परिधियों से परे

रात्रि के गहन अंधकार एवं सन्नाटों को चीरती हुई ‘राजधानी एक्सप्रेस’ तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ रही थी। इन दिनों हिमाचल में बर्फ पड़ने से राजधानी के इर्दगिर्द सभी स्थानों पर तेज ठण्ड थी। 

सुबह के पांच बजे होंगे। यात्री अपनी-अपनी कंबलों में मुंह ढांपे दुबके थे। एसी कोच होने के कारण यूं तो बाहर की ठण्ड का आकलन मुश्किल था , पर यह तो स्पष्ट महसूस किया जा सकता था कि बाहर तेज धुंध में समूचा जन-जीवन सिमट गया है। कोच में भी कभी किसी बूढ़े अथवा बच्चे के खांसने की आवाज को छोड़कर एक भयानक चुप्पी पसरी थी एवं यह चुप्पी इतनी सघन थी कि ट्रेन की आवाज के अतिरिक्त अन्य कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। 

आश्चर्य! मुझे इस सर्दी का किंचित् अहसास नहीं हो रहा था। मेरी दुबली-पतली काया तो जरा-सी सर्दी में कांप उठती थी या यूं कहूं कि सर्दी मुझे रुला देती थी। मैं जाड़ों से बचने के लिए ऊनी दस्ताने, मौजे, मफलर एवं स्वेटर आदि तो पहनती ही थी, रजाई तक में हीटर रखकर अनेक बार उसे गरम करती लेकिन अब तो मानो मैं शीत-उष्ण, अच्छा-बुरा सभी द्वन्दों से परे हो चुकी थी। जीवन के दुःख कम हो तो इंसान संघर्ष कर गाड़ी येन-केन-प्रकारेण पटरी पर लाने का प्रयास कर लेता है लेकिन रंज इस कदर बढ़ जाए, दुःख की इंतिहा हो जाए, आत्मा लहूलुहान हो जाए, तो सब कुछ हाथ से छूट जाता है। विवश इंसान तब स्वयं को नियति के हाथो सौंप देता है अथवा फिर कई बार उससे तीव्र विरोध पर भी उतर आता है कि ऊपरवाला भी अब और क्या बिगाड़ लेगा ?

फिलहाल कोच में मेरा सारा ध्यान नंदु पर था। मैंने तय कर लिया था कि मैं उसे स्मगलर्स के बीच उलझने नहीं दूंगी, इसलिए  , इसी कोच के एक कोने से चुपके से आ-आकर बार-बार देख रही थी कि नंदु एवं उसके दोस्त क्या कर रहे हैं? दरअसल ये उसके दोस्त नहीं हैं, दोस्त तो यह उन्हें समझता है, वास्तव में तो यह कुछ शातिर लोग हैं जो इसे बहकाकर यहां तक ले आए हैं एवं उन्होंने इसे जेल भिजवाने की पूरी योजना बना ली है। इन्हें पूरी आशा है कि यह अपने मंसूबों में कामयाब होंगे लेकिन इन्हें यह कहां पता कि अभी मैं जिंदा हूं … मां हूं मैं। यह चाहे जो तिकड़म भिड़ा ले मैं नंदु का कुछ बिगड़ने नहीं दूंगी। इन बदमाशों को अभी मां की शक्ति का अहसास कहां है ?

