थानेदार कालीसिंह की क्रूरता के किस्से थाने में ही नहीं, उनके मोहल्ले में भी मशहूर थे। ऐसा क्रूर व्यक्ति शायद ही देखने को मिले। जो मुजरिम उनके हत्थे चढ़ता तौबा कर उठता। अपनी वाणी से ही नहीं लात-घूंसों से भी ऐसी फजीती करते कि बेचारे अपना-सा मुंह लेकर रह जाते। थर्ड ग्रेड सजा के वे विशेषज्ञ थे। कहते हैं दो वर्ष पूर्व सिपाही थाने में एक चोर को पकड़कर लाए। यह व्यक्ति पहले भी एक बार चोरी करते हुए पकड़ा गया था। पिछली बार तो उसने किराने की दुकान से मात्र दस किलो गेहूं का पैकेट चुराया था। लेकिन चोरी आखिर चोरी है। काली ने उसकी ऐसी पिटाई की कि खाया-पीया सब निकाल दिया। बेचारे को दिन में तारे नजर आ गए। थाने में खड़े सिपाही तक इस दृश्य को देखकर पसीज गए, उनमें से एक बोला, ‘हुजूर! अब छोड़ भी दीजिए, बेचारा गरीब आदमी है, आगे से नहीं करेगा।’ जाने क्या सोचकर कालीसिंह ने उसे छोड़ दिया, लेकिन जाते-जाते भी थप्पड़ मार-मारकर उसके गाल लाल कर दिए।
इस बार उसी दुकान में फिर चोरी हुई तो कालीसिंह उसे संदेह में पकड़ लाए हालांकि इस बार उसने चोरी नहीं की थी। उसके नहीं कुबूलने पर कालीसिंह ने उसे मुर्गा बनाया, लात घूंसे मारे, डण्डे से पिटाई की, एवं यहां तक भरी गर्मी में तीन घण्टे धूप में खड़े रखा। अंततः उसे चोरी कुबूलनी पड़ी। उस दिन कालीसिंह डण्डा घुमाते हुए कह रहा था, ‘भला किसकी जुर्रत है काली के आगे न कुबूले, प्राण न निकाल दूं।’
कालीसिंह अब तीस के पार थे। नाम एवं व्यवहार से ही नहीं, शक्ल से भी भैंस जैसे काले थे। पक्का काला रंग, ऊपर जाती हुई घनी मूंछें, रुआबदार कंचों जैसी आंखें, छितराई भौंहें एवं मोटा-तगड़ा शरीर उनकी क्रूरता में इज़ाफा करता। व्यवहार में ही नहीं बोलने में भी फूहड़ थे। मां-बहन की गालियां तो हर समय जुबान पर होती। किसी मुद्दे पर बहस हो रही हो तो वे हमेशा यही चाहते कि लोग उनकी बात का लोहा माने। शिकस्त उन्हें स्वीकार ही नहीं थी। झगड़ा करने में माहिर थे। पहले ‘मुर्गी आई या अण्डा’ अगर कालीसिंह मुर्गी कहते तो मुर्गी एवं अण्डा कहते तो अण्डा सिद्ध करके मानते। अपनी बात न मानने वालों की बखिया उघाड़ देते। इसीलिए लोग उन्हें देखकर किनारा कर लेते एवं कदाचित् पल्ले पड़ जाते तो मन मसोस कर सुन लेते। कीचड़ में पत्थर मारने पर कपड़े तो हमारे ही खराब होते हैं, कीचड़ का क्या बिगड़ना है। ऑफिस स्टाफ ही नहीं, मित्र-रिश्तेदार एवं मोहल्लेवासियों की भी उनके बारे में यही धारणा थी।
कहते हैं एक बार उनके घर बिल्ली दूध चट कर गई। दूसरी बार जब वह घर में दिखी तो काली ने इतने डण्डे मारे कि बिचारी ने वहीं दम तोड़ दिया। जिस डण्डे से मुजरिम कांप जाते वहां बिल्ली की क्या बिसात थी ? उस दिन उनकी पत्नी सहम कर रह गई, दो दिन तो भोजन भी नहीं कर सकी।
कालीसिंह हृदय से तो कठोर थे ही, चरित्र से भी उतने ही कमजोर थे। रिश्वत लेने में पारंगत थे। अनेक अपराधी तो उन्हें भय से ही नज़राना पहुंचा देते। हां, यह अपराधी उनके कृपापात्र होते। सभी जानते थे कि काली या तो पैसे लेगा या ठुकाई करेगा, दोनों में से प्रथम विकल्प ही उन्हें सुखकर लगता। अपने इलाके में भी वे व्यापारियों को कानून की ऐसी पेचीदगियाँ बताते कि लोग ले-देकर ही छूटते। एक बार तो मां-बाप के सामने उन्होंने पुत्र को इतना मारा कि मां भागी-भागी घर जाकर जेवर लेकर आई। जेवर हज़म करके ही काली ने उसे छोड़ा। ‘सेडिज्म’ अर्थात् दूसरों को दुःख पहुंचाकर आनंदित होने का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा था।
