं मुख्य दरवाजे तक आया। आठ बजने को थे। मैं जोर से चिल्लाया, “मैं अंदर हूँ। कोई है ?” कोई रिस्पांस नहीं मिला। मैं मैनेजर के कमरे के समीप आया, वहीं खिड़की के एक सुराख से देखा, वहां टेलीफोन तो था पर कमरे के मोटे दरवाजे के बाहर एक आयताकार लोहे का ताला लटक रहा था। यह ताला भी जैसे कोई दो-तीन सौ वर्ष पुराना था। अब यह लगभग असंभव था कि मैं बाहर निकल पाऊं। मेरा खून सूख गया , हाथ पांव फूल गए। अब एक रात की कैद तय थी।
हताश मैं वहीं दरवाजे के पास रखी एक लंबी बेंच पर लेट गया। खुदा का शुक्र था मैं कोट एवं टोपी पहनकर निकला था अन्यथा सर्दी में कुल्फी जम जाती। मैं सोचने लगा कि अब क्या किया जा सकता है ? वो तो अच्छा है सुरेखा बच्चों के साथ शैक्षिक भ्रमण पर गई हुई थी अन्यथा समय पर न पहुंचने पर वह घर सिर पर उठा लेती।
अत्यधिक विकट स्थितियों में मनुष्य का हौसला कभी-कभी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाता है हालांकि कई तरह की आशंकाएं मुझे घेरने लगी थीं जैसे सुबह दरवाजा खुलते ही अर्दली मुझे चोर न समझ ले और मेरी नाहक ठुकाई हो जाए। फिर याद आया वह तो छुट्टी पर है, खोलेगा तो मैनेजर ही एवं वह तो बावला है, चलो उसे भी जस-तस मैनेज करूंगा, यह सोचकर मैं पड़ा रहा। हो सकता है ये दोनों न आए, स्वीपर ही सुबह जल्दी आकर दरवाजा खोल ले। खैर! इन व्यर्थ विकल्पों पर खोपड़ी पकाने की बजाय ज़रूरी यह था कि मैं यह सोचूं कि अब किया क्या जाय ? तभी एक विचार आया कि यह छोटे शहर का म्यूजियम है क्यों न एक बार वाचनालय एवं म्यूजियम को पुनः ध्यान से देखूं। इसी बहाने मैं मनुष्यता के इतिहास की यात्रा कर लूंगा। म्यूजियम देखना अतीत भ्रमण ही तो है। बीते समय मे विचरना, तत्कालीन समय की कला-शिल्प-संस्कृति के बारे में जानना कितना रोमांचक अनुभव होगा। सरसरी निगाह से देखने एवं धीरे-धीरे समझ कर देखने, हृदयंगम करने में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है। ऐसा दुर्लभ अवसर भी तो कभी-कभार सौभाग्य से मिलता है। ऐसा सोचते ही मुझे मेरे पिता का स्मरण हो आया जो बहुधा कहते थे-सुख दुःख को नए सिरे से सोचने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। चिंतन के एक पहलू पर आप दुखी हैं, भयभीत हैं, आशंकित हैं, जबकि उसी समस्या में अन्य प्रकार से सोचने में आप सुखी हैं, सुकून में हैं, कम से कम बेहतर तो हैं ही। अंधेरा दीया जलाने से दूर होता है।
अब मैं एक अभिनव संकल्प के साथ उठ खड़ा हुआ। पहले वाचनालय की ओर जाना ही उचित होगा।