आज दुनिया में सब कुछ धन हो गया है एवं इन बदमाशों को चूंकि इनके आकाओं ने बड़ी रकम का प्रलोभन दिया है , ये नंदु को फांस कर दिल्ली अपनी योजना को अंजाम देने जा रहे हैं। नंदु को बस इतना भर करना है कि उसे चुपचाप दिल्ली स्टेशन पर उतरकर बाहर किसी को उसकी सीट के नीचे रखा एक काला बैग देना है। यह बैग स्मैक के पैकटों से भरा है।  इसका बाजार भाव दस करोड़ से कम न होगा। नंदु को इन्होंने बीस लाख देने का वादा किया है एवं जैसे शिकारी जरा-सा दाना डालकर पंछी जाल में फांस लेता है इन्होंने भी नंदु की कोहनी पर गुड़ लगाकर इसका दिमाग फेर दिया है। मैं जानती हूं नंदु दिल्ली उतरते ही पकड़ा जाएगा, ये सभी तब तक वहां से रफूचक्कर हो जाएंगे, हां, नंदु का दस वर्ष के लिए जेल जाना तय है। अगर पच्चीस की उम्र में एक युवक दस वर्ष के लिये जेल चला जाए तो उसके शेष जीवन में फिर जिल्लत के अतिरिक्त क्या रह जाता है ? ऐसा व्यक्ति सात पीढ़ियों के संचित यश एवं पुण्यों को अकेला निगल जाता है। परिवार की प्रतिष्ठा बनाने में पीढ़ियां खपती हैं लेकिन प्रतिष्ठा ढहाने में एक पल चाहिए। एक क्षण का गलत निर्णय, दुश्चिंतन पुरखों के यश पर पानी फेरने के लिए पर्याप्त है। 

इन बदमाशोें को क्या पता मैंने इनके मंसूबे जान लिए हैं। नंदु के बारे में अब तक क्या कुछ नहीं जानती मैं ? मैं स्पष्ट देख रही हूं कि कल रात जब से ट्रेन जोधपुर स्टेशन से प्रारंभ हुई यह सभी उसे तरह-तरह से फुसला रहे हैं । नंदु को जोड़कर यह कुछ चार लोग सेकेण्ड एसी कोच में एक सेक्शन में बैठे हैं।  पहले तो यह नंदु को ‘नंदु बाॅस’, ‘नंदु तुम कितने डाइनेमिक हो ’, नंदु इज ए रियल करेजियस परसन’ एवं जाने क्या-क्या कहकर इसे बहलाते रहे, तत्पश्चात्, रात चढ़ते शराब के दौर भी प्रारंभ हो गए। नशा चढ़ने के साथ इन्होंने नंदु से वफादारी, लाॅयल्टी एवं साबितकदमी की जाने कितनी कसमें ले ली हैं। इसे तीसरा पैग देने के बाद इनमें से एक बक रहा था, ‘नंदु इज ग्रेट! इसे कोई काम दे दो यह पूरा करके छोड़ता है।’तभी दूसरा बोला, ‘नंदु इज, ए बोल्डमैन! इसने पीठ दिखाना सीखा ही नहीं।’ इतना कहकर सब यूं अट्टहास कर रहे थे मानो कबूतर खुद-ब-खुद इनके जाल में आ गया हो। हमारे नंदुजी को और क्या चाहिए, इतने में तो यह गरदन काटकर दे दें। मैं जानती हूं यह निहायत भोला बच्चा है लेकिन जगत् में बहकाने के लिए भोले लोग ही तो होते हैं। मूर्ख तो उसे ही बनाया जाता है जो बन सकता है। जगत में अक्ल उधार नहीं मिलती। ताज्जुब है इन्होंने नंदु को इस कदर बरगला दिया है । भगवान किसी को अच्छी बुद्धि दें, न दें कच्ची बुद्धि तो न दें क्योंकि जगत में कमजोरियों का इलाज है, नादानियों का नहीं। 

ओह! मेरा प्यारा बच्चा नंदु! बचपन से बस यही तो एक दोष इसमें था जिसे लेकर मैं अक्सर परेशान रहती थी। उसके इसी दोष के चलते अनेक बार मैं आशंकित हो उठती थी एवं उन्हीं आशंकाओं के झूले पर झूलते मुझे माइग्रेन तक रहने लगा था। जैसे चन्द्रमा का एक कलंक संपूर्ण चंद्र को कलंकित कर देता है, जैसे मटके के एक छेद से पूरे मटके का पानी बह जाता है यही बात नंदु के इस दोष को लेकर थी। बचपन में मां अक्सर ऐसे लोगों के लिए एक मुहावरा प्रयुक्त करती थी ‘पढ्या पर गुण्या नहीं’, यह लोकोक्ति नंदु पर सटीक उतरती थी। आप किसी को हिदायत, मशवरा दे सकते हैं, रास्ता बता सकते हैं पर उस रास्ते पर जाएगा तो वह अपनी मरजी से ही। घोड़े को पानी की खेली तक लाया जा सकता है, पीयेगा तो वह अपनी मरजी से ही। नंदु के सारे गुण इसी एक दोष में स्वाहा हो गए वरना उसके जैसे होनहार बच्चे हजारों में एक होते हैं । 