उनके स्वयं के परिवार में भी उनका व्यवहार अत्यन्त क्रूर था। पत्नी सुनयना उनके होते पंजों पर खड़ी रहती। कुत्ते की बच्ची, कमीनी, रण्डी, हरामजादी, करमजली जैसी गालियां तो उसने इतनी बार सुन ली थी कि अब इनका भी उस पर असर नहीं होता था। यह गालियां तो अब तक उसकी सहचरी बन चुकी थी। अनेक बार पति के हाथों पिट चुकी थी। कालीसिंह अक्सर शराब पीकर घर आते लेकिन मजाल उन्हें कोई कह दे। अपने पति के व्यभिचार के किस्से भी उसने सुने थे, पर करती क्या? उसके माता-पिता इतने निर्धन एवं सीधे थे कि पति को छोड़ने का साहस वह कभी नहीं कर सकी। शादी के चार वर्ष बाद, एक बार रूठकर गई भी, तो काली ने सास-श्वसुर को आडे हाथों लिया। उन्हीं के मोहल्ले में ऐसा हंगामा बरपाया, इतनी गालियां दी कि बिचारे दिल पकड़ कर बैठ गए। सुनयना उस दिन चुपचाप लौट आई। उसे समझ में आ गया कि वह तो उसके जुल्म का शिकार है ही, मां-बाप की और फजीती होगी। लेख मेरे खराब है, उनका सुख-चैन क्यों बिगाडूं। औलाद होती तो बिचारी मन बहला लेती पर यहां भी भाग्य फूटे थे। शादी हुए सात वर्ष होने को आए, अब तक कोख हरी नहीं हुई। गली-मोहल्ले वाले उसके अप्रतिम रूप लेकिन कालीसिंह की पत्नी होने के कारण यही कहते ‘रूपसी रोवै करमकी खावै’ अर्थात् भाग्य फूटे हो तो रूपवान स्त्री भी रोती रहती है।
सुनयना दिन-रात घर के कामों में लगी रहती। कालीसिंह को तो घर की सुध ही कहां थी। पति की सेवा में भी कमी नहीं रखती, लेकिन गत सात वर्षों में पति से प्रशंसा का एक शब्द भी नहीं सुना। उसके कण्ठहार में तो कालीसिंह ने गालियां ही पिरोई थी। उसकी स्थिति बाज के पंजे में फंसी कबूतरी जैसी थी।
आज कालीसिंह नाईट ड्यूटी पर था। रात दस बजे थाने जाने के पूर्व उसने कह दिया था कि वह मुंह अंधेरे ही वापस आ सकेगा। पति के जाने के पश्चात् सुनयना ने दरवाजा बंद किया एवं बेडरूम में आकर लेट गई। अक्सर उसे लेटते ही नींद आ जाती पर आज जाने किन विचारों में खो गई। कालीसिंह की क्रूरता, फूहड़पन और निर्लज्जता को याद कर उसकी आंख से आंसू बह पड़े। वह सोचने लगी कि क्या स्त्री की यही नियति है कि जिस खूंटे से बांध दी जाय उसी के इर्दगिर्द घूमती रहे। काश! उसके मां-बाप निर्धन न होते। निर्धन व्यक्ति की स्वायत्तताएं कितनी सीमित होती हैं! कालीसिंह ने उस पर कैसे-कैसे ज़़ुल्म किए वह चुपचाप सहती रही। काश! वह उसके ज़ुल्म का विरोध कर पाती। इस चिंतन के वर्तुल उसके मन-मस्तिष्क में ऐसे बिखरे कि वह सो भी नहीं पाई, देर तक करवटें बदलती रही।