मैं वाचनालय की ओर बढ़ा, यहां भी उसी दूरी पर पाँच वाट के बल्ब जल रहे थे। इतना भर प्रकाश तो था ही कि मैं पुस्तकों के टाइटल देख सकूं, प्रयास करने पर बल्ब के नीचे बैठ पुस्तक भी पढ़ी जा सकती थी। वाचनालय में साहित्य की पुस्तकें थीं, राजनीति, धर्म एवं अन्य विषयों पर भी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें यहां रखी थीं। वाचनालय बहुत बड़ा नहीं था पर इसमें देश-विदेश के असंख्य लेखकों की नई-पुरानी, गत अनेक सदियों की पुस्तकें एवं ग्रंथ आदि रखे थे। ओह ! इन लेखकों ने मनुष्यता की अंधेरी राहों को रोशन करने के लिए कितने चिराग जलाए पर आश्चर्य आज भी कितना अंधेरा है।
यह सोचते-सोचते मैंने सामने शेल्फ में रखी एक पुस्तक ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियां’ निकाली। प्रेमचंद मेरे पसंदीदा लेखक थे। उनके कथा-संग्रह, उपन्यास मैंने कॉलेज के दिनों में खूब चाव से पढ़े थे। उनके उपन्यास कर्मभूमि, गोदान, गबन एवं कतिपय अन्य उपयासों के कथानक, प्रस्तुति इतनी जीवंत थी कि ये उपन्यास अब भी जब कि मैं चालीस पार हूँ, भुलाए नहीं भूलते। उनकी कहानियां तो एक से बढ़कर एक थी। कफ़न, पूस की रात, सद्गति, बूढ़ी काकी आदि कहानियों को कोई क्या एक बार पढ़कर भुला सकता है ? यही सोचकर मैं पुस्तक अनुक्रमणिका देखने लगा। क्या ही अच्छा हो एक बार इन कहानियों को पुनः पढ़ा जाए तो एक पंथ दो काज की तरह कॉलेज दिनों की याद ताजा हो जाएगी एवं इसी बहाने यह पूस की एक और सर्द रात निकल जाएगी।
मैंने पुस्तक निकाली एवं अनुक्रमणिका तक पहुंचा ही था कि सामने एक दृश्य देखकर हैरान रह गया। मुझसे कुछ कदम दूरी पर साक्षात् प्रेमचंद खड़े थे। ओह, उनका कैसा सौम्य रूप था। अच्छे लंबे थे। वे खादी का चोला एवं धोती पहने थे। चोले के ऊपर खादी के ही बटन लगे थे एवं वे चुपचाप खड़े थे। नीचे पांव में फटे जूते थे जिनमें आगे से उनका अंगूठा झाँक रहा था। अभी कुछ दिन पहले ही मैंने उनका ऐसा ही एक चित्र देखा था जिसमें जूते के आगे से उनका अंगूठा दिख रहा था। इतने महान लेखक का यह चित्र देख मैं गम्भीर हो गया था।
प्रेमचन्द को सामने देख मैं ऊपर से नीचे तक पसीने में नहा गया, कांपते हुए बोला, “आपका तो वर्षों पूर्व स्वर्गवास हो गया था, आप यहां कैसे?” मुझे देखकर वे बोले, “मैं मर गया तो क्या, मेरी पुस्तकों में आज भी जिंदा हूँ। इतना ही नहीं जब-तब इनमें से निकलकर बाहर भी आ जाता हूँ।” फिर यकायक वे उदास एवं गम्भीर होकर बोले, इन पुस्तकों को लिखने के लिए मैंने अपने कलेजे का खून निचोड़ा है। रातों लालटेन की रोशनी में अपनी नींदे खराब कर इनकी सर्जना की है। आसमान के चाँद-तारे मेरी उन रातों के गवाह हैं। तत्कालीन समाज में मेरा तीव्र विरोध भी हुआ पर मैं सत्य से विमुख नहीं हुआ। मेरी श्मशान यात्रा में बीस लोग भी नहीं थे। मैं लिखते हुए बस यही सोचता था कि समाज के नकारे गए वर्ण एवं वर्ग के लोगों पर होने वाले पैशाचिक ज़ुल्म कम हों , समाज की कुरीतियां, आडम्बर हटें, स्त्री को सम्मान मिले एवं लेखक मशाल बनकर समाज की अंधेरी गलियों को रोशन करे। यह जानकर दुःख होता है कि आज भी समाज के इन