आज मानो मेरी समस्त स्मृतियां उलट गई हैं । मुझे याद है यह ऑपरेशन से हुआ था। उस रात मैं दर्द से कराह रही थी, अधिक खून बहने से शक्तिहीन भी हो चुकी थी, पर नंदु को जब मेरे पास लिटाया गया तो जैसे मेरी तमाम पीड़ा काफूर हो गई। ओह! एक कोमल, गोरा, फूल-सा बच्चा, अपने नन्हें हाथ-पांव पटकते हुए मानो किसी की गोद में जाने को बेताब हो। मैंने इसका सिर अंगुलियों से सहलाया तो मेरी छातियों से दूध बह गया। मुझे मानो नवों निधियां मिल गई। तभी इसके पापा वरुण भीतर आए। उन्हें देखकर मेरी बची-कुची पीड़ा भी जाती रही। उनका सामीप्य एक  छाते के नीचे खड़े हो जाने जैसा था। वे स्नेह एवं सहयोग की प्रतिमूर्ति थे। 

आज नंदु का पूरा बचपन मेरी आंखो के आगे नाच रहा है। मुझे उसको लेकर एक- एक बात याद है। यह चार वर्ष का हुआ तब तक वरुण एवं मैंने इसे नाजों से पाला था। वरुण रात को अक्सर इसे अपनी छाती पर लिटाकर सो जाते थे। मैं कहती भी आप ऐसा क्यों करते हैं तो वह यही कहते ‘आज हम इन्हें इतमीनान दें, कल यह हमें इतमीनान देगा।’ कहीं घूमने जाते तो इसे कंधों पर बिठाते । मैं बचपन में इसके लिए क्या-क्या नहीं करती। कितने स्वेटर, कितने मौजे, टोपियां, जूते एवं जाने क्या-क्या बुनती रहती। बस, नंदु पहनकर नटखट चाल चले, यही मेरा पारितोषिक था। मुझे याद है यह बीमार पड़ता तो हम कहां-कहां नहीं जाते। औलाद को कितनी जतन से बड़ा किया जाता है, यह मां ही जानती है लेकिन यह भी कुदरत का क्या खूबसूरत रहस्य है कि ऐसा करते हुए मां सदैव आनंद से भरती है, उसे बच्चे से बच्चे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। 

वे दिन हमारे चरम सुख के दिन थे। ऐसा भी नहीं हम धनी थे पर हां वरुण अपने घी के धंधे में इतना भर कमा लेते थे कि हमारी गृहस्थी की गाड़ी चैन से चल जाती। एक संतोषी परिवार को कितना भर तो चाहिए। जिस देश के संतो ने हथेली भर भोजन एवं अंजुली भर पानी का उपदेश दिया हो उस देश में एक आम गृहस्थ के संतोष का स्तर इतना नीचे होता है कि किंचित् आमद भी उसे सुख से सराबोर कर देती है। 

इन्हीं दिनो जब नंदु चार वर्ष का था तो ऐसा हादसा हुआ जिसने मेरे भाग्य की दिशा बदल दी। मनुष्य का अति सज्जन, विनम्र होना भी अनेक बार उसके गले की फांसी बन जाता है। वैसे भी वरुण का बढ़ता कारोबार इन दिनों उनकेे विरोधियों की परेशानी का सबब बन चुका था। नंदु में बहकने के जीन्स उन्हीं में से आए हैं। 