एक बजने को आया पर सुनयना को नींद नहीं आई। उसने पुनः प्रयास किया, इस बार उनींदी होने लगी तो बाहर कुत्तों की आवाज सुनकर जाग गई। यकायक उसे याद आया कि दोपहर पिछवाड़े सुखाए कपड़े तो वह उठाना ही भूल गई। कोई कपड़ा हवा के साथ उड़ न जाए, इस आशंका से वह उठी एवं बाहर आकर कपड़े समेटने लगी। चैत्र का महिना था, बसंत की भीनी-भीनी बयार चल रही थी। ऊपर स्वच्छ एवं खुले आसमान में चांद यूं बढ़ रहा था जैसे कोई-चिर विरही अपनी प्रेमिका से मिलने को उतावला हो। ठण्डी हवाओं ने सुनयना के थके मन को राहत पहुंचाई। उसे लगा कुछ देर वहीं खड़ी रहे, तभी कुत्ते फिर तेजी से भौंके। उसके मन में एक विचित्र-सी सिहरन हुई, वह तेजी से चलकर भीतर आ गई। कपड़े समेटकर उसने अलमारी में रखे एवं पुनः बिस्तर पर आकर लेट गई।
अब उसकी आंखों में नींद उमड़ने लगी थी। उसने ट्यूब ऑफ करके जीरो बल्ब आन किया एवं कोहनी पर सिर रखकर सो गई। नींद नहीं आ रही हो तो मोटे तकिए भी बेकार है एवं नींद आ रही हो तो हाथ का सिरहाना ही काफी है। इस बार चंद पलों में ही वह नींद के आगोश में चली गई।
अभी कुछ समय ही बीता होगा कि यकायक कमरे में तेज आवाज से वह चौंकी। शायद कोई बर्तन गिरा था। आंख खुली तो सामने किसी को देख हैरान रह गई। वहां एक युवक खड़ा था। जीरो बल्ब की मद्धम रोशनी में भी वह उसे आराम से देख सकती थी। युवक साक्षात् राजपुरुष लगता था, उसका तेज मुंह चढ़कर बोल रहा था। शायद उसी के हाथ से टेबल पर रखा चांदी का फूलदान गिर गया था। इसी कारण तेज आवाज हुई। फूलदान एवं उसके भीतर रखे नकली फूल फर्श पर बेतरतीब बिखरे थे। सुनयना क्षणभर के लिए तो घबराई लेकिन शीघ्र ही समझ गई कि यह व्यक्ति चोरी की नीयत से घर में घुसा है। अंधेरे में फूलदान पर हाथ लगने के कारण वह गिर गया होगा।
सुनयना को जगा देख चोर पहले तो सकपकाया फिर चुपचाप फूलदान उठाकर टेबल पर रख दिया। थानेदार के घर में चोरी का साहस? उसे देखकर सुनयना चीख पड़ी, ‘तुम्हारी इस घर में चोरी करने की जुर्रत कैसे हुई?’ चोर कुछ नहीं बोला, वहीं खड़ा रहा। इस बार सुनयना पलंग से उठी एवं चोर को घूर कर बोली, ‘तुम आए किस दरवाजे से ?’
‘पिछले दरवाजे से, पिछला दरवाजा खुला था!’ चोर ने उत्तर दिया। चोर होते हुए भी उसका साहस देखते बनता था।
अब उसे याद आया कि कपड़े समेटकर भीतर आते समय वह दरवाजा बंद करना ही भूल गई। उसने वाल क्लाॅक की ओर देखा। दो बजे थे। यानि मेरे भीतर आते ही चोर पीछे-पीछे चला आया, जाने इसने क्या-क्या चुराया होगा?
‘तुम यहां कब आए ? चुपचाप चोरी का माल वापस रख दो? क्या तुम नहीं जानते मेरे पति कालीसिंह इसी इलाके में थानेदार हैं? उनके हत्थे चढे़ तो अधमरा कर देंगे।’ सुनयना आंखें तरेरते हुए बोली।
‘उन्हें मैं जानता हूं। उनके जैसा कमीना आदमी शायद ही मिले। एक बार थाने में उनसे पिट चुका हूँ। उस दिन मेरे पास रिश्वत के पैसे नहीं थे अन्यथा मेरी दुर्गत नहीं होती।’
सुनयना की आंखें नीची हो गई। उसे पहली बार लगा कि जो सुख उसके पति ने जुटाए हैं वे सभी उनकी काली करतूतों की कमाई हैं। उनमें और इस चोर में क्या फर्क है ? मात्र चोरी का रूप ही तो अलग है। एक कानून की आड़ में चोरी कर रहा है एवं दूसरा कानून से आंख छुपाकर। हो सकता है यह व्यक्ति अत्यंत निर्धन हो, रोजगार न मिला हो, इसलिए ऐसा कार्य कर रहा है लेकिन हमारे यहां तो सब कुछ होते हुए भी पति अघा नहीं रहे। वह तुरन्त अपने विचार वर्तुल से बाहर आई एवं पुनः पूछा, ‘तुम यहां घुसे कब ?’