वर्गों पर अन्याय एवं अत्याचार कम नहीं हुआ है। आज भी इस देश के अधिसंख्य लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। आज भी देश भ्रष्टाचार के दावानल में जल रहा है । मेरे ‘नमक का दरोगा’ कहानी लिखने का फिर क्या फायदा हुआ? मैंने तो यह तक सुना है कि वर्ष दर वर्ष स्त्रियों पर जुल्म के आंकड़े, बलात्कार बढ़ रहे हैं। मेरी ‘ईदगाह’ की क्या यह परिणति होगी कि बच्चे मां-बाप से वृद्धावस्था में सब कुछ छीन लें यहां तक कि उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आएं। मनुष्य का क्या इतना पतन हो गया है ? जिन नीतियों एवं आदर्शों को मैंने अपनी कहानी का बिम्ब बनाया आगे के साहित्यकारों ने उसे कैसे भुला दिया? क्या उन्हें ये भी नहीं पता कि बिना मर्यादा, लक्ष्मण रेखा के समाज गर्त में चला जाएगा? मजबूत नींव के बिना क्या इमारत खड़ी हो सकेगी? क्या यही प्रगतिशीलता है कि फूल से खुशबू निचोड़कर कुचले, निर्गन्ध पुष्प समाज को अर्पित कर दिए जाएं? साहित्यकार ये कैसे भूल गए कि समाज की गौरव-पताका में वे दंड के समान हैं ?’’ कहते-कहते उनकी आंखें लाल होने लगी। मैंने मन ही मन कहा, ‘‘प्रेमचन्दजी ! जिसे कहना है कहो, मैं तो मात्र आपका पाठक हूँ। मेरी ऐसी-तैसी क्यों कर रहे हो ? एक तो पढ़ो फिर सुनो भी। आप बेवजह किसी और का दंड मुझ फकीर को क्यों दे रहे हो? वैसे भी आजकल साहिय पढ़ने वाले अंगुलियों पर रह गए हैं।’’ भयभीत मैंने उनकी पुस्तक बन्द कर शेल्फ में रख दी। आश्चर्य ! मेरे पुस्तक रखते ही वे गायब हो गए। यह तो गज़ब बात हुई। क्या लेखकों की आत्मा मरणोपरांत उनकी पुस्तकों में समा जाती है ? मुझे आश्चर्य इस बात का भी था कि मैं अनेक बार जब पुस्तकें पढ़ता एवं किसी बिंदु पर उद्वेलित होता तो मन में एक विचित्र हूक उठती थी, काश ! मैं इस लेखक से प्रत्यक्षतः मिल पाता लेकिन आज तो यह साक्षात् घटित हो रहा था।
प्रेमचन्दजी के गायब होने के कुछ क्षण पश्चात् मेरा भय कुछ कम हुआ लेकिन माथे पर अब भी पसीने की बूंदे थी। मैंने रुमाल निकालकर पसीना पोंछा। मुझे समझ आ गया कि आज मैं फंस गया हूँ पर अब विकल्प क्या था ? समय तो निकालना होगा। मुझे लगा भारतीय लेखकों को छोड़ो। ये जीते जी तो भूत की तरह घूमते ही हैं, मरने के बाद भी भूतयोनि में ही विचरते हैं।
मैं थोड़ा आगे बढ़ा एवं इस बार विदेशी लेखकों के वर्ग से टॉलस्टॉय की विश्वविख्यात कृति ‘एना करैनिना’ निकाली। मानव मनोविज्ञान, प्रेम एवं पारिवारिक रिश्तों के उतार-चढ़ाव पर यह एक अद्भुत उपन्यास था। मैंने इसे पांच वर्ष पूर्व पढ़ा था। इसे खोलते ही सामने टॉलस्टॉय प्रकट हो गए। ऊंचा कद, तीखा नाक, हल्की भूरी नीलिमा लिए आँखें, प्रशस्त ललाट एवं ऊनी चो़गा पहने उनका व्यक्तित्व असाधारण लग रहा था। वे भी रोष में भरकर बोले, “अभी-अभी मैंने प्रेमचंद को सुना। उनका