एक बार उनके कुछ साथी व्यापारियों ने उन्हें घी में मिलावट के लिए उकसाया तो उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया। वरुण निहायत साफगो ईमानदार व्यक्ति थे। रात किसी पार्टी में उनके साथियों ने शराब मिलाकर इन्हें पुनः उकसाया एवं जब यह कहा कि हम सब भी ऐसा करते हैं तो जाने क्यों उनके सर लोभ का भूत चढ गया। यह उनके साथी व्यापारियों की साजिश थी। यह धरे गये एवं थाने जाते हुए उनकी छाती में इतना तेज दर्द हुआ कि उन्होंने वहीं जीप में प्राण त्याग दिये। प्रतिष्ठा पर ऐसा आघात उनकी सोच से भी परे था। 

इनके निधन के पश्चात् मुझे पापा-मम्मी एवं अन्य सभी ने समझाया कि तुम मात्र चौबीस वर्ष की हो, नंदु मात्र चार वर्ष का है, तुम पुनर्विवाह कर लो पर ऐसा सेाचना भी मेरे लिए पाप था। मैं जानती थी आगे पहाड़-सी जिन्दगी पड़ी है पर मेरे लिए वरुण को भुलाना असंभव था। पुनर्विवाह का अर्थ था उस महान व्यक्ति के अहसानों, अहसासों को उलट देना जिसे मैंने मन-प्राण-आत्मा से प्रेम किया था। मैं उनसे इतना जुड़ गई थी कि किसी और की हो भी नहीं सकती थी। 

मात्र एक दोष ने उनकी जान ले ली। उन्होंने ‘ना’ कहना कब सीखा था। बस थोड़ी प्रशंसा करते ही लोगों की बातों में आ जाते थे। घर-मित्र-रिश्तेदारों ने उनकी इसी आदत के चलते मैं अनेक बार परेशान हो उठती थी लेकिन उनकी मीठी वाणी, मनाने के तरीके एवं उन्मुक्त हंसी के चलते मेरी समझाइश कपूर की तरह उड़ जाती। वे आगा-पीछा कहां सोचते थे। 

इसके बाद मानो मेरा समूचा जीवन इम्तिहान बन गया। मैंने इनके घी का कारोबार संभाला, मैं दस पास थी, मेरे पास अन्य विकल्प भी न था। प्रारंभ में मुझे कुछ दिक्कतें आई लेकिन दुनिया में दुष्ट होते है तो भले लोग भी होते हैं जिनके सहयोग एवं समझाइश से मात्र पांच-छः माह में कारोबार मेरी पकड़ में आ गया। 

अब मेरा पूरा ध्यान नंदु पर था। नंदु इनकी प्रतिकृति था। कक्षा में अव्वल और बहकने में भी अव्वल। मुझे याद नहीं आता मैंने इसे कभी पढाया हो, वह प्रारंभ से ही इतना कुशाग्र था कि सब कुछ शीघ्र समझ लेता। समय पर उठना, होमवर्क करना, पढाई करना यह सभी बातें तो इसमें अच्छी थी पर इसमें भी वरुण का वही गुण वंशानुगत प्रविष्ट कर गया एवं नंदु भी दिमाग से जितना अच्छा था, व्यावहारिकता में उतना ही बच्चा था। इसकी टीचर अक्सर कहती यह जितना कुशाग्र है उतना ही भोला भी है, इसे कोई भी बहका सकता है। 