‘मुझे यहां आए एक घण्टा हो चुका है। अक्सर मैं अपना काम दस मिनट में निपटाकर चला जाता हूं, पर आज ऐसा नहीं कर पाया।’ चोर ने वहीं खड़े उत्तर दिया।
‘क्यों आज क्या हो गया ? क्या थानेदार के डर से पैर चिपक गए ?’
‘आज मैं कमरे के भीतर आया तब तुम पलंग पर लेटी थी। तुम्हारे बिखरे हुए बाल एवं चेहरे पर जीरो बल्ब का मद्धम प्रकाश पड़ रहा था। क्षणभर के लिए मुझे लगा जैसे तुम वही स्त्री हो जिसकी मुझे वर्षों से तलाश थी। सचमुच तुम कितनी सुंदर हो। मैं पिछले आधे घण्टे से तुम्हें अपलक निहार रहा था। तुम्हारा सुंदर रूप, पतले होठ, गाल में पड़ता गड्ढा, ठोड़ी पर लगे तिल ने मेरा स्तंभन कर दिया। तुम्हारी गौरी पिण्डलियों के नीचे बंधी सुन्दर पायजेब मैं देखता रह गया। अब तुम्हारी धवल दंत पंक्ति, सुंदर आंखें एवं कोयल जैसी आवाज सुनकर नशे में डूब गया हूं। सुंदरी! निश्चय ही चोरी की नीयत से मैं तुम्हारे घर में घुसा था लेकिन तुम्हारे सौंदर्य के दर्शन कर आज स्वयं लुट गया हूं।’
सुनयना चोर की बातें सुनकर स्तब्ध रह गई। जीवन में पहली बार किसी ने आज उसके रूप को निहारा था। वह इतनी रूपवती है यह तो वह आज ही जान पाई। कोई उसे यूं निहार सकता है, यह सोचकर उसकी छाती अभिमान से फूल गई, उन्नत वक्ष और ऊंचे हो गए। देखते ही देखते उसकी आंखों एवं पूरे चेहरे पर एक हल्की ललाई फैल गई। पिछले सात वर्षों से तो वह गालियां ही सुनती आ रही थी। कालीसिंह ने तो निर्देश ही दिए, प्यार एवं प्रशंसा तो उससे कोसों दूर थी।
सुनयना उठकर खड़ी हुई एवं ट्यूब ऑन किया। पूरा कमरा रोशनी से चमक उठा। कमरे में रखी हर चीज आज उसे सुंदर लगने लगी थी। वह संयत हुई तब तक चोर के प्रति क्रोध का भाव मन से काफूर हो चुका था।
रत्न का मूल्य जौहरी के हाथ आने पर ही प्रगट होता हैै।
सुनयना का क्रोध अब विनम्रता में रूपांतरित होने लगा था। कुछ पल वह चुपचाप खड़ी रही, फिर निर्भीक होकर बोली, ‘जिसका सर्वस्व लुट चुका हो उसका अब क्या लूट लोगे? मैं तुम्हें चोरी करने की पूरी स्वतंत्रता देती हूं।’
‘नहीं सुंदरी! आज तुम्हारे दर्शन कर मुझे ऐसी लावण्यनिधि मिली है कि अन्य कुछ भी लूटने की इच्छा नही रही। तुम सचमुच शोभा एवं सुंदरता का डेरा हो।विधाता ने अपने कुशल हाथों से तुम्हें रचा है।’
‘इतनी प्रशंसा मत करो। बखान करने से हण्डिया भी दरक जाती है, मैं तो जीती जागती औरत हूं।’
‘विश्वास करो, मैं झूठी प्रशंसा नहीं कर रहा। मैं अक्सर तुम जैसी स्त्री को मेरे स्वप्न में देखता हूं। रात्तों के नीरव सन्नाटे में मुझे तुम्हारी ही पदचाप सुनाई देती हैं । शायद मैं इसीलिए अब तक कुंवारा रहा। अच्छा होता मैं तुम्हारे यहां पहले ही चला आता। आज तुम्हारे दर्शन कर धन्य हो गया हूं। तुम्हारी मधुर वाणी के मरहम ने कालीसिंह की पिटाई के भी घाव भर दिए हैं।’