क्रोध स्वाभाविक है। आज लेखक मद-मान के बीहड़ वन में खो गया है। उसे क्या पता ये पुस्तकें कितनी रातें काली कर लिखी गई हैं ? खाने-पीने तक की सुध नहीं रहती थी। इन्हीं कथानकों को हृदय में लिए अनेक बार हम बावलों की तरह घूमते रहते थे। संभ्रांत एवं कुलीन परिवार से होते हुए भी मैंने समस्त जीवन लेखन एवं समाजसेवा को अर्पित कर दिया । वर्षों साधना कर ये उपन्यास, कहानियां लिखीं, पर मनुष्य चिकने घड़े की तरह आज भी वैसा का वैसा है। आज लेखक, कलाकार भी उत्कृष्ट सृजन की बजाय पागलों की तरह धन, पद एवं पुरस्कारों की तरफ दौड़ रहे हैं।” जाने क्या सोचकर वे यकायक चुप हो गए । वे रशियन लेखक होते हुए भी निर्बाध हिंदी में बोल रहे थे। यह कैसे संभव है ? शायद प्रेमचन्दजी ने सिखा दी होगी। मैं चौंका, मुझे उनके प्रश्न का उत्तर देना था। वे मेरी ओर देख रहे थे।
“तो आप साहित्यकारों को समझाइए ना ! उनकी पगड़ी उनके हाथ है। पाठकों के पीछे क्यों पड़े हैं ? आप तो प्रेमचंदजी की तरह मेरी ही क्लास लेने लग गए। एक तो पहले से शामत सर पर है ऊपर से आप नीले-पीले हो रहे हैं। आपकी बात क्या मैं साहित्यकारों को समझाऊंगा कि स्वांग भरने से न अपना भला होता है न समाज का ? वे किसी की सुनते हैं क्या?” कहते हुए मैंने उनका उपन्यास भी पुनः शेल्फ के हवाले किया। वे भी क्षणभर में रफूचक्कर हो गए।
अब मेरे हाथ में गांधी की ‘सत्य के प्रयोग’ पुस्तक थी एवं मेरे सामने बापू खड़े थे। उनके चारों ओर दिव्य ओज था। मुझे देखते ही वे मुस्कुराए, वे कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फट पड़ा, ‘बापू ! मुझे पता है देश की दुर्दशा आपसे छिपी नहीं है। जिन मूल्यों के लिए आपने स्वातंत्र्य यज्ञ में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, वे मूल्य ही आज अंधकूप में जा गिरे हैं। नेता भ्रष्ट एवं रक्षक भक्षक हो गए हैं। आपकी लकड़ी-बकरी ठग उठा ले गए हैं। मेरी तो आपसे आंख मिलाने की भी हिम्मत नहीं है। जिस सत्य के प्रयोग की बात आप कर रहे थे, उसे तो राजनेताओं ने रसातल में पहुंचा दिया है। करनी कौए की एवं वेष हंस के हो गए हैं। बापू! लेकिन इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। जो जैसा करेंगे वैसा भरेंगे।’ ऐसा कहते हुए मैंने बापू की पुस्तक भी वापिस रख दी। मैंने सुना था साहित्यकार, समाजसेवियों एवं राजनेताओं को अधिक छेड़ना ठीक नहीं है। ये सभी कुछ-कुछ सनकी होते हैं।