इसकी टीचर ने ठीक ही कहा था। मुझे याद है मैं, दिल से, उसके टिफिन में जाने क्या-क्या बनाकर रखती लेकिन यह अक्सर दूसरे बच्चों को खिला आता। मैं खाक हो जाती। कान उमेड़कर पूछती, ‘तू साधु बाबा है क्या ?’ तब यह भोला-सा मुंह बनाकर उत्तर देता, ‘मम्मी मेरे दोस्तों की मम्मियां बहुत खराब खाना बनाती है। मेरे सभी दोस्त आपके खाने पर लपकते हैं।’ मेरा क्रोध काफूर हो जाता। मैं उसे गोद में भर लेती। वात्सल्य स्त्री की सबसे बड़ी कमजोरी होती है।  उम्र बढ़ने के साथ भी उसकी इस आदत में तब्दीली नहीं हुई । दुनिया में सब कुछ बदलता है, स्वभाव नहीं बदलता। नसीहत भी अक्लमंद ही कुबूल करते हैं। एक बार मैंने तीन माह थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर इसके लिए हल्के नीले रंग का काॅलर वाला टी-शर्ट बनाया। इसके लिए मैं स्पेशल, कीमती ऊन के गोले लाई। इसे टीशर्ट पहनाया तो यह खिल उठा। नंदु से अधिक खुशी मेरी आंखों में थी। इसके गोरे रंग, बड़ी आंखें, तीखे नक्श पर स्वेटर फब रहा था। तब यह आठवीं जमात में था। स्कूल में दूसरे ही दिन इसके एक सहपाठी ने उससे यह स्वेटर उतरवा लिया, ‘नंदु! यह स्वेटर मुझे दे दो। बेहद खूबसूरत है।’ इतना कहते ही इसने खडे़-खड़े स्वेटर उतारकर उसे दे दिया। मैं इससे दो दिन तक नहीं बोली पर बाद में जाने कैसे इसने मुझे लुभा लिया। प्रशंसा उसकी कमजोरी थी साथ ही प्रशंसा करने में वह पारंगत भी था। बाद में उसकी यह आदतें परवान चढ़ती गई। अनेक बार खुद का छोड़ दूसरे बच्चों तक का होमवर्क कर देता। इसका दिमाग उस कच्ची मिट्टी की तरह था जिसे जो जैसे चाहता, प्रयुक्त करता। 

बाहरवीं बोर्ड में यह पूरी क्लास में अव्वल था। इंजिनियरिंग प्रथम वर्ष में यह एक सहपाठिन के चक्कर में फंस गया। मैंने प्रयास कर वहां से निजात दिलाई तो बाद में उकसावे में आकर सिगरेट यहां तक कि कई बार शराब तक पीकर घर आने लगा। जीवन के चिर एकाकीपन, कारोबारी थकान, तिस पर नंदु के यह तेवर अब मुझे भी कमजोर करने लगे थे। इन दिनों में चुप रहती। उसे बस तीखी आंखों से देख भर लेती। जो आंख की भाषा नहीं समझता वह मुंह की भाषा क्योंकर समझता? जो बहरे न होकर भी बहरे एवं अंधे न होकर भी अंधा होने के कार्य करते हैं, उन्हें कैसे समझाया जाय ? यह था भी तो अकेला एवं मैं मजबूर विधवा। करके भी क्या करती? मेरी हालत एक ही आंख एवं वह भी दूखनी जैसी थी। मैं हार गई। 

इंजिनियरिंग फाईनल में आते एवं इन्हीं आदतों के चलते जाने कब इसकी मुलाकात ‘कोबरा’ गैंग के कुछ लोगों से हो गई। यह गैंग अफीम, स्मैक एवं अन्य नशीले पदार्थों की तस्करी के लिए बदनाम थी। अखबारों में आए दिन इस गैंग के लोगों के पकड़े जाने की खबरें होती। 

मुझे इसका पता बहुत बाद में चला। मैं मानती हूं यौवन में धन कमाने का नशा होता है पर यही वह समय भी होता है जब गलत दिशा मिलते ही युवक का सर्वस्व छिन जाता है। 

एक बार कपडे़ वाशिंग मशीन में डालते हुए मैने इसकी जेब में एक लाख का पैकेट देखा तो मैं चौकन्नी हुई। इतनी बड़ी रकम यह कहां से लाया ? मैं ऊपर से नीचे तक सिहर उठी। उस दिन मेरा रोआं-रोआं जल गया। मैंने उसे बुलाकर तीखी आवाज में पूछा ,“नंदु! इतनी बड़ी रकम तुम्हें कहां से मिली है?’’ 