‘उस कमीने की बात न करो, अजनबी! उसका बस चलता तो वह मुझे पीसकर पी जाता। मेरे मन में उसके प्रति कितनी नफरत है, सीने में कितनी आग है, इसका अंदाजा भी तुम नहीं लगा सकते। तुम्हारी बातों ने आज मेरी अंतर-पिपासा जागृत कर दी है, पराये होकर तुमने मुझे बहुत कुछ दिया है अपनों से तो अब तक लुटती ही रही हूँ। जगत को कहना है सो कहे, इतने अमूल्य उपहारों का प्रतिदान लिए बिना तुम यहां से नहीं जा सकते।’ कहते-कहते सुनयना तेजी से आगे बढ़ी एवं चोर को बाहों में कस लिया।
स्त्री जब साहस की सीमाओं का अतिक्रमण करती है तो विधाता भी उसकी गति नहीं रोक सकते। उसका जीवट अंधा होता है।
अभी-अभी कुछ बदलियों ने बाहर के चांद को अपने झीने आंचल से ढक लिया था। शीतल हवाएं प्रेम-राग अलापने लगी थी। इसी प्रेम की आंच में कमरे के भीतर कोई मोम की तरह पिघल रहा था।
कब क्या हुआ किसी को कुछ पता नहीं चला। दो आबद्ध प्रेमियों का प्रणय मुक्तात्माओं की सीमाओं का अतिक्रमण कर गया।
रात के सर से अंधेरे का आंचल सरकने लगा था। कहीं दूर मुर्गे ने तेज बांग दी।
आवाज सुनते ही सुनयना चौंकी, फुर्ती से उठी एवं बाॅथरूम में जाकर कपड़े पहने। उसे पहली बाहर लगा आज उसके वस्त्र किसी ने उतारे नहीं, स्वयं ही उतर गए। वस्त्रों का इज़ारबंद तो उसने अनेक बार खोला था लेकिन आज मन के इज़ारबंद भी खुल गए। आसमान के मुस्कराते हुए तारों की तरह अब उसके चेहरे पर एक अलौकिक मुस्कान बिखरने लगी थी।
बाथरूम से बाहर आकर उसने अजनबी को जगाया, ‘उठो! चार बजने को है। कालीसिंह आने में ही होगा। तुम्हें देख लिया तो दोनों जिंदा नहीं बच पाएंगे।’
चोर तुरंत उठा, कपड़े पहने एवं जिस दरवाजे से आया था उसी से निकल गया।
स्त्री प्रेम की मदिरा पीने के बाद भला क्या पाने की चाहत रह जाती है?
सुबह छः बजे कालीसिंह आया तब सुनयना गहरी नींद में थी। उसने तीन-चार बार डोरबैल बजाई तो कोई रिस्पांस नहीं मिला। आवेश में आकर उसने लंबी बेल बजाई तो सुनयना हड़बड़ाकर उठी, लम्बे काले बाल पीठ पर डाले, गाऊन ठीक किया एवं तेज कदमों से आकर दरवाजा खोला।
कालीसिंह भीतर आया एवं आते ही गालियों की बौछार कर दी, ‘हरामजादी! बहरी हो गई थी क्या ? कितनी देर इंतजार करता रहा। जा, तुरंत चाय बनाकर ला! कुतिया साली! और सुन! चाय बनाकर मेरे पांव दबाना। आज लात-घूंसे मारते-मारते थक गया हूं। पांव दुखने लगे हैं।’
सुनयना रसोई में भागी एवं आनन-फानन चाय बनाकर लाई।
कालीसिंह जब रकाबी में चाय उडेल रहा था, सुनयना उसके पांव दबा रही थी।
चाय पीते हुए कालीसिंह ने सुनयना की ओर देखा। बीवी को पांव दबाते देख उसने मूंछों पर ताव दिया एवं मन ही मन सोचने लगा, लोग ठीक कहते हैं, स्त्री पांव की जूती ही भली।’
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02.08.2009