अब मैं धार्मिक सेक्शन में आया। यहां गीता, महाभारत एवं वाल्मीकि रामायण के सभी खण्ड, योगवशिष्ठ एवं तुलसी की रामचरितमानस आदि पुस्तकें रखी थीं। मैं नित्य मानस का पारायण करता था। मैंने सावधानी एवं श्रद्धा से मानस बाहर निकाली। अब तुलसीदासजी सामने थे। माथे पर वैष्णवी तिलक एवं सर पर बांधी हुई शिखा से वे ऐसे लग रहे थे जैसे साक्षात् देवपुरुष खड़ा हो। उनकी प्रभा, औरा देखते बनते थी। मैंने उन्हें जयरामजी कहा तो उन्होंने भी ऐसा ही कहकर मुझे चिरायु होने का आशीर्वाद दिया। घबराहट मिटाने के लिए मैंने बात छेड़ी, “आपके राम नाम की महिमा अब अनन्तगुनी हो गई है एवं इसमें आपकी मानस का अहम् योगदान है।” इतना सुनते ही उनका चेहरा गर्व से आपूरित हो गया। लेकिन मैंने उन्हें आड़े हाथों लिया, “इतना गर्व भी न करिए, आपके राम नाम ने अनेक बार साम्प्रदायिक दंगों की जलती आग में घी का काम भी किया है। इन दंगों में कितने निर्दाेष मारे गए हैं।” यह प्रश्न अक्सर मेरे दिमाग में कुलबुलाता था कि धर्म का उद्भव मनुष्यता के सुख, सुकून एवं शांति के लिए हुआ है, फिर धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव क्यों ? स्वयं तुलसी से बेहतर इसका उत्तर कौन दे सकता था।
मेरी बात सुनकर वे गम्भीर हो गए, मेरी ओर देखकर बोले, “मैंने तो सगुण राम को मात्र भक्ति का बिम्ब बनाया ताकि जनमानस में रामकथा के माध्यम से भक्ति की सरिता बह सके, लोग निर्मल होकर प्रेम के भाव से भरें। मेरे सगुण राम तो उस परम प्रकाश के ही प्रतिनिधि थे जो अजन्मा, निर्गुण एवं निराकार हैं। मैंने हर प्रसंग में सगुण राम के साथ निर्गुण को भी उतना ही प्रतिष्ठित किया है । अगुनहि सगुनहि नहीं कछु भेदा, नाना भांति राम अवतारा-रामायण सतकोटि अपारा, राम अनंत अनंतगुन अमित कथा विस्तार, नाथ राम नहीं नर भूपाला-भुवनेश्वर कालहु कर काला आदि-आदि मानस की ही तो चौपाइयां हैं, जो निर्गुण को सिरे से प्रतिष्ठित करती हैं। जब सगुण-निर्गुण एक ही है एवं हम सब उस एक परमपुरुष परमात्मा की सन्तानें हैं तो फिर कैसा युद्ध ? कैसा मतभेद ? क्या पानी और बर्फ में कोई भेद है ? क्या आग और लकड़ी अलग-अलग है ? ओह, मदान्ध भक्तों ने मेरी मानस का सार-तात्पर्य नहीं समझा।” कहते-कहते करुणा विव्हल उनकी आंखों से आंसू बह गए।
मुझे लगा इन कारुणिक स्थितियों में बात बढ़ाना उचित नहीं है। मैंने मानस पुनः यथास्थान रखी एवं आगे बढ़ गया।
अब मेरे हाथ में प्रसिद्ध मनोविद फ्रायड की विश्वविख्यात कृति ‘साइकोपेथोलॉजी ऑफ एवेरीडे लाइफ’ थी। इस पुस्तक ने उनकी अन्य पुस्तकों की तरह मानव मन की परतें उघाड़ दी थी।
फ्रायड अब मेरे सामने थे। उनके चेहरे पर भी टॉलस्टॉय की तरह दाढ़ी थी हालांकि यह दाढ़ी टॉलस्टॉय जितनी लंबी नहीं थी। चेहरा-मोहरा कद भी टॉलस्टॉय जैसा ही था। मैं कुछ कहता उसके पहले वे बोल पड़े, “मनुष्य की सुप्त, दमित इच्छाओं की व्याख्या करते हुए मैंने कभी कहा था- हमारा मन समुद्र में तैरते विशाल हिमखण्डों की तरह होता है जिसमें एक तिहाई चेतन मन ऊपर होता है लेकिन अधिक शक्तिशाली दो तिहाई मन नीचे होता है।” इतने महान ज्ञान को पचाना मेरे लिए कठिन था, मैंने इस पुस्तक को भी पुनः शेल्फ में रख दिया।
मैं जिस लेखक की पुस्तक निकालता वह मेरे सामने आ खड़ा होता। मैं किस-किस से प्रतिवाद करता? मैं चुपचाप वाचनालय क्रॉस कर गैलरी से होकर म्यूजियम में आ गया।
यहां मैंने एक ममी देखी। शायद मिश्र के किसी म्यूजियम से यहां आई होगी। ममी एक कांच के बड़े बॉक्स में बंद थी। मैंने मन ही मन सोचा, ओह ! यह ममी भी कभी मेरी तरह मनुष्य रही होगी। मैं तो साधारण व्यापारी हूं ये तो राजा रहा होगा। मैंने ममी के बाहर लिखा विवरण देखा, मेरा अनुमान सही निकला। ये किसी राजा की दो हज़ार वर्ष पुरानी ममी थी। तब इसके क्या ठाट-बाट रहे होंगे पर काल को कौन लांघ सका है ? आज वही शरीर जो कभी राजा था, महत्वहीन होकर पड़ा है। हम और हमारा जीवन कितना क्षणभंगुर है, मनुष्य फिर किसका प्रेरा इतने दम्भ एवं अहंकार में जीता है। मैं ऐसा सोच ही रहा था कि ममी में कुछ हरकत हुई। कुछ अप्रत्याशित घटे उसके पहले मैंने यहां से भी किनारा किया। मैं भी कभी-कभी सोचता था – काश ! मैं राजा होता पर इस ममी ने तो मूड खराब कर दिया।
आगे पुराने बर्तन, सोने-चांदी के आभूषण रखे थे। ओह ! ये जेवर कभी विभिन्न महिलाओं की अमानत रहे होंगे, वे इन्हें पहनकर गर्व करती होंगी, पर आज म्यूजियम की अमानत है। जगत में फिर अपना क्या है ? मनुष्य फिर किसका प्रेरा मैं-मेरा करता फिरता है।
यहां से चलकर मैं मूर्तिवाले सेक्शन में आया। राजस्थानी पत्थरों में गढ़ी यह मूर्तियां कितनी मनभावन थीं। इस सेक्शन में दस नृत्यांगनाओं की मूर्तियां थीं जो लगती तो एक-सी थीं पर सबमें किंचित् अंतर था। सभी मूर्तियां तत्कालीन स्थापत्य कला का नायाब नमूना प्रस्तुत कर रही थीं। यह सभी 14-15 वीं शताब्दियों के मध्य की थी। मूर्तियों का शिल्प मुंह चढ़कर बोलता था। ये नृत्यांगनाएं नख-शिख राजस्थानी आभूषण पहने हुए थी। सिर पर बोर, नाक में नथ, कान में झुमके, मणिखचित कण्ठहार, बाजूबंद, कमर पर करघनी, पैरों में पायजेब मानो मूर्तिकार ने जीवित रूपसी यौवनाओं को सांचे में ढाल दिया हो। मैं दूर खड़ा इन मूर्तियों को देख ही रहा था कि मूर्तियों में जुम्बिश हुई एवं वे सभी एक-एक कर जीवित हो उठीं। इन नृत्यांगनाओं का रूप-लावण्य देखते बनता था। ऐसा लगता था जैसे साक्षात् स्वर्ग की परियां ज़मीन पर उतर आई हों। मुझे देखते ही उन्होंने एक राजस्थानी गीत ‘खेलण दो गणगौर….भंवर मानै पूजण दो गणगौर’ गाना प्रारम्भ किया एवं वहीं मेरे चारों ओर वर्तुलाकार घूमने लगी। राजस्थानी गीतों में यह गीत मुझे सर्वाधिक पसंद था। आज मानो मेरी कल्पना मूर्त होकर सम्मुख खड़ी थी।
कुछ देर बाद इनमें से एक नृत्यांगना जो इन सबसे अधिक खूबसूरत थी, ने रुककर मुझे इस तरह देखा जैसे चकोरी चंद्रमा को देखती है। कुछ क्षण बाद वह हंसिनी की तरह चलकर आगे आई एवं मुझे आंखों के इशारे से गलियारे में आने को कहा। उसके इशारा करते ही अन्य मूर्तियां जाने क्या भांपकर पुनः पाषाण में समा गई।
अब वह परमसुन्दरी यौवना और मैं आमने – सामने थे। उसका सौंदर्य ऐसा था मानो रूप के घर में दीये की लौ जल रही हो। ऊंचा कद, तीखा नाक, लंबे काले केश, गूंथी हुई चोटी, गहरी काली आंखें, गदराए उरोज, ऊंचे नितम्ब तथा नीचे पांवों में चांदी की रुनझुन पायल उस पर खूब फब रही थी। आश्चर्य ! वह हूबहू उस स्त्री जैसी थी जिसका चित्र मैं मेरे एकांतिक क्षणों में अपनी हृदयभित्ति पर उतारता था। मैंने यह बात किसी को यहां तक कि सुरेखा को भी कभी नहीं बताई पर आज तो वह साक्षात् सामने जीवंत खड़ी थी।
“मैं यहां हूँ । आप कहाँ खो गए ?“ उसकी कोयल जैसी आवाज़ ने मेरे कानों में अमृत घोल दिया। मैं उत्तर देता उसके पहले वह बेख़ौफ़ आगे बढ़ी एवं अपने हाथ जिन पर बाजूबंद की लड़ियां लटक रही थीं एवं आगे चूड़ियां खन-खन कर रही थीं, मेरे गले में डाल दिए। यह अंधे के हाथ बटेर लगने जैसी बात थी। मैंने इधर-उधर देखा, मन में आशंका थी कहीं प्रेमचन्दजी, गाँधीजी अथवा तुलसीदासजी देख न लें। तभी वह नृत्यांगना मेरे और करीब आकर कानों में हौले से बोली, “मैं तुम्हारी हूँ, सिर्फ तुम्हारी। मैं जानती हूँ मैं तुम्हारे कल्पनाओं की रानी हूँ। आज फिर अवसर मिला है तो मुझे भोग क्यूं नहीं लेते ? ऐसा नैकट्य, रतिसुख तो बड़े-बड़े पुण्यात्माओं को भी दुर्लभ होता होगा।”
आग से आग भड़कती है। मेरा नशा सर चढ़ गया। मैंने उसका मुख अपने हाथों में लिया एवं उस पर चुम्बनों की बौछार कर दी। मैंने उसकी पेशानी, बरौनियाँ, आंखों को पुनः पुनः चूमा, कानों एवं गालों को सहलाया एवं फिर उसके गुलाबी दहकते होठों पर एक गहरा चुम्बन जड़ दिया। उसकी गरमाहट, साँसों का उतार-चढ़ाव, मुंह से निकलने वाले उह-ओह जैसे मादक शब्द मेरी कामाग्नि को हवा दे रहे थे। अब मेरी नज़र उसके मस्त उरोजों पर थी। मैं दोनों हाथ उसकी कमर के पीछे तक ले गया एवं दाएं हाथ से कांचली की डोरी खींच ही रहा था कि बारिश आ गई…मैं हैरान रह गया… इस बंद कमरे में बारिश ?
मैं घबरा गया।
कोई मेरे मुंह पर लौटे से पानी छिड़क रहा था।
मैं हड़बड़ाकर उठा। सामने झाड़ू लिए स्वीपर तेज़ आवाज़ में मुझे उठो उठो कहकर जगा रहा था।
मैंने उसकी ओर रोषपूर्ण दृष्टि से देखा तो वो बोला, “बाबूजी ! आप गहरी नींद में थे अतः पानी छिड़कना पड़ा। रात शायद आप यहीं बंद हो गए थे।”
मैं बेंच से उठा। अब मुझे समझ आया रात बेंच पर लेटे-लेटे मेरी आँख लग गई थी। मैंने वहीं नीचे रखे जूते पहने एवं चुपचाप बाहर पार्किंग में रखे स्कूटर की ओर बढ़ गया।
आज मैंने स्वप्न में वह सब देखा जो मैं अपनी कल्पनाओं में देखा करता था। अवसर पाते ही ये कल्पना-खग पिंजरे से बाहर आकर उड़ गए।
स्वप्न में ही तो हमारे अवचेतन मन के पिंजरे खुलते हैं।
फ्रायड ने रात ठीक ही कहा था।
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20.04.2021