वह सकपका गया। 

“मम्मी ! आजकल में एक बड़े उद्योग की तकनीकी कंसलटेंसी पर जाता हूं, यह रकम वहीं से मिली है।’’ वह बोला। उसकी वाणी का झूठ उसकी आँखों में स्पष्ट दृष्टिगत था। 

“ऐसा कौन-सा उद्योग है जो तुम जैसे नौसीखियों को इतनी रकम देता है?’’ मैं लगभग चीख रही थी। 

“विनीत उद्योग!’ कहते हुए उसकी जीभ लड़खड़ा रही थी। उसके बाद उसने यकायक पैतरा बदला एवं तेज आवाज में बोला, ’मम्मी! आप हद करती हैं। आपको मुझ पर विश्वास नहीं है?’’ इतना कहकर वह अपने कमरे में चला गया। 

मेरे पास मौन रहने के अतिरिक्त अब अन्य कोई विकल्प नहीं था। मन में आशंकाओं के बादल उमड़ने लगे थे। दूसरे दिन मैंने इस बात की सच्चाई का पता लगाने के लिए मेरे एक विश्वासपात्र व्यापारी को विनीत उद्योग भेजा तो यह खबर सर्वथा झूठ निकली।  

अब मैं उसका कमरा नित्य तलाशने लगी। यह कयामत के दिन थे। इन्हीं दिनों मेरे हाथ एक किलो का एक पैकेट मिला। उसे सूंघा तो मुझे शक हुआ। मैंने फिर उसी विश्वासपात्र व्यापारी को विश्वास में लेकर पैकेट बताया तो वे तुरन्त भांप गए। यह नशीली स्मैक का पैकेट था। मेरी रूह कांप गई। मैंने तुरन्त उस पैकेट को घर के पिछवाड़े कचरे के ढेर पर फेंक दिया। रात नंदु उस पैकेट को बैचेनी से ढूंढता रहा, मुझे भी पूछा पर मैं मुकुर गई। अब किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल धड़कने लगा। 

एक शाम यह घर पर एक भारी, काले रंग का सूटकेस लेकर आया एवं सीधा अपने कमरे में चला गया। मैं पहले से चौकन्नी थी। मैंने इससे पूछा तो यह इसमें आवश्यक व्यावसायिक पेपर्स रखे होने की बात कर हकीकत से मुकुर गया। वस्तुतः यह बैग स्मैक से भरा था। नंदु ने जब कहा कि वह आज ही आठ बजे राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली जा रहा है तो मैं कुछ न बोली।

इसी दरमियां बहुत कुछ भी तो घट गया ? क्या घट गया … ?

रात, गुपचुप, मैं, उसी ट्रेन में चढ गई। अब मुझे कौन रोक सकता था ? नंदु एवं उसके साथियों को भनक तक नहीं लगी। अलसुबह ट्रेन पहुंचने के मात्र एक घण्टे पूर्व मैंने उस बैग को उठाया, गेट तक आई एवं बीच रास्ते में आने वाले एक बड़े नाले में फेंक दिया। बैग छपाक से गिरा एवं जाने कब पानी में डूब गया। 

ट्रेन अब दिल्ली पहुंचने वाली थी। सुबह सात बजने को थे। स्टेशन आने के पांच मिनट पूर्व इसके तीनों साथी चकमा देकर पीछे के गेट से चलती ट्रेन से ही उतर गये। नंदु अकेला रह गया। वह संभलता तब तक ट्रेन दिल्ली प्लेटफार्म पर पहुंच गई। पुलिस ने नंदु एवं एक-एक यात्री की कड़ी तलाशी ली। लेकिन वहां क्या था ? कुछ होता तो मिलता। 

नंदु चकित था। आखिर इतना बड़ा बैग कब, किसने पार कर लिया ? 

इस घटना के बाद नंदु के औसान जाते रहे, आंखों की धुंध छंट गई। वह रह-रहकर मुझे याद करने लगा। उसकी आंखों में आंसुओं की लड़ी लग गई। उसकी आत्मा आज एक अभिनव बोध से स्फुरित हो गई। वह मन ही मन कहने लगा था, मां! क्षमा करना। अब ऐसा हरगिज नहीं होगा। ओह! मैं अपनी परम हितैषी मां का मन भी नहीं पढ़ पाया। उसने कितनी बार, किस-किस तरीके से नहीं समझाया, लेकिन, मैं गफलत की नींद सोता रहा। अब मैं तुम्हें कभी दुःख नहीं दूंगा। सदैव तुम्हारा कहा मानूंगा।’ उसकी आंखों में प्रायश्चित के आंसू तथा हृदय में एक नया संकल्प था। 

बस! नंदु को मैं ऐसा ही तो बनाना चाहती थी। 

नंदु दिल्ली स्टेशन से बाहर आया ही था कि उसके मोबाईल की घण्टी बजी। समाचार जानकर उसका चेहरा उतर गया। भला ऐसी गंभीर सूचना क्या थी ? 

बिना रिजर्वेशन मैं नंदु की ट्रेन एवं फिर उसके कोच में कैसे पहुंची ? मुझे किसी ने देखा क्यों नहीं ? गाड़ी चलने के तीन घण्टे पश्चात भी मैंने उस ट्रेन को कैसे पकड़ लिया ? नंदु पर पुनः पुनः नजर रखते हुए भी उसे नजर क्यों नहीं आई ?

वस्तुतः रात नंदु के जाने के बाद करीब दस बजे मेरे दरवाजे की घण्टी बजी। मैंने डरते हुए दरवाजा खोला तो एक नकाबपोश गुण्डा सीधा अंदर चला आया। मैं कुछ कहती उसके पहले वह बोला, ’’तुमने हमारा राज़ जान लिया है। कल ही हमारे खबरी को तुम्हारा पीछे फेंका पैकेट मिल गया था। हमारा राज जानने वालों को सिर्फ एक सजा है…।’’

तभी वहां दो गोलियों की आवाज गूंजी एवं नकाब पोश वहां से गायब हो गया। 

बरामदे में मेरी लाश बिछी थी। पड़ौसियों ने तुरत सूचना दी तो पुलिस मात्र दस मिनट में आ गई। पुलिस ने कमरे की जांच कर लाश पोस्टमार्टम हेतु भिजवाई। 

मैं यह सब देख रही थी पर अब मैं अदृश्य थी।

मेरा सारा ध्यान फिर नंदु पर था। पलक झपकते मैं उस कोच में पहुंच गई जिसमें नंदु अपने साथियों के साथ दिल्ली जा रहा था। ट्रेन को जोधपुर छोड़े अब तक तीन घण्टे बीत चुके थे। मेरे लिए अब यह कौन-सी दूरी थी ? मैं तो समय की सभी सीमाओं को लांघ चुकी थी। 

रात शराब पीने के बाद जब सब सो गए तो मैं नंदु के समीप गई एवं उसे जी भरकर देखती रही। ओह! मेरे प्यारे नंदु! तुम्हें अब अकेला जीना होगा। मैं तो कल सुबह तुमसे रुखसत ले लूंगी। 

तभी मेरी नजर वहीं नीचे रखे काले बैग पर गई।

मैंने क्षणभर में उसे बचाने की योजना बना ली। 

मेरी रूह मानो चीख-चीख कर कह रही थी, ’नंदु! तुम चिंता न करो! अभी मैं जिंदा हूं…… हां मैं जिंदा हूं… जिंदा होती है मां मरकर भी… जीती है काल की परिधियों से परे भी वह अपनी संतानों के लिए… जीवन सीमाओं के आगे भी संग होती है अपनी औलादों के … क्योंकि … जगत में मां मर सकती है, ममता नहीं। 

दिनांक 30.01.2015

………………………………………………

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *